दिग्विजयी ऋषी दयानंद - भाग --19



स्वामी दयानंद सरस्वती की पाठशाला के रत्न

अंग्रेज अधिकारी बहुत परेशान हो गए थे उन्होंने जिस भावना से ब्रम्हासमाज को आगे बढ़ाने का काम किया था, अंग्रेज यह समझ रहे थे कि यदि ईसाईयों की संख्या नहीं बढ़ी तो हम भारत पर शासन नहीं कर सकते, जिस गति से ब्रम्हासमाज आगे बढ़ रहा था स्वामी जी ने वैचारिक रूप से आर्यसमाज कहीं ज्यादा ताकतवर देश व वैदिक धर्म के प्रति समर्पित नवजवान तेज गति में खड़े होने लगे, आर्यसमाज की शाखाएं बढ़ने लगी उनसे निर्माण किये जाने वाले क्रांतिकारी बड़े ही धैर्यवान, साहसी, दूरद्रष्टा, देशभक्ति से ओत प्रोत और बलिदान के लिए तत्पर रहते थे, जो स्वामी जी की भट्टी में पके थे वे सभी अकेले नहीं हो सभी सेनापति थे जो हजारों लोगों के नेतृत्व की क्षमता रखते थे। स्वामी जी के बारे में लिखते समय यदि उनके द्वारा निर्मित सेनापतियों का उल्लेख नहीं किया जाये तो उन क्रांतिकारियों के साथ अन्याय होगा, सभी का तो संभव भी नहीं है लेकिन कुछ महापुरुषों का वर्णन मैं आवश्यक समझता हूँ क्योंकि बिना उनके वर्णन के स्वामी दयानंद सरस्वती का ब्यक्तित्व समझने में हमें मुश्किल होगा।


क्रान्तिपुत्र श्यामजी कृष्ण वर्मा

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को हुआ, चूंकि वे अक्टूबर 1857 को पैदा हुए थे इसलिए उन्हें स्वामी दयानंद सरस्वती क्रांतिपुत्र कहते थे, देश की स्वतंत्रता के लिए मातृभूमि से सैकड़ों मील दूर रहकर उन्होंने कार्य किया स्वामी दयानंद जी के प्रेरणा से उन्होंने अपनी महान आर्थिक संपदा राष्ट्रहित में न्यवछावर कर दिया, वे असहयोग आंदोलन के प्रेरणा पुंज थे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में श्यामजी की तुलना 'लोकमान्य बालगंगाधर तिलक' से ही किया जा सकता है दोनों देशभक्त विद्वान, संस्कृतज्ञ और विचारों की गहराई में उतरने वाले विद्वान थे दोनों स्वामी दयानंद से प्रेरित होने के कारण विचारों में अदभुत समानता थी।

शिष्य को गुरू मिल गया

वे बड़े मेधावी छात्रों में से थे प.विश्वनाथ शास्त्री ने उन्हें अष्टाध्यायी कंठस्थ करा दिया, उन्हें मुंबई के श्रेष्ठतम अंग्रेजी विद्यालय एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश मिल गया, इसी समय 1875 मे जब स्वामी दयानंद सरस्वती मुंबई आये उनकी बड़ी ख्याति थी वे आर्य समाज व वेदों के प्रचार के लिए समग्र आर्यावर्त में प्रवास कर चुके थे, श्यामजी स्वामी जी से मिलने पहुंचे और धाराप्रवाह संस्कृति बोलने के कारण स्वामी जी को बहुत प्रिय बन गए, इस प्रवास ने स्वामी जी को एक होनहार देशभक्त अनन्यतम शिष्य के रूप में मिल गया, गुरू दयानंद सरस्वती द्वारा उन्हें विरासत में विशुद्ध राष्ट्रीय दृष्टकोण और विदेशी दासता के कारण भारतीयों की दुर्दशा का अहसास। स्वामी दयानंद सरस्वती की ज्ञान पिपासा ने हिमालय से नर्मदा के बीहड़ों ले गई थी, 1857 स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्वकर्ताओ में एक थे, स्वदेश की तड़पन भारतीय वाङ्गमय पर अगाध अधिकार और ब्रम्हचर्य का दिव्य तेज उनकी त्रिवेणी ने भारतीयों को झकझोर दिया। प.श्यामजी को पुणे, वाराणसी, लाहौर, अहमदाबाद आदि स्थानों पर वेद प्रचार और समाज सुधार के लिए भेजा।

