"सरना" पूजा स्थल, धर्म "सनातन" ।।


 नदीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति के बारे में कहा जाता है कि हमारी संस्कृति "नदीय संस्कृति" है, हमारे ऋषियों ने नदियों के किनारे बैठ कर "तपस्या" यानी शोध कार्य किया कि मनुष्य को क्या करना क्या नहीं करना क्या भोजन करना क्या भोजन नहीं करना ? कैसे उठना कैसे बैठना ?  वैदिक काल में जो नगर गाँव वसाए गए वे नदियों के किनारे बसाये गए क्योंकि यातायात व्यवस्था में नदियों का महत्वपूर्ण स्थान है। सारे मालवाहक नाव, जहाज सभी जन सामान्य सुविधा के लिए नदियां ही थी और कुछ भी नहीं, ऋषियों ने आध्यात्मिक केंद्र, गुरुकुल, विद्यालय, चिकित्सालय सभी नदियों के किनारे खोले। सभी राज्यों की राजधानी ब्यापारिक केंद्र सभी नदियों के किनारे बनाये जाते थे जो आज भी मौजूद हैं और यही इसका प्रणाम भी है। महाराज मनु, महाराज इक्ष्वाकु की राजधानी सरयू नदी के किनारे अयोध्या थी, पुरु वंशियों ने अपनी राजधानी गंगाजी के किनारे हस्तिनापुर को बनाया, महिस्मती नगरी जो हिन्दवी साम्राज्य के निर्माण में भूमिका निभाती है तो यहीं माँ नर्मदा जी की कोंख में पैदा होता महिस्मतीनगर जिसमें 'अहिल्याबाई होल्कर' ने सम्पूर्ण भारत वर्ष में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। इसी प्रकार जब वेदों का प्रादुर्भाव सरस्वती नदी के किनारे हुआ जिसे "ब्रम्हा जी" ने इसी सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुल खोल कर सम्पूर्ण मानव समाज को वेदों का ज्ञान देने का काम किया। कहते हैं कि इसी कारण "सरस्वती नदी" को "वेदमाता" का स्थान प्राप्त है और इसी कारण भगवान ब्रम्हाजी ने सरस्वती नदी को अपनी पुत्री स्वीकार किया। और यही नहीं सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में वांग्मय में नर्मदा नदी को जेष्ठा और गंगाजी को श्रेष्ठा कहा जाता है वेदों में सरस्वती नदी के पश्चात नर्मदा जी ही हैं जिसका नाम वेदों में सर्वाधिक वर्णित किया गया है। सैकड़ों ऋषियों ने इसी नदी के किनारे तपस्या किया है, एक समय था जब नर्मदा जी भगवान परसुराम का कर्म क्षेत्र "कर्म स्थली" भी था, ऐसे बहुत सारे ऋषि नर्मदा जी और सरस्वती जी के किनारे तपस्या की जो मंत्रद्रष्टा थे। देव और दानवों संस्कृतियों के संघर्ष की गवाह भी यह नदी है, जिसने सहस्त्रबाहु, कृतवीर्य अर्जुन के भुज कटते देखा। इसे वैदिक ऋषियों के अलावा गोविंदपाद, गौडपादाचार्य, आदि शंकराचार्य को भी ज्ञान देने का गौरव प्राप्त किया है। गोदावरी नदी को दक्षिण भारत की गंगा नदी होने का गौरव प्राप्त है यानी जब हम सम्पूर्ण आर्यावर्त के बारे में विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि इन सस्यस्यामला नदियों ने केवल हमारा ज्ञान वर्धन ही नहीं किया बल्कि हमारी भूमि को सिंचित कर हमारा जीवन निर्वाह भी किया इसीलिए भारतीय संस्कृति में नदियों को माँ का स्थान प्राप्त है, ये नदियां हमारी जीवन दायिनी हैं।

