दिग्विजयी ऋषि दयानंद -भाग -20

अंतिम यात्रा की ओर

देश में सभी लोगों की दृष्टि 'स्वामी दयानंद सरस्वती' की ओर टिकी हुई है जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि देश में तीन प्रकार के राजाओं निर्माण हुआ है, एक वे राजा हैं जो अथवा जिनके संबंध राजवंश से हैं जैसे मेवाड़, जोधपुर, रायगढ़, भरतपुर, इंदौर होलकर, कश्मीर, रायगढ़, अमेठी इत्यादि रियासते जो देश की आजादी चाहते हैं अंग्रेजों से मुक्ति भी चाहते हैं दूसरे वे राजा हैं जिन्होंने 1857 में तटस्थता की भूमिका निभाई दोंनो तरफ हैं यानी यदि उन्हें अवसर वादी कहा जाये तो अतिसयोक्ति नही होगा तीसरे प्रकार के वे राजवंश थे जो पूर्ण रूप से अंग्रेजों के खेमे में है क्योंकि उन्हें 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने राजा बनाया, इसी प्रकार पूरे देश में जागीरदारों का भी निर्माण किया गया जो अंग्रेजी शासन की नींव थे, 'स्वामी दयानंद जी' ने जब 'आर्य समाज' की स्थापना किया उन्होंने वैदिक ग्रंथों की रचना करने वेदों का भाष्य करने का काम किया, उस समय स्वामी जी के लाखों अनुयायी थे जिन्हें वेदों, उपनिषदों और सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रन्थों का अध्ययन किया था, देशभक्ति का भाव जन-जन को आकर्षित कर रहा था, अंग्रेजी सरकार के लिए यह चुनौती और चिंता दोनों का विषय था।

ब्रिटिश षड्यंत्र

ऋषी दयानंद सरस्वती ऐसे मनीषी थे जिससे केवल ब्रिटिश साम्राज्य ही नहीं बल्कि सारा का सारा इस्लाम और ईसाई जगत घबड़ाया हुआ था वे पहले आचार्य थे जिन्होंने इन सबकी मानवता बिरोधी बिचार को उजागर किया था, अंग्रेजों को लग रहा था कि स्वामी दयानंद सरस्वती के रहते हम भारत पर शासन नहीं कर पाएंगे सारे पादरी, पास्टर, विशप, मुल्ला मौलबी कोइ स्वामी जी का उत्तर नहीं दे पाते थे उनके ब्यक्तित्व से सारा विश्व में कोई टकराने वाला नहीं था उनके शास्त्रार्थ की चुनौती कोई करने को तैयार नहीं था अब ये सब लोग स्वामी जी के खिलाफ हिन्दुओं को खड़ा करने में लग गए थे और उन्हें इसमें सफलता भी मिली।
हम सभी को जानकारी है अपने देश में जयचंद और मानसिंह की परंपरा रही है ब्रिटिश शासन ने बड़ी सावधानी से पंडितों, साधुओं तथा राजाओं द्वारा स्वामी दयानंद सरस्वती का विरोध करवाते थे यहां तक कि काशी नरेश, जयपुर और जोधपुर का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने स्वामी जी के विरोध का कोई अवसर गवाना नहीं चाहते थे, क्योकी जो स्वामी जी का विरोधी होता वह अंग्रेजों की दृष्टि में उनका हितैसी बन जाता, अंग्रेज अधिकारी यह समझते थे कि दयानन्द सरस्वती को गिरफ्तार करना बिद्रोह को आमंत्रण देना है इसलिए वे सीधा बिरोध नहीं करते थे अंग्रेजों ने योजनाबद्ध तरीके से स्वामी जी को कई स्थानों पर किसी न किसी बस्तु में जहर मिलाकर देने की कार्ययोजना तैयार किया उसमे भारतीय साधू, पुरोहित तथा राजाओं का उपयोग किया लेकिन सीधा साधा हिन्दू समाज इस बात को समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या कर रहा है वह यह विचार कर रहा था कि मैं तो दयानन्द सरस्वती मारना चाहता हूँ वह यह नहीं समझ रहा था कि हम दयानंद सरस्वती को नहीं बल्कि एक वेदों व भारत के उद्धारक को स्वराज्य के अधिष्ठाता को स्वतंत्रता सेनानियों के नर्सरी बनाने वाले को मारना चाहते हैं ये अंग्रेजों के षड्यंत्र के शिकार बने हुए थे।

