गाँधी वध, नेहरू की साजिश (गाधी विचारों की हत्या) और ब्राह्मणों का संहार

 


गाँधी बध के पश्चात गांधी के विचारों की हत्या

नाथूराम गोडसे ने तो गांधी जी की हत्या की थी लेकिन गाँधी के अनुयायियों ने गांधी जी के विचारों की हत्या कर दिया।  गांधी हत्या के बाद देश दो भागों में वट गया था पता नहीं कौन सा तन्त्र था जो 4-5 घंटे के अंदर ही महाराष्ट्र में सभी को पता चल गया कि गाँधी जी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम को 5 बजकर 17 मिनट पर नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या कर दी। लेकिन यह नहीं पता चला था कि ये नाथूराम गोडसे कौन है ? किसने हत्या की! देर रात तक पूरे देश में यह खबर फैल गई कि गाँधी जी का हत्यारा नाथूराम गोडसे था वह ब्राह्मण था चित पावन ब्राह्मण था। यानी पांच घंटे के अंदर उसका धर्म, जाति, गोत्र सब कुछ जानकारी महाराष्ट्र के उन्मादी कांग्रेसियों को मिल गई। जबकि उस समय अधिकांश लोगों के पास फोन नहीं हुआ करता था। यह बताना इसलिए भी आवश्यक है कि 20 जनवरी के पहले तमाम सुराग मिलने के पश्चात भी सरकारी एजेंसियां नाथूराम गोडसे को खोज नहीं पायीं थीं, लेकिन 30 जनवरी को हत्या के पश्चात कम ही समय में यानी केवल चार घंटों में नाथूराम गोडसे की जन्मपत्री पूरे देश में फैला दी गई। इसका मतलब क्या था कहीं ऐसा तो नहीं सरकार अपनी कमी व असफलता को ढ़कने के लिए यह काम किया और देखते ही देखते अहिंसा के पुजारी के अनुयायियों यानी कांग्रेसियों ने पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों का कत्लेआम शुरू कर दिया। यह गांधी जी के विचारों की प्रथम बार हत्या करने का काम किया और आज तक करते आ रहे हैं।

सरनेम देखकर हिंसा ब्राह्मणों पर हमला 

महाराष्ट्र के कपहरे गांव के एक परिवार को इसलिए जिंदा जला दिया गया क्योंकि उस परिवार के सरनेम के आगे गोड्से लिखा था, जबकि उस परिवार का नाथूराम गोडसे से कोई लेना-देना नहीं था। गाँधी वादियों के निशाने पर चितपावन ब्राह्मण थे देखते ही देखते अहिंसा के पुजारियों ने सभी ब्राह्मणों को निशाना बनाना शुरू कर दिया उस समय जिसका भी उपनाम गोखले, कुलकर्णी, आप्टे, गोड्से, रानाडे, देशपांडे, जोशी उपनाम मिला अहिंसा वादी भीड़ उनपर हमलावर हो गई। जबलपुर के एक अखबार "उषाकाल" ने लिखा--

"महाराष्ट्र के सतारा जिले के चार सौ गाओं में हज़ारों ब्राह्मणों पर हमले हुए और करीब पंद्रह सौ ब्राह्मणों के घर जला दिए गए। उड़तारे गांव में एक कुलकर्णी परिवार की महिला और उसके पोते को जिंदा जला दिया गया। वहीं पंचनगी में एक स्कूल को इसलिए जला दिया गया क्योंकि इसका संचालन एक ब्राह्मण कर रहा था। सांगली में एक कपड़ा मिल और टीबी अस्पताल को आग लगा दी गई। कोल्हापुर में आरएसएस के नेता जी.एच. जोशी का पूरा कारखाना जला दिया गया और शहर के माने जाने फोटोग्राफर भालजी पेंढारकर का ढाई लाख रुपये का स्टूडियो पूरी तरह भस्म कर दिया गया।"

