अपराजेय हिंदू राष्ट्र
सन 1857 की क्रांति की असफलता के दोषी वै लोग हैं जिन्होंने अपनी अलस्य और प्रमाद तथा स्वार्थपरता और विश्वासघात से इस पर मर्मान्तक प्रहार किये। उन महान वीरों को इसकी असफलता के लिए दोषी सिद्ध करने का दुस्साहस किसी को नहीं करना चाहिए, जिन्होंने अपना ही उष्ण रक्त प्रवाहित करने वाली तलवारों को उठाकर उस महान पूर्व प्रयोग के हेतु क्रांति के अग्निमय रंगमंच पर प्रवेश किया था। और जो प्रत्यक्ष मृत्यु का भी अलंगन कर आनंद से झूम उठे थे। वे न तो उन्मादी थे और न ही विक्षिप्त थे, न ही विचारहीन थे और न ही पराजय में हाथ बटाने वाले।
स्वाभाविक हिंदू राष्ट्र
यह एक अविभाज्य देश है, यह हम सबकी पितृभू और पुण्य भूमि है। सिखों का अमृतसर, वैदिकों की काशी, बौद्ध धर्म का गया, यह देश हम सब हिन्दुओं का समन्वित और एक महान तीर्थ हैं। हमारे भूतकालीन भिन्न भिन्न उपराष्ट्र की जाति -गोत्र एवं पंथो का आसिन्धुसिंधु व्याप्त फैलाव व्यक्त होता है एक हिन्दू शब्द मे। हमारे भूतकालीन छोटे -मोटे उपराष्ट्र और राज्यों का केवल एकीकरण नहीं, एकजीवीकरण होकर यह 'हिंदू राष्ट्र' प्रकट हुआ है।
सिकंदर की पराजय के पश्चात्, सिकंदर की वापस लौटती हुई सेना की रास्ते में बड़ी दुर्दशा हुई। हिन्दुओं के छोटे छोटे गणराज्यों ने उनका ऐसा बुरा हाल किया कि ग्रीक मैदान छोड़कर भाग निकले। उनमें भी क्षुद्रक और मालव के हिंदू गणराज्यों ने सिकंदर को इतना सताया कि ग्रीक इतिहासकार भी उनके सौर्य की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। उस दिग्विजयी सिकंदर को एक बार हिंदू वीरों ने घेर घार कर घायल भी कर दिया। हिन्दुओं की खड़ग से बेहोश और रक्तरंजीत सिकंदर को उसके सैनिक किसी तरह मैदान से उठाकर ले गए, वरना वह हिंदुस्तान से जीता -जागता वापस भी न जा पाता। वह अपने साम्राज्य मे केवल पंजाब को जोड़ पाया था (ई पू 325) पर हिन्दुओं ने ग्रीकों के अधिकारियो को भगाकर पंजाब को भी जल्द ही वापस ले लिया। (ई पू 322 से पहले ) केवल चार वर्षो में ही तत्कालीन बलाध्य शत्रु का पाँव हिन्दुओं ने उखाड़ फेक दिया।
मिनांदर से युद्ध
चन्द्रगुप्त ने सैल्यूकस को पराजित किया, इसके बाद डेढ़ सौ वर्षो तक भारतवर्ष की सीमा पर धावा बोलने की हिम्मत किसी में नहीं हुई। यह देखकर कि मौर्यवंश के बौद्ध राजा दुर्बल हो गए हैं, एशिया के ग्रीक राजाओं फिर एक बार हिंदुस्तान पर आक्रमण करने की योजना बनायी। इससे पहले नंदवंशीय सम्राटों के दुर्बल होने पर चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने नंदवंशीय सम्राट को मारकर हिंदू साम्राज्य की सत्ता अपने हाथ मे ले ली थी। इसी तरह इस समय भी वैदिक धर्म की निस्सीम अभिमानी, मगध के सेनापति पुष्यमित्र ने उस दुर्बल बौद्ध राजा बृहद्रथ को मारकर राज्य की बागडोर अपने हाथ मे ले ली। इधर मगध राज्य में क्रांति हुई उधर "ई पू 180" में ग्रीक राजा "मिनांदर" सिंधु पार कर पंचनद मे घुसा। ग्रिकों ने जोरदार हमला कर साकेत तक ले लिया और मथुरा तक घुस आये, इतने मे सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने वहाँ पहुंच कर उनसे लोहा लिया। एक के बाद एक ऐसी कई लड़ाईया हुई और हर बार हिंदू सैन्य बल ने ग्रीको को पराजित किया, आखिर पुष्यमित्र शुंग ने मीनान्दर को सिंधु नदी पार खदेड दिया।
