दिग्विजयी ऋषि दयानन्द- भाग-12

स्वामी दयानंद सरस्वती के विरोध का कारण


देश की स्थिति बिकट बनी हुई है ''महाराजा दाहिरसेन'' पर जब 'मुहम्मद बिनकासिम' का हमला हुआ कई बार राजा दाहिर ने उसे मार भगाया, एक बार जब वह पराजित होकर वापस लौट अपने शिविर में आराम कर रहा था तो उसके दरबारियों ने सूचना दिया कि कोई राजा दाहिर का पुरोहित आपसे मिलना चाहता है कासिम को बड़ा झटका लगा और बोला कि ये तो ब्राह्मण है और देशभक्त भी होगा, लेकिन उसके सलाहकारों ने सुझाव दिया कि वे बड़े लालची होते हैं और फिर उसने बुला लिया, पुरोहित ने बताया कि आप जीत जाएंगे उसने पूछा कि कैसे पुरोहित ने बताया कि राजदरबार पर जो झंडा फहराया गया है यदि वह झुक जाता है तो राजा की पराजय हो जाएगी, वह कैसे ? उसने कहा कि पूरे सेना राजा को बताया है कि जबतक यह झंडा फहरता रहेगा तबतक कोई भी ताकत पराजित नहीं कर सकती, बिनकासिम ने पूछा कि वह झंडा कैसे झुकेगा ? पुरोहित ने बताया कि यह काम मैं करूँगा ! सोने की मुहरो से सजी हुई थाल आयी और पुरोहित को देकर बिदा कर दिया। और महाराजा दाहिरसेन की पराजय के साथ भारत की पराजय होना प्रारंभ हो गया फिर क्या था ? कहीं जयचंद कहीं मानसिंहो की परंपरा सी बन गई, इतना ही नहीं 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जो कुछ हुआ वह भी इसी प्रकार से हुआ नहीं तो भारतवर्ष की पराजय कोई सोच भी नहीं सकता था, आखिर यह पुरोहित वर्ग क्या इस्लाम और चर्च के खिलाफ लड़ा उन लोगों ने केवल मूर्ति पूजा का विरोध ही नहीं किया बल्कि हज़ारों लाखों लोगों का बलिदान हुआ! तब यह वर्ग कहाँ था क्यों नहीं सामने आया? जब आज स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस्लामी और ईसाईयत को ललकारा है बौद्धों को उनकी तसवीर दिखाई है कोई भी मुल्ला-मौलबी, विशप-पादरी, कोई भी बौद्ध भिक्षु स्वामीजी के सामने खड़ा होने का साहस नहीं कर सकता था, आखिर स्वामी जी तो वेदों की ही प्रामाणिक मानते हैं वेद ईश्वरीय ज्ञान है और साथ-साथ स्वराज्य की बात तो क्या कष्ट होता है इन्हें ? वास्तविकता यह है कि वे स्वामी दयानंद सरस्वती का विरोध कहीं न कहीं प्रायोजित है, इनके विरोध में सभी लोग एक हैं, यह उसी प्रकार है जैसे महाराणा प्रताप के साथ कोई भी राजा, जागीरदार लड़ने नहीं आये यहाँ तक कि लगभग पंद्रह से बीस हजार सिसौदिया भी मानसिंह की ओर से अकबर के पक्ष में लड़ रहा था, ठीक उसी प्रकार की परिस्थिति है सभी अंग्रेजों की चाकरी में लगा है सभी अपने को अंग्रेजों के प्रति वफादार होने का प्रमाण देना चाहते हैं वह कैसे ? इस समय तो स्वराज्य व स्वधर्म की बात तो केवल दयानन्द सरस्वती ही कर रहे हैं जो इनका बिरोध करेगा वह अंग्रेजों का विस्वासपात्र होगा।

