दिग्विजयी ऋषि दयानंद - भाग 21

स्वामी दयानंद के राजनीति उत्तराधिकारी

आर्य समाज और कांग्रेस

जब कोई आपको अंग्रेजी भाषा में कोई सुझाव देता है और आपके सामने इंग्लैंड और फ्रांस का उदाहरण रख देता है तो आपके दिमाग में हलचल मच जाती है, हम लोगों ने इन सब बातों का अनुभव किया है, इसी दृष्टि से देश के उद्धार करने के लिए एक देश ब्यापी संस्था की स्थापना भी की गई है आप लोगों का आह्वान करता हूँ कि आप लोग उसमें सम्लित हो जायँ, इस संस्था का नाम आर्य समाज है, हम मानते हैं कि हमारे धर्म की मूल पुस्तक वेद में एक अति उज्ज्वल श्रेष्ठ और कल्याणकारी धर्म का स्वरूप वर्णन किया गया है, हम उसके अनुसार देश का उद्धार करना चाहते हैं, यह एक आर्य-समाज के प्रमुख आचार्य ने कहा। आर्य-समाज स्वराज्य के लिए आगे बढ़ चुका था, आर्य-समाज के प्रति अंग्रेजों की धारणा ठीक नहीं थी लेकिन कुछ करने में असहाय महसूस करते थे, क्योंकि भारतीय समाज में संतों के प्रति श्रद्धा कोई नई बात नहीं है यह देश तो ऋषियों मुनियों का होने के कारण, समाज का निर्माण ऋषियों ने किया जो भी निर्माण है हिन्दू समाज में जो कुछ है कैसे उठना कैसे बैठना, क्या खाना क्या नहीं खाना ? मनुष्य के जीवन यापन करने के लिए कृषि कार्य को कैसे करना ? समाज निर्माण यानी मनुष्यता का विकास उसमें गाँव की भूमिका, गाँव का निर्माण सब कुछ भारतीय ऋषियों ने किया यद्यपि पृथ्वी पर जो भी ज्ञान विज्ञान है सब कुछ वेदों का है और वेद ईश्वर प्रदत्त है इस कारण भारतीय समाज में संतों के प्रति अगाध श्रद्धा है। एक ओर अंग्रेजों ने जहाँ 'ब्रम्हा-समाज' को जो ढाल बनाकर धर्मांतरण का काम करने और देश भर में अपनी सत्ता मजबूत बनाने का काम कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर ''स्वराज्य'' के लिए 'स्वामी दयानंद सरस्वती' ने 1857 क्रान्ति के पश्चात एक संगठित समुदाय को खड़ा करने का काम कर रहे थे जो समाज को जागृत बनाये रखें, अंग्रेजों की परेशानी बढ़ रही थी क्योंकि 'ब्रम्हसमाज' की बहुत सारी इकाइयों को जब ''स्वराज्य'' समझ में आया तो वे सभी 'आर्यसमाज' में सामिल होने लगे जहाँ आर्य समाज की इकाई थी वहां तो वे आर्य समाज में शामिल हो गए जहाँ इकाई नहीं थी उसी को ब्रम्हासमाज घोषित कर दिया जाता था, अब अंग्रेजों को लगा कि हिंदू समाज में अंग्रेजी सरकार के प्रति विद्रोह हो सकता है तो उन्होंने बड़ी ही चालाकी से हिंदू समाज की हवा निकलने के लिए कोई मंच हो इस पर विचार करने लगे।

