दिग्विजयी ऋषि दयानंद --भाग -१६

आर्यसमाज और ब्रम्हसमाज

1857 का स्वतंत्रता संग्राम समाप्त ही हुआ था 'स्वामी दयानंद सरस्वती' में चिंतन व्यस्त एकांत वास में हो गए, उन्हें इसकी उम्मीद नहीं था कि ऐसा हो सकता है, अब वे यह विचार कर रहे थे कि आखिर कौन कौन से तत्व हैं जो इस महान राष्ट्रवाद की यज्ञ में जिनकी आहुति नहीं पड़ी वे ब्यथित थे उन्होंने देखा कि भारत के रजवाड़ों में बड़ी संख्या ऐसी है कि वे इस 'स्वतंत्रता संग्राम' में भाग नहीं लिया कुछ ऐसे भी हैं जी तटस्थ भूमिका में थे जिन्होंने प्रत्यक्ष स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया उन्हें नष्ट कर दिया गया तोपों से उनके किले ध्वस्त कर दिया गया बीसों लाख लोगों को फाँसी सरेआम लटका दिया गया चौराहों की स्थिति दर्दनाक खौफनाक वन चुकी थी भारतीय समाज में भय ब्याप्त हो गया था, स्वामी जी ने दोहरा मापदंड अपनाया एक जो राजा तटस्थ थे उनसे मिलना राष्ट्रभाव और अपने पुरातन गौरवशाली इतिहास को बताना दूसरा उन्हें ध्यान में आया कि 'ब्रम्हसमाज' देश में प्रत्येक बड़े शहरों में है और वह कहीं न कहीं ब्रिटिश साम्राज्य के पक्ष में है इसलिए स्वामी जी का दूसरा लक्ष्य था कि 'ब्रम्हसमाज' में पढ़े लिखे लोग हैं पूरे देश में अपना प्रभाव रखता है उनके अंदर समझदारी विकसित करना।


ब्रम्हसमाज और राजा राममोहन राय

जब भी 'ब्रम्हसमाज' की चर्चा होगी तो ''राजा राममोहन राय'' के बिना ब्रम्हसमाज अधूरा ही रहेगा, 'राजा राममोहन राय' का जन्म 22 मई 1772 राधानगर ग्राम खानाकुल जिला 'हुबली' (प बंगाल) में हुआ था, उनके पिता का नाम रमाकान्त राय और माता तारणी देवी थीं पितामह कृष्णचन्द्र बैनर्जी बंगाल नबाब की सेवा में थे, राजा राममोहन राय बड़े मेधावी छात्र प्रतिभा सम्पन्न थे, वे भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत माने जाते हैं समाजिक धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान था, वे ब्रम्हसमाज के संस्थापक भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नवजागरण युग के पितामह कहे जाते थे। वे 'इस्टइंडिया कंपनी' में काम करते थे उनके भाई का देहांत हो जाने के कारण उनकी भाभी जी उनकी चिता के साथ जलकर मर गई यह उनके लिए बहुत दुःखद था उन्होंने नौकरी छोड़कर समाज सुधार आंदोलन में जुट गए, बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दाप्रथा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया, वे आधुनिक शिक्षा यानी अंग्रेजी शिक्षा चिकित्सा विज्ञान के अध्ययन को लोकप्रिय और बदलाव की वकालत करने लगे।

सतीप्रथा

इस्लामिक काल में राजपूतों ने जो देश व धर्म के लिए संघर्ष किया उसमे "जौहर" (यानी बलिदान की सर्बोच्छ परंपरा) शुरू हुआ, कुछ समय पश्चात यह परंपरा सी वन गई, इसके खिलाफ राजा जी ने आवाज उठायी चुकी ये बहुत लोकप्रिय हो रहे थे इस कारण अंग्रेज इन्हें अपने चंगुल में फसाना चाहते थे, यह उनके लिए अच्छा मौका था, वास्तविकता यह थी कि हिन्दू समाज में कभी भी 'सतीप्रथा' नहीं था यह केवल एक्सीडेंट सा है और यदि सतीप्रथा होती तो 'राजा दशरथ' के मृत्यु के बाद रानियों को सती हो जाना चाहिए और ऐसे प्राचीन काल के अनेक उदाहरण हैं, लेकिन अंग्रेजों को इन्हें प्रसिद्ध करके अपने पक्ष में करना था इसलिए सती प्रथा को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाने लगा और कोई अंग्रेजों का विरोध न करें इस कारण देश भर में 'ब्रम्हसमाज' का काम बढ़े इसको लेकर अनुदान देने की ब्यवस्था की। अब ब्रम्हसमाज में सन्यासी की ब्यवस्था, जो भी लोग उस संगठन में रहते वे सब भगवा रंग का वस्त्र पहनकर चलते इससे हिंदू समाज में आकर्षण होने लगा और सारे देश में प्रमुख स्थानों पर ब्रम्हसमाज का संगठन बन गया, राजा राममोहन राय की मृत्यु 27 सितंबर 1883 स्टेप्लेटन ब्रिस्टल, युनाइटेड किंगडम में हो गई और प्रसिद्ध विद्वान 'केशवचन्द्र सेन' इसके प्रमुख बनाये गए।

