दिग्विजयी ऋषि दयानंद -भाग-१७

प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद

"ऋषि दयानन्द" के बारे में यदि उनका जीवन लिखा जाय तो हमे लगता है कि बिना 'स्वामी विरजानंद' के पूरा नहीं हो सकता अधूरा ही रहेगा 'स्वामी दयानंद सरस्वती' कहते हैं कि मैं जो कुछ हूँ गुरू की कृपा और उनके स्नेह से हूँ, जैसे "संत कबीरदास जी" कहते थे कि "जब तक गुरू मिलै नहि साँचा तब तक गुरु करौ दस पांचा" यह ऋषि दयानन्द पर पूरी तरह लागू होती है उन्होंने जब अपना घर छोड़ा तबसे वे गुरु की खोज में लगे रहे कई संतों के सानिध्य प्राप्त किया लेकिन जो वे खोज रहे थे जैसे खोज रहे थे और जिसको खोज रहे थे अन्त में उन्हें अपना गुरु "स्वामी विरजानंद" के रुप में मिल ही गए यदि यह कहा जाय 'विरजानन्द सरस्वती,' स्वामी दयानंद सरस्वती की आत्मा थे तो यह अतिसयोक्ति नहीं होगा।


वचपन कष्ट-भरा

पंजाब में 'महाराजा रणजीत सिंह के शासन में गंगापुर गांव में नारायणदत्त के यहां संवत 1854 विक्रमी को एक बालक का जन्म हुआ, पांच वर्ष की अवस्था में बालक को शीतला रोग से दोनों आँखे जाती रही आठ वर्ष तक पिता इस बालक को सारस्वत और संस्कृति पढ़ाते रहे, बारह वर्ष तक पिता के संरक्षण में पढ़ता रहा बारहवें वर्ष अंधे बालक के माता-पिता का देहांत हो गया अब बालक अपने भाई-भाभी के संरक्षण में रहने लगा लेकिन समय कैसे उस अंधे बालक के भइया-भाभी ने बोझ समझकर उसे बड़ा ही कष्ट दिया बालक को लगा कि मेरा यहां रहना अपने भइया-भाभी को कष्ट देने के बराबर है इस प्रकार वह एक दिन घर छोड़कर ऋषिकेश की ओर चल दिया होता वही है जो ईश्वर चाहता है, वह अंधा बालक ऋषिकेश में गंगाजी के अंदर 3 वर्ष खड़े होकर गायत्री मंत्र की साधना की और अपने मन में अंतःकरण रूपी चक्षु को 'ज्ञानरूपी' 'अंजन' से प्रकाशित कर लिया।

सन्यास लिया

अट्ठारह वर्ष की आयु में वह नवयुवक तपस्वी उस भयानक वन को पार करते हुए हरिद्वार आ पहुंचा वहां उसकी भेंट एक विद्वान "गौड़ स्वामी पूर्णानंद सरस्वती" से हुई, कई ग्रंथों का अध्ययन किया बालक इतना प्रतिभाशाली था कि जो एक बार सुन लेते वह उन्हें याद हो जाता था, गुरु के सानिध्य की आवश्यकता थी और ईश्वर की कृपा से उन्हें पूर्णानंद जी ने बहुत अच्छे आचार्य मिल भी गए और उन्हें अपना शिष्य बना लिया अब वे "विरजानन्द" हो चुके थे स्वयं तो पढ़ते ही थे और दूसरे विद्यार्थियों को 'सिद्धांत कौमुदी' इत्यादि पढ़ाते भी थे, कनखल से गंगाजी के किनारे चलते हुए 'काशी' पहुंचे, एक वर्ष से अधिक रूक कर मनोरमा, शेखर, न्याय, मीमांशा और वेदांत ग्रंथ पढ़े, अपनी विद्वता के कारण "प्रज्ञाचक्षु स्वामी" के नाम से प्रसिद्ध हुए। अब 'स्वामी विरजानन्द' ''काशी'' से पैदल ही 'गयाजी' की यात्रा पर निकल पड़े, 'कलकत्ता' होकर सोरों तिर्थ गंगाजी के किनारे आ पहुचे, वे अलवर के राजा के निमंत्रण पर उन्हें पढ़ाने अलवर गए वहां 3वर्षों तक रहे लेकिन वे अब भरतपुर होते हुए मथुरा आ पहुंचे, संवत 1869 में यमुना तट पर एक मंदिर में कई दिनों तक कुछ विद्यार्थियों को पढ़ाते रहे।