बम्बई विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइसचांसलर और भारत रत्न से सम्मानित 'पी.वी.काने' एक पत्र सरकार में बैठे कई नेताओं को लिखा था,  "गांधी जी की हत्या के बाद गुंडों ने बम्बई में ब्राह्मणों के घरों को जला दिया है, यहां तक कि औरतों पर भी हमले किया है और उनके साथ बदसलूकी की गई। ऐसा तो हिंदू-मुस्लिम दंगो में भी नहीं होता।"

कांग्रेस का दंगाई स्वभाव

कहने को तो सभी कांग्रेसी गांधी वादी यानी अहिंसावादी थे लेकिन अब वे गांधी जी के विचारों की हत्या करने पर उतारू थे, महाराष्ट्र के ब्राह्मण बिरोधी दंगे के लिए केवल काग्रेसी कार्यकर्ता ही दोषी नहीं थे बल्कि उनका नेतृत्व बड़े बड़े नेता कर रहे थे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिस्र के अनुसार इस हिंसा में कहीं न कहीं काग्रेसी योजना लग रही थी, द्वारका प्रसाद मिश्र की पुस्तक "लिविंग एन एरा" में लिखा है!

"गांधी जी की हत्या के बाद ब्राह्मणों के घरों और दुकानों पर हमला करने के साथ उन्हें आग के हवाले करने का भी प्रयास किया गया। ब्राह्मणों द्वारा संचालित संस्थाओं को भी नहीं बक्सा गया। नागपुर के जोशी हाईस्कूल में आग लगा दी गई और फायरब्रिगेड जब पहुंचा तो भीड़ ने उसे वापस लौटने को मजबूर कर दिया। ब्राह्मणों के विरुद्ध हिंसा के भयंकर और दिल दहला देने वाले मामले में ज्यादातर कांग्रेसी थे। इनमें से कुछ तो कांग्रेस के पदाधिकारी भी थे।" 

द्वारका प्रसाद मिश्र ने साफ-साफ लिखा है कि ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा करने वाले न केवल कांग्रेस कार्यकर्ता थे, बल्कि इसमें कांग्रेस के बड़े नेता शामिल थे, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मिश्र ने जब इसे रोकने की कोशिश की तो ऊपर से दबाव आने लगा। उन्होंने अपनी किताब में यह सब लिखा है।

"हिंसा के आरोप में सैकड़ों कांग्रेसियों को गिरफ्तार किया गया था लेकिन इन्हें रिहा करने के लिए मुझ पर काफी दबाव बनाया गया। नागपुर में बड़े कांग्रेसियों की बैठक हुई जिसमें हमारी काफी आलोचना की गई।और लोगों ने धमकी भी दी कि मेरी शिकायत दिल्ली में सरदार पटेल से करेंगे। तब मैंने इन लोगों को कहा कि क्या वे दिल्ली से एक ऐसा आदेश ला सकते हैं, जिसमें कांग्रेसियों को कानून में हिंसा करने की छूट दी गई है?"

ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा में कांग्रेस के नेता सम्लित थे। साठ के दशक में प्रकाशित हुए एक शोध पत्र का शीर्षक 'द शिफ्टिंग फॉर्चुनस् ऑफ चितपावन ब्रहमिन्स फोकस ऑन 1948'  है, इसमें पैटरसन ने लिखा है।

"गोड्से के कृत्य की वजह से गैर ब्राह्मणों को चितपावनो से उनके एक लंबे समय प्रभुत्व का बदला लेने का मौका मिल गया।कथित तौर पर मराठा राजनेताओं द्वारा संचालित भीड़ ट्रकों में भरकर आयी और बदले की भावना से ब्राह्मण मुहल्लों में जा घुसी। फरवरी 48 में आधिकारिक तौर पर उनके एक हजार मकान जला दिए गए और अनगिनत लोग मारे गए।" नेहरू ने इस सच्चाई छुपाने का काम किया