स्वामी जी जोधपुर में

'चारण नावलदान सेवक' 'राव राजा तेजसिंह' ने वर्णन किया है--- स्वामी जी के यहां पधारने से एक वर्ष पहले मेरे भाई अमरदान चारण ने कर्नल प्रतापसिंह से निवेदन किया कि महाराज को यहां बुलाया जाय, उन्होंने बड़े महाराज से चिट्ठी भेजवाया परंतु स्वामी जी उस समय नहीं आये और कहला भेजा कि मैं उधर आऊँगा और जोधपुर को भुलाऊँगा नहीं। स्वामी जी उदयपुर में थे राव राजा तेजसिंह और महाराज प्रतापसिंह ने चिट्ठी भेजवाई कि आप यहाँ अवश्य पधारें धर्म का प्रचार करें, रावबहादुर गोपाल राय हरि देशमुख के पुत्र लक्ष्मणराव देशमुख, सी एस आई जिला खानदेश के असिस्टेंट कलक्टर 26 मई 1883 को 'अजमेर आर्यसमाज' में उपस्थित हुए, आप योगविद्या सीखने के लिए स्वामी जी के साथ जोधपुर पधारें।

जोधपुर नरेश दर्शनार्थ पधारे

स्वामी जी से मिलने 'राजा जसवंतसिंह' पधारे और एक सौ रुपये पाँच मुहरे भेंट किया जब फर्स पर बैठने लगे तो स्वामी ने उन्हें पकड़कर कुर्सी पर बिठाया स्वामी जी महाराज को ''मनुस्मृति'' के अनुकूल राजधर्म का उपदेश करते रहे इस पर राजा बहुत प्रसन्न हुए और दिल्ली दरबार की भी चर्चा करते रहे! वे तीन घंटे स्वामी जी के साथ रहे बोले ! महाराज आपका यहां पधारना बड़ा दुर्लभ है जब तक आप यहाँ रहे तब तक ब्याख्यान और प्रवचन हुआ करे।

राजा सिंहपुरूष के समान होता है

स्वामी जी को यह विदित हो गया था कि महाराजा के पास एक वैश्या है जो राज्य के काम काज पर प्रभाव डालती (हस्ताक्षेप करती) है हम सभी को पता है कि अकबर से लेकर औरंगजेब तक का शासन इन्हीं जोधपुर, जयपुर नरेशों के बल पर था यही मुगल सम्राट के मेरुदण्ड हुआ करते थे ठीक उसी प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य में भी इन सभी लोगों की यही भूमिका थी, एक दिन किसी कारण स्वामी जी बिना किसी सूचना के राजमहल में गए थे राजा को वैश्या के साथ देखा राजा की दशा देखकर स्वामी दयानंद सरस्वती को बहुत क्रोध आया--! राजा को उपदेश करते हुए कहा "राजपुरुष सिंह के समान होता है सिंहों को कुतिया के साथ रहना अच्छा नहीं होता।" हिंदू राजाओं की सत्ता केवल उनकी रानियों के पतिव्रता धर्म पर आधारित है, अन्यथा यदि राजाओं के कुकर्म पर होता तो बेड़ा कब का डूब जाता, डॉ सूरजमल का कथन है कि स्वामी जी ने राजाओ के ब्यभिचार का बहुत खंडन किया है, केवल मौखिक ही नहीं बल्कि एक पत्र में महाराज प्रतापसिंह को ऐसा लिखा।