शक और यूची से महायुद्ध
सम्राट पुष्यमित्र शुंग की उपर्युक्त दिग्विजय के बाद लगभग सौ वर्षो तक हिंदू राष्ट्र को किसी अहिंदू राष्ट्र के आक्रमण कर सामना नहीं करना पड़ा। इसके बाद शक और यूचियों के हमलों से पूरा एशिया हिल उठा। इसवीं सन के पहले शतक में हुए इन हमलों में हिंदू राष्ट्र भी बुरी तरह हार गया और हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास की यह एक लांछनास्पद पराजय थी। ग्रीको के आक्रमणकारी सैन्य के हिंदुस्तान मे घुसते ही चन्द्रगुप्त अथवा पुष्यमित्र ने एकाध दशक मे उन्हें सिंधुपार खदेड दिया। पर शक और यूचियों को इस तरह शीघ्रता से नहीं भगाया जा सका। उलटे उन्होंने कश्मीर, पंजाब, सिंध, कठियावाड़ आदि प्रांतो में अपनी चिरस्थायी राज्य स्थापित कर लिया, यह बड़ी लज्जा की बात है कि ये अहिंदू राजवंश उज्जैन जैसी हिंदू राजधानीयों में लगभग दो ढाई शतकों तक राज्य कर सके। लेकिन दो -चार प्रांतो के शत्रु के अधिपत्य में जाने से पुरे राष्ट्र कर समुचा जीवन 'लगातार पराभव से भरा था' ऐसा कहना बिलकुल झूठ, निराधार और शरारत भरा है।
क्या परकियों ने कभी हिन्दुओं को पराजित किया था ?
नहीं --!
हूणों को समाप्त करने के बाद कश्मीर से नेपाल द्वारका से कमरुप तक तथा हिमालय से लंका तक फिर एक बार हिंदू साम्राज्य छा गया। जब हिंदुस्तान के दक्षिण में पुलकेशिन और उत्तर में श्रीहर्ष का सुयोग और समर्थ शासन था तब भारत वर्ष में प्रख्यात चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके जग प्रसिद्ध यात्रा का वर्णन भारत के समृद्धि हिंदू राज्यों के वैभव का आलेख है। सम्राट हर्ष की मृत्यु ईसवी सन 646 के लगभग हुई हमारे ऐतिहासिक काल प्राचीन खंड यही है।
महाभारत का प्रेणास्पद आख्यान
दुर्योधन ने भीम के ऊपर विष का प्रयोग किया, विष प्रयोग होने से बलिष्ठ भीमसेन भी मुर्छित होकर नदी के गहरे पानी में डूब गए। उस समय उन्हें कई नागों ने जकड़ लिया, कई मेढक उनके सिर पर नाचने लगे, पर विष को पचाकर वे विष प्रयोग की बेहोसी से होश में आ गए। और उन्होंने दुःशासन की गर्दन को मरोड़कर विष प्रयोग का बदला लिया। यही है भीम का भीमत्व! पर इसे भूलकर और भीम की अल्पकालीन बेहोशी ही उनका पूरा जीवन था, ऐसा सोचकर कोई कहने लगे कि जिंदगी भर दुबले भीमसेन के सिर पर मेढक नाचते रहे ; तो यह तो सचमुच ही हास्यास्पद विधान हुआ।
इसलिए हिंदूराष्ट्र अभी भी जीवित है, हिंदू राष्ट्र का इतिहास पराजयशील नहीं बल्कि अन्य किसी भी राष्ट्र के इतिहास की तुलना में अधिक विजयशाली है।
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