आक्सफोर्ड के लिए

1877 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृति प्रोफेसर मोनियर विलियम ने श्यामजी से अपने शोध में सहायता करने का प्रस्ताव रखा, इनके अनुसार इनको कुछ वर्षों के लिए इंग्लैंड जाना था, श्यामजी ने स्वामी जी से अनुमति माँगी स्वामी दयानंद सरस्वती ने श्यामजी के लिए एक अच्छा अवसर समझ उन्हें ऑक्सफोर्ड जाने की अनुमति दे दी थियोसोफिकल सोसायटी के कर्नल अल्काट और मैडम ब्लावट्स्की ने भारी बिरोध किया उनका मानना था कि "मोनियर विलियम द्वारा आर्य-समाज प्रवर्तक के प्रमुख शिष्य को अपना सहायक बनाकर और उससे ऑक्सफोर्ड की पुस्तकें उठवाकर पीछे-पीछे चलने का अपमान क्या आर्यसमाज सहन कर पायेगा?" किंतु 'ऑक्सफोर्ड' जाकर 'श्यामजी कृष्ण वर्मा' कसौटी पर खरे उतरे और 'आर्यसमाज' के मित्र वर्ग की शंकाये निर्मूल सिद्ध हुई। तत्काल ब्रिटिश प्रधानमंत्री के एक प्रश्न के उत्तर में श्यामजी ने कहा-- "मुस्लिम राज भारतीयों की पीठ पर वार करता था; अंग्रेजी राज उदर पर लात मारता है," बर्लिन में 'प्राच्यविदों' के पांचवें सम्मेलन में उन्होंने 'ब्रिटिश साम्राज्य' का प्रतिनिधित्व किया, इसी सम्मेलन में उन्होंने एक संस्कृति कविता भी पढ़ी जिसका आशय इस प्रकार है--
"हे आर्यभूमि! महर्षियों को जन्म देने वाली जगद्जननी! कभी तू सर्वविधाओ में विशिष्ट थी, वे क्षत्रिय वीर तेरी स्वतंत्रता के प्रहरी थे, जिनके पग आक्रमणकारियों को कुचलने में समर्थ थे, हे माँ! तेरे विद्यारूपी हीरे यवन शासकों ने नष्ट कर दिया है, परंतु हे माता ! तू रो मत। शान्त हो जा। व्यास सरीखे तेरे पुत्र अमरता प्राप्त कर चुके हैं। विद्वानों और सदाचारियों की प्रथम पंक्ति में तू अब भी है।"

और भारत लौटे

श्यामजी ने यूरोपीय देशों में राष्ट्रवाद की उठती लहर को देखा, बुद्धिजीवियों का योगदान, रजवाड़ो का सहयोग राष्ट्रवादियों का साहस देशभक्त राजनीतिज्ञों की दूरदर्शिता का अध्ययन उन्होंने किया, जर्मनी और इटली जैसा भारत को शक्तिशाली और स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का स्वप्न लिए वे गुरू स्वामी दयानंद सरस्वती के निधन के एक वर्ष बाद 1884 में स्वदेश लौटे, रियासतों में सम्पर्क बढ़ाने की दृष्टि से क्रमशः रतलाम, मेवाङ, जूनागढ़ के दीवान बने, इसी अवधि में श्यामजी और लोकमान्य तिलक में राजनैतिक मित्रता सुदृढ़ हुई।

पुनः लंदन

तिलक जी को जिस प्रकार से एक लेख ''शिवाजी महाराज'' द्वारा 'अफजल खां' के वध पर प्रकाशित होने पर मनमाने ढंग से जेल में डाल दिया गया उससे 'श्यामजी कृष्ण वर्मा' को लगा कि भारत में निरंकुश शासन के रहते भारतीय स्वतंत्रता के लिए काम करना बड़ा कठिन है, इससे तो अच्छा किसी अन्य देशों मेंरहकर अपने देश के लिए काम किया जा सकता है, अतः उन्होंने 'लंदन' पहुँचकर राष्ट्रीय संघर्ष का सूत्र-पात किया। लंदन में रहकर होल्कर, गायकवाड़, मेवाङ के महाराणा व अन्य शासकों को देश की राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया, क्षात्रवृतियों के माध्यम से जुड़ने वाले ''विनायक दामोदर सावरकर'' और लाला हरदयाल थे, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब तथा अन्य प्रदेशों के युवक प्रतिभाएं श्यामजी कृष्ण वर्मा के चारों ओर एकत्रित होने लगीं, भारतीय युवकों का उत्साह के अनुरूप क्षात्रवृतियों का परिणाम बढ़ने लगा, धीरे-धीरे राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, झाँसी की रानीलक्ष्मी बाई अनेकों वीरो के नाम पर छात्रवृत्तियां प्रारंभ हो गई, इन प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप भारत राष्ट्र उग्र आंदोलन का रूप धारण करने के लिए सान्निध्य हो गया।

इंडिया हाउस की स्थापना

सारे विश्व में राष्ट्रवाद पूरे उत्कर्ष पर था, इसमें न केवल स्वराज्य चाहने वाले होमरूल सोसायटी का संगठन खड़ा हुआ बल्कि सोसायटी के लिए जुलाई 1905 में 65 क्रामवेल एवेन्यू स्थिति विशाल भवन भी खरीद लिया और उसमें एक कार्यालय भी स्थापित हो गया, इंडिया हाउस के नाम से विख्यात लंदन की यह आलीशान इमारत भारतीय देशभक्तों का स्वतंत्रता संग्राम का मंदिर बन गया, 1907 में इस भारत भवन में ही जीवन दानी देशभक्तों का संगठन 'देशभक्त समाज' खड़ा किया गया जो अनेक खतरे मोल लेकर भी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए कृत संकल्पित थे, इस तरह अन्यान्य देशों के भारतीय भी श्यामजी कृष्ण वर्मा की भारत भक्ति भावना से ओत-प्रोत होने लगे, टोक्यो की शाही यूनिवर्सिटी में भी भारतीयों का संगठन बन चुका था जो 'इंडिया हाउस' के सम्पर्क में था, ये सारे क्रांतिकारी 'स्वामी दयानंद सरस्वती' के औपनिवेशिक स्वशासन नहीं बल्कि पूर्ण स्वराज्य के लिए संकल्पित हो रहा था।