ब्रम्हा-समाज की नीति का परिणाम

कलकत्ता में ब्रम्हा-समाज के ब्यापक प्रभाव हो रहे थे, एक तो हिंदुओं का जो विद्वेष मुसलमानों तथा ईसाईयों के प्रति था, वह मिटता जा रहा था, हिंदुओं के मन में यह भाव उत्पन्न हो रहा था कि वे मुसलमानों से द्वेष कर भूल करते रहे हैं, मुसलमानों का क्या दोष था ? वे अपने पराक्रम से देश में राजा बने थे, इस कारण देश की धन संपदा और वैभव का भोग करना उनका अधिकार था, यदि वे अपने पराजितों के स्त्री वर्ग को बल पूर्वक अपने हरम में डाल लेते थे तो यह उनका विजेता होने के साथ ही अधिकार था, इसी प्रकार यदि अब अंग्रेज ऊँची पदवियाँ, समान अथवा घटिया काम करने पर भी अधिक वेतन प्राप्त करते हैं अथवा देश में रहने वाले लोगों पर जोर जुल्म करते हुए भी दण्ड के भागी नहीं माने जाते यह तो उनका अधिकार है, वे विजेता हैं और हिंदुस्तानी दास हैं यह भावना हिन्दुओं के मन में घर करती जा रही थी। 'लार्ड लिटन' के भारत में आने पर ऐसे कानून बनाने शुरू हो गए थे जिससे हिंदुस्तानी और अंग्रेज में भेद-भाव होने लगा, ब्रम्हा-समाजी अपनी उदार नीति से यह समझने लगे कि शासक जाती के विशेषाधिकार होते ही हैं।

दिल्ली दरबार

''महर्षि दयानंद सरस्वती'' वेंदो के प्रकांड विद्वान दिल्ली में पधारे हुए हैं उनसे दिन के दो बजे से शायम पांच वजे तक मिलने शंका समाधान इत्यादि के लिए आ सकते हैं, अखबार में विज्ञापन निकलवाया गया, उस समय 'वायसराय' के दरबार में बड़े बड़े 'राजा-महाराजा आने वाले थे अथवा आये थे, स्वामी जी की इच्छा थी कि राजा-महाराजाओं से भेंट कर उन्हें वेदमार्ग का अनुयायी बनाया जाय, लेकिन स्वामी जी की इच्छा पूरी नहीं हुई। केवल महाराजा ''तुकोजीराव होल्कर'' ही स्वामी जी से मिलने आये, उनसे खुलकर बर्तालाप हुआ, परंतु राजा साहब ने बता दिया कि सभी राजा मौज-मस्ती और खेल-कूद में मस्त हैं उन्हें इस देश के गम्भीर विषय पर चिंतन करने का समय नहीं है।