वनीय संस्कृति

श्रुतियों, ब्राह्मण ग्रंथों, पुराणों में प्रमाण मिलता है कि वन जंगल हमारे शिक्षा के केंद्र थे। जिस प्रकार नदियों के किनारे गुरुकुलों की स्थापना हुई उसी प्रकार वनों में गुरुकुलों का विस्तार किया गया। सारे मानव जीवन का विकास यदि यह कहा जाय कि वनों, जंगलों और पहाड़ों में हुआ तो यह अतिसंयोक्ति नहीं होगा। अधिकांश ऋषियों के आश्रम वनों में हुआ करता था और जब ऋषि जंगल में तो गुरुकुल भी जंगल में, कोई अलग व्यवस्था नहीं गुरुमाता बच्चों के लिए भोजन व्यवस्था, गुुरू अपने शिष्यों को शिक्षा देता यह गुरुकुलों की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। इसीलिए प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक "धर्मपाल" ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि भारत में साक्षरता किसी राज्य में 90% तो कहीं 95% थी, गाँव गाँव में वैद्य हुआ करता था जिसे औषधियों की पहचान थी और धीरे धीरे सम्पूर्ण समाज जीवन में औषधियों का ज्ञान हो गया इसलिए आज भी गांव में प्रत्येक ब्यक्ति किसी भी रोग का उपचार वैद्यकीय पद्धति से बता देता है। सभी शिक्षित और एक दूसरे के सहयोगी थे लेकिन जब परकीय हमलों के शिकार हुए हम तो हमने अपनी सुरक्षा अपनी शिक्षा के लिए जो व्यवस्था बनाई वह आगे चलकर हमारे लिए ही नुकसानदेह साबित हो गया। एक ओर हमारा सामाजिक जीवन वनीय था हम शिक्षित और संस्कारित थे दूसरी ओर जब परकीय हमले शुरू हो गए और अमानवीय तरीके से धर्मान्तरण शुरू हो गया तो हमने धर्म बचाने के लिए वनों-जंगलों का सहारा लिया। आज के कोई चार सौ वर्ष पुरानी कथा है "स्वामी रामानंद जी" की आयु लगभग 7 वर्ष की थी उन्होंने सन्यास ले लिया वे प्रयागराज से काशी शिक्षा के लिए जा रहे थे बीच में वे रात्रि विश्राम के लिए रुके जब वे संध्या के लिए बैठे तो कुछ लोग उनके प्रवचन सुनने के लिए आ गये और अपनी ब्यथा उन्हें सुनाया। स्वामी रामानंद जी ने उनसे कहा कि आप धर्म बचाने के लिए ही वनवासी हो गए हैं आप लोग सामान्य मनुष्य नहीं है आप तो धर्मयोद्धा हैं। इस प्रकार से यह विदित होता है कि इस्लामिक काल और ब्रिटिश काल में बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के लोग अपनी धर्म संस्कृति बचाने के लिए वनों का सहारा लिया, इसलिए हमरी संस्कृति वनीय संस्कृति है।

जंगल, वन ही धार्मिक सुरक्षा कवच 

हमारे पूर्वज बड़े बुद्धिमान थे, ऋषियों के शोध पूर्ण जीवन से सम्पूर्ण मानव जाति ने यह सब कुछ सीखा जिससे मानव समाज का कल्याण हो सकता है। हमारे पूर्वजों को यह ज्ञात था कि प्राण वायु का क्या महत्व है? इसीलिए कोई भी वनबासी, जनजाति बृक्षों को नहीं काटता इतना ही नहीं तो उसकी सुरक्षा व्यवस्था करता है, केवल औषधीय पौधों का ही नहीं तो यदि पीपल का बृक्ष है तो उसकी पूजा करनी होगी क्योंकि पीपल हमे चौबिसों घंटे प्राणवायु यानी ऑक्सीजन देता है, तुलसी का पौधा घर के भीतर अथवा दरवाजों पर क्योंकि यह केवल प्राणवायु ही नहीं तो सैकड़ों रोगों की दवा है! इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने जहाँ अपने रहने का ठिकाना जंगलों को बनाया वहीं वनीय औषधीय पौधों को सुरक्षित रखने का काम किया इतना ही नहीं जिस प्रकार हमारे नगरों, गाँवो का निर्माण नदियों के किनारे किया गया, उसी प्रकार हमारे श्रद्धा केंद्रों अथवा सांस्कृतिक धरोहरों का निर्माण भी नदियों के किनारे स्थापित करने का काम किया गया। इस्लामिक काल और ब्रिटिश काल में राजनैतिक और सांस्कृतिक संघर्ष जारी रहा हमने अपने रहने, सांस्कृतिक और धार्मिक विकास वनों, जंगलों में करना शुरू किया और अपनी पूजा पद्धति को भी विकसित करने का काम किया। जिस प्रकार नगरों में वैदिक काल की अपेक्षा पौराणिक काल का महत्ता देते हुए मंदिरों, मूर्ति पूजा को विकसित किया ठीक उसी प्रकार हमने इन औषधीय पौधों, पीपल, तुलसी जी की पूजा शुरू किया। हम सभी को पता है कि वेदों में मूर्तिपूजा का वर्णन नहीं है यानी वैदिक काल में मूर्ति पूजा नहीं किया जाता था बल्कि प्रकृति पूजा की जाती थी, धीरे धीरे नगरों ग्रामों में आधुनिकता के नाम पर नयी प्रकार की पूजा पद्धतियों का निर्माण किया, लेकिन वनबासी क्षेत्रों में वैदिक धर्म के अनुसार प्रकृति पूजा चलती रही वेदों में पेड़, पौधे, नदियों और पहाड़ों की पूजा करना यानी उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना है। नदी, पहाड़ और वन हमे जीवन प्रदान करने वाले हैं और हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध कराते हैं इसलिए हमने इनकी पूजा अर्चना करना शुरू कर दिया यह पूजा आदि काल से चलती आ रही है और जिस बृक्षों की पूजा हम करते हैं उसे पूजा स्थल के कारण घेर लिया जाता है वह पवित्र स्थान हो जाता है जिसे हम "सरना पूजा स्थल" कहते हैं। वास्तविकता यह है कि सरना पूजा स्थल है न कि धर्म धर्म तो सनातन ही है। ऐसा कह सकते हैं कि जिस प्रकार सनातन धर्म में शैव, वैष्णव, शाक्त, आर्यसमाज इत्यादि संप्रदाय हैं सभी के अपने अपने पूजा स्थल है उसी प्रकार सरना भी सनातन धर्म का एक पूजा स्थल है।