सर्वाङ्ग स्वतंत्रता

स्वामी जी सर्वाङ्ग स्वतंत्रता के पक्षधर थे वे अनुभव करते थे कि वैचारिक गुलामी तो बौद्ध काल से आयी उन्होंने भारतीय संस्कृति की जड़ को समाप्त करने में कोई कोर कसर नहीं बाकी रखा लेकिन भारतवर्ष सौभाग्यशाली देश होने के कारण वैदिक ''आचार्य कुमारिल भट्ट'' और सुदूर दक्षिण में एक आचार्य जिन्हें ''आदि जगद्गुरु शंकराचार्य'' के नाम से जाना जाता है, उनके अथक परिश्रम और तर्क शैली से इन्हें उखाड़ फेंका, लेकिन दुर्भाग्य साथ नहीं छोड़ा ''सम्राट अशोक'' ने पुनः भारतीय संस्कृति को समाप्त करने में कोई कसर बाकी नहीं रखा उसने तो सारे ग्रंथों को, स्मृतियों को तीर्थ स्थानों को सभी हिंदुत्व के चिन्हों को समाप्त करने का प्रयत्न ही नहीं किया तो परकियो के हमले शुरू हो गए मगध साम्राज्य जिसे भारत सम्राट कहा जाता है जिसकी राजधानी 'पाटलिपुत्र' थी 'सेना विहीन' भारत 'श्रीहीन' भारत! लेकिन फिर मगध साम्राज्य का सेनापति ''सेनानी पुष्यमित्र शुंग'' ने राजा का वध कर राजसिंहासन पर बैठा और पुनः स्वराज्य और स्वधर्म का पालन शुरू हो गया सारे ग्रन्थों को गुरुकुलों, श्रुति पर आधारित होने के कारण सब पुनः स्थापित किया गया, ''सम्राट विक्रमादित्य'' ने सभी तीर्थों का पुनर्निर्माण व स्थापित कराया स्वामी जी कहते हैं कि हजार वर्ष के संघर्ष में हमने देश व धर्म के रक्षार्थ कुछ ग्रहण किया कुछ छूट भी गया, हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की पूजा छोड़कर उसके गुणों की ही पूजा अर्चना करने शुरू कर दिया वेदों में ब्रम्हा जी का वर्णन है वह परमात्मा का एक गुण है, हमने विष्णुजी की पूजा करने शुरू किया जबकि वह भी परमेश्वर के एक गुण का नाम है इसी प्रकार शिव जी है तो वह भी वेदों में जो वर्णन है ईश्वर के एक गुण का नाम है, लेकिन अब साहस के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है वेद जो हमारी एकता का प्रमाण है आइये हम वेदों की ओर लौटे और इस परकीय सत्ता को उखाड़ कर फेंके।

ईसाई होते होते बचा

एक दिन स्वामी जी बैठे हैं एक पादरी वेरी आते हैं बहुत सारे चर्चा के क्रम में पादरी कहते हैं कि लोग कृष्ण लीला की बात करते हैं लेकिन बुद्धि नहीं मानती स्वामी जी ने उत्तर दिया--"ये लीलाएं मिथ्या और कल्पित हैं परंतु बुद्धि के न मानने के विषय मे क्या कहा जाये ? आपकी बुद्धि जब वह स्वीकार कर लेती है कि परमेश्वर की आत्मा कबूतर के रूप में एक मनुष्य पर उतरी तो कृष्ण की लीलायें स्वीकार करने में क्या कठिनाई है?" तत्पश्चात स्वामी जी ने पादरी को बहुत सी बातें बताई जो असम्भव और कल्पित होने पर भी ईसाईयों द्वारा सत्य मानी जाती है, पादरी के चले जाने पर एक ब्यक्ति स्वामी जी के चरणों को पकड़ कर बोला-- "महराज ! आज आपने मुझे ईसाई होने से बचा लिया, आपकी बातों ने मेरी आँखें खोल दी है, ईसाई मत की वास्तविकता को दर्शा दिया है।" परिचय पूछने पर उसने अपना नाम रामशरण बताया, मैं मिशन स्कूल में अध्यापक हूँ पादरियों ने ईसाई धर्म की प्रसंशा करके मुझे ईसाई मत स्वीकार करने के लिए तैयार कर लिया था, परसों रविवार को बपतिस्मा देने वाले थे, परंतु अपने मुझे अपने धर्म के सत्यार्थ का प्रकाश देकर बचा लिया।