वेदों की ओर लौटो

ऋषि दयानंद सरस्वती वैदिक ऋषियों के उत्तराधिकारी भारतीय संस्कृति के प्रतीक वेदों की आत्मा के प्रतिनिधि थे गत आठ सौ वर्षों में भारतीय संघर्ष काल में हमें अपनी संस्कृति में समझौते की आदत सी बन गई है, बौद्ध काल में जो वैदिक संस्कृति का ह्रास हुआ उससे उबरे नहीं थे कि इस्लामिक और ईसाईयों के संघर्ष के कारण भारतीय संस्कृति में बहुत अधिक विकृति पैदा हो गई और हिंदू समाज उसी को वैदिक धर्म कहने लगा वास्तविकता यह है कि उसे वेदों पर अटूट श्रद्धा थी लेकिन उसे वेदों का ज्ञान नहीं था कोई उसे पढ़ाने वाला भी नहीं था, जहाँ बौद्धों तथा जैनियों ने नास्तिकता को ही धर्म माना वहीँ सनातन परंपरा के मानने वालों ने विभिन्न मत-पंथ शुरू कर दिया और इन्होंने उसे वैदिक मत ही बता दिया, उन्नीसवीं शताब्दी में जब स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ तो उन्होंने पुनः वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया, उनका मत था बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता इसलिए जहाँ एक ओर वैदिक धर्म का प्रचार वहीँ वेदों के शिक्षित क्रांतिकारी पौध तैयार करने प्रारंभ कर दिया।

क्रांतिकारियों की पौध

जब स्वामी जी ने देश भर में शास्त्रार्थ, प्रवचन के माध्यम से हिंदू समाज को स्वराज्य के लिए जागरूक कर रहे थे, उन्हें यह भी ध्यान में आया कि समाज का शिक्षित होना भी जरूरी है इसलिए गुरुकुलों की ब्यवस्था पर ध्यान दिया, उन्होंने लाला लाजपतराय, लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे अनेक क्रांतिकारी उनके नर्सरी में पैदा होने प्रारंभ हो गए, इतना ही नहीं स्वामी विवेकानंद जी सर्वप्रथम ब्रम्हसमाज के अनुयायी थे लेकिन जब वे राममकृष्ण परमहंस के संपर्क में आये तो उनका हृदयचक्षु खुल गया और अध्यात्म के साथ देशभक्ति का रंग चढ़ने लगा, लोगों का मत है कि स्वामी विवेकानंद के अंदर जो निडरता आयी प्रखर राष्ट्रभक्ति की भावना स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा लिखी गयी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश पढ़ने के पश्चात उनका चक्षुज्ञान खुल गया।

