यवनान्तक सम्राट पुष्यमित्र शुंग (मनुस्मृति सम्राट )

 

मौर्य साम्राज्य की संकल्पना 

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का देहांत ईसा पूर्व 298 में हुआ था। तत्पश्चात उसका पुत्र बिंदुसार राज सिंहासन पर बैठा। वह भी चद्रगुप्त के सामान ही पराक्रमी था, उसने स्वयं 'अमित्रघात ' (शत्रु का काल ) उपाधि धारण किया। चन्द्रगुप्त के पश्चात् कुछ समय तक आचार्य चाणक्य ही मौर्य साम्राज्य के महामात्य बने रहे। इसलिये उनकी प्रेरणा से सम्राट बिंदुसार ने चाणक्य चन्द्रगुप्त के भारतीय साम्राज्य के भव्य ध्येय का जो एक उपाँग अधूरा रह गया था, उसे पूर्ण करने का कार्य लगे हाथ अपने हाथों में ले लिया। उस भव्य ध्येय के अनुसार यवनों का सम्पूर्ण विनाश हुआ था, अखंड भारत स्वतंत्र हुआ था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की प्रतिज्ञा संपूर्ण भारत को एकक्षत्र साम्राज्य स्थापित करने की थी, इसलिए उत्तर भारत के उस मौर्य साम्राज्य में दक्षिण भारत को भी विलीन कर लेना मौर्य साम्राज्य का बर्तमान कर्तब्य ही था।

भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धा 

सम्राट बिंदुसार के पश्चात् सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद उस धर्म में अहिंसा आदि कुछ सिद्धांतो और आचारों का अतिरेकी सम्मान किया उसका परिणाम भारतीय राजनीती पर और भारत की स्वतंत्रता पर भी हुआ। बौद्ध धर्म की कुछ राष्ट्रघाटक प्रबृत्तियों उनके परिणामों की चर्चा आवश्यक है, भगवान बुद्ध व बौद्ध धर्म के बारे में मेरे मन में बड़ा आदरभाव है भारत वर्ष में एक से एक विभूतियों के उत्तुग शिखर  है उनमें से एक शिखर का नाम है भगवान बुद्ध। जिस हिंदू राष्ट्र ने उन्हें जन्म दिया वह हिन्दू राष्ट्र भी आज केवल इसी कारण से श्री विष्णु का नवम अवतार मानता है।

अवैदिक पंथ 

बुद्ध के जन्म काल से पहले भी बहुत सारे अवैदिक, निरीश्वर्वादी धर्मपन्थ भारत में प्रचलित थे जिनकी संख्या पचास से कम नहीं रही होगी। इसका वर्णन बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है, वैदिक, अवैदिक दर्शन तथा सिद्धांतो के विषय में उनके अनुयायियों में बाद -विवाद होते रहते थे। जिसको जो मत पंथ पसंद आता था वह उसका अनुसरण करता था,बौद्ध काल से शांकराचार्य काल तक सैद्धांतिक और बौद्धिक संघर्ष के आघात से कुछ अंशो में बौद्ध धर्म का पराभव हुआ यह सत्य है। समाज के एक वर्ग में बौद्ध धार्मियों के प्रति घृणा पैदा होना शुरू हो गया था उसका मुख्य कारण सैद्धांतिक और बौद्धिक ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय और राजनितिक भी है, अराष्ट्रवाद शस्त्र हीन सेना इत्यादि।

