दिग्विजयी ऋषी दयानंद -भाग-22

स्वामी दयानंद सरस्वती और मनुस्मृति

हज़ारों वर्षों में कहीं कोई एकाध "दयानंद सरस्वती" पैदा होता है, स्वामी दयानंद सरस्वती अलौकिक महापुरुष थे उन्होंने भारतीय वांग्मय को वेदों के आधार पर उसकी सार्थकता साबित किया बहुत स्थानों पर उन्होंने 'मनुस्मृति' को भी आधार बनाया इस हज़ार वर्षों में मनुस्मृति की सार्थकता स्वामी जी ने सिद्ध किया, जिस प्रकार से "स्वामी विरजानन्द" को व्याकर्णाऔतार माना जाता है उसी प्रकार 'स्वामी दयानंद जी' को यदि 'मनुस्मृति' प्रकट करने वाला कहा जाय तो अतिसयोक्ति नहीं होगा, क्योंकि "शंकराचार्य" के पश्चात केवल स्वामी जी ही ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने मनुस्मृति पर काम किया, उन्होंने मनुस्मृति के 2658 श्लोकों में लगभग पाँच सौ श्लोकों को मनुकृत माना है और भी है लेकिन स्वामी जी के पास समय कम था वे वेदों के भाष्य में लगे हुए थे, उन्होंने अपने "आर्य समाज" के शिष्यों को कहा था कि 'मनुस्मृति' मनुष्य जाति का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है विश्व का मानव इतिहास में प्रथम विधान है इसलिए इस पर काम करने की आवश्यकता है।


वेद ही धर्म का मूल

स्वामी दयानंद सरस्वती कहते हैं कि ''महाराज मनु'' ने 'मनुस्मृति' को वेदानुकूल बनाया है और कहा--"वेदोखिलो धर्ममूलम" (मनु.2.13) यानी 'वेद ही धर्म का मूलाधार है,' मनु ने मनुस्मृति में वर्णों एवं आश्रमों के रूप में ब्यक्ति और समाज के लिए हितकारी धर्म, कर्तब्य विधानों का वर्णन वेद के आधार पर किया है और धर्म जिज्ञासा में वेद को ही प्रमाण माना है, क्योंकि 'मनु' ने मनुस्मृति में ''वेद'' को ही आधार बनाकर लिखा है, वे कहते हैं-- "धर्म जिज्ञासानानां प्रमाणं परमं श्रुति:" ( मनु 2.13) अर्थात 'धर्म की जिज्ञासा रखने वालों के लिए वेद ही प्रमाण है, उसी से धर्म अधर्म का निश्चय करना चाहिए'। 'भगवान मनु' की केवल वेदों पर श्रद्धा ही नहीं है बल्कि वे कहते हैं-- वेद अपौरुषेय है, धर्म का मूल स्रोत है और परम प्रमाण है।

मनुस्मृति का गौरव

स्वामी दयानंद जी कहते हैं कि वेदों के बाद सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ मनुस्मृति है, यद्यपि मनुस्मृति अपने रचना काल से ही सर्वोत्कृष्ट और प्रामाणिक ग्रंथ है, परंतु आधुनिक काल में मनुस्मृति की पहले के समान प्रतिष्ठा नहीं रह गई, प्रक्षेपों से विकृत हो जाने के कारण स्मृति का गौरव विनष्ट हो रहा था, महर्षि दयानंद सरस्वती ने उसके गौरव की रक्षा की ओर उसे बढ़ाया, मनुस्मृति के प्रक्षेपों से विकृत स्वरूप की ओर संकेत करके लोगों का दृष्टिकोण बदलने का काम किया, प्रक्षेपों रहित मनुस्मृति ही प्रमाणित और अनुकरणीय है उसकी वेदानुकूल पुष्टि की। उन्होंने काशी शास्त्रार्थ में कहा- "जो-जो मनु ने कहा है, सो - सो औषधों का औषध है।" इस प्रकार महर्षि दयानंद ने आधुनिक युग में मनुस्मृति के गौरव को पुनरुज्जीवित किया है।
स्वामी जी ने वेदानुकूल मान्यताओं को अपने ग्रंथों में प्रस्तुत करने का काम किया, उनकी पुष्टि के लिए उन्होंने अपने ग्रंथों में मनुस्मृति के लगभग 514 श्लोकों को उद्धृत किया है, कई श्लोकों के केवल भाव लिये गए हैं, ऐसे लगभग422 श्लोक हैं जिनके एकाध बार भावार्थ स्पष्ट किया है, महर्षि के श्लोकों के अर्थ में वैशिष्ट्य व गाम्भीर्य है, भगवान मनु का निम्न श्लोक जितना प्रसिद्ध है उसका अर्थ परंपरागत रूप से उतना ही अव्यावहारिक रूप से प्रचलित है,
जैसे-- "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वस्तत्राफलाः क्रिया:।। (3.56)
सामान्यतः जो अर्थ प्रचलित हो गया है वह इस प्रकार है-- 'जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ 'देवता' रमण करते हैं,' लेकिन ऋषि दयानंद सरस्वती कहते हैं-- निरुक्त शास्त्र के आधार पर देवता का अर्थ करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि "जिस घर में नारियों की पूजा अर्थात सत्कार किया जाता है वहां देवता अर्थात दिव्यगुण, दिव्यलाभ, दिव्य संताने और दिव्यभोग आदि प्राप्त होता है।" सामान्यतः जिस परिवार की महिलाएं इस प्रकार की होती हैं उस परिवार का वातावरण सुखों से भरा-पूरा होता है, इस प्रकार स्वामी जी ने बहुत ब्यवहारिक विवेचना किया है।