ग्रंथों की रचना

स्वामी दयानंद सरस्वती ने जहाँ ग्रंथो के रचना की आवश्यकता पर ध्यान दिया वहीं अब वे हिन्दू समाज के संगठन की उपेक्षा नहीं कर सकते थे, वे समग्र हिंदू समाज को सुशिक्षित और चेतनसंपन्न बनाना चाहते थे प्रत्येक हिंदू राष्ट्रभक्त हो, सुसंस्कारित हो इसके लिए साहित्य और संगठन दोनों जरूरी है, इसलिए स्वामी जी अपने प्रवासक्रम मे ग्रंथों (साहित्यों) की रचना शुरू कियाऔर स्थान-स्थान पर 'धर्म रक्षणी सभा' का गठन शुरू किया। उन्होंने बहुत सारे शास्त्रार्थ तथा खंडन-मण्डन इत्यादि की छोटी-छोटी कई प्रकार की पुस्तकें प्रकाशित किया जिसमें कुछ प्रमुख है स्वामी जी की जो वैचारिक निधि के रूप में हम जान सकते हैं वह स्वामी दयानंद सरस्वती की सम्पूर्ण मानवता को अद्वितीय भेंट है उसकी कुछ झलक हम नीचे लिख रहे हैं जो इस प्रकार है।

सत्यार्थप्रकाश

इस पुस्तक को लिखने का अभिप्राय यह था कि मूल 'मानव धर्म' क्या है ? सम्पूर्ण जगत के सामने आ सके, विभिन्न सम्प्रदायों का परिचय और स्वधर्म का बोध हो इसके लिए सितंबर 1874ई में स्वामी जी ने लिखवाया और 1875 में 'स्टार प्रेस' बनारस में 'राजा जयकिशनदास' साहब बहादुर के सहयोग से प्रकाशित किया गया, 'सत्यार्थप्रकाश' पहले पाँच सौ से अधिक पृष्ठों का लिखा गया था, परंतु वैदिक धर्म का सिद्धांत और मोहम्मदी तथा इसाई मत का वृत्तांत कुछ कारणों से पहली बार प्रकाशित नहीं हो पाया इसलिए बाद में 407 पृष्ठ का पहली बार एक हजार प्रति प्रकाशित किया, 12 दिसंबर 1882 को सम्पूर्ण शुद्धि करके स्वामी जी ने 'प्रयाग प्रेस' से दो हजार प्रति छपवाया, लोगों की प्रतिक्रिया इस प्रकार थी ! यह ग्रंथ धार्मिक ज्ञान का भंडार, विद्या संबंधी खोज का कोष, वैदिक धर्म का जंगी पत्रिका है, जिसने एक बार उसे पूर्णतया समझ कर विवेक पूर्वक पढ़ लिया फिर सम्भव नहीं कि कभी वैदिक धर्म से दूर जा सके, ''सत्यार्थप्रकाश'' स्वामी जी का धार्मिक विजय का ''स्मृतिस्तम्भ'' है, हम अपने दावे से कह सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क को सत्यार्थप्रकाश बहुत सी नवीन बातें सिखलाता है। "अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रम्हा जी से लेकर जैमिनी मुनी पर्यंतो के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ है, जिनको कि मैं भी मानता हूँ, सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ मैं अपना मंतब्य उसी को जनता हूँ कि तीन काल में सबको एक समान मानने योग्य है, मेरा कोई नवीन कल्पना व मत-मतांतर चलाने का लेश मात्र भी अभिप्राय नहीं है।" (सत्यार्थ. स्वमंतव्यामन्तव्य)