2006-7 में छत्तीसगढ़ राज्य के जशपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय बैठक थी जिसमें मै भी था। वहां पर बनवासी कल्याण आश्रम ने विभिन्न जनजातियों को पूजा प्रदर्शन करने के लिए बुलाया था। सभी जनजातियों के विभिन्न प्रकार की पूजा अर्चना किया जिसमें भगवान सूर्य, पत्थर, बृक्षो इत्यादि उपासना पद्धति से पूजा किया लेकीन एक पूजा सभी में समान थी वह धरती माता की पूजा यानी भारत माता की पूजा यही हमारी राष्ट्रीयता का प्राण तत्व है और इसी तत्व को लेकर हमारे जनजातीय संत, पाहन, पुजारी, गुरु, भगत और गुरुमाता समाज को एक सूत्र में बांधे हुए है और चर्च के सामने पहाड़ जैसा खड़े समाज की रक्षा में लगे आगे बढ़ रहे हैं।

 संघर्ष गाथा

जनजातीय समुदाय में अनेक राजवंश हुए हैं जिन्होंने संघर्ष करके स्वतंत्र राज्य स्थापित किया है। मैं सोनभद्र जिला में प्रचारक था तो वहाँ के खरवार समाज के लोग अपने को क्षत्रिय बताते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शोध हो रहा है कि पलामू गढ़ का निर्माण और चेरों राजवंश की स्थापना कब और कैसे हुई! बर्तमान के रोहितास जिला में रोहितास गढ़ है जिस पर कई राजवंशों ने शासन किया है, कहते हैं कि यहाँ खरवारों ने शासन किया यहाँ उरांव राजवंश ने शासन किया लेकिन मुगल अकबर को पराजित कर "चेरों वंश के राजाओं" ने पलामू में राज्य स्थापित किया जिसकी सीमा काशी से पूर्व मुंगेर तक और गंगाजी से दक्षिण छत्तीसगढ़ तक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। जिसके अंतिम शासक "महाराजा मेदनीराय" थे। इनमें कई वनवासी राजा सिक्काधारी थे जिनका अपनी करेन्सी चलती थी। ब्रिटिश काल में जो संघर्ष हुआ चाहे नीलाम्बर-पीताम्बर रहे हो, चाहे बिरसा मुंडा का संघर्ष रहा हो, चाहे क्रांतिकारी तिलका मांझी का संघर्ष रहा हो यह सभी स्वतंत्रता संग्राम और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए था। वामपंथियों ने अपनी पुस्तकों में इन क्रांतिकारियों के संघर्ष को झुठलाने का प्रयत्न किया है उन्होंने इसे जमींदारों के खिलाफ संघर्ष बताने का असफल प्रयास किया है जबकि इन वनवासी क्षेत्रों में अधिकांश राजा, जमींदार सभी जनजाती - वनवासी ही थे। यदि यह संघर्ष धार्मिक नहीं होता तो विरसा मुंडा को भगवान क्यों मानते तो वास्तविकता यह है कि हमने अपने धर्म को बचाने के लिए ही जंगलों की शरण ली, हमने अपने राज्य स्थापित किया, हमने अपना धर्म नहीं छोड़ा बल्कि संघर्ष किया और आज भी वनबासियो में कोई गुरुमाता रेखा हेम्ब्रम होंगी, कोई करिया मुंडा होंगे, कोई कार्तिक उरांव होंगे, तो कोई बाबूलाल मरांडी होंगे, तो कोई अर्जुन मुंडा होंगे, तो कोई आशा लकड़ा होंगी जो बिरसा मुंडा, तिलका मांझी और मेदनीराय की परंपराओं को आगे बढ़ा रहे हैं।