देश भर में देश विभाजन में बीस लाख लोग मारे गए स्थान-स्थान पर उनके आकड़े मिल जायेंगे, इतना ही नहीं देशभर में जो हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए अलीगढ़, मुरादाबाद, मेरठ, रामपुर, भागलपुर व गुजरात इत्यादी दंगों के रिकार्ड मिल जायेंगे, उनके रिकार्ड मौजूद हैं लेकिन ब्राह्मण बिरोधी दंगो हिंसा का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलेगा। ब्राह्मण बिरोधी दंगे तो हुए लेकिन इसमें कितने ब्राह्मण मारे गए इसका कोई जिक्र नहीं मिलेगा। गाँधी टोपी पहनने वाले अहिंसा के पुजारियों ने कैसा खूनी खेल खेला यह समझा जा सकता है। पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों की हत्याएं हुई लेकिन नेहरू सरकार ने इस सच्चाई को कभी बाहर नहीं आने दिया, किसी भी रिचर्स स्कालर को 1948 के ब्राह्मण बिरोधी दंगों के बारे में पुलिस उन फाइलों तक पहुंचने नहीं दिया। गांधी हत्या के बाद सर्वाधिक हिंसा हिन्दुराष्ट्रवादियों के गढ़ मुम्बई, पुणे और नागपुर के साथ साथ सतारा और कोल्हापुर में भी हुई। हज़ारों चितपावन ब्राह्मणों ने अपना गांव छोड़ दिया और मुंबई, पूना जैसे शहरों में जाकर बस गए।

एन.वी. गाइडगिल तत्कालीन मंत्री

गाइडगिल स्वयं चितपावन ब्राह्मण थे उन्होंने अपनी पुस्तक "गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड" में लिखते हैं,--  "गांधी जी की हत्या के कुछ घंटों बाद मुझे सूचना मिली कि बम्बई में ब्राह्मणों को उनके घरों से निकाल कर मारा जा रहा है। मैंने तत्काल इसकी सूचना गृहमंत्री सरदार पटेल को दी। यहां तक कि दिल्ली में रहने वाले महाराष्ट्रीयन भी घबराये हुए थे। उस दौर में कोई भी महिला अगर महाराष्ट्रीयन साड़ी पहन कर निकलती तो उसे गोड्से समाज का कह कर फब्तियां कसी जाती थी। गांधी की हत्या के बारह दिन बाद सरदार पटेल ने मुझसे कहा कि आपको गांधी की स्मृति में दिल्ली में यमुना नदी पर होने वाले समारोह की अध्यक्षता करनी है, लेकिन कई कांग्रेसी इसका विरोध कर रहे हैं। तब मैंने पटेल से कहा, 'अगर कई कांग्रेसी यह नहीं चाहते कि एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण गाँधी के कार्यक्रम की अध्यक्षता करे तो मुझ पर थोपा नहीं जाना चाहिए।' तब सरदार पटेल ने कहा कि, "मैं उन्हें यह बताना चाहता हूं कि हम महाराष्ट्रीयनों के खिलाफ नहीं हैं।"

सच्चाई यह है कि कांग्रेस के अंदर व्यापक रूप से ब्राह्मणों के अंदर नफरत फैल चुकी थी, गोड्से ने जो किया उसके नाम पर आज भी हिंदूवादियों को बदनाम किया जाता है, लेकिन गांधी हत्या के बाद गाँधीवादियों अथवा नेहरूवादियों ने जो कुछ किया उसका हिसाब कौन देगा ? गांधीवाद और अहिंसा का ढोंग करने वाली सोच आज भी जिंदा है।दरअसल राष्ट्रवादियों को खलनायक की तरह प्रस्तुत करने वाले वामपंथी व नेहरूवादी इतिहासकारों को यह सूट नहीं करता है कि इस घटना के बारे में बताएं जिसमें ब्राह्मणों का संहार हुआ था।

जेल से गोड्से की प्रतिक्रिया

14 नवंबर 1949 को गोड्से ने माडखोलकर को एक समाचार पत्र के लिखे लेख के जबाब में एक पत्र लिखा जो बाद में पुणे से प्रकाशित 'सोबत' में छपा!

