दिग्विजयी ऋषी दयानंद - भाग-18

वेदों की ओर लौटो


ऋषि दयानंद सरस्वती वैदिक ऋषियों के उत्तराधिकारी, भारतीय संस्कृति के प्रतीक, वेदों की आत्मा का  प्रतिनिधित्व करते थे गत आठ सौ वर्षों में 'भारतीय संघर्ष काल' में हमें अपनी संस्कृति में समझौते की आदत सी बन गई है, 'बौद्ध काल' में जो 'वैदिक संस्कृति' का ह्रास हुआ उससे उबरे नहीं थे कि इस्लामिक और ईसाईयों के संघर्ष के कारण भारतीय संस्कृति में बहुत अधिक विकृति पैदा हो गई और हिंदू समाज उसी को 'वैदिक धर्म' कहने लगा वास्तविकता यह है कि उसे वेदों पर अटूट श्रद्धा थी लेकिन उसे वेदों का ज्ञान नहीं था कोई उसे पढ़ने-पढ़ाने वाला भी नहीं था, जहाँ बौद्धों तथा जैनियों ने नास्तिकता को ही धर्म माना वहीँ सनातन परंपरा के मानने वालों ने विभिन्न मत-पंथ शुरू कर दिया और इन्होंने उसे वैदिक मत ही बता दिया, उन्नीसवीं शताब्दी में जब स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ तो उन्होंने पुनः वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया, उनका मत था ''बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता" इसलिए जहाँ एक ओर वैदिक धर्म का प्रचार वहीँ वेदों द्वारा शिक्षित क्रांतिकारियों की पौध तैयार करने प्रारंभ कर दिया।


क्रांतिकारियों की पौध

जब स्वामी जी ने देश भर में प्रवास कर शास्त्रार्थ, प्रवचन के माध्यम से हिंदू समाज को स्वराज्य के लिए जागरूक कर रहे थे, उन्हें यह भी ध्यान में आया कि समाज का शिक्षित होना भी जरूरी है इसलिए गुरुकुलों की ब्यवस्था पर ध्यान दिया, उन्होंने लाला लाजपतराय, लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे अनेक क्रांतिकारी उनके नर्सरी में पैदा होने प्रारंभ हो गए, इतना ही नहीं स्वामी विवेकानंद जी सर्वप्रथम ब्रम्हसमाज के अनुयायी थे लेकिन जब वे ''स्वामी रामकृष्ण परमहंस'' के संपर्क में आये तो उनका हृदयचक्षु खुल गया और अध्यात्म के साथ देशभक्ति का रंग चढ़ने लगा, लोगों का मत है कि स्वामी विवेकानंद के अंदर जो निडरता आयी प्रखर राष्ट्रभक्ति की भावना आयी वह स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा लिखी गयी पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" पढ़ने के पश्चात उनका चक्षुज्ञान खुल गया, स्वामी विवेकानंद जी देश भ्रमण पर निकले थे वे मुंबई से पुणे जाने के क्रम में पुणे में वे लोकमान्य तिलक के यहाँ रुके थे वही पर तिलक जी की सलाह पर उन्होंने स्वामी दयानंद जी द्वारा लिखित ''सत्यार्थ प्रकाश'' पढ़ी वहीँ से 'स्वामी विवेकानंद' की विचार करने की दिसा बदल गयी ।