असहयोग से स्वराज्य

श्यामजी कृष्ण वर्मा ने असहयोग आंदोलन को और अधिक स्पष्ट किया, 1905-6 में भारत में अंग्रेजी राज्य समाप्ति के लिए असहयोग आंदोलन की एक रूपरेखा तैयार किया।
1. किसी भी भारतीय को ब्रिटिश सरकार की सिक्योरिटी में धन नहीं लगाना चाहिए।
2. भारत पर लादे गए पब्लिक कर्ज से भारतीयों को इनकार कर देने चाहिए।
3. अंग्रेजी सरकार की सभी सेवावों का बहिष्कार किया जाना चाहिए।
4. सभी सरकारी शैक्षिक संस्थानों का बहिष्कार किया जाना चाहिए।
5. भारत के सॉलिसिटर, बैरिस्टर और वकीलों को अदालत का बहिष्कार करना चाहिए और अभियोगों को राष्ट्रीय न्यायालयों में लाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
6. प्रशासनिक और सैनिक सेवावों को अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करना चाहिए, उन्हें अधिक वेतन मांगने के लिए हड़ताल करने के लिए प्रोत्साहित करते रहना चाहिए।
असहयोग की पुष्टि करते हुए रूसी विचारक टालस्टाय ने लिखा-- "यदि बीस करोड़ हिंदू ऐसी निरंकुश सत्ता के आगे समर्पण न करें जिसे लोगों की जाने लेना ही भाता है, यदि वे भर्ती न हों, कोई कर न दे, पुरस्कारों के प्रलोभन में न पड़े और अंग्रेजों द्वारा लागू कानून का पालन न करें तो पचास हजार अंग्रेज क्या सारी दुनिया के भी अंग्रेज मिलकर भारत को गुलाम नहीं बना सकते।

भारतीय राष्ट्रवाद के सर्वमान्य नेता

श्यामजी कृष्ण वर्मा ने राष्ट्रवादियों को संगठित करने हेतु देश विदेश के लगातार दौरे शुरू कर दिया भारत के क्रांतिकारियों ने वायसराय की शवयात्रा निकालने का साहस दिखाया इस प्रकार श्यामजी की प्रतिक्रिया इस प्रकार थी--! "क्रान्ति की भूमिका तैयार करने के लिए राजनीतिक वध आवश्यक हो जाता है, स्वतंत्रता प्राप्त के लिए जो साहस पूर्ण पग उठाया जाये उचित है। पूर्ण स्वराज्य से कम भारतीय कुछ भी नहीं चाहते और वे जान गए हैं कि शांति पूर्ण ढंग से उन्हें स्वतंत्रता नहीं मिल सकती।" आगे श्यामजी ने गोखले आदि उपनिवेशवादियों को फटकार लगाई, इस समय श्यामजी कृष्ण वर्मा की छबि भारतीय राष्ट्रवाद के सर्वमान्य नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। आगे उन्होंने भारतीयों को अंग्रेजी सेना में भर्ती न होने का अनुरोध किया, आयरलैंड के पोस्टर में लिखा-: "आयरिश वासियों! क्या आप अंग्रेजी थल सेना, नौसेना या पुलिस में शामिल होकर अपने देश को इंग्लैंड के पावों तले गुलाम बनाये रखेंगे बंधन की ये जंजीर आपकी श्रद्धेय माँ की कलाई से कसकर बांधी गई है, क्या आप उन्हीं सेनाओं में सम्लित होकर इन जंजीरों को और कसे जाने में मदद करेंगे, अंग्रेजी सेना में शामिल न होकर आप आयरिश राष्ट्र को ऊँचा उठाने में मदद कर सकते हैं, यदि आप आयरिश निवासी हैं तो आप आयरलैंड के प्रति वफादार रहेंगे और अंग्रेजों का एक घृणित सैनिक बनने से इनकार करेंगे और एक राष्ट्र के रूप में अपनी आयरिश माँ की पुनः स्थापना में सहायता करेंगे।" प्रथम विश्व युद्ध के साथ ही श्यामजी कृष्ण वर्मा के अनुयायी- चम्पकरमन पिल्लै, तारकनाथ दास, बरकतुल्लाह और वीरेंद्र चट्टोपाध्याय तुरंत जेनेवा से बर्लिन पहुंचे वहाँ 'इंडियन नेशनल पार्टी' की स्थापना हुई, हिंदुस्तान में क्रांति का आयोजन 'रासबिहारी बोस' कर रहे थे, क्रान्ति की तिथि 21 फरवरी 1915 निश्चित की गई थी जो बाद में बदलकर 19 फरवरी करनी पड़ी और भारतीय विप्लव के झटके सिंगापुर, कलकत्ता और सीमा प्रान्त में महसूस किये गए।