"आपको इस बात का दुःख है कि हत्या करने वाला आपके समाज में से ही एक है। इससे आपको दुःख और लज्जा महसूस हुई होगी। गांधी हत्या के बाद जो घटनाएं (ब्राह्मण बिरोधी हिंसा) हुई थी, उसे जानने के पश्चात मेरी भावनायें भी कुछ हद तक आपके जैसे ही हो गई थी। लेकिन गांधी जी ने शुरू से ही हिंदुओ से दया के नाम पर भयानक आघात किया। दिल्ली की ठंढ में हिंदू शरणार्थी जब पेड़ो के नीचे नहीं रह पाए तो अपनी जान बचाने के लिए मस्जिदों के छत के नीचे चले गए। लेकिन गाँधी जी ने अपने प्राणों को दांव पर लगाकर उन्हें मस्जिदों में नहीं रहने दिया। शरणार्थियों को रहने की जगह न देकर गांधीवादी सरकार ने हजारों पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को ठंड के दिनों में गटर और सड़क के किनारे रहने को मजबूर किया। श्री माडखोलकर जी सिर्फ एक पल के लिए सोचिए उन हज़ारों विस्थापित पंजाबी महिलाओं में से एक आपकी धर्मपत्नी होती तो-? नहीं.. नहीं.. इस कल्पना को पल भर से ज्यादा अपने मन में न रखें। किन्तु यह सवाल मैं आपसे पूछता हूं कि आप इस तरह के अत्याचार करने वाले मनुष्य के विषय में किस भावना से लिप्त होंगे? ये कहानी भावनात्मक कल्पना नहीं है, बल्कि हकीकत है।"

सावरकर से नेहरू को भय और डॉ आंबेडकर

देश विभाजन से हिन्दुओं के जन धन के नुकसान पहुंचा था हिन्दुओं के अंदर गाँधी, नेहरू के खिलाफ प्रतिक्रिया थी नेहरु जी को भय था कि आरएसएस और हिंदू महासभा की लोकप्रियता बहुत तेज बढ़ रही है। अभी तो नेहरु मनोनीत प्रधानमंत्री थे उन्हें लगता था कि यदि चुनाव हुआ तो कहीं हिंदू महासभा, वीर सावरकर की लोकप्रियता आगे न आ जाये। इस कारण नेहरु गाँधी हत्या का उपयोग ठीक प्रकार से कर रहे थे महाराष्ट्रियन ब्राह्मण, आरएसएस के कार्यकर्ताओं तथा हिंदूवादियों को कुचल दिया जाय ये योजना बना रहे थे। जहाँ एक ओर ब्राह्मणों पर हमले हो रहे थे दूसरी ओर संघ के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा रहा था और फिर वीर सावरकर कैसे छूट जाते जो उस समय नेहरु जी से कहीं अधिक लोकप्रिय हो रहे थे। गांधी हत्या में सावरकर को उम्र कैद हो जाय इसके लिए सरकारी सिस्टम जी जान से जुटा हुआ था। इस मामले में गंभीरता इस बात से समझा जा सकता है कि खुद प्रधानमंत्री नेहरु पर भी यह आरोप लगा कि वे सावरकर को फसाना चाहते हैं।  नेहरु की नियति पर शक करने का कोई और नहीं बल्कि डॉ आंबेडकर थे। असल में लालकिले की अदालत में गाँधी हत्याकांड का केस चल रहा था, तब सावरकर के वकील एल वी भोपटकर को अम्बेडकर ने मिलने के लिए बुलाया था। इस मुलाकात के बारे में मलगावकर लिखते हैं।

