भारतवर्ष की आत्मा

 


राष्ट्र की आत्मा

जब हम भारत और भारतीय राष्ट्र के बारे में विचार करते हैं तो यह ध्यान में आता है कि यह राष्ट्र हजारों लाखों वर्ष ही नहीं तो करोङो वर्ष पुराना है। हमारा देश हमारा राष्ट्र वैदिक कालीन राष्ट्र है, काल गणना के अनुसार यह राष्ट्र ''एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख वर्ष'' पुराना है यह काल गणना सत्य पर आधारित है। महाभारत के शान्ति पर्व में 'बाण शैया' पर पड़े भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं, "न राज्यम न राजशीत न दंडो न दण्डिका।" पितामह कहते हैं कि हे पुत्र जब ये राज्य नहीं थे, जब कोई राजा नहीं था उस समय न कोई गलत काम करता था न कोई दंडाधिकारी ही था। वह काल वैदिक काल था। उस समय ऋषियों के बताए हुए मार्ग पर समाज चलता था, तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है, "चलहिं स्वधर्म सुनै श्रुति नीति।" उस समय राष्ट्र जागरण का काम ऋषियों मुनियों के अनुसार होता था। "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितान।" ये वेदों की उद्घोषणा थी जिसे पुरोहित पूरा करते थे जिसका प्रमाण आज भी गांवों में हमारे पुरोहित दर्शाते रहते हैं।

             राष्ट्र क्या है ? क्या राष्ट्र जमीन का टुकड़ा है? क्या राष्ट्र एक समुदाय है ? क्या राष्ट्र जड़ बस्तु है ? नहीं! जब हम भारतीय राष्ट्र की बात करते हैं तो यह राष्ट्र एक जीता जागता हुआ विराट पुरूष के समान है। जो जड़ नहीं चेतन है जो जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि कण कण में देवता का वास यानी श्रद्धा वसती है इसलिए हमारे ऋषियों ने तीर्थों का निर्माण किया उत्तर में कैलाश मानसरोवर से पहले दक्षिण रामेश्वरम पूर्व में परसुराम कुंड से सुदूर पश्चिमी भाग में द्वारका हिंगलाज माता ये तीर्थाटन श्रद्धा केन्द्रों की रचना जीता जागता हुआ राष्ट्र में ही हो सकता है। ऋषि अगस्त से लेकर वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद, गौतम भृगु ऋषि और जमदग्नि तक वैदिक काल में इस राष्ट्र को जागृत कर भारतीय राजाओं को संस्कारित कर समाज के प्रति जबाबदेह बनाया। जैसे ऋषि महर्षि हुए ठीक उसी प्रकार हमारे यहाँ राजा, चक्रवर्ती सम्राट हुए कोई राजा हरिश्चंद्र, राजा सुदास, राजा दियोदास, राजा मनु, विवास्वानु मनु, इक्ष्वाकु, राजा अज जिन्होंने इस महान संस्कृति के निर्माण में अहम भूमिका निभाई और धरती के प्रथम राजा पृथु राजा बिदेह जनक जिन्होंने धरती पर कृषि करना गोपालन करना सिखाया और जन मानस को आत्म सम्मान से जीवन जीना सिखाया। यह राष्ट्र निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया है जो हमारे जिंश में घुल मिल गई है इस नाते हमे किसी भी विदेशी राष्ट्र से राष्ट्रीयता सीखने की आवश्यकता नहीं है।