और स्वामी जी के शत्रु बढ़ने लगे

बहुत सारे लोग ब्रिटिश शासन के चाटुकार जैसा मैंने बताया कि एक राजा वे थे जो अंग्रेजों के पक्ष में थे अंग्रेजों की वाहवाही लूटने के लिए आतुर थे पूरे देश में स्वामी जी के पीछे पड़े हुए थे और षड्यंत्र कर रहे थे स्वामी जी तो योगी थे कई बार जहर खाकर भी वे आत्मसुद्धि कर स्वास्थ्य हो गए और अंग्रेज सरकार यह कदापि नहीं चाहती थी कि यह आरोप उसके ऊपर लगे और इसमें वे सफल भी होते दिखाई दे रहे थे, 'देश हितैषी' समाचार पत्र लिखा कि स्वामी जी चार मास तक प्रवचन करते हुए इन ब्याभिचारो का खंडन करते रहे, धीरे- धीरे उस वैश्या को लोगों ने चढ़ाया उसने भोजन बनाने वाले, प्रथम तो कल्लू कहार जो स्वामी जी का बड़ा विस्वासपात्र था छः -सात सौ का माल लेकर खिड़की के रास्ते गायब हो गया दूसरे दिन रामानंद ब्रम्हचारी को उस स्थान पर सोने को कहा गया वह भी नहीं सोया, एक-एक कर सब गायब पहरे वाले सिपाही भी मजाक बनाते थे, स्वामी जी का उन सभी लोगों से विस्वास उठ गया। स्वामी जी को अचानक उसी रात्रि को उदरशूल और जी मचलाने का कठिन और नया रोग उत्पन्न हो गया, तीन बार उलटी हुई लेकिन किसी को जगाया नहीं, डॉक्टर सूरजमल को बुलाया गया उन्होंने उलटी ख़त्म करने की औषधि दिया और पूछा अब कैसा लग रहा है स्वामी जी बोले सारे पेट में अत्यन्त दर्द हो रहा है, अब प्यास भी लग रही है तब डॉक्टर ने प्यास बुझाने की औषधि दी, पुनः शूल बृद्धि पाकर शरीर के अवयवों में प्रविष्ट हुआ ऐसे दुःख में भी ईश्वर के ध्यान के उपरांत कभी हाय नहीं किया, विस्वसनीय सूत्रों ने बताया कि स्वामी जी को दूध में अधिक मलाईदार बनाकर बारीक काँच पीसकर दिया गया, कारण यह था कि कई बार विष का प्रयोग लोग कर चुके थे सफलता नहीं मिली इस कारण ऐसा किया, लोगों का मत था कि यह वैश्या तो केवल मोहरा थी, यह सब ब्रिटिश साम्राज्य का खेल था उन्हें भय था कि कहीं पुनः 1857 का प्रयोग स्वामी दयानंद सरस्वती कर देंगे तो भारत को छोड़ना होगा।

आर्य जगत में सन्नाटा

आर्य जगत में सन्नाटा जब 'अजमेर आर्य समाज' को जानकारी प्राप्त हुई तो उस समय मुम्बई, फरुखाबाद, मेरठ, लाहौर, इत्यादि समाजों को तार भेजा गया सरबत्र हाहाकार मच गया, जोधपुर में जब ठीक नहीं हो रहे थे तो तुरंत नगर छोड़ने का विचार किया गया, 15 अक्टूबर को जब स्वामी जी की दशा बहुत निराशाजनक हो गई तो डॉक्टर एडम साहब बहादुर चिकित्सा में सम्लित किये गए और यही तय हुआ कि स्वामी जी का आबू निवास ठीक रहेगा। जब स्वामी जी जोधपुर जाने वाले थे तो हम लोग उन्हें रोक रहे थे कि वह गवार देश है वहाँ के लोग दुष्ट है, आप मत जाइए परंतु स्वामी जी नहीं माने और कहा यदि लोग हमारी उंगलियों की बत्ती बनाकर जला दें तो भी कुछ चिंता नहीं अवश्य जाएंगे और उपदेश करेंगे किसी प्रकार की चिंता नहीं, सत्यार्थ प्रकाश भी ठीक हो गया जो कुछ करने को था हम कर चुके, अब कोई बात शेष नहीं रही।" ऐसा लाला जेठमल जी ने बताया।