महर्षि दयानंद सरस्वती का मन

सत्यार्थप्रकाश लिखते समय महर्षि के मन में जो विचार आये होंगे उनका अनुमान 'पंडित गुरूदत्त जी' के अनुसार इस प्रकार उनकी प्रतिज्ञा प्रकट हो सकता है जिसमें वह महान इक्षा अथवा प्रार्थना का हमें दर्शन करा रहे हैं, योगीराज के अतिरिक्त और कोई मनुष्य इस मंत्र का उच्चारण अपनी दशा पर कर सकता है ? इसमें वे ईश्वर से प्रतिज्ञा करते हैं "हे परमात्मा! आप ही अंतर्यामी रूप से प्रत्यक्ष ब्रम्ह हो, मैं आपको प्रत्यक्ष ब्रम्हा कहूँगा क्योंकि आप सब स्थानों पर ब्याप्त हैं सबको नित्य प्राप्त हैं, जो जो आपकी देवस्थ यथार्थ आज्ञा है, उसी को मैं सबके लिए उपदेश और आचरण भी करूँगा, सत्य बोलूँ, सत्य मानू, और सत्य करूँगा, सो आप मेरी रक्षा कीजिये, सो आप मुझ आप्त सत्यवक्ता की रक्षा कीजिये जिससे आपकी आज्ञा में मेरी बुद्धि स्थिर होकर बिरोध कभी न हो, क्योंकि जो आपकी आज्ञा है वही धर्म और जो उसके विरुद्ध वही अधर्म है, धर्म से सुनिश्चित और अधर्म से घृणा सदा करूँ, ऐसी कृपा मुझ पर कीजिए, मैं आपका बड़ा उपकार मानूँगा।" इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने ईश्वर आज्ञा पालन के लिए सत्योपदेश के काम को धारण किया था और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथ की रचना की।

प्रथम समुल्लास

प्रथम समुल्लास में ऋषि ने ईश्वर के नामों की ब्याख्या किया है जिसके आज्ञापालन के लिए उन्होंने अपने आप को अर्पित कर दिया, "ओउम" परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम बतलाते हुए, ओउम की 'अ' कार-मात्रा को विराट, अग्नि, विश्व, 'उकार' को हिरण्यगर्भ, वायु, तैजस: 'मकार' को ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ का वाचक बतलाया है, देव, कुबेर, पृथ्वी, आकाश, वसु, रुद्र, जल, चंद्र, विष्णु, ब्रम्हा, यज्ञ, गुरु, अज़, देवी, निरंजन, आदि नामकरण की रीति से ईश्वर के ही बतलाते हुए वह पौराणिक लोगों के मंगलाचरण के मनमाने ढंग का खंडन करते हुए वेद, उपनिषद और दर्शन शास्त्रों के प्राचीन ढ़ंग को इन शब्दों में बतलाया है।

दूसरा समुल्लास

प्राचीन ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण के प्रमाण से इस समुल्लास में स्वामी जी यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य के तीन शिक्षक होते हैं, माता- पिता और आचार्य, "माता-पिता आचार्य अपने संतान और शिष्यों को सदा सत्योपदेश करे और यह भी कहें कि जो-जो हमारे धर्म युक्त कर्म हैं उन-उन को ग्रहण करें और जो-जो दुष्ट कर्म हों, उनका त्याग कर दिया करो।"

तीसरा समुल्लास

तीसरे समुल्लास में स्वामी दयानंद सरस्वती ने ब्रम्हचर्य का स्वरूप, पठन-पाठन की व्यवस्था, प्राणायाम की विधि सत्यासत्य ग्रंथों के नाम और पढ़ने की रीति-नीति, संध्योपासना करना चाहिए लिखते हैं- कम से कम एक घंटे ध्यान अवश्य करना चाहिए, जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही संध्योपासना भी किया करें।" दैनिक हवन, तीन प्रकार के ब्रम्हचर्य छान्दोग्योपनिषद के लेखानुसार ब्रम्हचर्य के तीन प्रकार का वर्णन मिलता है प्रथम 24 वर्ष तक दूसरा 44 वर्ष और तीसरा 48 वर्ष तक ब्रम्हचर्य धारण किया जाता है, ब्रम्हचर्य पूर्ण रीति से करने वाले अपनी आयु चार सौ वर्ष तक कर सकते हैं।

चौथा समुल्लास

चौथे समुल्लास में ऋषि ने प्राचीन मर्यादा अनुसार दूर देशों में विवाह करने का लाभ बताते हुए आठ प्रकार के विवाह का वर्णन 'महर्षि मनु' के वचनानुसार अत्यंत श्रेष्ठता से किया है, वर्ण व्यवस्था को गुणकर्मानुसार होना बताया है जिसमें ब्राह्मण को पठन-पाठन, यज्ञ करना-कराना, दान देना लेना, कर्म बताया गया है, क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण इसी प्रकार वैश्य और शूद्र वर्ग के पृथक पृथक गुण कर्म का वर्णन किया है।

पांचवा समुल्लास

पाचवे समुल्लास में महर्षि ने वर्णाश्रम धर्म का महत्व वेदोक्त पूर्ण वर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है जिसमें वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का वर्णन है।