           यद्यपिभारतीय शब्द धर्म अंग्रेजी शब्द रिलीजन के पर्याय बन गया है लेकिन इन दोनों के अर्थ एक जैसे नहीं है। धर्म ब्रम्हांड के व्याख्यागत नियमों की व्याख्या करता है जबकि रिलीजन विश्वासों एवं अनुष्ठानों को निरूपित करता है। धर्म मनुष्य के कर्मो से जुड़ा है और यह सामाजिक जीवन को नियमित एवं नियंत्रित करता है, इस प्रकार धर्म का अर्थ रिलीजन के क्षेत्र से अधिक व्यापक है। सामान्यतः धर्म के तीन पक्ष होते हैं-- धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकांड, धार्मिक विस्वास एवं संगठन। अनुष्ठान धार्मिक व्यवहारों से संवंधित है, जबकि विस्वास का सम्वन्ध आस्था के श्रोतों और प्रतिमानों से है। वह क्रियाविधि जिसके द्वारा धर्म सदस्यों का व्यवहार, अपेक्षाओं, परिस्थिति एवं भूमिका का प्रबंधन करता है, यह धर्म के संगठन का पक्ष है। भारतीय समाज अभी भी काफी हद तक धर्म एवं परंपरा केंद्रित समाज बना हुआ है, परंतु भारतीय राष्ट्र राज्य अपने उपनिवेशवादी विरासत के कारण भारत एवं इसके नागरिकों को धर्म निरपेक्ष बनाने पर जोर देता रहता है। सरकारी स्तर पर धर्म निरपेक्षता का एक अर्थ सभी धार्मिक परंपराओं से समान दूरी का भाव रहा है तो दूसरी ओर इसका अर्थ राज्य के कार्य व्यवहार में अधार्मिक बुद्धिवाद अथवा यूरोपीय ज्ञानोदय द्वारा प्रचारित आधुनिक नास्तिकता का प्रसार हो रहा है। दोनों ही अवधारणाओं के प्रवक्ता राज्य द्वारा दी जाने वाली शिक्षा को धर्म निरपेक्ष बनाने पर जोर देते रहे हैं, फलस्वरूप भारतीय समाज एवं भारतीय राज्यों में धर्म के संबंध में अंग्रेजी राज्य के समय से ही अंतर्विरोध रहा है।

इसके विपरीत भारत में आज भी लोग जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त धार्मिक बन्धन से मुक्त नहीं है, भारतीय समाज केवल पूजा- पाठ या संस्कारों में से ही धर्म की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि उनका प्रत्येक कार्य चाहे वह समाजिक हो अथवा ब्यक्तिगत, धर्म के बंधन से जुड़ा हुआ है। यहां तक कि भोजन-जलपान, आना-जाना, लेन-देन और सोना-जगना इत्यादि सभी बातों में धर्म की छाप दिखाई देती है, भारत के प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी 'धर्म' शब्द मत व सम्प्रदाय के अर्थ में प्रत्युक्त नहीं हुआ, वरन सर्वत्र स्वभाव और कर्तब्य के ही अर्थों में इसका प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उसका जो स्वभाव है वही उसका धर्म है। धर्म का सम्बंध मनुष्य की उत्कृष्ट आकांक्षाओं से भी है, इसे नैतिकता का प्रसाद माना जाता है। इसमें ब्यक्तिगत आंतरिक शांत एवं सामाजिक व्यवस्था के स्रोत निहित होते हैं, मानव जाति प्रायः अनिश्चितता की स्थिति में रहता है। जीवन की परिस्थितियों पर नियंत्रण करने की मानवीय क्षमता सीमित है, एतएव ऐन्द्रिक अनुभवों से इतर मानवीय वास्तविकता से संबंध बनाने की आवश्यकता होती है, इस आवस्यकता की पूर्ति धर्म के द्वारा होती है।

        भारत  में जिसे धर्म कहते हैं वे इस प्रकार से है-- सनातन जिसमे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिक्ख इनके मूल भारत की प्राचीन धार्मिक परंपरा में दिखाई देते हैं। भारत के प्रत्येक गाँव अथवा शहर में धर्म के प्रतीक मंदिर, बौद्ध स्तूप, जैन मंदिर और गुरुद्वारा के रूप में मिलते हैं। भारत में धर्म के दो पहलू है ब्यक्तिगत और सामुहिक, भारत में धर्म के सामूहिक पहलू पर सर्वाधिक बल दिया जाता है।

भारतीय जीवन पद्धति यानी धर्म

अपने समाज में धर्म का संबंध वस्तुतः समुदाय से है न कि व्यक्ति से। भारतीय परंपरा वैयक्तिक विस्वासों की स्वायत्तता तथा व्यक्ति द्वारा ईश्वर तत्व की खोज की महत्ता को रेखांकित करती है, इस तरह के व्यक्तिगत प्रयत्नों को आध्यात्मिकता कहा जाता है जबकि समाजशास्त्र में सामान्यतः धर्म की परिकल्पना नैतिक जीवन को सुनिश्चित करना सामुहिक प्रयास के रूप में की जाती है।