बौद्ध धर्म बलात लादा 

बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पश्चात् सम्राट अशोक के मन में बौद्ध धर्म का अभिनिवेश इतना अधिक संचारित हुआ कि तब तक जो केवल उपदेश से उस धर्म मत का प्रचार हो रहा था उसे अपर्याप्त समझकर उसने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में वैदिक धर्म के मूलभूत, परन्तु बौद्ध धर्म में निशिद्ध माने गए धर्मचारों को घोर अपराध की तरह दण्डनीय घोषित किया। यज्ञ संस्था वैदिक धर्म का केंद्रविन्दु है उसी के आस पास भारतीयों की इस महान संस्कृति का विकास हुआ। उन यज्ञओं को अकस्मात दण्डनीय अपराध घोषित करने से अस्सी प्रतिशत वैदिक समाज में क्षोभ उत्पन्न हुआ इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। पशुओ की मृगया इत्यादि पर रोक लगा दिया, दूसरी ओर बड़े -बड़े स्तम्भो तथा स्टपो पर उपदेश उत्कर्ण करवाता था कि "सर्वधार्मियों के साथ साहिष्णुता का व्यवहार करो " श्रमड़ो और ब्राह्मणों का सत्कार करो।

अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार करते ही सारी सुरक्षा अचानक भंग कर दी। जिस प्रकार गौतम बुद्ध अपने छोटे से राज्य को त्याग कर स्वयं भिक्षु बन गए, उसी प्रकार अशोक को भी बन जाना चाहिए था पर उन्होंने राजसत्ता का त्याग नहीं किया। यदि अशोक राजसत्ता का त्याग कर दिया होता तो भारतीय राष्ट्र पर कोई संकट नहीं आता। इसके बिपरीत अशोक ने अंतिम समय तक भारतीय सम्राट पद का त्याग नहीं किया, इसके बिपरीत उसने इस भारतीय साम्राज्य को ही बौद्धधर्म का प्रचारक मठ बना दिया।

मौर्य साम्राज्य का पतन 

अब भारतीय साम्राज्य श्रीहीन हो चूका था अशोक के पश्चात् बृहद्रथ सम्राट बन गया था लेकिन वह पौरुष हीन था, अब परकियों के हमले शुरू हो चुके हैं। लेकिन कुछ राजे लड़ भी रहे थे, कलिंग के प्रतापी राजा खारवेल की विजय से उत्तर भारत के वैदिक धार्मिक जनता में वीरश्री की लहर दौड़ गई। ऐसे में ही मीनान्दर की यवन ग्रीक सेना पुनः मगध पर आक्रमण कर दिया उसी समय भारतीय बौद्ध जनता स्वदेशद्रोही वृत्तियाँ तेज हो गई और वह भारत में ग्रीको का बौद्ध राज्य स्थापित करने के लिए मिनाण्डर के अनुकूल सहायक होती जा रही है यह स्पष्ट दिखाई दें रहा था। अब यवानों का सम्पूर्ण सफाया करने के लिए मगध के दुर्बल सम्राट बृहद्रथ मौर्य को सिंहासन से हटाकर वहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे पराक्रमी पुरुष को स्थापित करने के लिए  भारत के राष्ट्रअभिमानी नेताओं ने विशाल राज्य क्रांति की रचना किया, परन्तु सबके सामने एक प्रश्न कौन करेगा नेतृत्व कौन होगा साम्राज्य का पराक्रमी पुरुष ? मगध के उपर्युक्त राजा बृहद्रथ के पास जो कुछ नाम मात्र सेना थी उसमे एक था सेनानी पुष्यमित्र शुंग! पुष्यमित्र ब्राह्मण था वह वैदिक धर्म व भारतीय राष्ट्र का अभिमानी था, निष्ठांवान शिवभक्त था उसने अपने क्षात्रतेज  मगध की सेना में वर्चुस्व प्राप्त किया था कि यवनो के आक्रमण के समय राजा बृहद्रथ ने निरुपाय होकर पुष्यमित्र को अपना मुख्य सेनापति नियुक्त किया था। अब पुष्यमित्र ने सैन्य बल को बढ़ानाशुरू कर दिया, अब समस्त वैदिक धर्मवलम्बी, राष्ट्रभक्त जनता सेनापति पुष्यमित्र की ओर आशा भरी दृष्टि से देखने लगीं कि पुष्यमित्र ही अब इस क्रांति का नेतृत्व करेगा। उस पराक्रमी पुरुष से योग्य ब्यक्ति और कोई नहीं!

