आर्यसमाज की स्थापना
पायोनियर---!पायोनियर अखबार के यूरोपीय संबदाता ने अपने एक लेख में लिखा स्वामी दयानंद सरस्वती के सभी कृत्य ठीक है आज यह विचारणीय है कि अंग्रेजी सरकार के शासन में हमको महजबी कार्यों की स्वतंत्रता प्राप्त है या नहीं ? मेरा विस्वास था कि मेरी सरकार इन कामों में बिलकुल हस्तक्षेप नहीं करेगी और दिल्ली दरबार के विज्ञापन के शब्दों तथा देश की ब्यवस्था को देखने से मेरे इस विचार की और भी पुष्टि होती थी और चुकी हमने यूरोप में शिक्षा प्राप्त किया है इसलिए मेरा विचार था कि यदि सरकार हस्तक्षेप करेगी भी तो वह उन लोगों का साथ देगी जो देश के उन्नति के इक्षुक हैं, परंतु आज कल की एक घटना ने जो निचे लिखी जाती है, मेरे इस विचार को बिल्कुल बदल दिया है।
देश के युवकों में देशभक्ति की भावना
देखिए, एक वह ब्यक्ति, जिसकी विद्वता और योग्यता में तनिक भी संदेह नहीं है, पांच वर्ष से इस देश में प्रकट हुआ है, वह नगर-नगर में फिरता है और वेंदो की आज्ञा का उपदेश देता है जिसमें एक परमात्मा का निर्देश है तथा अन्यों की उपासना का निषेध है और केवल यही नहीं प्रत्युत उसने सिद्ध कर दिया है कि सतीप्रथा, मूर्तिपूजा और अन्य बुरी प्रथाएं जो पुराणों में लिखी हैं वह स्वार्थीयों द्वारा अविष्कृत है और वेद के अभिप्राय के बिलकुल बिरुद्ध है। उसने बुरी प्रथाओं को जो इस समय प्रचलित हैं और जिन्होंने एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च धर्म को ऐसा बिगाड़ दिया है इस प्रकार जनता के समक्ष सिद्ध किया और प्राचीन आर्यावर्त की विद्या और संस्कृति समृद्धि का इस प्रकार वर्णन किया तथा यहां के निवासियों को अपने बाप-दादा जी के गुणों को ग्रहण करने में वह साहस दिलाया कि आज-कल के नवयुवकों के हृदयों में देशोन्नति की एक भावना उत्पन्न हो गई। सत्य तो यह है कि वह तर्क में अद्वितीय है और सुंदर भाषण करने में दूसरा "लूथर"। इस ब्यक्ति का यह विचार कदापि नहीं कि सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार का कोई आंदोलन खड़ा करे प्रत्युत उसने अपनी सभाओं में स्पष्ट शब्दों में कहा कि ब्रिटिश सरकार का ही सासन है कि जिसने महजबी विवाद में कभी हस्तक्षेप नहीं किया अपितु पूरी व अद्भुत स्वतंत्रता दी, सारांश यह है कि इस विद्वान ब्यक्ति के समस्त कृत्य पूर्णतया ठीक है और संभवतः अपने देश और देशवासियों के लिए अत्यंत लाभकारी है, यह ब्यक्ति "पंडित दयानन्द सरस्वती स्वामी" "आर्यसमाज" का संस्थापक है।आर्यसमाज
अब स्वामी जी को पूरे देश में प्रवास करते करते यह बात ध्यान नहीं आने लगी थी कि जो लाखों अनुयायी खड़े हो गए हैं जो अपने देश व अपनी संस्कृति के लिए सब कुछ न्यवछावर करने को तैयार हो गए हैं। ऐसा लगता है कि कोई बीस लाख अनुयायी बन गए हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती का मत था कि 1857 का जो स्वतंत्रता संग्राम था वह समाप्त नहीं हुआ है उसी समय से स्वराज्य का युद्ध तो चल ही रहा है अंतर केवल इतना है कि अब बहुत समझ बूझकर बौद्धिक तैयारी स्थान-स्थान पर देशभक्त और राष्ट्रभक्त नवजवान खड़े किये जा रहे हैं जिसमें अपने प्राणोत्सर्ग करने वाले लोगों की शृंखला खड़ी हो रही है। वह अनुशासित बनी रहेगी तो आगे अनुशासनात्मक रूप से कार्य होगा इसलिए अब संगठन की आवश्यकता है। आखिर साधू-सन्यासियों का संगठन तो बनाया था 1857 को सफल बनाने के लिए, लेकिन दुर्भाग्य हमें सफलता नहीं मिली लेकिन कुछ लोग यह कह सकते हैं कि वह आंदोलन, ससस्त्र क्रान्ति उसके बाद बन्द हो गया लेकिन यह सत्य नहीं है ''सत्य तो यह है कि वह आग हमारे अंदर सुलग रही है और समय का इंतजार है'' जब वैचारिक क्रान्ति, स्पष्ट दिशा में सफलता की ओर चलेगी तो स्वराज्य के लिए समाज खड़ा हो जाएगा। इसलिए सामान्य हिन्दू समाज यानी देश के मूल समाज का संगठन, उन्होंने देखा कि अंग्रेजों की सेना का मुख्यालय कहाँ कहाँ स्थित है और किस प्रकार अंग्रेजों ने अपना तंत्र खड़ा किया है। अंग्रेजी सेना के तीन (कमान) मुख्यालय थे दक्षिण में मुंबई, पश्चिम में लाहौर और पूर्व में दानापुर (पटना) स्वामी जी कुछ इसी प्रकार से 'आर्यसमाज' का निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना 10 अप्रैल 1875 ईसवी में ''गिरीगांव'' (मुम्बई) में किया, 'आर्यसमाज' शुद्ध 'वैदिक' परंपरा में विस्वास रखने वाले लोगों का संगठन, झूठे कर्मकांडों, अंधविश्वासों को अस्वीकार किया, सभी को यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार, "जन्मनाजायते शूद्र:" जन्म से सभी शुद्र है कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, जिसका लक्ष्य है 'कृण्वन्तोविश्वमार्यम' सभी को यानी सारे जगत को आर्य बनाना यानी श्रेष्ठ बनाना। यह विशुद्ध धार्मिक संगठन रहेगा यह उद्घोषणा, जिसका उद्देश्य-- शैक्षिक, धार्मिक शिक्षा, आध्यात्मिक और समाज सुधार, मूलग्रंथ-- सत्यार्थ प्रकाश, कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण विश्व रहेगा और आर्यसमाज के दस नियम रहेंगे जो भी सदस्यता ग्रहण करेगा उसे इन दस नियमों को मानना पड़ेगा यदि वह इन नियमों का पालन नहीं कर पा रहा है तो वह अपने आप संगठन से बाहर हो जायेगा ऐसा 'स्वामी दयानंद सरस्वती' ने घोषणा की।आर्य समाज के दस नियम
1- सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।2- ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
3- ''वेद'' सब सत्यविद्यायों की पुस्तक है, 'वेद' पढ़ना -पढ़ाना और सुनना -सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
4- सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सदा उद्दत रहना चाहिए।
5- सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
6- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारिरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
7- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य, वर्तना चाहिए।
8- अविद्या का नाश और विद्या की बृद्धि करना चाहिए।
9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
10- सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम पालन में स्वतंत्रता रहना चाहिए।
ऐसे स्वामी जी ने सामाजिक धार्मिक तथा स्वराज्य हितकारी संगठन का चारों तरफ मेढ़ बांधने व् नियमो में बधने का काम किया!