क्रांतिपुत्र राष्ट्रवाद के पुरोधा का अंत

31 मार्च 1930 शायम काल 6 बजे डूबते सूरज के साथ ही जेनेवा में भारतीय स्वतंत्रता का यह नक्षत्र भी अस्त हो गया प्रसिद्ध समाजवादी लेखक 'मैक्सिम गोर्की' ने 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में श्यामजी कृष्ण वर्मा का वही स्थान स्वीकार किया है जो इटली के संघर्ष में 'मेजिनी' का था, 1798 की फ्रांसीसी क्रान्ति जिस प्रकार दार्शनिक रूसो की ऋणि थी, लगता है उसी प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के प्रत्येक पहलू पर अमर देशभक्त श्यामजी की छाप थी उन्होंने ऋषी दयानंद सरस्वती के बताये गए मार्ग का अनुसरण करते हुए अपनी गुरू दक्षिण अर्पित की, वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शिल्पी थे।

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लोकमान्य तिलक का अद्वितीय स्थान है 1856 से1920 तक वे एक क्षत्र भारतीय क्षितिज पर छाए हुए थे वे ऋषी दयानंद सरस्वती से अत्यंत प्रभावित हो कर उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश को केवल स्वयं ही नहीं पढ़ा बल्कि उन्होंने बहुत सारे लोगों को पढ़ाने का प्रयास किया उसमें एक नाम ''स्वामी विवेकानंद जी'' का भी है, तिलक जी कहते हैं कि मैंने 'सत्यार्थ प्रकाश' को पढकर ''स्वराज्य'' का अर्थ जाना और उसी के बाद यानी स्वामी दयानंद सरस्वती की अभिव्यक्ति "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है," की घोषणा करने वाले महात्मा तिलक राजनीति सूझ बूझ में अपने साथियों से कहीं आगे थे।
श्यामजी कृष्ण वर्मा एवं बालगंगाधर तिलक में आपसी परिचय संस्कृति के विद्वान होने के रूप में हुआ था, 1881 में बालगंगाधर तिलक ने श्यामजी को एक पत्र लिखकर "वेंदो की प्राचीनता'' पर मैक्समूलर की सम्मति चाही थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उन्हें सलाह दिया कि वे अपनी संस्कृति, भाषा आदि के संबंध में यूरोपीय विद्वानों की सम्मति की कभी चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यूरोपीय विद्वानों से उनकी (तिलक जी) योग्यता कहीं अधिक है, इससे यह मालूम होता है कि 1881 से पहले इन दोनों राष्ट्रभक्तों का एक दूसरे से घनिष्ठता थी यानी भली भांति जान पहचान थी, वस्तुतः संस्कृति का गंभीर ज्ञान और निष्ठा इन दोनों की देशभक्ति और व्यक्तिगत मित्रता का आधार वना। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए श्यामजी कृष्ण वर्मा एवं लोकमान्य तिलक की मित्रता वरदान साबित हुआ, 1891 में दोनोँ ही देशभक्तों ने अल्पायु विवाह निषेध विधेयक का हिंदू समाज का आंतरिक मामला है विदेशी सरकार की दखलंदाजी का विरोध किया, वस्तुतः 19वी सदी समाप्त होते होते भारतीय स्वराज्य आंदोलन की नींव बन गई थी, 1897 में तिलक की गिरफ्तारी पर श्यामजी ने भारत से बाहर जाकर स्वराज्य के लिए काम करने का संकल्प लिया था।
लोकमान्य तिलक 'श्यामजी कृष्ण वर्मा' के बड़े प्रसंसक थे, 4 जुलाई 1905 को उन्होंने अपने पत्र ''केशरी'' में प. श्यामजी कृष्ण वर्मा 'याचा विलायते तील उधोग' शीर्षक से लेख भी प्रकाशित किया था, तिलक जी की सिफारिश पर बहुत से युवाओं को स्नातक राष्ट्रवाद में दीक्षित होने के लिए 'लंदन' श्यामजी के पास पहुंचे, ऐसे युवाओं में 'वीर सावरकर' और 'लाला हरदयाल' तो बहुत प्रसिद्ध हैं।

लाला हरदयाल

लाला हरदयाल और स्वातंत्र्यवीर सावरकर दोनों ''भारत भवन'' लंदन से जुड़ी हुई प्रतिभा थी, वीर सावरकर की भांति लाला जी भी श्यामजी कृष्ण वर्मा के सिपहसालारों में माने जाते थे, 1909 में राष्ट्रभक्त हरदयाल प. श्यामजी कृष्ण वर्मा के आलोचक हो गए थे और फ्रांस भारतीयों की सहायता से पेरिस में उन्होंने वंदेमातरम पत्र का संपादन शुरू कर दिया, श्यामजी कृष्ण वर्मा राष्ट्रभक्त लाला हरदयाल को राष्ट्र के होनहार युवक के रूप में सम्मान और सलाह देते रहे, यही वजह थी कि दोनों महापुरूषों में एक लंबी अवधि तक पत्र व्यवहार होता रहा, हरदयाल के पेपर में श्यामजी के लेख लिखे गए 6-7 पत्रों के ड्राफ्ट मिलते हैं, इन पत्रों से इंडिया हाउस द्वारा संपादित हो रहे देशकार्यो पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। लाला लाजपतराय, लाला हरदयाल ये सब लोग वीर सावरकर की भांति स्वामी दयानंद सरस्वती शिष्य श्यामजी कृष्ण वर्मा की कृति थे।

