राजाओं महाराजाओं को ऋषि दयानंद द्वारा उपदेश

राजाओ, जमींदारो को उपदेश 


इस बीच अंग्रेज अधिकारी बहुत सतर्क हो गए हैं 'स्वामी दयानंद सरस्वती' के नाम पर अंग्रेजों के व उनके समर्थकों के कान खड़े हो जा रहे हैं। स्वामी जी देश भ्रमण के साथ साथ देशभक्तों की श्रृंखला खड़ा करते जा रहे हैं सभी राजाओं को यह आभाष था कि वे कोई साधारण स्वामी जी नहीं है वे अपने प्रवचनों में "सेनानी पुष्यमित्र शुंग, सम्राट विक्रमादित्य और बप्पा रावल" की कथाओं का भी उद्धरण दिया करते थे जिससे हिन्दू समाज में स्वाभिमान पैदा करने का प्रयत्न करते रहते थे नवजवानों का एक ग्रुप धीरे धीरे खड़ा हो रहा था। अब स्वामी जी भारतवर्ष के राजाओं के यहाँ संपर्क और उन्हें स्वाधीनता के लिए प्रेरित करने का प्रयास इसलिए इस समय एक ओर जहाँ आध्यात्मिक विषयो पर प्रवचन, वेदों की सार्थकता पर शास्त्रार्थ वहीं दूसरी ओर राजाओं, महाराजाओं तथा बड़े-बड़े जमींदारों को ''स्वराज्य'' के लिए प्रेरित करना। देश में दो प्रकार के राजा थे एक अंग्रेजों के समर्थक दूसरे स्वतंत्रता के पक्षधर, स्वामी जी को 'काशी शास्त्रार्थ' में यह समझ में आ चुका था कि यह राजा धार्मिक तो है लेकिन अंग्रेजों के पक्ष का है पुरुषार्थी नहीं है इस कारण वे अब लखनऊ होते हुए लोगों से मिलते 'राजपुताना' की ओर बढ़ रहे थे।
अब वे जुलाई 1878 से जून 1883 तक स्वामी जी क्रमसः रुड़की, अलीगढ़, मेरठ, दिल्ली, अजमेर, पुष्कर, मसूदा, जयपुर, रेवाड़ी, दिल्ली मेरठ, रुड़की देहरादून, जलेसर, मुरादाबाद, बदायूं, बरेली, शाहजहांपुर, लखनऊ, कानपुर, फरुखाबाद, प्रयागराज, मिर्जापुर, दानापुर, काशी, ब्यावर, चित्तौड़गढ़, इंदौर, मुम्बई, उदयपुर तथा शाहपुरा इत्यादि में शास्त्रार्थ, वेदोपदेश करते हुए मिशन को आगे बढाते हुए --! 14 जुलाई 1882 को स्वामी जी को उदयपुर महाराणा का पत्र मिला, पत्र में लिखा था कि "हमने प्रशासक के नाम मियाना, रथ, गाड़ी आदि सवारियों के लिए आज्ञा भेज दी है यथावत प्रबंधन हो जाएगा आप पधारिये"। पत्र प्राप्त होने पर स्वामी जी ने आत्मानंद सरस्वती को भेजा कि वे जाकर सब ब्यवस्था देखे प्रबंध हो गया है कि नहीं पत्र लिखें, फिर स्वामी जी 24 जुलाई को 'चित्तौड़गढ़' पधारे। स्वामी दयानंद सरस्वती जी 'घमेरी नदी' के पश्चिमी तट पर 'ओढ़ी' के महादेव मंदिर में ठहरे, महाराणा ने बिछावन इत्यादि और 'भील कंपनी' का पहरा की ब्यवस्था कर शेष जिम्मेदारी 'उदयलाल पुरोहित' को सौंपी, प्रतिदिन वेदों पर प्रवचन और कुछ शास्त्रार्थ सुनने के लिए सैकड़ों लोग आते, 'कविराजाजी' का आना-जाना आरंभ होने से उदयपुर राज्य के समस्त प्रतिष्ठित सरदार भी आने-जाने लगे, इनमें राव अर्जुन सिंह, भीलवाड़ा के राजा फतेहसिंह, शाहपुरा के राजाधिराज नाहरसिंह, कनौड के राव उम्मेदसिंह और शवड़ी के राजा राजसिंह आदि प्रमुख़ गणमान्य लोग विभिन्न प्रकार की शंका निवारण के लिए आते थे, अब स्वामी जी इनके साथ अलग से 'स्वधर्म और स्वराज्य' की चर्चा करके उनके अंदर स्वतंत्रता की ज्वाला प्रज्वलित करते थे।