बृहद्रथ का बध 

क्रांति की पूर्व तैयारी चल ही रही थी कि एक दिन पटालिपुत्र की समस्त सेना शस्त्र संचालन के विविध का एक बड़ा आयोजन किया गया, सैनिक निरिक्षण करने के लिए स्वयं सम्राट बृहद्रथ वहाँ उपस्थित थे। सेनानी पुष्यमित्र की आज्ञा अनुसार वह चतुरंग दल सेना अपने कौशल का प्रदर्शन कर रही थी, तभी अचानक उस स्थान पर जहाँ बृहद्रथ बैठा था कलह और संघर्ष होने लगा। तभी क्षुब्ध सेनानी ने विवेकपूर्ण नाममात्र के सम्राट बृहद्रथ का शिरच्छेदन कर दिया। इसी के साथ बौद्ध धर्मिय मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया। भारतीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जिस साहसपूर्ण कार्य को सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य करना पड़ा था ठीक वही साहसपूर्ण कार्य आज पुष्यमित्र शुंग ने किया। सिकंदर के आक्रमण के समय जिस प्रकार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना राष्ट्रीय कर्तब्य समझकर सम्राट महापद्मनंद का बध करना पड़ा था उसी प्रकार उन्हीं करणों से मगध के इस नाममात्र सम्राट बृहद्रथ का बध सेनापति पुष्यमित्र को राष्ट्रीय कर्तब्य समझकर ही किया था।

सम्राट पुष्यमित्र शुंग का उद्भव 

यह घटना ई पू 184 के आस पास घटित हुई, इसके बाद तत्काल पतिलिपुत्र में वैदिक रीति नीति से पुष्यमित्र का राज्याभिषेक हुआ और वह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के सिंहासन पर आरुढ़ हुआ। और सम्राट पुष्यमित्र शुंग के राजवंश का प्रारम्भ हुआ। सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने सर्वप्रथम पाटलीपुत्र और उसके आस पास के सारे प्रदेशों को ब्यावस्थित किया। तत्पश्चात उसने शक्तिशाली चतुरंग साहसी भारतीय सेना का निर्माण किया, अयोध्या में आसन जमाये बैठे ग्रीक सेनापति मिनाण्डर  पर आक्रमण किया। भारतीय सेना के आगे ग्रीक सेना का टिकना असंभव सा दिखने लगा यवन सेनापति अपनी सेना के साथ पीछे हटने लगा, परन्तु इसके पहले ग्रीक सेना को पराजित कर राजा खारबेल ने पीछा न करने की भूल को पुष्यमित्र ने दुहराया नहीं। यवन सेना का पूरी शक्ति से पीछा कर लगातार पराजित कर यवन सेना कर व्यूह ध्वस्त कर दिया, शक्तिहीन मिनाण्डार की सेना को सिंध पार खदेड दिया। इस प्रकार सिंधु सीमा तक सारा भारत ग्रिकों की राजनैतिक दसता से मुक्त हो गया।

ग्रीकों को उखाड़ फेंका 

भारत पर ग्रीको का यह अंतिम आक्रमण सिद्ध हुआ सम्राट पुष्यमित्र द्वारा की गई इस पराजय से ग्रीकों की शस्त्रशक्ति इतनी क्षीण हुई कि पुनः सिंध पार कर भारत में उपद्रव करना भारत पर आक्रमण करने का साहस उनमें नहीं रहा। सिकंदर के समय से भारत में उपद्रव मचाने वाले इन यवन शत्रुओं का सफाया भारत के सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने हमेशा के लिए कर दिया। ग्रीक सत्ता से मुक्त कर सारे प्रदेशों को पुष्यमित्र ने अपने साम्राज्य में सम्लित कर लिया, उसने अपने पराक्रमी पुत्र अग्निमित्र को उज्जैन का मुख्य राजप्रतिनिधि नियुक्त किया। अग्निमित्र भी अपने पिता पुष्यमित्र जैसा पराक्रमी और कर्तित्व शाली योद्धा था।