इंडिया हाउस

18 फरवरी 1905 को इंडियन होम रूल सोसायटी की स्थापना हुई, उससे पहले श्यामजी इंडियन सोशयोलॉजिस्ट पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर चुके थे, इंडियन फेलोशिप स्कीम के अंतर्गत लंदन पहुचने वाले भारतीयों की संख्या में बृद्धि हो रही थी, लंदन में भारतीयों पर विशेष तौर पर स्वतंत्रता के लिए कार्यरत भारतीयों पर बहुत खतरा बढ़ गया था, इसलिए श्यामजी कृष्ण वर्मा एक हास्टल खोलने का विचार कर रहे थे जो जुलाई 1905 में सम्भव हो सका उसका नाम दिया गया "इंडिया हाउस"।
इंडिया हाउस के उद्घाटन समारोह में अनेकानेक भारतीय और विदेशी लोग विद्यमान थे जिसमें मैडम कामा, मैडम डेसपार्ट, दादाभाई नौरोजी, लाला लाजपतराय, हंसराज इत्यादि उल्लेखनीय है, उद्घाटन भाषण में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने कहा-- "जैसी इस समय की परिस्थिति है, ब्रिटेन के प्रति वफादारी का अर्थ है भारत के साथ विस्वासघात"! "इंडिया हाउस संस्थान का अर्थ है उस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम, भारत की समृद्धि, भारत की मुक्ति, जो आज दोपहर यहां इकट्ठा हुए हैं उसमें से कुछ इस सकल विजयोल्लास को सफल देखने के लिए अवश्य ही जीवित रहेंगे।"

 क्रांतिवीर विनायक दामोदर सावरकर

तीस वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है...इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति-पत्नी की भेंट न हो. ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी, कल्पना मात्र से आप सिहर उठेगे--? जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर की ! ( सावरकर अपने समय के सबसे बड़े क्रांतिकारी थे मार्क्सवादी लेनिन भी कहीं टिकते नहीं थे) लेकिन सावरकर 'इंडिया हाउस' के उत्पाद थे और श्यामजी कृष्ण वर्मा के शिष्य थे, इंडिया हाउस भारतीय क्रांतिकारियों के निर्माण करने का कृतसंकल्पित स्थान था वहां भारतीय महापुरुषों के नाम से क्षात्रवृति दी जाती थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपना सारा का सारा धन इस राष्ट्रकार्य में समर्पित कर दिया था और उसमें से लाला हरदयाल, वीर सावरकर, मदनलाल ढींगरा जैसे बहुत सारे क्रांतिकारियों का निर्माण किया और जब ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में श्यामजी आ गए तो उन्होंने वड़ी सावधानी से अपना सारा कार्य "सावरकरजी" को सौंप कर जर्मनी चले गए, सावरकर अध्येता थे उन्होंने भारतीय वाङ्गमय का अध्ययन ठीक प्रकार से किया था वे श्यामजी के माध्यम से स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों को ग्रहण ही नहीं किया बल्कि ''स्वराज्य के बिना स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता'' यह बात वीर सावरकर के मन में घर कर गई, उन्होंने कई बार स्वामी जी द्वारा लिखित ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा और बरबस बोल पड़े--- ''जब तक 'सत्यार्थ प्रकाश' हमारे हाथो में है दुनिया का कोई धर्म अपनी सेखी नहीं बघार सकता''

अद्भुत राष्ट्रभक्ति 

जब तक मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा,” कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है, परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा, यमुनाबाई बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि “यही पति मुझे जन्म-जन्मांतर तक मिले” ऐसा कैसे कह सकती हो, यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी.. अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ ! यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया, उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई, सावरकर भी चौंक गए ! उन्होंने पूछा.. ये क्या करती हो ? अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा... “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए, अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है... इसमें बुरा मानने के लिए कुछ भी नहीं है।