नए-नए राजवंश 

स्वामी जी को यह बात ध्यान में थी कि अंग्रेजों ने जो भारतीय शासन ब्यवस्था थी उसी प्रकार से उन्होंने 1857 में जो रजवाड़े अंग्रेजों की ओर थे अथवा निष्क्रिय थे उन पर उन्होंने कोई कार्यवाही न करते हुए जिन राजाओं ने उमरावों व जमींदारों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था या तो वे लड़कर समाप्त हो गए या पुनः स्वतंत्रता की तैयारी में जुटे थे। अंग्रेजों ने इन राजाओं के स्थान पर व अन्य स्थानों पर नए नए राजवंश, जमींदारों को खड़ा करना शुरु किया था, इन सबको लेकर समाज में भी बिद्रोह की भावना अपने-आप पनप रही थी, वैसे पूरे भारतवर्ष में महाराणा मेवाङ के प्रति अशीम श्रद्धा थी स्वामी जी ने मेवाङ में वहां के राजा, राव, जमींदार सभी को ''बप्पा रावल, महाराणा प्रताप, महाराणा कुम्भा, राणा सांगा'' इत्यादि का स्मरण कराके भावना जगाने का काम किया, राजपुताना में अब स्वामी जी बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, सीकर, भरतपुर इत्यादि राजाओं के यहां गए सभी स्थानों पर इस प्रकार की सभाओं का आयोजन किया जाता था। लेकिन जयपुर के राजा ने कहा कि यदि हम अंग्रेजों के साथ हैं तो क्या हम हिन्दू नहीं हो सकते ? इस प्रकार के भी रजवाड़े थे लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती का तो मिशन ही था कि बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता, इसलिए वे राजाओं को एक साधन के रूप में उपयोग करना चाहते थे । क्योंकि राजाओ के प्रति समाज में अटूट श्रद्धा-भक्ति थी यह बात अलग है कि यद्यपि जयपुर घराना धार्मिक था लेकिन काशी नरेश जैसा जिस प्रकार उनकी निष्ठा मुगलों के प्रति थी उसी प्रकार अंग्रेजों के प्रति भी थी इस कारण वहां की जनता राजा के पक्ष में नहीं थी, स्वामी जी नए-नए राजाओं, जमींदारों से मिलते तो थे लेकिन वे उनसे केवल आध्यात्मिक ज्ञान, उपदेश की ही बात करते थे लेकिन जो वार्ता चित्तौड़ में हुई आग के समान राजपुताना के राजाओं में फैल गई।

उदयपुर में यज्ञ

स्वामी दयानंद सरस्वती ने यहाँ एक बड़ा बृहद यज्ञ कराया जो 'नीलकंठ मंदिर' के पास कई दिन तक होता रहा, अच्छे-अच्छे सुगंधित और पुष्टिकारक पदार्थ डाले गए। चारों वेदों के पाठी वहां यज्ञ में उपस्थित थे, अंतिम दिन दरबार भी पधारे थे, पूर्णाहुति महाराणा के हाथ से कराई गई और शेष यज्ञ सबने आहुति दी। दरबार के सदस्यों ने उनकी आज्ञानुसार प्रतिदिन अग्निहोत्र होने की आज्ञा दी, उनके जीते जी बराबर यज्ञ होता रहा।

उदयपुर महाराणा को उपदेश

स्वामी जी से महाराणा मिलने के लिए आये स्वामी दयानंद सरस्वती ने उन्हें उपदेश करते हुए कहा स्वामीजी तो धर्म के साथ राजनीति का भी उपदेश देते थे। आप तो सिंह के समान हैं, पहरे वाली स्त्रियां कन्या के समान हैं, उनको महलों में पहरे पर नहीं रखना चाहिए, दरबार ने उसी दिन निश्चय जान लिया कि केवल यही ऐसे सन्यासी हैं जो बिना लाग-लपेट के सत्योपदेश करते हैं और हृदय से उनके उपदेश को पसंद किया। अच्छे-अच्छे सिद्धांतों से थोड़े काल में राणा जी को परिचित करा दिया, शरीर के रोगादि की शिक्षा, दिनचर्या की शिक्षा लिखकर राणा को दी, प्रातःकाल का भ्रमण, राजनीति, घर का प्रबंध, नमस्ते का प्रयोग, हवन यज्ञ का आरंभ आदि बहुत सी श्रेष्ठ बातों को प्रचलित कराया, स्वामी जी के उपदेश से महाराणा ने अपना जीवन सुधार लिया। बहुविवाह से घृणा हो गई, स्वामी जी वेश्याओं को कुतिया कहते थे और कहते थे इनसे दूर रहो यदि तुमको संगीत अच्छी लगती है, रूचि है तो सामवेद का गायन सुनो और उसकी अच्छी उन्नति करनी चाहिए, परिणाम हुआ कि महाराणा को वेश्याओं से पूर्णतया घृणा हो गई।