धार्मिक सहिष्णुता 

बहुत सारे इतिहासकारों ने सम्राट अशोक को धर्मपरायण धार्मिक सहिष्णु इत्यादि उपाधि से नवाज़ा है पार क्या ये सत्य है? अशोक का सनातन वैदिक धर्म के प्रति कैसा रवैया था ? यह भी उसकी असलियत समझने की है! अशोक ने अपने राजशक्ति के बल बहुसंख्यक सनातन धर्मी समाज यज्ञओं पर प्रतिबन्ध लगाया, शिकार प्रबृति के अनेक मुलगामी धर्मचारों को दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण और महाभारत पर प्रकारान्तर से नष्ट करने का काम किया, कुछ लोगों का मत है कि अयोध्या, मथुरा माया, काशी जैसे अनेक धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कराने का भी काम किया। ऐसा नहीं हुआ कि उसने यह राजाग्या किया हो की जहाँ बौद्ध मठ है वहाँ भी यज्ञ आदि करना चाहिए तो अशोक कैसा सहिष्णु था। दूसरी ओर सम्राट पुष्यमित्र ने सभी को समान आदर सम्मान दिया, पुष्यमित्र शुंग ने सभी पंथो को अपने पंथ के प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता दिया। बहुत सारे स्तुपों का निर्माण भी कराया। अब यह बात जरूर है कि बिकट युद्ध काल में देशद्रोह जैसा घोर अपराध और पाप करने वाले बौद्ध मतवलम्बियों को कठोर दंड देते समय कुछ निरपराध लोग भी चपेट में आये होंगे लेकिन यह अपवाद स्वरुप था। पुष्यमित्र ने जो महान सुकृत्य किया उसने भारतीय साम्राज्य में वैदिक धर्मावलंबियों पर अशोक द्वारा लगाए गए राजनैतिक प्रतिबन्ध को हटाकर पुनः धार्मिक स्वतंत्रता स्थापित किया। धार्मिक दृष्टि से यदि कोई असहिष्णु अथवा पक्षपाती था तो वह अशोक था न कि पुष्यमित्र।

यवनान्तक की उपाधि से शोभित 

सिकंदर के समय से बार -बार भारत पर आक्रमण करके भारत भूमि को तबाह करने वाले यवनों की अराजक सत्ता और वांशिक अस्तित्व का ही सर्वनाश जिसने अपने प्रतापी खड़ग से नेस्नाबूत किया और जिस पर "यवनान्तक" उपाधि पूर्ण रूप से लागु होती है वह पुष्यमित्र ही हो सकता है। भारतीय साम्राज्य और स्वतंत्रता के छत्तीस वर्ष उत्तम रीति से संरक्षण और संवर्धन कर ई पू 149 में स्वर्गलोक सिधार गए। जिस प्रकार यवन विजेता सम्राट चन्द्रगुप्त की राजमुद्रा से अंकित पृष्ठ हमारे भारतीय इतिहास का प्रथम स्वर्णिम पृष्ठ है ठीक उसी प्रकार उन्हीं मानदण्डों से "यवनांतक" सम्राट पुष्यमित्र की राजमुद्रा से अंकित यह भी हमारे भारतीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है।

पाटलिपुत्र में अश्वमेध यज्ञ 

शत्रुओं का निःशेष करने भारतीय साम्राज्य को पुनर्जिवित के पश्चात् सम्राट पुष्यमित्र ने अपनी वैदिक परंपरा के अनुसार अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार स्वयं प्राप्त कर लिया था। सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया यह समाचार सम्पूर्ण साम्राज्य में आग के समान फ़ैल गया। सम्पूर्ण समाज में राष्ट्रभिमान और हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई, जहाँ सम्राट अशोक ने राजदंड के बल वैदिक धार्मिक कर्मकांड बंद करा दिया था। उसी बौद्ध राजधानी पाटलिपुत्र में अश्वमेध यज्ञ होना सुनिश्चित हो गया, वह अश्वमेध यज्ञ मानों सम्राट पुष्यमित्र शुंग द्वारा की जाने वाली यज्ञ राष्ट्रवादियों की राष्ट्र सुरक्षा की प्रत्यक्ष घोषणा थी।

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