छठा समुल्लास

छठे समुल्लास में राजधर्म का वर्णन किया गया है प्रारंभ से ही महर्षि विद्यार्यसभा, धर्मार्यसभा, राजार्यासभा का वर्णन करते हुए, राजार्यासभा के सभापति का नाम राजा बताया गया है, प्राचीन काल में जब शूद्र गुणकर्म से ब्राह्मण और ब्राह्मण का लड़का गुणकर्म से क्रियात्मक रूप से शूद्र निश्चित किया जाता था, इस समुल्लास में दंड, राजकर्तब्य, राजाओं के ब्यसन, मंत्री, दूत आदि राजपुरुषों के लक्षण, युद्ध, न्याय, कर, साक्षी आदि अनेक विषयों को 'महर्षि मनु' के वचनों में अति उत्तमता से वर्णन करते हुए 'पृथ्वी' को प्राचीन पूर्ण राज्य का आदर्श दिखा दिया है।

सातवाँ समुल्लास

इस समुल्लास में स्वामी जी ने ईश्वर और वेद के विषय में वर्णन किया है, प्रार्थना का अर्थ है शुभ संकल्प, स्वामी जी लिखते हैं,"मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान व्यवहार में आचरण करना चाहिए।"

आठवाँ समुल्लास

महर्षि दयानंद ने आठवे समुल्लास में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का विषय है, स्वामी जी ने नास्तिकों का जबरदस्त खंडन किया है, वेदोक्त प्रमाणों से ईश्वर की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकर्ता सिद्ध करते हुए ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों पदार्थों को अनादि बताते हुए अनेक प्रकार की नास्तिक युक्तियों का खंडन करते हैं, यूरोप के विद्वान सृष्टि उत्पत्ति के विषय को जानने के लिए अंधेरे में हाथ-पैर मार रहे हैं, परंतु इसमें स्वामी जी ने अंधकार का निवारण किया है और संतोषजनक उत्तर देते हुए वेदशास्त्रों की महिमा का बोधन करा रहे हैं।

नवां समुल्लास

इसमें स्वामी जी ने विद्या, अविद्या और मोक्ष का वर्णन किया है, 'पंडित गुरूदत्त' कहते थे "यदि सत्यार्थप्रकाश का मूल्य हज़ार रुपये होता तो मैं उसे अपनी सब जायदात बेचकर खरीदता, मैं जिधर देखता हूं उधर ही 'सत्यार्थप्रकाश' में वह वह विद्या भरी पड़ीं है, मैंने सत्यार्थप्रकाश ग्यारह बार पढ़ी है।"

दसवाँ समुल्लास

इस समुल्लास में 'महर्षि दयानंद' ने आचार-अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य का वर्णन किया है, "मनुष्य को इंद्रियचित्त हरण करने वाले विषयों में प्रवृत्त कराती है, उनको रोकने का प्रयत्न करना चाहिए, जैसे घोड़े को सारथी रोककर शुद्ध मार्ग पर चलाता है उसी प्रकार इंद्रियों को अपने बस में करके अधर्म मार्ग से हटाकर धर्म मार्ग में सदा चलाया करे।"

ग्यारहवां समुल्लास

इस समुल्लास में दयानन्द जी ने नवीन मतांतरण जैसे वाममार्ग, नवीन वेदांत, भस्म, रुद्राक्ष, तिलक, वैष्णव संप्रदाय, गयाश्राद्ध, बहुत से तीर्थ, गुरु माहात्म्य, अट्ठारह पुराण, प्रत्येक गुरु के अपने-अपने मत सब मतों का श्रेष्ठता से खंडन किया है, जिन रोगों से आर्यावर्त गिरते-गिरते वर्तमान दुर्दशा को पहुंच गया है, उन रोंगो की पूर्ण ब्याख्या इस समुल्लास में करते हुए आर्यावर्त को वैदिक सत्य सिद्धांतों के परम बल से उठने का मार्ग प्रसस्त कर रहे हैं।