सबको अंतिम बिदाई

स्वामी जी ने 4 बजे आत्मानंद को बुलाया वे आकर उनके सम्मुख खड़े हो गए स्वामी जी ने कहा हमारे पीछे खड़े हो जाओ या बैठ जाओ, आत्मानंद जी उनके सिरहाने बैठ गए, तब स्वामी जी ने कहा क्या चाहते हो आत्मानन्द ने कहा कि ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप स्वस्थ हो जाय, स्वामी जी बोले यह शरीर है इसका क्या अच्छा होगा और हाथ बढ़ाकर उनके सिर पर रखा और कहा आनंद से रहना, फिर स्वामी जी ने गोपाल गिरी को बुलाया स्वामी जी ने कहा तुम क्या चाहते हो ? गोपालगिरी ने भी वही उत्तर दिया कि आप स्वस्थ हो यही चाहता हूँ, फिर स्वामी जी ने उनसे भी वही कहा कि अच्छी प्रकार से रहना। जब यह दशा देखी तो सब लोग जो अलीगढ़, कानपुर आदि स्थानों से आये थे स्वामी जी के पास आये और सामने खड़े हो गए तब स्वामी जी ने सब लोगों को उस समय ऐसी कृपादृष्टि से देखा कि उसके वर्णन करने को जिव्हा और लिखने को लेखनी असमर्थ है, वह समय वही था मानो स्वामी जी हमसे कहते थे कि तुम क्यों उदास हो धीरज धरना चाहिए, दो सौ रुपये और दो दुशाले महाराज ने माँगे जब लाया गया तो कहा आधा-आधा भीमसेन और आत्मानंद को दे दो, उनलोगों को दिए लेकिन उन लोगों ने वापस कर दिया।

महाप्रयाण

समय के साढ़े पांच बजे थे सभी स्वामी जी के साथ थे, स्वामी जी ने कहा दूर देशों से जो आर्यजन आये हैं उन्हें बुलाकर हमारे पीछे खड़ा कर दो, सब लोग स्वामी जी के पास आ गए, सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए गए और प्रसन्नता पूर्वक 'गायत्री मंत्र' गाने लगे और उसके पश्चात प्रसन्नता पूर्वक समाधियुक्त हो कहने लगे--- "हे दयामय, हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, तेरी यही इच्छा है, तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो, अहा! तूने अच्छी लीला की, स्वयं करवट ली और एक प्रकार से श्वास को रोककर एक साथ ही बाहर निकाल दिया।"

स्वामी जी का व्यक्तित्व

उन्हें अहिंसा की सिद्धि प्राप्त थी गंगाजी के किनारे मगरमच्छ के पास निर्भय होकर बैठे रहना, उनके जीवन चरित्र में पर्याप्त प्रमाण था कि वे पूर्ण योगी थे, वे पूर्ण निर्भय थे। जब महाराणा सज्जन सिंह (उदयपुर) को यह समाचार मिला वे विचलित हो उठे! उन्होंने कहला भेजा कि स्वामी जी का यदि शरीर छूट जाता है तो4-5दिन रखा जाए जिससे मैं और अन्य सज्जनों को दर्शन मिल जाएगा, लेकिन शरीर उतने दिन रखना सम्भव न हो पाया, दाह संस्कार करने की सम्मति हो गई, पंडित भगाराम जी जज अजमेर और पंडित सुन्दरलाल जी व अन्य आर्य सज्जन बड़ी सावधानी से प्रबंधन करते रहे, वहाँ से चलकर श्मसान में 'बैकुंठी' उतारी गई यह अजमेर के दक्षिण कोड पर है, उसके पश्चात रायबहादुर प.सुन्दरलाल ने हृदय कठोर कर ब्याख्यान देना चाहा परंतु कुछ नहीं बोल सके, इसी अवधि में वेदी तैयार हो गई 6 बजे तक आहुति द्वारा महाराज के शरीर को जो पंचतत्व से बना हुआ था छिन्न भिन्न होकर आकाश मार्ग को प्राप्त हुआ सब लोग शोक सागर में डूब गए। वसीयत नामा के अनुसार सारा वस्तु, पुस्तक इत्यादि प.मोहनलाल विष्णुलाल मंत्री उदयपुरधीश ने अपने अधिकार में ले लिया।