आनंद कुमारस्वामी, ए. के. सरण एवं विद्यानिवास मिस्र जैसे विद्वानों का मत है कि हिंदू धर्म वर्तमानजीवी धर्म है, वह सत्य और ऋत का गठबंधन है। यह मनुष्य स्वभाव में है कि वह अतीत, वर्तमान और भविष्य में एक साथ जिये बिना नहीं रह सकता, अतीत से जुड़ने के पीछे पलायन का भाव यूरोपीय समाज में मिलता हो पर भारत में अतीत से जुड़ने का अर्थ वर्तमान की संभावनाओं का विस्तार है, वर्तमान से पलायन नहीं! वर्तमान केवल अतीत से सनातन शास्वत मूल्य को भविष्य की यात्रा के पाथेय के रूप में सौपने वाला एकमात्र माध्यम है, एकमात्र माध्यम होने के कारण वर्तमान अतीत और भविष्य दोनों से अधिक महत्वपूर्ण है। पश्चिमी दृष्टि में प्रकृति या प्रकृति की शक्तियां मनुष्य से अलग है और इसीलिए इन दोनों में स्पर्धा है, पश्चिमी मनुष्य के मन में प्रकृति को जीतने की बात आती है और प्रकृति के शक्तियों के प्रतिरूप देवता इस विजय यात्रा में बाधा पहुचाते हैं। इसके ठीक विपरीत हिंदू विश्व-दृष्टि में मनुष्य और प्रकृति दोनों अविलग हैं, इसलिए मनुष्य और देवता में स्पर्धा न होकर सहकार - भाव रहता है। मनुष्य देवता को प्रभावित करता है, देवता मनुष्य को। भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र यज्ञ संस्था है और यह संस्था मनुष्य और देवता, अभ्यन्तर और बाह्य, व्यक्त और अव्यक्त, चर और अचर-रूपी युग्मों का एक दूसरे के लिए अपेक्षी बनाने वाली विधि है। इसलिए यहां पश्चिमी चिंतन मनुष्य को केंद्र में रखता है, मनुष्य की विवेक बुद्धि को केंद्र में रखता है, प्रकृति पर मनुष्य की विजय को मनुष्य का पुरुषार्थ मानता है तथा पूरी सृष्टि को मनुष्य का उपभोग्य मानता है, वहाँ मनुष्य का चिंतन बहुकेन्द्रित है। मनुष्य के लिए देवता केंद्र है, देवता के लिए मनुष्य। यहां प्रकृति पर विजय नहीं बल्कि प्रकृति में सामंजस्य और समग्र अस्तित्व में परम सामंजस्य स्थापित करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। 

समकालीन हिंदू धर्म में भी यह विस्वास कायम है कि ईश्वर किसी न किसी रूप में सर्वब्याप्त है तथा हम किसी भी स्वरूप में ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। हिंदू जीवन पद्धति विस्वासों और अनुष्ठानों के संदर्भ में बहुत लचीली है कोई भी अनुष्ठान हिन्दुओं में एक जैसे नहीं होता है मतों एवं पंथों की विविधता हिंदुओं की एक विशिष्ट पहचान है। जाती व्यवस्था व संयुक्त परिवार हिंदू समाज की मूलभूत संस्थाएं है, हिंदू धर्म की सदस्यता जन्म से मिलती है। वर्णाश्रम व्यवस्था हिंदू सामाजिक संगठन लोकप्रिय उदाहरण है, यह नैतिक समुदाय की आदर्श रूपरेखा है जिसका संदर्भ ऋग्वैदिक काल से मिलता है। हिंदू समाज में चार वर्णों को-- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहते हैं। एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार यह एक आदर्श एवं सांकेतिक प्रारूप है वास्तविक श्रम विभाजन नहीं। ब्राह्मण वर्ग बौद्धिक विकास से जुड़े थे, क्षत्रिय देश की सुरक्षा, वैश्य वाणिज्य से जुड़े थे एवं शूद्र का काम विभिन्न प्रकार के शिल्प एवं श्रम (सर्विस) से समाज का काम करना था। इस प्रकार श्रम विभाजन का आधार प्रतीकात्मक था, इस व्यवस्था के अंतर्गत स्थानीय जातियाँ एवं जनजातियां अपना कार्य व्यापार चलाती हैं।

आश्रम व्यवस्था वर्ण व्यवस्था की पूरक संस्था है, यदि वर्ण व्यवस्था सामाजिक संगठन का सिद्धांत देती है आश्रम व्यक्ति के जीवन को संगठित करने का सिद्धांत है। वर्णाश्रम की अवधारणा जीवन को चार भागों में बाटती है-- ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। आश्रम का महत्व पुरुषार्थ पर निर्भर करता है यह माना जाता है कि एक आदर्श हिंदू को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को समान महत्व देना चाहिए, हिंदू मान्यता के असंतुलित जीवन के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पहलुओं को समान महत्व देना चाहिए।