समाज सुधार सम्मेलन

दरबार के दो दिन पूर्व ब्रम्हसमाज के 'केशवचंद्र सेन' के प्रयत्नों से समाज सुधारकों का सम्मेलन आयोजित किया गया, इस सम्मेलन में 'महर्षि' के अतिरिक्त केवल छः ब्यक्ति सम्लित उपस्थित हुए, मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी, डॉ नवीनचंद्र राय, केशवचंद्र सेन, मुंशी इन्द्रमणि, सैयद अहमद खान और बाबू हरिश्चन्द्र चिंतामणि। इस सम्मेलन में खां साहब मौन रहे केशवचंद्र ही उनके तरफ से बोल रहे थे, स्वामी जी का स्पष्ट मत था, "भारत एक देश है, इस देश के रहने वालों को सब प्रकार का सुधार कार्य एक मत होकर करने चाहिए।" लेकिन इस मत से केशवचंद्र सेन को आपत्ति थी, "यह स्वीकार करना पड़ेगा कि यह देश एक नहीं है, यह एक महाद्वीप है।" स्वामी जी--! पर केशव बाबू ! देश तो भौगोलिक सीमाओं से बनता है, सीमाओं के विचार से हिमालय से सागर पर्यंत एक ही देश है, प्राचीन काल से यह माना जाता है कि यह एक देश है, प्रकृति ने इसे एक रहने के लिए बनाया है, यह देश एक तब तक रह सकता है जब तक इसके रहने वाले एक हों, सब इसको अपनी मातृभूमि, पितृभूमि तथा पुण्यभूमि माने, जो ऐसा मानेंगे यह उनका ही देश होगा। यही हमारा प्रस्ताव है, देशवासियों में ऐसा सुधार किया जाय कि सब अपने को एक माने।
केशवचंद्र सेन बोले-- स्वामी जी! यह अति कठिन है, इस देश में पांच करोड़ के लगभग मुसलमान भी रहते हैं, सत्ताईस अट्ठाईस करोड़ हिंदू रहते हैं, इन दोनों समुदायों के न तो रीति रिवाज एक समान है और न ही मान्यताएं एक हैं, स्वामी जी ने पूछा-- तो फिर सेन बाबू क्या चाहते हैं ? "मैं अर्थात ब्रम्हसमाज यह चाहता है कि सब अपने अपने रीति रिवाज रखे और सब अपनी अपनी मान्यताओं को माने और हम परस्पर भाई भाई के रूप में रहना स्वीकार कर लें।" सबसे मुख्य बात है कि राजा कौन हो ? राज्य तो अंग्रेजों का है ही-!
स्वामी जी -- "और अंग्रेज यहां विकार उत्पन्न कर रहे हैं।"
सेन-- यह कैसे आप कह सकते हैं ?
स्वामी जी-- "मैक्समूलर सरकारी नौकर है और वह हमारे "वांग्मय" को बिगाड़ रहा है, उसने अपनी एक पुस्तक में लिखा है की आर्य ''भारत'' के बाहर से आक्रमण कर आये हैं।"
केशव बाबू कहते हैं-- तो क्या हुआ ? अब तो आ गए है ! जैसे मुगल, पठान आये हैं !
स्वामी जी का प्रश्न ! और यहां के मूल निवासी कौन हैं ?
'केशवचंद्र'--! कोई भी हो ? इससे क्या अंतर पड़ने वाला है ? स्वामी जी--! "सेन बाबू--! अंतर यह पड़ता है कि वे उनके विरुद्ध हो जायेगे जो बाहर से आये कहे जाते हैं; और यहां गृहयुद्ध आरंभ हो जाएगा, जहाँ तक मुसलमानों का संबंध है, वे विदेशी नहीं है अधिकांश यहीं के रहने वाले हैं, केवल इनका मत परिवर्तन हुआ है।"
केशव बाबू बोले-- "परंतु मुसलमान ऐसा नहीं मानते, वे अपने को रुस्तम और तैमूर की संतान मानते हैं।"
स्वामी जी!-- "और जिनकी वे संताने हैं उनको अपने पूर्वज नहीं मानते ?" इस पर सैयद अहमद खां ने कहा, "देखिए स्वामी जी ! हम अपने को उनकी औलाद मानते हैं, जिनके मजहब को हम मानते हैं, वह है दीने मुहम्मदी," यही तो मैं कह रहा हूँ कि आप अब अपने प्राचीन और सत्य धर्म को मानने लागिये तो आप पुनः अपने पूर्वजों की संतान हो जाएंगे।" स्वामी जी बोले!
एक ब्यक्ति ने कहा कि स्वामी जी 'सेन बाबू' तो आप के बड़े विरोधी हैं--!
"इसमें राजनीतिक कारण है वह चाहते हैं कि यहां अंग्रेजों का शासन हमेशा के लिए बना रहे, मैं समझता हूँ कि यह विदेशी राज्य हिंदू समाज की जड़े खोखली कर रहा है, इसको तुरंत यहां से हटाना चाहिए, कम से कम जन-जन के मन को इनसे सतर्क रहने के लिए तैयार रहना चाहिए।" स्वामी जी ने कहा !
दुर्भाग्य से इस सभा में एक स्वामी रामकृष्ण परमहंस का शिष्य कमलाकांत चट्टोपाध्याय भी बैठा था वह वसु बाबू की वंगला भाषा में धारा प्रवाह बोलने की योग्यता को मानता था, परंतु वह दिल्ली दरबार के समय दिल्ली गया हुआ था और वहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती के शिविर में जाने का उसे अवसर मिला था, स्वामी दयानंद जी के देश, जाति, धर्म और एक संस्कृति संबंधी विचारों पर बात चीत हो चुकी थी। वह स्वामी रामकृष्ण की संगति के कारण निर्भय था उनसे ब्रम्हसमाज की बैठक में पूछा कि झूठों की प्रशंसा करना राजनीति तो नहीं है गोरे लोग हिंदुस्तान के रहने वाले हिंदू-मुसलमान दोनों से घृणा करते हैं, प्रत्येक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा करते हैं लेकिन ब्रम्हसमाज इन सब को इग्नोर करता रहता है।