स्वामी जी का स्मारक


हजारों वर्ष पहले आर्य लोग 'पाताल लोक' में विवाह संबंध करते थे, परंतु धीरे -धीरे अंधकार होने लगा लोगों ने समुद्र यात्रायें बंद कर दी, इसलिए आज 'पाताल लोक' जो 'अमेरिका' कहा जाता है वहाँ के लोग भी 'आर्यावर्त' को भूल गए और जिस प्रकार जब भी अमेरिका का नाम लिया जाता है तो कोलंबस का नाम अपने आप आ जाता है क्योंकि यह दोनों नाम एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, हजारों वर्ष पहले अपने यहाँ धर्म सभाएं जिसे पहले आर्य सभाएं कहते थे हुआ करता था वेदों में जब हम देखेंगे तो आर्य धर्म सभाओं की शिक्षा का वर्णन मिलता है, लेकिन आज जब 'आर्य-समाज' का नाम लिया जाता है तो स्वाभाविक रूप से 'स्वामी दयानंद सरस्वती' का नाम बरबस आ ही जाता है, तो वास्तव में आर्यसमाज से बढ़कर स्वामी जी का कोई स्मारक हो ही नहीं सकता।

विदेशों में स्वामी दयानंद सरस्वती

सारे यूरोप, अमेरिका व पश्चिम के अन्य देशों में आर्य-समाज की शाखाएं हैं सारा हिंदू समाज, आर्यसमाज के झंडे के नीचे संगठित किया जा रहा था, अमेरिका के विद्वान ''डेविस'' अपने लेख में स्वामी दयानंद सरस्वती से आर्यसमाज को अलग नहीं करते, वे स्वामी जी को शुद्ध अग्नि में प्रज्वलित करने वाला यह गौरव पूर्ण नाम देते हैं वहाँ वे आर्यसमाज को अग्नि की भट्टी बताते हैं, अमेरिका में बैठे हुए थियोसोफिस्ट स्वामी जी को अपना सहयोगी मानते हुए 'थियोसोफिकल सोसायटी' को आर्यसमाज की शाखा घोषित कर देते हैं। 'मैक्समूलर' अपनी पुस्तक में स्वयं यह प्रश्न उठता है कि दयानंद कौन था ? और फिर स्वयं ही उत्तर देता है कि 'दयानंद सरस्वती' 'आर्यसमाज' के संस्थापक और नेता थे, संसार में बहुत लोग कूप, तालाब, सराय और मकान बनाते हैं इसलिए कि इट और पत्थर उनके नाम का स्मरण कराते रहे, जो बस्तु किसी का स्मरण करा सके वह उसका स्मारक माना जाता है और इन अर्थों में ''आर्यसमाज'' से बढ़कर स्वामी दयानंद सरस्वती का कोई स्मारक नहीं हो सकता। पंडित गुरुदत्त अपने ब्याख्यान मे कहा कि इट-पत्थर पर किसी ऋषी का नाम खुदवा देने से ऋषी का स्मारक नहीं बन सकता, प्रत्युत ऋषी का स्मारक स्थापित करना है तो उनके विचारों सिद्धांतों का प्रचार करने चाहिए जिसके लिए वे जीते थे स्वामी दयानंद जी का स्मारक वेदों के सिद्धांतों का प्रचार संपूर्ण विश्व में हो और स्वराज्य की स्थापना।
स्वामी दयानंद सरस्वती की वसीयत
स्वामी जी की वसीयत बताता है कि स्वामी जी कुछ काल और जीते तो निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जीते।
1. वेद और वेदाङ्ग आदि शास्त्रों के प्रचार अर्थात उसकी ब्याख्या करने कराने, पढ़ने पढ़ाने, सुनने सुनाने, छापने छपवाने आदि।
2. वैदिक धर्म का उपदेश शिक्षा के लिए उपदेशक मंडली नियत करके देश देशांतर और द्वीप द्वीपान्तर में भेजकर सत्य का ग्रहण और असत्य के नकारने आदि।
3. आर्यावर्त के अनाथ और दरिद्र मनुष्य के पालन और शिक्षा में इस सभा का कोष प्रत्युक्त किया जावे।