मेवाड़ से आगे का भ्रमण

स्वामी जी भारतपुर, ग्वालियर होते हुए 'होल्कर राज्य' में इंदौर पहुचे वहाँ वे एक सप्ताह रुके वास्तव में भरतपुर, ग्वालियर और इन्दौर में स्वामी जी का अद्भुत स्वागत हुआ इन रियासतों में छोटे-छोटे राजा, जागीरदार और जमींदारों के बीच में चित्तौड़ जैसे ही हुआ वहां पर बिना स्वराज्य के स्वधर्म संभव नहीं हो सकता अहिल्याबाई होल्कर, बाजीराव पेशवा और महाराजा सूरजमल भरतपुर का वर्णन किया। किस प्रकार से भरतपुर के राजा ने औरंगजेब को पराजित कर किले का दरवाजा उखाड़ लाये थे जो आज भी भरतपुर में रखा हुआ है स्वामी जी का उपदेश अब काम करना शुरू कर दिया है अब पुनः क्रांतिकारी राष्ट्रवाद ही 'आध्यात्मिक राष्ट्रवाद' है उस ओर बढ़ने लगे।

स्वामीजी ने मुस्लिम होने से बचाया

स्वामी जी अषाढ़ संवत 1938 को कई दिनों तक 'मसूदा राज्य' में रुके रहे वहां स्वामी जी के प्रवचन राजा के महलों में होना प्रारंभ हुआ और निम्नलिखित विषयों पर ब्याख्यान हुए--! धर्म, राजनीति, पुनर्विवाह, सत्यशास्त्र, और मोक्ष इत्यादि, फिर 2-3 दिन वे बाग में आनंद-मंगल होता रहा, वर्षा ऋतु होने के कारण वहां से थोड़ी दूर "सोहन मगरी" की पहाड़ी पर चले गए वहीं रहना स्वीकार किया, रावसाहब ने स्वामी दयानंद सरस्वती की आज्ञा पाकर वहां सब प्रकार का प्रबंध कर दिया । वहाँ रियासत में "ब्यावर क्षेत्र" है उस क्षेत्र में महाराजा पृथ्वीराज चौहान के पतन के पश्चात उनके सेना व अन्य लोगों को बड़ी संख्या में मुसलमान बना दिया गया था लेकिन आज भी वे अपनी हिंदू धर्म की रीति रिवाज को ही मानते थे, दुर्भाग्य यह था कि ये राजपूत वर्ग के लोग उन मुसलमानों के यहां अपनी बेटी का शादी विवाह करते थे क्योंकि यह पुरानी परंपरा थी ये जो मुसलमान हुए थे वे चौहान वंशज थे। वे हिन्दूपन की मूर्खता के कारण हिन्दू क्षत्रिय बेटी तो देते थे लेकिन बेटी लाते नहीं थे, जैसा कि जोधपुर राज्य के शैव प्रदेश के राजपूतों में अभी तक यह प्रथा है, जिससे वहाँ के लोग साधारण तया परिचित हैं, स्वामी जी ने उन्हें बुलाकर समझाया कि ऐसा अनर्थ क्यों करते हो ? जो तुम्हारे धर्म को नहीं मानते उनसे सम्वन्ध करना योग्य नहीं, उनके इस शुभ उपदेश का प्रभाव ऐसा पड़ा कि भविष्य में लाखों लड़कियां मुसलमान होने से बच गई और हिंदू समाज का दिन प्रतिदिन अधिक होने वाला पतन रुक कर उन्नति के लक्षण दिखाई देने लगे।

व्यावर में यज्ञ

'व्यावर' में जब स्वामी जी का इस प्रकार उपदेश हुआ तो बहुत सारे पंडितों ने विरोध शुरू कर दिया उन्हीं लोगों के बीच स्वामी दयानंद जी ने राव नाहरसिंह को बुलाया और उसी क्षेत्र में यज्ञ का आयोजन किया गया। जहाँ स्वामी जी रहते थे यज्ञशाला स्थापित करके हवनकुण्ड बनाया गया 9 अगस्त 1881 को यज्ञ प्रारंभ हो गया स्वामी जी और राव नाहरसिंह दोनों आसान पर बैठे वहीं स्वामी जी ने घोषणा की कि जो लोग यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहते हैं वे अपने आसन पर बैठ जाय, केशर, कस्तूरी से सुवासित क्षीर, घृत का एक एक पात्र सबके समीप रखा गया, जब स्वामी जी वेदमंत्र पढ़कर स्वाहा शब्द उच्चारण करते तब समस्त यज्ञकर्ता आहुति डाल देते, यज्ञोपवीत धारण करने वालों को यज्ञोपवीत देकर गायत्रीमंत्र का उपदेश एक एक के हाथ से पृथक पृथक आहुतियां दिलवाई कुल उस दिन 32 लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया यह सब व्यावर क्षेत्र के थे जिससे उनका मनोबल बढ़ा और पूर्णतया वैदिक संस्कृति को अपनाया, यह वास्तव में उस क्षेत्र में एक अद्भुत कार्य था जो केवल ऋषि दयानंद सरस्वती ही कर सकते थे।