क्षेपकों की भरमार

स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में कुछ विवेचना किये हैं जो इस प्रकार है मै उसे रखता हूँ,
"प्रोक्षितं भक्षयेत मांसम--" (5.27) अर्थात 'यज्ञ में शुद्ध किये मांस को खावें।'
न मांसभक्षणे दोषों न मद्य न च मैथुन, प्रवृत्तिरेषा भुतानां निवृत्तिस्तु महाफला। (5.56) अर्थात'मांस के खाने, शराब पीने और शास्त्रविरुद्ध मैथुन व्यभिचार में कोई दोष नहीं है, ये सब प्राणियों की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, समु.11)
"अविद्वानश्चैव विद्वानश्च ब्रह्माणं दैवतं महत, प्रणितश्चप्राणितश्च यथाग्निदेवतं महत।" (9.317) अर्थात ब्राह्मण चाहे विद्वान हो अथवा मूर्ख, वड़ा देवता है, जैसे अग्नि हवन के लिए हो अथवा न हो फिर भी वड़ा देवता है। अग्नि के इस अर्थ से यह प्रकट होता है कि ब्राह्मण चाहे कितना ही मूर्ख हो वह साक्षात देवता है,प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार के बनाकर श्लोक डालकर स्वार्थी ब्राह्मणों ने मनुस्मृति के महत्व को कम करने का काम किया है। मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक और उससे पृथक स्मृति ग्रंथ पढ़ने योग्य नहीं है, ये कुछ उद्धरण इस बात के प्रमाण है कि ऋषी दयानंद सरस्वती ने मनुस्मृति के बिगड़े स्वरूप को पहचाना और सुधार के लिए अपने वैचारिक लोगों को बताया।

शूद्रों के विषय में महर्षि मनु की अवधारणा

मनुस्मृति को ठीक प्रकार विवेकपूर्ण पढ़ने से ध्यान में आता है कि मनुस्मृति में शूद्रों के प्रति सम्मान और असम्मान दोनों प्रकार की अवधारणाएं मिलती हैं, जब हम मनुस्मृति को विवेक पूर्ण गंभीरता से पढ़ते हैं क्षेपकों को पहचान कर मनु की अवधारणा पर विचार करते हैं तो निष्कर्ष निकलता है कि मनु शूद्रों के प्रति मानवीय, समानता की धारणा और सम्मान का भाव रखते हैं, मनुस्मृति में शूद्रों के प्रति कहीं कहीं वर्णित पक्षपात, अन्याय, ऊंच-नीच, छुवा- छूत आदि मौलिक नहीं है बाद में कुछ स्वार्थी तत्वों व समाज को विकृत मानसिकता के लोगों ने प्रक्षेपण किया है, जब कर्माधारित वर्ण व्यवस्था जन्माधारित जाति-पाँति ब्यवस्था का रूप धारण कर चुकी है। समाज में आज माना जाने वाले शूद्र न तो मनु वर्णित है और न ही उसका घृणित अर्थ है। सर्वप्रथम यह समझने की आवश्यकता है कि मनु की वर्ण व्यवस्था में शूद्र किसे कहते हैं और कैसे बनते हैं, मनु की वर्ण निर्धारण व्यवस्था पर यह महत्वपूर्ण श्लोक स्मरणीय है-- "ब्राह्मण क्षत्रियो वैश्य:त्रयो वर्णा द्विजातय:, चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रों नास्ति तू पञ्चम:। (10.4) अर्थात- मनुकृत वर्ण व्यवस्था में केवल चार वर्ण है पाँचवा कोई वर्ण या जाति नहीं है, चार वर्णों में प्रथम तीन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजातीय कहाते हैं क्योंकि इनके दो जन्म माने जाते हैं, जो द्विज अभिवादन का उत्तर देने की विधि नहीं जानते अर्थात उसका विधि अनुसार उत्तर नहीं देता उसको अभिवादन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह शुद्र के समान है।
"यो न वेत्यभिवादस्य विप्र: प्रत्यभिवादनं, नाभिवाद्य: स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव स:।" (2.126)
जो वेद का स्वाध्याय नहीं करता है वह अध्ययन न करने के कारण शीघ्र ही अशिक्षित होकर शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है और उसका परिवार भी अशिक्षित होकर शूद्रत्व को प्राप्त होता है।

