जनजाति मूलतः वैदिक सनातन धर्मी

 

जनजाति अवधारणा

बिहार में अंग्रेजों की योजना अनुसार चर्च ने अपने हाथों को मजबूत बनाने का काम करती रही है, धीरे-धीरे वनवासी समाज को चर्च, मिशनरियों की करतूतें समझ में आने लगी थी। चर्च की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को समाज समझने लगा, इसी बीच सन 1895 में बिरसा मुंडा का उदय होता है। बिरसा मुंडा ने मुंडा (सनातन) धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर उसकी धार्मिक पवित्रता और तप पर आधारित किया। अपने अनुयायियों को यज्ञोपवीत धारण करवाया मांस और मदिरा सेवन से परहेज करना सिखाया, बिरसा मुंडा के अनुयायी ब्रम्हा, विष्णु, काली, दुर्गा, सीता, गोविंद, तुलसीदास और सगुण, निर्गुण की पूजा पुनः आरम्भ किया जैसा कि पहले होता था और चर्च ने विकृति किया था। विरसा मुंडा ने जो लोग ईसाई धर्म में गए थे उन्हें सनातन धर्म में वापस लाए मात्र २८वर्ष में विधर्मियो से लड़ते चले गए और भगवान बन गए। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में छोटानागपुर के आस पास अनेक आध्यात्मिक भगतों का उदय हुआ। अंग्रेजों की दमनकारी नीति और धर्मांतरण का विरोध शुरू हो गया। जात्रा भगत ने उन्हें झाड़-फूक, आत्मा की पूजा, पशु बलि, मांसाहार त्यागने और गाय, बैलों से खेती करने का आह्वान किया उनके अनुयायी गौरक्षणी भगत कहलाये। 

भूमिज क्षत्रिय

1831 में सिंहभूमि जिले में छोटानागपुर के मुंडाओं के साथ विद्रोह में शामिल हो गए। वे प्राचीन तौर तरीकों को बचाने और जनजातीय देवताओं की पूजा करने के इक्षुक हुए, छोटानागपुर बड़ाभूम के लोग हिंदी भाषी थे। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। भगत जैसे आंदोलनों के जीवन में शांति पूर्ण तरीके से हिंदू प्रभाव का विस्तार हुआ, भूमिज विशेष रूप से क्षत्रियों का स्थान पाने के इक्षुक थे। 1929 के लगभग मध्यभारत की गौड़ जनजाति के लोगों के बीच बालाघाट जिले के भाऊसिंह राजनेगी ने सुधार आंदोलन शुरू किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि बाड़ा देव, सर्बोच्च ईश्वर, शिव के समरूप थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि गौड़ कभी विशुद्ध क्षत्रिय वर्ण के थे। सोलहवीं शताब्दी में उनके राजकुमार दलपतसिंह ने राजपूत राजकुमारी दुर्गावती से विवाह किया था, जिसने वीरता पूर्वक मुगलों का सामना किया था। भाऊ सिंह राजनेगी के अनुसार गौड़ों का पतन इसलिए हुआ क्योंकि वे भ्रष्ट हो गए मांसाहार करने लगे। भाऊसिंह ने कट्टर हिंदू धार्मिक पवित्रता का प्रचार किया और गौ मांस, सुवर के मांस और शराब पीने पर रोक का आह्वान किया।

हिंदू समाज में उच्च स्थान पाने के लिए जनजाति आकांक्षा औपनिवेशिक काल में भी जारी रही, लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात आरक्षण निति ने जनजातीय पदों को आकर्षक बनाने इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी। बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में बिहार के संथाल जनेऊ धारण करने और क्षेत्रीय होने की मांग करने लगे।

जातिय ब्यवस्था

जातीय ब्यवस्था में जनजातियों की बढ़ती संख्या से जनजातीय पुजारियों को ब्राह्मण का दर्जा मिला, अनेक मिश्रित जातियों के नामों से उनकी जातिय उत्पत्ति का पता चलता है। लेकिन यदि समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में देखे तो जनजाति और जाती में बहुत थोड़ा अन्तर है और जाति की उत्पत्ति वंश व गोत्र से है। किसी भी दृष्टि से जनजाति और जाति में अंतर का कोई भौगोलिक, सांस्कृतिक, अथवा आर्थिक आधार नहीं होता है और इसीलिए समाजशास्त्री सांतत्यक का विचार स्वीकार करने लगे हैं। कुछ खंडीय जनजाति प्रतिमान के निकट तो कुछ संघटित समाज के प्रतिमान के करीब।

इंदल पूजा

नर्मदा घाटी में इंदल पूजा की खोज भी आश्चर्यजनक है, जनजातीय भिलाला की यह सबसे महत्वपूर्ण विधि है। इसमें वर्षा और धरती के संयोजन की पूजा की जाती है, जिससे अनाज पैदा होता है। विद्वानों के अनुसार इंदल पूजा इन्द्र (वर्षा के देवता) की प्राचीन वैदिक और पौराणिक मान्यता थी, जो सुदूर जनजातीय हिस्से में आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान है, हालांकि समाज की मुख्यधारा में इन्द्र की उपासना लगभग समाप्त हो गई है (जनजातीय-हिंदू सांत्यतक) लेकिन पशुचारी जनजातियों के विस्वासों की प्रक्रिया का खुलासा, जिसमे होली, दिवाली और पोंगल जैसे सदा लोकप्रिय त्योहारों में गोबर और पवित्र भस्म की पूजा की शुरूआत और पुरातन का पता चलता है, संभवतः जनजातीय और हिंदू धार्मिक कार्यों के आपस में मिलने का अद्वितीय उदाहरण है।

हिंदू धर्म का आधार जनजातीय संस्कृति

जनजातियों और तथाकथित उच्च जातियों ने भारत की देशीय परंपराओं का समान रूप से सम्मान किया है और उसे सुरक्षित रखने का काम किया है। हालांकि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कर्मकांड के प्रति जनजातीय योगदान मुख्यतः मान्य है। यह वास्तव में असाधारण है, क्योंकि जीव-विज्ञानियों और मानवजाति विज्ञानियों द्वारा मेहनत से किया गया क्षेत्रकार्य वर्णक्रम के प्रतियमानतः विपरीत छोरों के बीच निरंतर अन्योन्यक्रिया को स्पष्तः स्थापित करता है। इस अध्ययन में प्रसिद्ध राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों की खोजो को मिलाकर संयुक्त रूप से वह प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है कि जनजातीय समुदाय हिंदू संस्कृति की कुंजी और उसका आधार है।

सरना पूजा स्थल धर्म सनातन

धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन और समाज प्रगति यानी सोध यानी आध्यात्मिक खोज की प्रक्रिया में पूजा पद्धतियों में विकास हुआ। पहले तो सारा का सारा मानव प्रकृति पूजक ही था, लेकिन मार्ग बदले पहले दो मार्ग एक भक्ति मार्गी दूसरे ज्ञान मार्गी, भक्ति मार्ग के स्वरूप में परिवर्तन एक जो पुरातन समाज प्राकृत पूजक था । उन्होंने पेड़, पौधों, पहाड़ और नदियों में देवताओं का दर्शन किया उसमे से एक मार्ग ने उन्हीं देवताओं को मूर्तियों में देखा । इसी प्रकार पूजा पद्धतियों का विकास हुआ और धीरे -धीरे "सरना पूजा स्थल" के रूप में विकसित हो गया। इस प्रकार "सरना पूजा स्थल और धर्म सनातन" यही हमारी मूल पहचान और सांस्कृतिक परंपरा है।

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