सारे विश्व की चुनौती

'दयानंद सरस्वती' सारे विश्व के लिए चुनौती बन गए थे जिसके राज्य में सूर्य डूबता नहीं था वह सर्वाधिक परेशान हो रहा था, 'आर्यसमाज' की ताकत दिनों दिन बढ़ती जा रही थी, आर्यसमाजी बनने की होड़ सी लग गई थी, बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता यह आम भारतीयों के मन को छू लिया था ऐसा लगता था, राजाराम मोहनराय ने 'ब्रम्हसमाज' की स्थापना कर अंग्रेजी शासन को और मजबूत करने तथा अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर चर्च की शिक्षा परोसने का काम कर रहे थे हालांकि राजाराममोहन राय जा चुके थे उनके स्थान पर 'केशवचन्द्र सेन' 'ब्रम्हसमाज' के अध्यक्ष थे, 'ब्रम्हसमाज' का स्पष्ट मत था कि अंग्रेज यहां देवदूत बनकर आये हैं वे जो भी कहते हैं ईश्वर आज्ञा के समान है, यदि कोई भगवा रंग का वस्त्र धारण करने वाला व्यक्ति यह बात बोलता है तो सीधा- साधा हिन्दू समाज जिसने हमेशा अपने संतों का अनुगमन किया है उसने इसे भी हृदयंगमय किया, लेकिन जब 'स्वामी दयानंद सरस्वती' का प्रादुर्भाव हुआ तो यह बात सामान्य हिंदू समाज को समझ में आने लगी और ब्रम्हसमाज की पोल खुलने लगी, अंग्रेजों ने ब्रम्हसमाज को एक हथियार के रूप में प्रयोग करने का काम किया, ब्रम्हसमाज-! हिंदू समाज और चर्च के बीच एक पुल का काम करता था और ब्रम्हसमाज नामक 'पुल' के द्वारा 'हिंदू समाज' चर्च में जाकर ईसाई समुदाय में मिल जाता था, अंग्रेजों को यह भली-भांति पता था कि हम बहुत दिन तक हिन्दुओं पर शासन नहीं कर सकते जब तक इनका बड़ी संख्या में मतांतरण नहीं किया जाएगा।
अंधकार युग में ज्ञान-प्रचार के साधन
ऋषियों के कालखंड को छोड़कर हम अंधकार युग में दीपक का प्रकाश फैलाने वालों को इन दो ही साधनों को ब्यवहार करते हुए पाते हैं, बुद्ध ने इसी उपदेश के बल पर धर्म के साधनों का संसार में प्रचार किया और आज पचास करोड़ से अधिक इस उपदेश कोमानते हैं, शंकर, ईसा, मुहम्मद, डार्विन आदि अनेक पुरुषों ने मौखिक और लिखित उपदेश से कम लिया है।

राजा-महाराजाओं से सम्पर्क

यह सब को पता है कि 1857 का 'स्वतंत्रता संग्राम' स्वामी दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में हुआ था जो सन्यासियों का दल आगे आगे चल रहा था उसका नेतृत्व स्वामी जी कर रहे थे, यह बात अंग्रेजों को भली भांति पता था इसलिए उनकी दृष्टि स्वामी जी पर हमेशा बनी रहती थी, स्वामी जी को ऐसा लगता था कि भारतीय राजाओं को यदि 'राष्ट्रवाद' का पाठ पढ़ाकर आगे किया जाय तो सफलता मिल सकती है, वे भली प्रकार राजाओं की महत्वाकांक्षा को समझते थे, इन सब गतिविधियों पर अंग्रेज अधिकारी दृष्टि लगाए हुए थे, भारतीय राजाओं के दो प्रकार थे एक वे जो अंग्रेजों के साथ थे दूसरे वे जो स्वराज्य के पक्ष में थे एक तीसरा प्रकार भी था जिन्हें अंग्रेजों ने राजा बनाया था, वे तो हमेशा अंग्रेजों के ही गुण गान किया करते थे।

वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितान

स्वामी जी जहाँ कहीं भी जाते वहां शास्त्रार्थ होता था प्रवचन होता था और शंका समाधान, वे ईसाई मिशनरियों को तथा मुस्लिम मौलानाओं को शास्त्रार्थ की चुनौती देते घूमते रहते थे कोई भी शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार नहीं हो सकता था यदि शास्त्रार्थ के लिए कोई आता तो उसे पराजय का मुख देखना पड़ता था, सारे ईसाई जगत में कोई मुकाबला करने वाला व्यक्ति नहीं था उन्हें अपनी प्रासंगिकता पर शन्देह होने लगा यही हाल मुस्लिम जगत का भी था, स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश नाम का ग्रंथ लिखकर सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया, अब ईसाई मुसलमानों के पास कोई उत्तर नहीं था, अंग्रेज अधिकारी यह समझ नहीं पा रहे थे कि यह सन्यासी आध्यात्मिक है अथवा राजनीति उन्हें यह ध्यान में नहीं आ रहा था कि "वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहित" वेदों में स्पष्ट राष्ट्रवाद का उपदेश दिया गया है, अंग्रेज डर रहे थे कि कोई दुबारा 1857 जैसी क्रान्ति न हो जाय, आर्यसमाज के राष्ट्रब्यापी अभियान से सरकार चौकन्नी थी, जहाँ अंग्रेज ब्रम्हसमाज का उपयोग देश पर शासन के लिए उपयोग करते थे वहीं आर्यसमाज स्वराज्य के अभियान में लगा हुआ था अब आर्यसमाज देश ब्यापी संगठन बन गया था।