जब ऋषि को बाहर निकाला

'लाहौर' में 'स्वामी जी' ब्रम्हसमाज के मंदिर में रुके थे प्रवचन के बाद उन्हें मंदिर से निकाल दिया, इस पर एक बैठक में सफ़ाई देते हुए मंत्री ने बताया कि "स्वामी जी ने उस दिन ब्याख्यान में कहा था कि इस्लाम एक घटिया मजहब है, आर्य मत ही एक ऐसा मत है जिससे कल्याण की आशा की जा सकती है। यह हमारे सिद्धांत के विरुद्ध है हम सब मजहबों को एक समान मान और प्रतिष्ठा से देखते हैं।इस पर एक सदस्य रामचंद्र कपूर ने पूछ लिया आपने इस्लाम मजहब को पढ़ा है क्या ?"
नहीं--! तो फिर स्वामी जी ने जो कुछ कहा है आपने गलत कैसे कह दिया, इस पर वह बोला-! मैं इतना जानता हूँ कि यह हमारे सिद्धांत के विरुद्ध है--"ब्रम्हसमाज का सिद्धांत है कि सब मजहब आदरणीय है।" पर किसी को अच्छा बुरा बताने से किसी का अनादर या अपमान कैसे हो गया ? जो उनसे मतभेद रखते हैं, उनको स्वामी जी से विवाद कर लेना चाहिए, विवाद में यदि स्वामी जी पराजित हो जाते तो उनको अपने मत की बात बिना सिद्ध किये कहने से मना किया जा सकता है।"
स्वामी जी 'ब्रम्हसमाज' के एक सदस्य डॉ रहीम खा ने स्वामी जी को अपने यहाँ लेकर आए थे, रामचन्द्र कपूर ने कहा कि "मैं स्वामी जी से मिलने डॉ साहब की कोठी पर जा रहा हूँ, मैं स्वामी जी को लाहौर में आमंत्रित करने वालों में से एक हूँ, इस कारण मैं अपना कर्तब्य समझता हूँ कि उनके सुख आराम का प्रबंध करूँ।"
डॉक्टर रहीम ने स्पष्ट कहा कि "मेरे मजहब वे हैं जो अक्ल रखते हैं और अक्ल की बात करते हैं, ये लोग जो अभी गए हैं मेरे मजहब के नहीं है। इसके बाद ब्रम्हसमाज की कार्यकारिणी में हुई बातचीत को डॉक्टर साहब को सुना दिया वे सुनकर हँस पड़े, कहने लगे कि "अब हमें ब्रम्हसमाज में कोई दिलचस्पी नहीं रही।" इस प्रकार ''ऋषि दयानन्द'' ने लाहौर के हिंदू समाज में भी एक जबरदस्त विक्षोभ उत्पन्न कर दिया था, परंतु स्वामी जी का दृढ मत था कि बिना ऐसा किये समाज रूपी गंदा जल शुद्ध नहीं हो सकता।