सत्य की खोज

'स्वामी विरजानंद' साक्ष्यों को ढूढने के लिए 'ऋषिग्रंथों' को खोजने लगे, वे चाहते थे कि किसी ऋषी की साक्षी मिले ताकी ऋषी-सिद्धांत --! सत्य की जय होती है सत्य ही प्रमाणित हो, वे जिसे खोज रहे थे अकस्मात एक दिन प्रातःकाल एक ब्राह्मण को दंडी स्वामी ने 'अष्टाध्यायी' का पाठ करते सुना, यह ब्राह्मण प्रतिदिन नियमानुसार पाठ करता था परंतु दीवारों पर पाठ का क्या प्रभाव हो सकता था ? परंतु जब इसकी ध्वनि 'स्वामी विरजानन्द' को सुनाई पड़ी तो वे समाधिस्त होकर 'महर्षि पाणिनी' के अनमोल सूत्र को सुनने लगे, जब तक उनसे अष्टाध्यायी का समस्त पाठ समाप्त न किया तब तक एकाग्रता पूर्वक विरजानंद की वृत्ति उसी में दत्तचित्त रही, अब उन्हें यह निश्चित हो गया कि अष्टाध्यायी ही वास्तव में ऋषिकृत ग्रंथ है और पाँच हजार वर्षों से लुप्त संस्कृति विद्या के अनमोल कोषों की यही एक अप्राप्य कुंजी का एक भाग है। कुछ लोगों का मत है और 'अष्टाध्यायी' 'विरजानन्द' की लिखी हुई है लेकिन यह सत्य नहीं है स्वामी विरजानंद कहते हैं कि मैंने सुना और लिपिबद्ध किया वास्तव में 'विरजानंद' 'पाणिनी' के उत्तराधिकारी थे कुछ लोग उन्हें व्याकरणऔतार भी कहते हैं।

आर्षग्रंथों के पारसमणि (अन्वेषक) विरजानंद

भारत देश में बड़े-बड़े किले, मंदिरों के समूहों, उनकी कलाकृतियों सुंदर मीनारों का प्राचीन इतिहास, जैसे इस पत्थर की सहायता के बिना यह जानना कठिन था और उससे हजार गुना कठिन अन्वेषक की सुनहरी 'आर्यावर्त' के पुराने विस्वसनीय इतिहास और मनुष्य की वास्तविक संपत्ति, "वेद" को जानना था, ऋषी मुनियों के प्राचीन संसार और उस पुराने संसार के वास्तविक श्रोत 'वेद' की वास्तविकता को लोग कैसे जान सकते यदि 'स्वामी विरजानन्द' ''पारसपत्थर'' सदृश अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निघण्टु और निरुक्त की खोज न करते, इस 'पारसमणि' का ज्ञान प्राप्त करने वाले विरजानन्द का नाम संसार के इतिहास में सम्मान पूर्वक लिया जाएगा। इस पारसमणि की सहायता से विद्या की ज्योति अद्वितीय प्राकृतिक सूर्य प्रतीत होने लगे हैं जिसने तमोमय संसार को सचमूच सुनहरे संसार में बदल दिया है और इसी कारण हम अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निघण्टु और निरुक्त का नाम पारसमणि रखते हुए विरजानन्द के आभारी होते हैं, ऋषियों की भाषा और वेंदो का अर्थ समझने के लिए प्रत्येक अन्वेषक को इस पारसमणि की आवश्यकता होती है ।