चर्च का षड्यंत्र

महात्मा गांधी कहते थे कि यदि मुझे एक दिन के लिए भी भारतीय सत्ता मिलेगी तो मैं दो काम करूंगा प्रथम देश में धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगा दूँगा दूसरा गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लेकिन दुर्भाग्य कैसा है कि गाँधी जी के नाम पर शासन करने वाले लोग इसको अपना धंधा बना लिया है यानी वोट के सौदागर बन गए हैं। चर्च के बारे में गाँधी जी की स्पष्ट धारण थी कि चर्च देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहता है। डॉ. आंबेडकर चर्च को मानवता विरोधी मानते थे वे धर्मान्तरण के बड़े विरोधी थे, विवेकानंद कहते थे कि जब कोई ब्यक्ति विधर्मी बनता है तो एक हिन्दू ही कम नहीं होता बल्कि समाज का एक शत्रु खड़ा हो जाता है। चर्च ने बड़ी योजना वद्ध तरीके से जनजाति आदिवासी क्रांतिकारियों के बारे में नैरेटिव सेट किया कि ये जो इनका संघर्ष था वह धर्म के लिए, देश आजादी के लिए नहीं, अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं बल्कि जमींदारों के विरुद्ध था। जबकि वास्तविकता यह है कि इन वनबासी राजाओं, क्रांतिकारियों का संघर्ष स्वदेश और अपनी संस्कृति के लिए था। सनातन धर्म क्या है ? वास्तव में जितने भारतीय मत, पंथ और संप्रदाय हैं सनातन धर्म उसका सुरक्षा कवच है, चर्च इसी सुरक्षा कवच को तोड़ना चाहता है यानी जनजातियों को इस सुरक्षा व्यवस्था से बाहर करना चाहता है, संविधान बनते समय भी इस समाज को उपेक्षित किया गया यदि संविधान में होता कि जो जनजाति धर्मान्तरण कर किसी और धर्म में चला जायेगा तो उसका आरक्षण समाप्त कर दिया जाएगा लेकिन उस समय संविधान निर्माता चर्च के चंगुल में फस गए थे। झारखंड के सांसद और विद्वान आईएएस अधिकारी कार्तिक उरांव ने इस पर बड़ा संघर्ष किया भारत के अधिकांश सांसदों से हस्ताक्षर अभियान चलाया और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ज्ञापन दिया लेकिन उन्होंने कुछ नहीं सुना। आज भी आदिवासी, जनजाती समाज चर्च के चँगुल में फसता जा रहा है जनजातीय संस्कृति समाप्त करने पर चर्च तुला हुआ है और जनजाति समाज का आरक्षण का लाभ ईसाई समुदाय के लोग ले रहे हैं। धीरे धीरे जनजाति संस्कृति और उनके अधिकार को समाप्त करने पर चर्च तुला हुआ है इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसी षड्यंत्र के योजनानुसार 'सरना कोड' की मांग की जा रही है जबकि "सरना पूजा स्थल" है न कि कोई धर्म, वास्तविकता यह है कि सरना पूजा स्थल है जैसे अन्य मतों में मंदिर लेकिन सभी का धर्म सनातन है। जैसे चर्च उपासना स्थल है ईसाई धर्म, मस्जिद उपासना स्थल है मुस्लिम धर्म, उसी प्रकार सरना पूजा स्थल है सनातन धर्म है, इसलिए सरना एक पूजा स्थल है न कि धर्म। आइये समझे और समाज को समझाए चर्च के चंगुल से बाहर निकले।

मकर संक्रांति पर प्रत्येक वर्ष "मन्दार पर्वत" पर संथालों का मेला लगता है क्योंकि सन्थाल उसे अपनी "जन्मस्थली" मानता है सारे देश भर से सन्थाल समाज के संत गुरू माताएं बड़ी संख्या में आते हैं वहां के संतो गुरुमाताओं के सम्मेलन में "गुरुमाता रेखाहेम्ब्रम" ने कहा कि "सरना पूजा स्थल है और हमारा धर्म सनातन धर्म है। उन्होंने संतों और संथाल समाज को चर्च से सावधान रहने का आह्वान किया।" मै धर्म जागरण के एक कार्यक्रम में गया था जो रांची से लगभग 100 किमी दूर लातेहार जिला में कार्यक्रम था, उसमें कोई दस हजार जनजाति वन्धु आये थे। सांस्कृतिक कार्यक्रम भी था चार पाँच घंटे का कार्यक्रम था उस कार्यक्रम में बीजेपी की नेत्री अखिल भारतीय मंत्री रांची की मेयर "आशा लकड़ा" ने भाषण दिया जिसे उल्लेख करना मैं उचित समझता हूं, उन्होंने कहा कि "सरना हमारा पूजा स्थल है और धर्म सनातन है और उन्होंने उदाहरण भी दिया कि चर्च कोई धर्म नहीं है इसाई धर्म है, मस्जिद कोई धर्म नहीं धर्म तो इस्लाम है, उसी प्रकार सरना पूजा स्थल है और धर्म सनातन है।"

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