केवल सौ रुपये ने इतिहास बदल दिया

वीर सावरकर को जब इंग्लैंड मे ब्रिटिश पुलिस इंडिया हाउस मे गिरफ्तार किया, उन्हे जल मार्ग से भारत लाया जा रहा था उस समय क्रांतिकारियों का कितना नेटवर्क मजबूत था की वे किस समय फ्रांस की सीमा पाहुचगे यह बात मैडम कामा लाइसे क्रांतिकारियों को पता था इंगलिश चैनल मे जब जलपोत पाहुचा सावरकर सौच के बहाने बाथरूम मे गए, बाथरूम का शीशा तोड़कर वे ब्रिटिश चैनल मे कूद पड़े बहुत देर हो गयी वे सौचालय से बाहर नहीं निकले जब दरवाजा तोड़ा गया बाथरूम खाली था वे कई किमी चैनल तैरकर फ्रांस की सीमा पर जा चुके थे जलयान पीछा कर चुका था, वे ज़ोर से चिल्लाये ''अरेष्ट मी - अरेष्ट मी'' फ़्रांस की पुलिस 'सावरकर' को गिरफ्तार कर चुकी थी तभी ब्रिटिश पुलिश भी पहुच गयी भारतीय क्रांतिकारियों को आने मे थोड़ा ही बिलंब हुआ था ''मैडम कामा'' के पहुचते ही ब्रिटिस पुलिस केवल सौ रुपये मे फ्रांस पुलिस को खरीद चुकी थी और 'वीर सावरकर' ब्रिटिस पुलिस के हवाले हो चुके थे, 'मैडम कामा' चिल्लाती रही ब्रिटिश पुलिस सावरकर को लेकर जा चुकी थी, काश सावरकर ब्रिटिश पुलिस के हाथ नहीं लगते तो भारतीय क्रांतिकारी कुछ अलग ही भारतीय स्वतन्त्रता का इतिहास लिखते--!     

दो-दो आजीवन कारावास

वीर सावरकर को 50 साल की सजा देकर भी अंग्रेज नहीं मिटा सके, लेकिन कांग्रेस व मार्क्सवादियों ने उन्हें  मिटाने की पूरी कोशिश की.. 26 फरवरी 1966 को वह इस दुनिया से प्रस्थान कर गए। लेकिन इससे केवल 56 वर्ष व दो दिन पहले 24 फरवरी 1910 को उन्हें  ब्रिटिश सरकार ने एक नहीं, बल्कि दो-दो जन्मों के कारावास की सजा सुनाई थी उन्हें 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी, काले पानी की सजा मिली, कागज व लेखनी से वंचित कर दिए जाने पर उन्होंने अंडमान जेल की दीवारों को ही कागज और अपने नाखूनों, कीलों व कांटों को अपना पेन बना लिया था, जिसके कारण वह सच्चाई दबने से बच गई, जिसे न केवल ब्रिटिश, बल्कि आजादी के बाद तथाकथित इतिहासकारों ने भी दबाने का प्रयास किया। पहले ब्रिटिश ने और बाद में कांग्रेसी-वामपंथी इतिहासकारों ने हमारे इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया, उससे पूरे इतिहास में वीर सावरकर अकेले मुठभेड़ करते नजर आते हैं।

वर्तमान पीढ़ी को कुछ नहीं पता

भारत का दुर्भाग्य देखिए, भारत की युवा पीढ़ी यहाँ तक नहीं जानती कि वीर सावरकर को आखिर दो जन्मों  के कालापानी की सजा क्यों  मिली थी ? जबकि हमारे इतिहास की पुस्तकों में तो आजादी की पूरी लड़ाई गांधी-नेहरू के नाम कर दी गई है, तो फिर आपने कभी सोचा कि जब देश को आजाद कराने की पूरी लड़ाई गांधी-नेहरू ने लड़ी तो ''विनायक दामोदर सावरकर'' को कालेपानी की सजा क्यों  दी गई? उन्होंने तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों की तरह बम-बंदूक से भी अंग्रेजों पर हमला नहीं किया था तो फिर क्यों उन्हें 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी-!

उन्होने एक भी क्षण जाया नहीं किया

'वीर सावरकर' की गलती यह थी कि उन्होंंने कलम उठा ली थी और अंग्रेजों के उस झूठ का पर्दाफाश कर दिया जिसे दबाए रखने में न केवल अंग्रेजों का बल्कि केवल गांधी-नेहरू को ही असली स्वतंत्रता सेनानी मानने वालों का भी भला हो रहा था, अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति को केवल एक सैनिक विद्रोह करार दिया था जिसे आज तक वामपंथी इतिहासकार ढो रहे हैं, '1857- क्रांति' की सच्चा्ई को दबाने और फिर कभी ऐसी क्रांति उत्पन्न न हो इसके लिए ही अंग्रेजों ने अपने एक अधिकारी ए.ओ.हयूम से 1885 में कांग्रेस की स्थापना करवाई थी, 1857 की क्रांति को कुचलने की जयंती उस वक्त ब्रिटेन में कांग्रेस द्वारा  हर साल मनाई जाती थी और क्रांतिकारी नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्यां टोपे आदि को हत्यारा व उपद्रवी बताया जाता था, 1857 की 50 वीं वर्षगांठ 1907 ईस्वी में 'इंडिया हाउस' में 'श्यामजी कृष्ण वर्मा' द्वारा अपने क्रांतिकारियों के साथ ब्रिटेन में ''विजय दिवस'' के रूप मे मनाया जा रहा था जहां वीर सावरकर 1906 में वकालत की पढ़ाई करने के लिए पहुंचे थे।