क्रांतिकारियों की सृंखला

डॉ गणेशीलाल वर्मा कहते हैं कि "जब मैं शोध कर रहा था तब मेरा ध्यान 'स्वामी दयानंद सरस्वती' शिष्य ''श्यामजी कृष्ण वर्मा'' के ओर गया, मैं 'गांधी' से 'श्यामजी कृष्ण बर्मा' पर पहुंच गया और ध्यान में आया कि 'गाँधी' तो मात्र श्यामजी की छाया हैं" स्वाधीनता आंदोलन की दिशा क्या हो इसका भी निर्धारण समय समय पर वे करते रहते थे, कांग्रेस को अंग्रेज भक्ति से स्वाधीनता की ओर प्रवृत्त करने में भी प्रमुख भूमिका श्यामजी की ही थी, ''लाल- बाल- पाल'' को भारतीय क्षितिज पर स्थापित करने वाले श्यामजी ही थे, भारतीय राष्ट्रवाद जिसे स्वामी जी ''स्वराज्य'' कहते थे के उन्नयन के बजाय अंग्रेजों के आगे भीख का कटोरा लेकर खड़े रहने वाले नेताओं की पोल पट्टी भी खोलकर रख देते थे चाहे वे दादा भाई नौरोजी हो या गोपाल कृष्ण गोखले अथवा महात्मा गांधी। स्वामी दयानंद सरस्वती अपने शिष्यों के साथ पत्र ब्यवहार भी नियमित करते रहते थे, उन्होंने श्यामजी को कई पत्र लिखा जिसमें नौ पत्र उपलब्ध हैं, इन पत्रों में गुरू शिष्य का उदबोधन है, श्यामजी कृष्ण वर्मा और लोकमान्य तिलक संस्कृति भाषा के असाधारण विद्वान थे राजनैतिक दृष्टि से दोनों स्वामी दयानंद सरस्वती का ही अनुसरण करते थे, 'लाला हरदयाल' ''इंडिया हाउस'' में रहने वाले देशभक्त थे, 1881 में बर्लिन की पांचवी ''ओरियंट कांफ्रेंस'' में श्यामजी ने 'संस्कृत एक जीवित भाषा' विषय पर शोध निवन्ध पढ़ा, स्वामी दयानंद सरस्वती के पत्र रामलाल कपूर, बहालगढ़ हरियाणा से प्रकाशित स्वामी दयानंद के पत्र और विज्ञापन से ली गई है, इस प्रकार श्यामजीकृष्ण वर्मा, लोकमान्य तिलक, लाला हरदयाल, लाला लाजपतराय, बिपिनचंद्र पाल, स्वामी श्रद्धानंद, वीर सावरकर, भगतसिंह, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे अनगिनत क्रांतिकारी 'स्वामी दयानंद सरस्वती जी' से प्रेरित होकर अपने को देश आजादी के लिए आहुति दे रहे थे और अंग्रेजों की घबराहट बढ़ती जा रही थी।

आर्यसमाज और राष्ट्रवाद

स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्वराज्य का उद्घोष किया था, ऐसा मानने के भी कारण है कि स्वामी दयानंद का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान था, 1857 में उन्होंने "आर्य समाज" स्थापित किया परंतु यह किसी सम्प्रदाय विशेष की स्थापना नहीं थी, राष्ट्रवादी दयानंद को भारतीय रजवाड़ों से बड़ी अपेक्षायें थीं प्राचीन इतिहास के माध्यम से वे उन्हें वीरता और प्रजा पालन की प्रेरणा देते थे, लगता है राजवंशों के संबंध में स्वामी जी के विचार ही श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपनाया,1879 में स्वामी जी की सहमति से युवक श्यामजी कृष्ण वर्मा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर "मोनियर विलियम" को शोधकार्य में सहायता करने इंग्लैंड गए, स्वामी जी और श्यामजी का पत्रव्यवहार लगातार होता रहा, पटियाला अभियोग के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आर्यसमाज में अधिकांश प्रचारक राष्ट्रवादी थे आर्यसमाज पुस्तकालय में कर्मयोगी तथा दूसरे राष्ट्रवादी समाचार पत्र मंगाए जाते थे आर्यसमाज की ओर से बिपिनचंद्र पाल और लोकमान्य तिलक के ब्याख्यान वितरित किए जाते थे आर्यसमाज की स्वदेशी स्वदेशी दुकानों पर अरविन्द, तिलक, अजीत सिंह, नाना साहब, खुदिराम बोस के चित्र प्रदर्शित किया जाता था।