बारहवां समुल्लास

बाहरवें समुल्लास में चार्वाक, बौद्ध और जैनमत का विषय है, प्रकृति पूजन चार्वाक की युक्तियों का खंडन करते हुए सृष्टि करता परमात्मा की सत्ता को सिद्ध करने के पश्चात बौद्धमत और जैनमत का खंडन किया है और इस भयंकर नास्तिक पन से बचाने के लिए महर्षि का पुरुषार्थ इस समुल्लास में विद्यमान हैं।

तेरहवां समुल्लास

तेरहवें समुल्लास में इसाई मत का विषय है वे अंत में लिखते हैं-- "अब कहाँ तक लिखे इनकी बाइबिल में लाखों बातें खण्डनीय हैं यह तो थोड़ा सा चिन्ह मात्र ईसाईयों के 'बाइबिल' पुस्तक का दिखाया है इतने से ही बुद्धिमान लोग बहुत समझ लेंगे, बाइबिल पुस्तक भी माननीय नहीं हो सकती किन्तु वह सत्य तो वेदों के स्वीकार में गृहीत होता है।

चौदहवां समुल्लास

इस समुल्लास में महर्षि ने इस्लाम मत के बारे में लिखा है वे इसके समाप्ति पर लिखते हैं-- "अब इस कुरान के विषय को लिखकर बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूँ कि यह पुस्तक कैसी है ? मुझसे पूछो तो यह किताब न ईश्वर, न विद्वान की बनाई और न विद्या हो सकता है, यह तो बहुत थोड़ा सा प्रकट किया इसलिए कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गवाएं।

संस्कार विधि

यह पुस्तक हिंदू धर्म द्वारा मनुष्य को संस्कारित करने की विधि है जिसे हम धर्म कहते हैं जो संस्कार सम्पन्न करने के लिए बनाई गई है जिसका प्रत्येक मनुष्य से संबंध है, 'वैदिक संस्कृति' में 'सोलह' संस्कारों को बनाया गया है जो गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यंत करने योग्य है, इसके अध्ययन से प्रकट होता है कि प्राचीन ऋषियों ने किस प्रकार अपनी जीवन यात्रा को संस्कारमय पूरा करते थे, यह ग्रंथ स्वामी जी ने ऋषियों-मुनियों की रीति से पूर्ण संस्कार संबंधी पुस्तकों से संग्रह करके बनाया गया है, इस ग्रंथ की आवश्यकता प्रत्येक गृहस्थ के घर में है, स्वामी जी के रहते इसकी तीन संस्करण प्रकाशित होने से इसकी लोकप्रियता ध्यान में आ सकती है। अंग्रेजी अखबार "इंडियन मिरर" -- कलकत्ता ने 'संस्कारविधि' की समीक्षा प्रकाशित किया--! "पंडित दयानन्द सरस्वती जी ने मूल वेदों में से संस्कारों की एक पुस्तक तैयार की है ताकि जो लोग अपने घरेलू संस्कारों और जाति की प्रथाओं को वर्तमान मूर्ति पूजा की रीति से नहीं करना चाहते वे इस पुस्तक के अनुसार कर सकें, ये पंडित जी वास्तव में पूर्ण हृदय से मूर्ति पूजा को दूर करने में तत्पर हैं, इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए जो प्रयत्न और आत्मबलिदान वे कर रहे हैं वह निःसंदेह प्रत्येक जाती के अनुकरण करने योग्य है, हमको सूचना मिली है कि हरिश्चंद्र चिंतामणि मुम्बई वाले ने अपने पिता का अंतिम संस्कार उस विद्वान पंडित की बताई हुई वैदिक रीति के अनुसार किया है"।