क्रांतिकारियों का समूह

'आर्य-समाज' के गठन के साथ साथ संगठन तंत्र खड़ा होने लगा और 'स्वराज्य' के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों का तंत्र को भी खड़ा करने का प्रयास किया जाने लगा, इसी आर्यसमाज से एक एक ऐसे स्वराज्य के लिए आहुति देने वाले क्रांतिकारी आगे आने लगे जिन्हें एक क्रांतिकारी नहीं कहा जा सकता था बल्कि वे अपने अपने क्षेत्र के सेनापति बन कर खड़े हो गए, देश व विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों की शृंखला खड़ी होने लगी लंदन में ही अंग्रेजों के सीने पर ''इंडिया हाउस'' जो क्रांतिकारियों का विदेश में सबसे बड़ा केंद्र था ''श्यामजी कृष्णा वर्मा'' ने खड़ा कर दिया जिसमें भारतीय क्रांतिकारी निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई इंडिया हाउस के ही उत्पाद थे ''लाला हरदयाल, वीर सावरकर, मदनलाल ढींगरा, बिपिनचंद्र पाल'' ऐसे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी पैदा होने लगे, कहीं लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जिन्होंने स्वामी जी के ही उद्घोष को ध्येय बनाया "स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है," कहीं 'स्वराज्य' का काम करते हुए 'लाला लाजपतराय' ने डी.ए.वी. विद्यालयों की शृंखला खड़ी करने में लग गए तो 'स्वामी श्रद्धानंद' ने ''गुरुकुल कांगड़ी'' खोलकर वैदिक शिक्षा और सेनानियों के निर्माण में भूमिका ही नहीं तो उन्होंने 'स्वामी दयानंद सरस्वती' के मूल उद्देश्य शुद्धी जो विधर्मी हो गए हैं उनकी वापसी, ऐसे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी नहीं तो सेनापति खड़ा कर दिया। अंग्रेज इन सारी गतिविधियों से परेशान हो गए थे ऐसा नहीं था कि वे स्वामी दयानंद जी की गतिविधियों को जानते नहीं थे, लेकिन जानबूझकर भी वे कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि स्वामी दयानंद सरस्वती पर हाथ उठाया उनकी गिरफ्तारी की योजना बनाई तो हिंदू समाज में विद्रोह हो सकता है इसलिए अंग्रेज किसी संत को गिरफ्तार नहीं करना चाहते थे।