राजा महाराजाओं में प्रतिष्ठित

'स्वामी विरजानन्द' की विद्वता सारे 'आर्यावर्त' में फैलने लगी थी, लोगों में प्रचलित हो गया था कि यह ऋषि-ग्रंथों का ज्ञान ईश्वर द्वारा प्रदत्त है, विक्रम संवत 1917 में आगरा में राजाओं का दरबार था, उसमें जयपुर नरेश महाराजा 'रामसिंह' भी पधारे थे, उन्होंने ''दंडी-स्वामी'' की विद्वता की चर्चा सुन रखी थी, उन्होंने 'दंडी-स्वामी' को मिलने के लिए बुलाया और अपने यहां ठहरने की ब्यवस्था की, तीसरे दिन राजा से डंडी स्वामी की भेंट हुई जब डंडी स्वामी दरबार में पहुंचे तो राजा रामसिंह अपनी गद्दी से नीचे उतर कर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी पर बैठा स्वयं नीचे बैठे, राजा को धार्मिक ग्रंथों में बड़ी रुचि थी उन्होंने स्वयं पढ़ने का प्रस्ताव दिया जब डंडी स्वामी ने वैदिक ग्रंथों की बात कही तो राजा रामसिंह ने कहा कि स्वामी जी मैं अष्टाध्यायी, महाभाष्य नहीं पढ़ सकता कुछ और संस्कृति ग्रंथ पढ़ाइये, तब 'दंडी स्वामी' ने कहा उनके बदले कोई और ग्रंथ नहीं हो सकता ''जैसे सूर्य के प्रकाश को कोइ तोड़कर बना नहीं सकता ठीक इसी प्रकार ये वैदिक ग्रंथ हैं।''

स्वामी दयानंद का आश्रम में प्रवेश

"दंडी स्वामी" के बहुत सारे शिष्य थे लेकिन वे अध्ययन के पश्चात अपनी रोजी रोटी के चक्कर में लग जाते थे उन्हें बार-बार यह चिंता होती थी कि इस आर्यावर्त का, वैदिक ग्रंथों का, भारतीय संस्कृति का क्या होगा वे तो 'प्रज्ञाचक्षु' थे लेकिन वे एक पुस्तकालय थे सब ईश्वर ने उन्हें इनके मन मस्तिष्क में ज्ञान का भंडार भर दिया था अब वे एक शिष्य की खोज में थे जो इस देश को परकीय शासन से मुक्ति दिला सकता आठ सौ वर्ष से भरत के अधः पतन को रोक सके, 'बौद्धों' के द्वारा विकृति किये हुए ग्रंथों को ठीक कर सके और वैदिक धर्म की पताका को सम्पूर्ण विश्व में फहरा सके। आखिर वह दिन आ ही गया एक विद्यार्थी गुरु की तलाश करते हुए संवत 1917 चैत मास में 'दंडी स्वामी' का दरवाजा खट-खटाया ! कौन आया है ? दयानंद बोले यही तो जानने आया हूँ कि ''मैं कौन हूँ ?'' दंडी स्वामी बड़ी प्रसन्नता से दरवाजा खोला कि एक योग्य शिष्य आ गया जिसकी हमे खोज थी और स्वामी दयानंद सरस्वती अंदर प्रवेश कर 'दंडी-स्वामी' को शाष्टांग किया। जिस प्रकार अंकगणित न जानने वाला 'अफलातून' का शिष्य नहीं हो सकता था उसी प्रकार संस्कृति व्याकरण का न जानने वाला 'विरजानन्द' का शिष्य नहीं हो सकता था, व्याकरण जानने के कारण ही पहले 'ऋषि विरजानन्द' ने विद्यार्थी दयानंद को अपना शिष्य स्वीकार किया, दयानंद सरस्वती के पास बहुत सारे 'सिद्धांत कौमुदी' इत्यादि ग्रंथ थे गुरु की आज्ञा से सभी को यमुना नदी में फेंक दिया, 'दंडी स्वामी' ''अष्टाध्यायी'' को वेदों की कुंजी मानते थे, "अष्टाध्यायी" को रोकने के लिए 'भट्टोजिदीक्षित' ने 'सिद्धान्त कौमुदी' जैसे एक क्षुद्र ग्रंथ की रचना की जिसने पंडितों में भ्रम फैलाकर विद्या, बुद्धि और पुरुषार्थ से हीन कर दिया, दंडी स्वामी वेदों, 'ऋषीकृत' ग्रंथों का सबसे अधिक सम्मान करते थे और उन्हीं को सूर्यवत स्वतः प्रमाण कहते थे।अष्टाध्यायी, महाभाष्य ब्याकरण में दंडी स्वामी की जो योग्यता थी कि भारतवर्ष में कोई उनकी समानता का दावा नहीं कर सकता था, उनकी बुद्धिमत्ता और स्मरण शक्ति उच्चकोटि की थी, उनकी विद्वता दूर दूर तक फैली हुई थी मथुरा की अद्भुत बस्तुओं में मथुरा यात्री दंडी को महान आश्चर्य मानते थे, उनकी विद्या संबंधी योग्यता को सुन आकर्षित हो स्वामी दयानंद ने उनको अपना गुरू स्वीकार किया वास्तव में दयानंद से महात्मा की तृप्ति ऐसे ही विद्या के सुर्य से हो सकती थी।