ऋग्वेदभाष्यभूमिका

यह ग्रंथ 'वेदभाष्य' की भूमिका है, स्वामी दयानंद जी इसमें पूर्ण विद्वता और श्रेष्ठता के साथ वैदिक धर्म संबंधी समस्त शंकाओं और झूठी भ्रांतियों का प्रबल खंडन किया है, स्वामी जी ने 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' भादों शुक्ल संवत 1933 रविवार तदनुसार 20 अगस्त 1876 को आरंभ करके संवत 1935 को समाप्त किया 'लाजरस प्रेस' काशी में 276 पृष्ठों में प्रकाशित की गई, इस विस्तृत भूमिका के बनाने का महर्षि दयानंद का यह भी प्रयोजन  था कि वेद विषयक जो भी पौराणिक मिथ्या मान्यताएं फैली हुई है, जिनके कारण पाश्चात्य विद्वानों को ही नहीं, अपितु कतिपय भारतीय विद्वानों को भी वेदों के बारे में मिथ्या-भ्रम हो गया है, जिससे वेदों का गौरव ही कम नही हुआ, किन्तु वेद सत्य विद्यायों की पुस्तक है अथवा ईश्वरप्रोक्त है, इसमें भी लोगों को भ्रांति हो गई है महर्षि दयानंद की इस भूमिका से जहाँ मिथ्या मतों की पोल खुली है, वहीं सत्यार्थ का प्रकाश होने से सत्यासत्य का निर्णय भी पाठक कर सकते हैं। उच्चकोटि की विद्या संबंधी योग्यता की पुस्तक आद्योपांत पठनीय है, इसपर मुंशी कन्हैयालाल साहब ने निम्नलिखित समीक्षा की है।

 वेदों के रहस्य और शास्त्र में लिखित गाथाओ के सम्बंध में

1- 'प्रजापति' सूर्य का नाम है, गाथा लेखक ने 'ऊषा' देवता को उसकी कन्या कल्पित किया है, देवता का अर्थ प्रकाशस्वरूप है: उषा का अर्थ प्रातःकाल है, सूर्य ने किरणों द्वारा अपना प्रकाश डाला; उसको 'वीर्य' कल्पना किया है उससे दिन अर्थात आदित्य उत्पन्न हुआ।
2- पर्यन्त अर्थात 'बादल' को पिता बताया है और 'पृथ्वी' को कन्या जब-जब बादल ने पृथ्वी पर जल बरसाया तो उसको 'वीर्य' कहा, उससे कृषि और अन्य पदार्थ उतपन्न हुए, इस उपमा को मूर्खो ने विरुद्ध लिखकर प्रसिद्ध किया जिसमें दोष लगता है।
3- ''इंद्र'' ने 'गौतम' की पत्नी 'अहिल्या' से भोग किया, इस गाथा में इन्द्र 'सूर्य' का नाम और गौतम 'चंद्रमा' का नाम है; और 'रात्रि' का नाम अहिल्या है क्योंकि अभ्र नाम दिन का है और वह रात्रि में लय अर्थात लुप्त हो जाता है, मानो यह भी एक प्रकार का स्त्री-पुरूष का संयोग है, रात्रि का मित्र सूर्य है क्योंकि वह उसमें लुप्त हो जाता है, इस रूपक के अर्थ को मूर्खों ने उलट कर रख दिया।
4- कुछ इसी प्रकार 'वृत्तासुर' और 'इन्द्र' की कथा 'भागवत' के छठे स्कन्द में है, 'ऋग्वेद' के एक मंत्र का यह अभिप्राय है, इन्द्र नाम सूर्य का है; (निघण्टु में) जब सूर्य ने बादल को वज्र के सदृश अपनी प्रकाशित किरण से तोड़ा तो 'वृत्तासुर' अर्थात 'बादल,' पर्वत और पृथ्वी पर आकर उसने सहायता मांगी अर्थात 'जल' बहता हुआ समुद्र की ओर गया, फिर उस जल को सूर्य ने अपनी किरणों के साधन से खिंचा, वह वाष्प बनकर ऊपर को चला गया, कभी वृत्तासुर सूर्य की किरणें को रोकता है, कभी सूर्य की उष्णता से जल होकर पृथ्वी पर गिर जाता है, सदा यही क्रम चलता रहता है, सारांश यह है कि विज्ञ पुरूषों ने बादल की उत्पत्ति और वर्षा की अवस्था का वर्णन सूर्य और बादल के युद्ध के रूप में किया है, बुद्धि के शत्रुओं ने इसका अभिप्राय न समझकर वह लिख दिया जो बुद्धि (ब्याकरण) के विरुद्ध है, परिणामतः इस प्रकार की बहुत सी उपमाएं (रूपक) हैं, उनमें से एक और कथा भी वेदभाष्य भूमिका में लिखी हुई है।
5- स्वामी जी कहते हैं कि महीधर, सायण और उलूक को आधार बना मोक्षमूलर ने यह साबित करने का प्रयत्न किया कि आर्यों यानी हिंदुओ के देवता आपस में लड़ते थे, एक ऋचा के अर्थ का अनर्थ करते हुए लिखते हैं कि -- सूर्य और इन्द्र में युद्ध हुआ सूर्य जीते जनता प्रसन्न हुई, स्वामी दयानंद सरस्वती लिखते हैं कि वेदों का ब्याकरण निघण्टु है बिना निघण्टु, निरुक्तं के ऋचाओं का ज्ञान सम्भव नहीं हो सकता! महर्षि दयानंद लिखते हैं 'पृथ्वी' बादल से घिरी वर्षा हुई खेतों में जल भर गया, बादल छटा सूर्य की किरणों से पृथ्वी आह्लादित हुई जनता प्रसन्न हुई किसान खेती के लिए खेतों में गया।
महर्षि लिखते हैं कि--- "यह भाष्य प्राचीन आचार्यों के भाष्य के अनुकूल बनाया जाता है, परंतु जो रावण, उव्वट, महीधर और सायण आदि ने भाष्य किये हैं ये सब मूलमंत्र और ऋषिकृत व्याख्याओं के विरुद्ध है, मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता, क्योंकि उन्होंने वेदों की सत्यार्थता और अपूर्वता कुछ भी नहीं जानी, और जो मेरा भाष्य वनता है, वह वेद, वेदाङ्ग, ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों के अनुसार है, क्योंकि जो जो वेदों के सनातन व्याख्यान हैं, उनके प्रमाणों से युक्त बनाया जाता है यही इसमें अपूर्वता है।"