अंग्रेजों द्वारा ए.ओ. ह्यूम का प्रयोग

अंग्रेजों को अब ध्यान में आ गया था कि हम यहां आसानी से शासन नहीं कर सकते भारत में 'आर्यसमाज' की संगठित ताकत और 'स्वराज्य' के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों का आकलन वे कर रहे थे, उन्हें लगा कि अब यहाँ की स्थिति 1857 से भी आगे बढ सकती है, इसलिए अंग्रेजों का एक समूह इस विषय पर विचार करने लगा और उन्हें लगा कि यदि कोई लोकल समस्या के समाधान हेतु छोटा-छोटा आंदोलन करने के लिए कोई प्लेटफार्म तैयार कर दिया जाता है तो सभी भारतीय इसी में उलझ कर रह जाएंगे। उस समय ''ए.ओ. ह्यूम'' कलेक्टर से अवकाश प्राप्त किया था वह बंगाल कैडर का था, उसका एक बयान कलकत्ता के समाचार पत्रों में छपा, वह पत्र कलकत्ता व देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भेजा गया, ह्यूम ने कहा कि हिंदुस्तान की अवस्था एक वैसे ही विस्फ़ोट के कगार पर है जैसी 1857 के आरंभ में थी, अतः देश के सभी हितचिंतकों से निवेदन है कि वे एकत्रित होकर देश का ठीक दिशा में में नेतृत्व करें, देश का हमे नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक पुनरुत्थान करना है। ''ए.ओ. ह्यूम'' का कहना था कि यदि पचास ऐसे युवक मिल जाय जो अपना जीवन देश व जाति की सेवा में अर्पित कर सकें तो देश को ठीक दिशा में ले जाया जा सकता है, यदि इतने बड़े देश में पचास युवक नहीं निकल सकते तो देश के लिए कुछ भी आशा नहीं की जा सकती। लेकिन नवजवानों में बहस हो रहा था क्योंकि अब दोनों समाज के उद्देश्य मुखर हो गया था, कुछ लोग जो 'आर्यसमाज' के विचारों से सहमत थे वे इस पर विस्वास नहीं कर सकते थे, कि ये देश के अंग्रेजी पढ़े- लिखे लोगों का संगठन बनाना चाहते हैं जो स्वयं न तो नैतिक दृष्टि से और न ही सामाजिक दृष्टि से उच्च जीवन रखते हैं! उन्हें 'ए.ओ. ह्यूम' के उद्देश्यों पर संदेह था, दूसरे तरफ़ 'ब्रम्ह समाज' का स्पष्ट मत था कि अंग्रेजी राज्य ईश्वरीय देन है, तो यह क्या है ? और क्या यह सत्य नहीं है कि अंग्रेजी राज्य एक तपेदिक विमारी है ? और उस रोग का उपचार रोग ही करना चाहता है कि देश को तपेदिक से कैसे बचाया जाए-- ?
"जो अत्याचार अंग्रेजों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात किया था उसे स्मरण कर जन साधारण डरते हैं और भीगी बिल्ली के समान सरकारी अधिकारियों की बात मानते हैं, वास्तव में भारतीयों के मन में एक अग्नि धधक रही है और कोई नहीं कह सकता कि किस समय विस्फ़ोट करेगा।" एक सरकारी अधिकारी सेवा से निवृत्त होकर यहां समाज सुधार करने आये हुए हैं वे भी कहते हैं कि देश में जन-साधारण में भारी असंतोष है, वे तो इस असंतोष को मिटाने का उपाय कर रहे हैं कि जन-साधारण का नेतृत्व अपने (अंग्रेज) हाथों में आ जाये, यही ''मैकाले'' भी चाहता था अंग्रेजी स्कूल-कॉलेज चलाने का उद्देश्य यही था, 'ह्यूम' का मत है कि यह संस्था अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की हो और देश समाज की अवस्था में सुधार कर लोगों के नेता बन जाय। आज कल ह्यूम साहब भारतीय युवाओं से सम्पर्क साध रहे हैं और उनका कहना है-- "यूथ इज यूथ वैदर इन यूरोप आर इन इंडिया।"
कांग्रेस की स्थापना के भूमिका तैयार हो रही है ''ए.ओ. ह्यूम'' का कहना था कि "इक्कीस वर्ष तक मैंने इस देश की सेवा कार्य करते हुए इस देश का अन्न खाया है इस कारण मैं अपना यह कर्तब्य समझता हूँ कि यहाँ के लोगों की सेवा अपनी सामर्थ्य अनुसार करूँ," ऐसा करने के लिए यह आवश्यक है कि एक सार्वदेशिक सभा बनाई जाय और उसमें अपनी कठिनाइयों का ज्ञान प्राप्त किया जाया करे, सुब्यवस्थित भाषा में हम अपनी समस्या ''मलिका महारानी विक्टोरिया'' की सेवा में भेजें, इसके साथ ही यह सार्वदेशिक सभा देश के लोगों में महारानी विक्टोरिया के प्रति भक्ति उत्पन्न करेगी और देश की राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने का यत्न करेगी। इस सार्वदेशिक सभा का एक उद्देश्य यह भी है कि देश में सही दिमाग के लोगों का नेतृत्व स्थापित किया जा सकता है, ऐसी सार्वदेशिक सभा की रूप रेखा तैयार करने के लिए यह वर्तमान कांफ्रेंस बुलाई गई है, कांफ्रेंस में संयोजक महोदय ने प्रस्ताव रखा, "हिंदुस्तान देश के प्रमुख ब्यक्तियों की यह सभा निश्चय करती है कि हिंदुस्तान के उन सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों की जिनमें 'हर मैजिस्टी क्विन इम्प्रेस विक्टोरिया' का सीधा राज्य स्थापित हो गया है एक सभा बनाई जाय जो यहां के देशवासियों की इच्छाओं और मनोकामनाओं की 'हर मैजिस्टी' की सरकार तक पहुचाया करे।" यही सभा में कांग्रेस का जन्म होता है।

राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद

'आर्य-समाज' की स्थापना 1875 में हुई और आज सन 1887 में यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में दिखाई देने लगा, 'स्वामी दयानंद सरस्वती' द्वारा उत्पन्न हुई यह तरंग 'मैकाले' की तरंग से भिन्न और विलक्षण रूप रखती है, जहाँ मैकाले की शिक्षा यह कहती है कि हिंदू इस देश के मूल निवासी नहीं, ये कहीं बाहर से आये हैं और इनका अधिकार इस देश पर उतना ही है जितना कि मुसलमान तथा ईसाईयों का है, वहीं 'आर्य-समाज' यह मानता है कि हिंदू प्राचीन काल से ''आर्य'' नाम से विख्यात थे, ऐतिहासिक कारणों से नाम बदला परंतु इसका धर्म-संस्कृति अक्षुण्ण रही, इसके भिन्न भिन्न अंगों तथा स्थानों पर सामाजिक रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न हो गए, परंतु धर्म और संस्कृति के मूल नहीं बदले। 'आर्य-समाज' यह भी मानता है कि हिंदुओं के पूर्वज आर्य ही यहां के मूल निवासी हैं जिन्हें आदिवासी कहा जाता है, जो समाज की रीति रिवाज के संबंधों के विपरीत विद्रोह कर नगरों को छोड़ जंगलों तथा विरान स्थानों पर जाकर रहने लगे, आर्य-समाज यह भी मानता है कि राष्ट्र का संगठन धर्म और संस्कृति के आधार पर किया जाये तो राष्ट्र बहुत ही बलशाली होगा और जो मुट्ठी भर अंग्रेज यहां हुकूमत कर रहे हैं स्वयमेव यह देश छोड़कर चले जायेंगे। जहाँ 'आर्यसमाज' राष्ट्रवाद के लिए संघर्ष कर रहा था वहीं मैकाले शिक्षित, 'ए.ओ. ह्यूम' के अनुयायी यानी 'कांग्रेस और ब्रम्हासमज' की मान्यता थीं कि भारत में अंग्रेजी राज्य इश्वरीय इक्षा अनुसार है हमे अंग्रेजी हुकूमत 'महारानी विक्टोरिया' के अधीन-! हमारा शासन होना चाहिये यानी 'ब्रम्हासमाज' कांग्रेस 'उपनिवेशवाद' के पक्ष में था न कि 'स्वराज्य' के पक्ष में। अब यह संघर्ष खुलकर सामने आने लगा।

मैकाले का विकल्प

"इंडियन नेशनल कांग्रेस" ब्रिटिश सरकार की योजना का 'एक बालक' की भांति ही है, ब्रिटिश सरकार ने पहले 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' के लिए घटक तैयार किया, वर्तमान कालेजों के स्नातक ही वे घटक हैं और इन घटकों का सक्रिय भाग ही इंडियन नेशनल कांग्रेस थी, मैकाले की योजना आंशिक रूप से ही सफल हो सकता था, अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ईसाई तो नहीं हुए, परंतु वे हिंदू और हिंदुस्तानी भी नहीं रहे। 'आर्य-समाज' ने 'मैकाले' शिक्षा का विकल्प निकालने का यत्न किया, इसने DAV स्कूल और कॉलेज खोलकर ब्रिटिश सरकार के लिए मुश्किले कड़ी कर रहे थे, वह भक्ति जिसका प्रदर्शन कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में 'ब्रिटिश राष्ट्रगीत' गाकर तथा 'ब्रिटिश सम्राट' चिरंजीवी हो के नारे लगा कर किया जाता था, इस पर भी हम अनुभव कर रहे हैं कि DAV कॉलेज देशभक्त तथा अपने धर्म और अपनी संस्कृति के लिए त्याग तथा तपस्या करने वाले लोग उत्पन्न करने में सफल हो रहा है। डी.ए.वी. कालेज के स्नातक ब्रिटिश सरकार के विरोधी तो कदाचित हो सकते हैं परंतु वे किस विचार पद्धति के होंगे अभी कहना कठिन है, संभवतः वे हिंदू होंगे, परंतु बिना हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के विषय में अ- ब का ज्ञान प्राप्त किये वे आर्य भी हो सकते हैं, परंतु बिना वेदों के दर्शन किये हुए, वे हिंदुस्तानी नागरिक होंगे, परंतु रहन-सहन तथा विचारों में पूर्णतः इंग्लैंड वासी बनकर, वे ऋषी दयानंद सरस्वती के गुणानुवाद गायेंगे, परंतु मैक्समूलर के विचारों को, स्वामी जी के विचार मानते हुए वे 'शिवाजी महाराज' तथा 'महाराणा प्रताप' की कीर्ति गान करेंगे।