सत्यवक्ता विरजानन्द

एक बार 'प्रिंस ऑफ वेल्ज' 'मथुरा' आये उन्होंने अपने सम्मुख मथुरा के विद्वानों को बुलाया 'दंडी स्वामी' अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ गए, एक अंग्रेज अधिकारी ने ''वेद की श्रुति'' अत्यंत भद्दे और अशुद्ध उच्चारण से पढ़ी, यह सुनते ही दंडी स्वामी बोले 'यदि उच्चारण ठीक नहीं बोल सकते तो अशुद्ध वेद उच्चारण पढ़ने का अधिकार किसने दे दिया ?' सभी भौचक्के रह गए अंग्रेज अधिकारी नाराज नहीं हुआ और उनकी प्रसंशा की कहा कि हमने ऐसा वीर पुरूष नहीं देखा। मथुरा के 'रंगाचार्य' को 'दंडी स्वामी' ने सभी पंडितों के सम्मुख 'आभ्यंतर और ब्रम्हा-महाभाष्य' के सार्वधातुके इस सूत्र में बता उनकी विद्वता की कीर्ति समस्त विद्वानों के बीच फैल गई, उनका मानना था कि जहाँ तक हो सके संसार में वेद, वेदाङ्ग और उपांग प्रचार प्रसार करने चाहिए।, उनका मस्तिष्क एक पुस्तकालय की भांति काम करता था जिस ग्रंथ को एक बार ध्यान से सुन लेते थे वह उनका हो जाता था, वे अपनी सारी विद्या अपने कण्ठ में रखते थे।

मृत्यु का पूर्वाभास


'स्वामी विरजानन्द' अब 71 वर्ष के हो चुके हैं अपनी समस्त पुस्तकें, वर्तन, कपड़े और तीन सौ रुपये नकद अर्थात कुल 525 रू मुल्य की रजिस्ट्री अपने विद्यार्थी 'जुगलकिशोर' के नाम कर दिया, मरने से दो वर्ष पहले योगी विरजानन्द ने विद्यार्थियों से कह दिया था 'शूल की पीड़ा' से फला दिन मरूँगा, उनसे मिलने कुछ सज्जन महानुभाव आये उन्होंने उनसे कहा कि भविष्य में अब तुम लोग यहां मत आना, ऋषियों की छोड़ी गई ग्रंथ रूपी संपत्ति का प्यारा, वेदों की निष्कलंक ज्योति को ऋषीकृत ग्रन्थों के सहयोग से 'वर्षाने' वाला ब्रम्हचारी यौगिक शब्दों की सच्ची पारसमणि से काले-कलूटे लोहे को चमकाते हुए सोने में परिवर्तित करने वाले 'ऋषी योगसमाधि' से आत्मशक्ति बढ़ाने वाले महात्मा, विद्यार्थियों के मन में वैदिक ज्योति पहुचाने वाले महात्मा-गुरू बिना शोक 'कुवार महीने के कृष्ण पक्ष' की त्रयोदशी सोमवार संवत 1925 को अपने पंच भौतिक शरीर को छोड़कर सज्जनों के हृदय में अपने वियोग से सदैव के लिए चला गया, व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।

व्याकरण का सूर्य

एक दयानंद सरस्वती ने उस प्रकाश को खींच कर अपने मे समाहित कर जगत को प्रकाशित किया, विरजानन्द का गौरव, विद्वता 'स्वामी दयानंद सरस्वती' को देखकर आज अनुमान लगाया जा सकता है, उनके मृत्यु का समाचार को सुनते ही स्वामी दयानंद सरस्वती बर-बस बोल पड़े-- "ब्याकरण का सूर्य अस्त हो गया", जिस प्रकार 'सुकरात' का गौरव 'अफलातून' जनता है; ''ऋषी विरजानन्द'' की महिमा ऋषी दयानंद ही पहचानता है, स्वामी दयानंद ने सभी ग्रन्थों को लिखने के पश्चात अपने को स्वामी विरजानन्द का शिष्य बताना नहीं भूलते, वे कहते हैं--"मनुष्य मात्र को देने के लिए एक अद्भुत परोपकारी विद्यार्थी, स्वामी दयानंद सरस्वती को सौपता हुआ सचमुच ऋषी के रूप में दिखाई देगा।"