 फलस्वरूप

स्वामी जी कहते थे कि राजाओं के मंतव्यों को समझने के लिए राजाओं जैसा मस्तिष्क बुद्धि की आवश्यकता होती है और ऋषियों के वचनों को समझने के लिए ऋषिश्वरों का मस्तिष्क चाहिए, राजा और ऋषीश्वर कभी आयुक्त और अनुमान विरुद्ध वचन नहीं कहते, व्यभिचारिणी स्त्रियों वाली और पुरुषों को दूषित करने वाली तथा झूठी बाते बनाकर ठगने वाली कथा बुद्धि विरुद्ध है, स्वामी जी की रचना से दुष्ट और दुष्टता इस प्रकार दूर हो सकता है जैसे वायु से मेघ, गधे के सिर से सींग तथा राजाओं के मन से साहस और लज्जा, वह दुर्भाग्य शाली ब्यक्ति होगा जो महाराज जी की रचना से वंचित रहेगा, यह स्वामी दयानंद सरस्वती का मानवता पर महान उपकार है।

अध्यात्मिक एकता 

भारतीय समाज में वेदों पर सभी का विस्वास होने के कारण स्वामी जी सम्पूर्ण हिंदू समाज की एकता के आध्यात्मिक एकता के पक्षधर थे, हज़ार वर्ष संघर्ष का काल होने के कारण समाज में शिक्षा का अभाव हो गया वेदों की ओर देखना वंद सा हो गया इसलिए वेदों में वर्णित परमात्मा के गुणों की पूजा शुरू कर दिया और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप शुरू कर दिया कभी-कभी आपस में संघर्ष भी हुआ जिससे परकीय मतों के मानने वालों ने हिंदू समाज व धर्म की निंदा शुरू कर दिया और समाज में विघटन को बढ़ावा मिलने लगा, इस्लाम और ईसाइयों ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिया धीरे-धीरे हिंदू समाज के अंदर हीन भावना घर करने लगी किसी भी समाज को गुलाम बनाना हो तो उसे सर्व प्रथम सांस्कृतिक  रूप से गुलाम बनाना और फिर समाज व देश गुलामी की ओर बढ़ने लगा, स्वामी जी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद समाज में जो हीन भावना बैठी हुई थी उसे निकालने का काम कर रहे थे, यह बात अंग्रेजों को भली-भांति पता था लेकिन स्वामी जी तो जलती आग के समान थे जो हाथ रखता स्वाहा हो जाता, इसलिए उनकी चाल में भारतीय संस्कृति को मानने वाले फंस चुके थे और स्वामी दयानंद सरस्वती उसके निदान में जुटे हैं।