गरम दल

देश में दो प्रकार के विचारों में वैचारिक संघर्ष चल रहे थे एक वे थे जो 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग कर रहे थे वे जिन्होने भारतीय इतिहास परंपरा को मानते थे, वह यह कि देश में राज्य देश के रहने वालों का होना चाहिए, यदि राज्य और अन्य अधिकार बात चीत से न प्राप्त हो सके तो बल पूर्वक भी लिए जा सकते हैं, बल का विरोध बल से, हिंसा का विरोध हिंसा से और मीठी बातों का उत्तर बातों से हो सकता है, देश में हिंदू बहु संख्या में है और उनकी संस्कृति ही देश को एक सूत्र में बांध सकती है, स्वराज्य शीघ्रातिशीघ्र लेने के लिए यत्नशील थे, आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, आचार्य चाणक्य से लेकर वर्तमान में स्वामी दयानंद सरस्वती तथा उनके द्वारा स्थापित आर्य-समाज जिसमें  प.श्यामजी कृष्ण वर्मा, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, लाला हरदयाल, बिपिनचंद पाल, वीर सावरकर, भगतसिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, महामना मदनमोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, स्वामी श्रद्धानंद इत्यादि, दूसरी ओर 'मैकाले' की शिक्षा पद्धति मानने वाले जो यह कहते नहीं थकते थे कि हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज्य ईश्वरीय देन है, 'इंग्लैंड' की प्रत्येक बात अनुकरणीय है, इस विचारधारा के उपासक थे दादा भाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, मोहनदास करमचंद गांधी इत्यादि, एक बहुत बड़ी संख्या में देश की जनता उन्हें (राष्ट्रवादियों को) लोग ''गरम-दल'' कहा करते थे।
          'लाला लाजपतराय' जब 'मांडले' जेल से निकल लाहौर पहुंचे थे कि वहाँ उनके नाम पर जो तटस्थता 'आर्य-समाज' के नेताओं ने चलाई थी सुनकर चकित रह गए, एक नवीन संस्था का निर्माण किया जाय लेकिन वे इसमें रूचि नहीं रखते थे, हम सब एक संस्था उसी में लग कर काम करेंगे, लोकमान्य तिलक उनसे कहीं ज्यादा लोकप्रिय थे इसलिए निर्णय तिलक जी के साथ में था, उसी समय 'बिपिनचंद्र पाल' सूरत जाते पकड़ लिए गए, उन पर मुकदमा दर्ज किया गया छः माह की सजा सुनाई गई, तिलक जी जून 1908 में पकड़े गए उनपर मुकदमा चलाया गया उन्हें छः वर्ष का दण्ड हुआ। लोकमान्य तिलक के गिरफ्तारी के पश्चात एक पत्रिका ने लिखा-- "यदि सरकार का यह दावा स्वीकार कर भी लिया जाय कि लोकमान्य तिलक ने विदेशी सरकार को हटाने के लिए आंदोलन चला रखा है, तब भी यह मानवीय अधिकार है कि मनुष्य अपने उन गुणों का प्रयोग करें जो परमात्मा ने उन्हें दिये हैं जिसमें आंदोलन करने का सामर्थ्य है वे क्यों न करें ?" आगे उसमें लिखा-- हम उस आरोप पर टीका टिप्पणी नहीं करना चाहते जिस पर तिलक जी को पकड़ा गया है, हमारे कहने का आशय यह है कि इंग्लैंड का राज्य हिंदुस्तान में किस प्रकार स्थापित किया गया है ? यह इतिहास का विषय है, क्या यह तोप, बंदूक के बल से नहीं आया ? यदि भारत तोप और बंदूक से विजय किया गया है तो कौन कहेगा कि इसको स्वतंत्र करने के लिए तोप, बंदूक का उपयोग न हो ! श्री लोकमान्य तिलक ने तोप, बंदूक चलाई है अथवा नहीं ? तिलक जी ने बम्ब, पिस्तौल चलाने वालों को ऐसा करने के लिए कहा है अथवा नहीं ?