क्रांतिकारी मन का उपयो

सावरकर को रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्यां टोपे का अपमान करता नाटक इतना चुभ गया कि उन्होंने उस क्रांति की सच्चाई तक पहुंचने के लिए भारत संबंधी ब्रिटिश दस्तावेजों के भंडार 'इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी' और 'ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी' में प्रवेश पा लिया और लगातार डेढ़ वर्ष तक ब्रिटिश दस्तावेज व लेखन की खाक छानते रहे, उन दस्तावेजों के खंगालने के बाद उन्हें  पता चला कि 1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह नहीं, बल्कि देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम था, इसे उन्होंने मराठी भाषा में लिखना शुरू किया, 10 मई 1908 को जब फिर से ब्रिटिश 1857 की क्रांति की वर्षगांठ पर लंदन में विजय दिवस मना रहे थे तो वीर सावरकर ने वहां चार पन्ने का एक पंपलेट बंटवाया, जिसका शीर्षक था 'ओ मार्टर्स' अर्थात 'ऐ शहीदों', इस पंपलेट द्वारा सावरकर ने 1857 को मामूली सैनिक क्रांति बताने वाले अंग्रेजों के उस झूठ से पर्दा हटा दिया जिसे लगातार 50 वर्षों से जारी रखा गया था, अंग्रेजों की कोशिश थी कि भारतीयों को कभी 1857 की पूरी सच्चाई का पता नहीं चले, अन्यथा उनमें खुद के लिए गर्व और अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव जग जाएगा।

1857 स्वतंत्राय समर

वीर सावरकर की पुस्तक '1857 का स्वातंत्र्य समर' छपने से पहले ही 1909 में प्रतिबंधित कर दी गई, पूरी दुनिया के इतिहास में यह पहली बार था कि कोई पुस्तक छपने से पहले की बैन कर दी गई हो, पूरी ब्रिटिश खुफिया एजेंसी इसे भारत में पहुंचने से रोकने में जुट गई, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही थी, इसका पहला संस्करण हॉलैंड में छपा और वहां से पेरिस होता हुए भारत पहुंचा, इस पुस्तक से प्रतिबंध 1947 में हटा, लेकिन 1909 में प्रतिबंधित होने से लेकर 1947 में भारत की आजादी मिलने तक अधिकांश भाषाओं में इस पुस्तक के इतने गुप्त संस्करण निकले कि अंग्रेज थर्रा उठे। भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जापान, जर्मनी, पूरा यूरोप अचानक से इस पुस्तक के गुप्त संस्करणों से जैसे पट गया, एक फ्रांसीसी पत्रकार ई.पिरियोन ने लिखा--! ''यह एक महाकाव्य है, दैवी मंत्रोच्चार है, देशभक्ति का दिशाबोध है, यह सही अर्थों में राष्ट्रीय क्रांति थी, इसने सिद्ध कर दिया कि यूरोप के महान राष्ट्रों के समान भारत भी राष्ट्रीय चेतना प्रकट कर सकता है।''
''और वे मुस्कराए कि ईसाइयो ने हमारी एक बात स्वीकार कर ही ली दो-दो आजीवन कारावास यानि हिन्दुत्व के पुनर्जन्म की अवधारणा स्वीकार कर ली-! '' 

 स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती 


 स्वामी जी महान क्रन्तिकारी व देश भक्त संत थे, वे अपने गुरु महर्षि दयानंद सरस्वती के अनन्य भक्त और उनके उद्देश्यों के प्रति समर्पित शिष्य थे, वेदों के प्रचार वैदिक साहित्य के लिए गुरुकुलो की स्थापना, देश आज़ादी हेतु हजारो क्रांतिकारियों की श्रृंखला खड़ा की, वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति, और आर्य जाती की रक्षा के लिए, मरणासन्न अवस्था से उसे पुनः प्राणवान, गतिवान बनाने की लिए उसे सर्बोच्च शिखर पर पहुचने हेतु 'आर्य समाज' ने सैकणों बलिदान दिए है उसमे प्रथम पंक्ति के प्रथम पुष्प "स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती" थे, इनके पिता जी का नाम 'नानकचंद' था इनका बचपन का नाम मुंशीराम था पढने में मेधावी परन्तु बड़े ही उदंड स्वभाव के थे पिता जी पुलिस इंस्पेक्टर थे, बालक के नास्तिक होने के कारन पिता जी बड़े ही असहज महसूस करते थे, सम्बत 1876 में महर्षि दयानंद सरस्वती बरेली पधारे पिता जी इनको उनके प्रवचन के लिए लेकर गए उनके उपदेशो को सुनकर प्रभावित ही नहीं हुए बल्कि उनके प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न हो गया, लेकिन नास्तिकता का भाव नहीं गया उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ा नास्तिकता तो समाप्त हो ही गयी उनके मन में पुनर्जन्म के प्रति भी जो अनास्था थी समाप्त हो गयी और आर्यसमाज के निकट आ गए । 