"ट्रायल के दौरान अक्सर भोपटकर हिंदू महासभा के दफ्तर में रुक जाए करते थे। भोपटकर ने बताया कि एक सुबह उनके लिए फोन आया, जब उन्होंने फोन उठाया तो रिसीवर पर आवाज आयी कि मैं बी आर अम्बेडकर बोल रहा हूँ, क्या शाम को आप मुझसे मथुरा रोड के छठे मील पर मिल सकते हैं? उस शाम जब भोपटकर खुद कार चलाकर तय स्थान पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि डॉ आंबेडकर पहले से ही उनका इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने भोपटकर को अपनी कार में बैठने को कहा, जिसे वह खुद चला रहे थे। कुछ मिनटों बाद उन्होंने कार रोका और भोपटकर को बताया, 'तुम्हारे मौक्किल सावरकर के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं है, पुलिस ने बेकार के सबूत बनाये हैं। नेहरु कैबिनेट के कई सदस्य इस मुद्दे पर उनके खिलाफ है, लेकिन दबाव में कोई कुछ नहीं कर पा रहा। फिर भी मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि सावरकर पर कोई केस नहीं बनता, तुम जीतोगे। हैरान भोपटकर ने पूछा कि 'तो दबाव कौन बना रहा है... जवाहरलाल नेहरू? लेकिन क्यों?.."

31 जनवरी 1948 की सुबह बम्बई में गाँधीवादियों का तांडव जारी रहा ब्राह्मणों के साथ हिंदू वादियों पर हमले हो रहे थे। सुबह 10 बजे के आस पास एक भीड़ सावरकर सदन के बाहर आकर जमा हो गई 64 वर्ष के सावरकर बीमार चल रहे थे प्रतिदिन की तरह वे अपने कमरे में आराम कर रहे थे तभी भीड़ ने उनके घर पर हमला बोल दिया सावरकर सदन पर सैकड़ो पत्थर फेंके जा रहे थे सावरकर की समृद्ध लाइब्रेरी तहस नहस कर दिया गया। अब किसी वक्त सावरकर पर हमला हो सकता था कि पुलिस पहुंच गई भीड़ को तीतर बितर कर दिया।

गाँधी के विचारों की हत्या 

वीर सावरकर तो जैसे-तैसे बच गए लेकिन उनके छोटे भाई स्वतंत्रता सेनानी 'डॉ नारायण सावरकर' शिवाजी पार्क में ही रहते थे, भीड़ ने पहले उनके घर पर पथराव किया फिर दरवाजा तोड़कर नारायण सावरकर को किसी अपराधी की तरह घसीट कर बाहर निकाला, सड़क पर उन्हें लाठी डंडों से से पीटा नारायण सावरकर जब सड़क गिर गए गाँधी वादी अहिंसा के पुजारियों ने उनपर ईट पत्थरों की वरसात शुरू कर दिया। यह स्वतंत्रता सेनानी जबतक बेहोश नही हो गया तब तक अहिंसावादियों ने उन्हें मारने बंद नहीं किया। वास्तव में इन अहिंसावादियों कांग्रेसियों को आज़ादी कैसे मिली उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ी इसका कोई ज्ञान इनके पास नहीं था। क्योंकि ये तो गीत गाते रहे "दे दी आजादी हमे खड्ग बिना ढाल", इन्हें क्या पता कि सावरकर वन्धुओं ने देश आजादी के लिए कितना कष्ट उठाये हैं, उन्हें क्या पता कि हजारों क्रांतिकारियों ने अपनी आहुति दी है, उन्हें क्या पता कि देश विभाजन के साथ बीस लाख हिंदुओं - लोगों की हत्या हुई थी। और इसका जिम्मेदार जो था ! उसी की तो साजिश थी और उसी साजिश के शिकार सावरकर बंधु व राष्ट्रवादी लोग थे, यह सब साजिश करके नेहरू अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहते थे।

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