वैदिक धारा और श्रमण धारा

वैदिक और श्रमण दोनों में अपनी अपनी कुछ अलग अलग विशेषताएं हैं पर साथ ही दोनों में परस्पर समावेशक तत्व भी है। हिंदू धर्म एक स्तर पर सर्व समावेसक है तो दूसरे स्तर पर इसकी विशिष्ट पहचान भी है। हिंदू धर्म में सबको अपने अपने रास्ते अपने विवेक से चलने की स्वतंत्रता है, कोई भी रास्ता एक मात्र रास्ता नहीं है, आपका अपना पथ प्रदर्शक एक मात्र पथ प्रदर्शक या मसीहा नहीं है। ऋषि परंपरा के अंतर्गत मनुष्य का चरम प्रयोजन आत्मविस्तार है, अपने को इतना हल्का कर लेना या सबमे समा सकना अथवा सबमे भर सकना सम्भव हो सकें। इन ऋणों का यथासंभव अदायगी होने पर ही जीवन की सर्वसमता और निरंतरता की पहचान स्पष्ट होती है, यही पहचान हिंदू धर्म की आधारशिला है।

ऋषियों का अद्भुत प्रयत्न

भारतीय संस्कृति जहाँ नदीय व वनीय संस्कृति के कारण जानी जाती है क्योंकि हमारे ऋषि मुनियों ने जहाँ वनों, नदियों के किनारे गुरुकुल खोलकर मानव समाज को वेदों का ज्ञान दिया, वहीँ जीवन मूल्यों की ओर सतर्क भी किया जिसमें सर्वाधिक महत्व चरित्र को दिया। परिवार, समाज की रचना खड़ी की और उनके संबंध माता-पिता, चाचा-चाची, मौसा-मौसी, भाई-बहन इत्यादि रिश्तों में हिन्दू समाज को बांधा जो आज भी उस रिश्ते की पवित्रता को अनुभव करता है। 

मंदिर--- हिंदू समाज की धारणा के लिए केंद्र था, समाज की सभी गतिविधियां मंदिरों से संचालित होती थी। पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन के अतिरिक्त पाठशाला, वैद्यशाला, गोशाला, वेदशाला, पाकशाला के साथ विविध कलाओं का केंद्र तथा मंदिर में कृषि भी जुड़ीं रहती थी और आज भी है। मंदिर समाज को बांधने का केंद्र था, प्रत्येक क्षेत्रों में एक विशिष्ट पहचान का मंदिर होता था जिस पर समाज का नियंत्रण होता था राज का कोई हस्तक्षेप नहीं होता था।

कुंभ--- कुंभ वैचारिक सम्मेलन की संस्था था। कुंभ चार स्थानों पर "हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक" में होता है और प्रत्येक बारहवें वर्ष प्रयाग में महाकुम्भ लगता है। कुंभ में रीति रिवाजों के बारे में विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों, महंतो एवं धर्म गुरुओं के क्षेत्रीय अधिवेशन एवं महाकुंभ का अर्थ अखिल भारतीय महाअधिवेशन होता है। महाकुंभ के उपरांत 12 वर्षों में समाज के रीति-निर्धारकों की पीढ़ी बदल जाता है रीति रिवाजों एवं सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामरिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों में हुए बदलाओं के बारे में समीक्षा समाज एवं संस्कृति में आवश्यक परिवर्तन करने के बारे में तात्विक एवं रणनीतिक परिचर्चा का काम कुंभ के दौरान होता था। अलग अलग सम्प्रदाय के धार्मिक प्रवचन यथावत होते रहते हैं विभिन्न सम्प्रदायों के समलित अधिवेशन में होने वाले सभ्यतामूलक विमर्श एवं राष्ट्रीय चिंतन होता था। साम्प्रदायिक सौहार्द को मजबूत करने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि से विकास पर बल दिया गया है-- स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, परमहंस योगानंद, महर्षि महेश योगी, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी रामदेव जैसे संतों के प्रभाव से धर्म, अध्यात्म, योग एवं साधना का विज्ञान तकनीकी के साथ रचनात्मक संबंध स्थापित हुआ है। अंतरात्मा, आत्म परिष्कार एवं योग की लोकप्रियता बढ़ी है।

सूबेदार

धर्म जागरण

संकटमोचन मंदिर सोनपुर

सारण

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