आर्य समाज जालंधर के अध्यक्ष

 वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला के अध्यक्ष हो गए उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हो गया, एक बार घूमते-घूमते हिमालय के कंदराओ में जा पहुचे उन्हें प्यास लगी पानी खोजते-खोजते एक गुफा दिखाई दी कम्मंडल बाहर रखा था स्वामी जी ने देखा की एक महात्मा उसी गुफा में खड़ा तपस्या में लीन है, श्रद्धानंद जी उस महात्मा से निवेदन करने लगे की आप बाहर आये भारत पर बिपत्ति है देश गुलाम है गो हत्या हो रही है भारत माता की अस्मत लुटी जा रही है आप जैसे महात्मा यदि कंदराओ में अपनी ब्यक्तिगत मोक्ष के लिए तपस्या करते रहेगे तो देश का क्या होगा--? लेकिन उस महात्मा के ऊपर कोई असर नहीं हो रहा था, वे वापस एक गाव में आ गए दुसरे दिन फिर उस संत से मिलने पहुचे और वही आग्रह दुहराने लगे महात्मा पर कोई असर नहीं होता देख उन्होंने कहा यदि आप नहीं निकलेगे तो मै यही बैठता हूँ, स्वामी जी की बात सुनकर वो महात्मा मुस्कराया और कहा की तुम्हारा नाम स्वामी श्रद्धानंद है तुम पंजाब के रहने वाले हो, तुम्हारी आत्मा महान तपस्वी है इसके बगल में एक और गुफा है उसमे आप भी खड़े हो जाओ बहुत ही शांति मिलेगी, स्वामी जी ने कहा मै महर्षि दयानंद का शिष्य हूँ ! देश और धर्म की रक्षा हेतु ही मेरा जन्म हुआ है पीछे नहीं हट सकता उस सन्यासी ने कहा की मै भी तुम्हारी तरह हिन्दू समाज के लिए काम करता था, यह समाज मरने के लिए पैदा हुआ है निराश होकर मै यह आनंद ले रहा हू तुम भी बगल की गुफा में खड़े हो जाओ ----! मेरे गुरु का आदेश है भारत की स्वतंत्रता भारत की सुरक्षा और धर्म की रक्षा के साथ बिधर्मी हुए बंधुओ की घर वापसी, उस सन्यासी ने स्वामी जी से कहा की "तुम नवजवान हो जिस देश का नवजवान खड़ा हो जाता है वह देश दौड़ने लगता है," स्वामी जी ने आर्य समाज के माध्यम से हजारो देशभक्त नवजवानों को खड़ा कर दिया और  क्रांतिकारियों की ऐसी श्रंखला से देश दौड़ने लगा। 

 सुद्धि आन्दोलन

स्वामी श्रद्धानंद जी ने गुरुकुल प्रारंभ करके देश में पुनः वैदिक शिक्षा को प्रारंभ कर महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतो को प्रचार-प्रसार व कार्यरूप में परिणित किया, वेद और आर्य ग्रंथो के आधार पर जिन सिद्धांतो का प्रतिपादन किया था उन सिद्धांतो को कार्य रूप में लाने का श्रेय स्वामी श्रद्धानंद जी को ही है, गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढने व पढ़ाने की ब्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्यभाषा के प्रचार तथा उसे जीवको -पार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्यजाती के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं, उनका सर्बाधिक महानतम जो कार्य शुद्धि सभा का गठन जहाँ-जहाँ आर्य समाज था वहाँ-वहाँ सुद्धि सभा का गठन कराया और सुद्धि- आन्दोलन का रूप ले लिया भारत जगने लगा । 
और बलिदान हो गए
उन्होंने [स्वामी श्रद्धानंद जी ]ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के ८९ गावो के हिन्दू से हुए मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में सामिल कर आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया और समाज में यह विस्वास पैदा किया की जो बिधर्मी हो गए है वे सभी वापस अपने हिन्दू धर्म में आ सकते है देश में हिन्दू धर्म में वापसी के वातावरण बनने से लहर सी आ गयी, राजस्थान के मलकाना क्षेत्र के "एक लाख पच्चीस हज़ार" मुस्लिम राजपूत यानी मलकाना राजपूतो की घर वापसी उन्हें भारी पड़ी,  वे देश के आज़ादी के अग्रगणी नेता थे गाँधी जी को महात्मा की उपाधि देने वाले वही थे उन्होंने देश जाती, धर्म रक्षा -यज्ञ में अपने जीवन की आहुति दे डाली, (मुल्ला-मौल्बियो) बिधर्मियो को बर्दास्त नहीं हुआ, २३ दिसंबर १९२६ को एक धर्मांध मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद ने उन्हें गोली मारकर हत्या कर दी, वे अमर होकर आज भी हमारे प्रेरणा श्रोत बने हुए है ! 
घर वापसी ही असली श्रद्धांजलि
आइये बिछुड़े हुए बंधुओ की घर वापसी कर -उनके लिए यही सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करे यही देश भक्ति, भारत भक्ति और यही हमारी राष्ट्र आराधना भी है हम इस यज्ञ में आहुति जरुर डालेगे तभी स्वामी श्रद्धानंद की आत्मा को शांति मिलेगी ।