स्वामीजी की इच्छा और राष्ट्रवाद

स्वामी जी की इच्छा थी ''स्वराज्य'' और 'वेदों' का प्रचार, वेद कहता ''वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता'' वे कहते थे कि वे कोई नया काम नहीं कर रहे हैं, यह कोई नया राष्ट्र नहीं है ये पुरातन राष्ट्र है, और जो वैचारिक संघर्ष शुरू हुआ था वह आज भी है और कल भी रहने वाला है और उसका परिणाम देश को ही भुगतना पड़ेगा क्योंकि जो लोग उपनिवेशवाद के पक्षधर थे हैं और कल रहने वाले हैं एक दूसरे जो पूर्ण स्वराज्य पर अड़े हुए हैं! देश में जो सरकार होती है राजनैतिक पार्टियों को मान्यता वही देती है, चुकी कांग्रेस 'ब्रिटिश सरकार' का एक तन्त्र था और है इसलिये मान्यता उसी को, इसलिए ''इंडिया हाउस'' से लेकर देश तक मे जो भी क्रांतिकारी थे ''स्वराज्य'' के लिए संघर्ष कर रहे थे उन्हें बड़ी योजना वद्ध तरीके से 'कालापानी' अथवा विभिन्न स्थानों के जेलों में अनैतिक रूप से बंद करने का काम, और कांग्रेस में जो स्वराज्य की बात करते उन्हें गरम दल (आर्यसमाज) कहते थे और उपनिवेश वादी उनके खिलाफ षड्यंत्र रचा करते थे, एक तरफ जब 'वीर सावरकर' 'कालापानी' में बेड़ियों में बांधे कोल्हू से तेल निकालने का काम किया करते थे तो दूसरी ओर नेहरू जैसे उपनिवेशवादी को विश्व की तमाम लाइब्रेरी से पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थी। जब अंग्रेजों को लगा कि राष्ट्रवादी लोग अब अंग्रेजी सरकार को बर्दाश्त नहीं करेंगे तो बड़ी ही सावधानी से 'मोहनदास करमचंद गांधी' को राजनीतिक में प्रवेश कराके उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थी इतना ही नहीं तो वे किसी कार्यक्रम में जाते तो ब्रिटिश सरकार उन्हें साधन सुविधा उपलब्ध कराती थी, कभी-कभी लोग कहते हैं कि देश की आजादी ''चरखा'' काटने से हुई तो हजारों लोगों को फाँसी क्यों हुई ? केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में बीस लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया क्यों ? 'आजाद हिंद फौज' की स्थापना और जीतते हुए वे ढाका तक पहुँच गए थे ''सुभाष चंद्र बोस'' उनकी सेना में जो सैनिक थे वे भारतीय सैनिकों की ट्रेनिंग कहाँ हुई तो वे ब्रिटिश सैनिक से विद्रोह कर आजाद हिंद फौज में सामिल हुए थे। तो वास्तविकता यह है कि योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों ने सत्ता को अपने सहयोगियों को स्थानांतरित कर चले गए और नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस को सैन्य अपराधी बताया, चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह को उद्दंड बताया क्योंकि दोनों धाराएं कल भी काम कर रही थीं और आज भी काम कर रही हैं, आज जो राष्ट्रवाद की धारा है जो आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, आचार्य चाणक्य से शुरू होकर स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य-समाज) से होते हुए "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" तक आती है आगे भी यह भारतीय राष्ट्रवाद की धारा बढ़ती रहेगी।
      मैं विषय कैसे समाप्त करूँ यह समझ में नहीं आ रहा है स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र लिखना बड़ा ही दुरूह कार्य है स्वामी जी ब्रिटिश काल में जहाँ हिंदू समाज की चेतना के प्रतीक के रूप में दिखाई दे रहे हैं वहीं वे देश आजादी के क्रांतिकारियों की नर्सरी लगाने की भूमिका में दिखाई दे रहे हैं, 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' का उद्घोष हमारे पूर्वजों ने ऋषियों ने किया था, उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध किया, आज यह सदी हिंदू सदी हो यह हमारा संकल्प होना चाहिए, आइये हम इस संकल्प को पूरा करने में सहयोग करें।
                ।। इसलिए आइये एक बार पुनः विश्व को सुसंस्कृत करें।।
                                        "कृण्वन्तो विश्वमार्यम"