शूद्र अस्पृश्य नहीं

जो तीन वर्ण अपने-अपने वर्ण का प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने अपने कर्म व्यवसाय करेंगे, जबकि अशिक्षित होने के कारण शूद्र अन्य कोई ब्यवसाय नहीं कर सकते अतः शरीरिक श्रम का काम करेंगे, आज भी अशिक्षित ब्यक्ति यही काम करते हैं, आज सरकारी नौकरी में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी चपरासी, अर्दली, सेवक, चौकीदार, इत्यादि, महर्षि मनु ने शूद्रों का कर्तब्य घरोँ में सेवा कार्य करने के लिए बताया है।
"तपसे शूद्रम"--(यजु:) 'शारिरिक श्रम का काम करने के लिए शूद्र वर्ण का निर्माण किया गया है।' किसी भी परिवार में भोजन बनाने वाले, कपड़ा धोने वाले समान लाने वाले, बर्तन साफ करने वाले कभी अछूत नहीं हो सकता अतः मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था में वर्णित शूद्र न तो अछूत है, न ही घृणित, न ही निम्न और न ही अनादर्णीय है, जो मनु के बारे में अनर्गल प्रलाप करते हैं वे या तो पढ़ते नहीं या बायस्ड हैं और महर्षि मनु के साथ अन्याय करते हुए वर्णव्यवस्था के प्रति भ्रम पैदा करते हैं।

शूद्र आर्य हैं

'महर्षि मनु' आर्य और अनार्य की पहचान बताते हुए कहते हैं- "वर्णापेतं----आर्यरूपमिव अनार्यम" (10.57)
चार वर्णों से जो बाहर हैं वे सब अनार्य हैं, चातुर्वर्ण्य व्यवस्था आर्यों की व्यवस्था है, इस प्रकार मनु की ब्यवस्था के अनुसार शूद्र सवर्ण भी हैं और आर्य भी हैं, शूद्रों को जो कहीं असवर्ण व अनार्य कहा गया है ऐसा मनु के विधान के विपरीत है और यह अवधारणा जन्माधारित जातिवाद की देन है। ''डॉ भीमराव आंबेडकर'' अपने ग्रन्थ 'शूद्रों की खोज' में लिखते हैं कि ये वो शूद्र नहीं है वे आगे लिखते हैं कि उस समय छुवा छूत, भेद भाव नहीं था वर्ण व्यवस्था थी, वे लिखते हैं धर्मसूत्रों की बात कि शूद्र अनार्य है, नहीं माननी चाहिए क्योंकि यह सिद्धांत मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है, वे कहते हैं-- "शूद्र आर्य ही थे अर्थात वे जीवन की आर्य पद्धति में विस्वास रखते थे, शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया है और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक उन्हें आर्य कहा गया है, शूद्र आर्य समुदाय का अभिन्न जन्मजात और सम्मानित सदस्य हैं।"

मनु की दंड ब्यवस्था

जब हम विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि ''भगवान मनु'' के साथ कितना बड़ा अन्याय समाज के छिछले लोगों ने किया है स्वामी दयानंद सरस्वती कहते हैं कि जो मनु ने स्मृति लिखी वह विश्व नियंत्रण की प्रथम विधायिका है कितना बड़ा न्याय का ग्रंथ है, उनकी दंड ब्यवस्था देखिए वे कहते हैं कि शूद्र पढ़े लिखे नहीं है उन्हें कुछ नहीं आता उनसे गलती होना स्वाभाविक है इसलिए उन्हें सबसे कम दंड दिया जाना चाहिए, समान अपराध के लिए जहाँ शूद्र को जितना दण्ड दिया जाय मनुस्मृति कहती है कि वैश्य को उसका आठ गुना, क्षत्रिय को सोलह गुना और ब्राह्मण को बत्तीस गुना दंड मिलना चाहिए। ब्राह्मण, राजा और आचार्य आदि किसी भी अपराधी को कोई छूट नहीं। मनु के दंड ब्यवस्था में आधारभूत तत्व है-- बौद्धिक स्तर पर समाजिक स्तर पर अथवा पद और प्रभाव, मनु की दंडब्यवस्था यथायोग्य दंडब्यवस्था है जो मनोवैज्ञानिक है।
पिछले हजार वर्षों में स्वामी दयानंद सरस्वती ही एक ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने जीवन जीने की ब्यवस्था वेदानुकूल और मनुस्मृति द्वारा निर्मित विधान को स्वीकार करते हुए एक जन आंदोलन सा खड़ा कर दिया जो मनुस्मृति लुप्त होती जा रही थी स्वामी जी ने पुनः हिन्दू समाज के केंद्र विंदु में ला कर खड़ा कर दिया, उन्होंने एक तरफ जहां स्वराज्य की चिंता करते हुए आजादी के क्रांतिकारियों की श्रृंखला खड़ी कर दी वहीँ लुप्त होते हमारे मूल ग्रन्थों का भाष्य, वैदिक ग्रंथों की रचना, मनुस्मृति जैसे मौलिक ग्रंथ की विवेचना करके उसमें मनु को बदनाम करने के लिए जो क्षेपक डाला गया उसमे उन्हें निकालने का काम किया, स्वामी जी के पास समय बहुत कम था इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों को इस काम के लिए संकल्पित कराया और उनके अनुयायी प्रमाणिकता के साथ इस कार्य को कर रहे हैं।