वैचारिक मतभेद

पूरे देश में 'आर्यसमाज' का संगठन खड़ा होने लगा अपने वैभव शाली अतीत को सुनकर, 1857 के बलिदान को देखकर, प्रखरता से आर्यसमाज बढ़ने लगा 'स्वामी दयानंद सरस्वती' का भाषण बिना 'स्वराज्य' के 'स्वधर्म' सम्भव नहीं हो सकता लोक प्रिय होने लगा स्वामी जी का मत था यह परंपरा गत प्राचीन राष्ट्र है और पूरा भारतवर्ष एक राष्ट्र और देश है, दूसरा स्वामी जी जितना जल्दी हो अंग्रेजों को देश से निकालना चाहते थे, ब्रम्हसमाज के लोगों का स्पष्ट मत था कि यह कभी एक राष्ट्र था ही नहीं, कभी भी एक देश नहीं था अंग्रेजों की सत्ता बनी रहनी चाहिए दोनों संगठनों में यह मौलिक वैचारिक मतभेद था। आर्यसमाज की मान्यता थी कि यह सनातन राष्ट्र है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, आर्य चाणक्य से लेकर रामानुजाचार्य, स्वामी रामानंद, सूरदास, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, शंकरदेव, समर्थगुरु रामदास इत्यादि संतों ने इस राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस महान पुरातन राष्ट्र को सेनानी पुष्यमित्र शुंग, सम्राट विक्रमादित्य ने इसे पल्लवित किया, उसी कड़ी के स्वाभिमानी राजा के रूप में बप्पारावल से लेकर महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी महाराज तक एक अद्भुत परंपरा खड़ी हुई थी, ब्रिटिश काल में आर्यसमाज हिंदुत्व का क्षत्रित्व धर्म पालन करने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्थापित किया है, लेकिन ब्रह्मसमाज की मान्यता है कि आर्य बाहर से आये, मुगल, तुर्क और अंग्रेज सभी का वही अधिकार है यदि अंग्रेज यहां शासन करते हैं तो क्या हानि है ? इसके उलट आर्य-समाज अंग्रेजों को तुरंत देश से निकालने को तत्पर दिखाई देता है।

विश्व के लिए चुनौती

इसीलिए विदेशी इतिहासकारों ने चाहे वे बामपंथी हो, कांग्रेसी हो ब्रिटिश काल के हो सभी लोग राजा राममोहन राय और ब्रम्हसमाज को बहुत बढ़ चढ़ कर महत्व देना आर्य-समाज को बहुत कम महत्व देना इतना ही नहीं तो राजा राममोहन राय को जहाँ चार पेज मिलेगा वहीं स्वामी दयानंद सरस्वती को एक पेज भी मिलना मुश्किल होता है क्योंकि स्वामी जी देशभक्त सन्यासी है वे सत्य के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं करते उनकी विद्वता से सारा पश्चिम जगत परेशान था वे विश्व के लिए एक चुनौती बनकर उभरे हुए थे, कोई भी पादरी-विशप और मुल्ला-मौलबी तथा नास्तिक शास्त्रार्थ करने को तैयार नहीं होता था जो सामने आया उसे पराजय का मुख देखना पड़ा, दोनों संगठनों में मूलभूत अंतर का मैने थोड़ा सा वर्णन इस प्रकरण में किया है।

आर्य समाज का एजेंडा

"आर्य-समाज स्थापित हुआ सन1875 में और आज1887 में यह एक शक्ति के रूप में दिखाई दे रहा है स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा उत्पन्न हुई यह तरंग मैकाले की तरंग से भिन्न और विलक्षण रूप में रखती है, जहां मैकाले की शिक्षा यह कहती है कि हिंदू इस देश के मूल निवासी नहीं, ये कहीं बाहर से आये हैं और इनका अधिकार इस देश में उतना ही है जितना कि मुसलमानों तथा ईसाईयों का है, वहीं आर्य समाज की मान्यता है कि हिंदू समाज प्राचीन काल में आर्य के नाम से विख्यात थे, एतिहासिक कारणों से नाम तो बदला परंतु इसका धर्म और संस्कृति अक्षुण्ण रही, इसके भिन्न-भिन्न अंगो तथा स्थानों पर सामाजिक रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न हो गए, परंतु धर्म और संस्कृति के मूल रूप नहीं बदले।
"आर्य-समाज की मान्यता है कि हिंदुओं के पूर्वज आर्य ही यहां के मूल निवासी हैं, जिनको यहाँ का आदिवासी कहा जाता है, वे समाज के वे घटक हैं जो समाज के रीति-रिवाज के संबंधों के विपरीत विद्रोह कर, नगरों को छोड़कर जंगलों तथा वीरान जगहों पर जाकर रहने लगे, उन आदिवासियों को पुनः समाज में सम्लित करने के लिए उनको समाज के रीति-रिवाज के अनुकूल बनाने की समस्या है।" आर्य समाज की यह मान्यता है कि राष्ट्र का संगठन धर्म तथा संस्कृति के आधार पर किया जाय तो राष्ट्र बहुत ही बलशाली होगा और जो मुट्ठी भर अंग्रेज यहां हुकूमत कर रहे हैं, स्वयमेव यह देश छोड़कर चले जायेंगे।