पारसमणि थे ------ ज्योति जी ! (शंकर व दयानंद परंपरा के वाहक )

       मा ज्योति स्वरुप जी 


   राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कौन नहीं जनता -----? हो सकता है की उसकी कार्य प्रणाली को नहीं जनता हो, संघ की परंपरा में प्रचारक ब्यवस्था जिसकी तुलना शंकराचार्य अथवा आर्यसमाज के सन्यास परंपरा ब्यवस्था से की जा सकती है ज्योति जी उस श्रेष्ठ परंपरा के बाहक थे प्रचारक एक उत्कृष्ट ब्यवस्था है वे पहले अध्यापक थे नौकरी छोड़कर वे संघ के प्रचारक बने उनका जीवन हम जैसे प्रचारकों के लिए आदर्श जीवन था जब भी मिलते तो नयी-नयी खोज जानकारी देते ही नहीं तो पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करते उन्होंने हमें पचासों पुस्तकों को पढाया वे अपने ऊपर ध्यान नहीं देते थे कहते की यदि अपने बिस्तारक के साथ थोडा समय बिताया तो उसकी स्पीड बढ़ जाती है कभी-कभी लगता की वे आते है प्रचारकों से मिलकर चले जाते है यहाँ तक की कभी-कभी केवल नए प्रचारक और बिस्तारको से मिलकर चले जाते हमें बुरा लगता बाद में समझ में आया की प्रचारकों को रोकने की यही संजीवनी विद्या थी। वे बहुत साधारण रहते थे अपने ऊपर कुछ नहीं खर्च करना, लेकिन अपने प्रचारकों को सब कुछ देना चाहते थे। सभी की ब्यक्तिगत चिंता करते थे उस समय काशी प्रदेश हुआ करता था उस समय प्रचारकों की संख्या १०० के आस-पास होती थी इतना प्रवास करते की लोग कथा कहते की यदि ज्योति जी से मिलना हो तो किसी बस स्टैंड पर खड़े हो जाईये ज्योति जी मिल जायेगे। उनकी कार्य शैली अद्भुत थी बैठक ऐसी होती की पता ही नहीं चलता की कब बैठक समाप्त हुई।
          एक बार वे सुल्तानपुर प्रवास पर आये उन्होंने हमारी पुरानी अंडरवियर लेली मै समझ नहीं सका मैंने सोचा की ज्योति जी को एक अंडरवियर और गंजी दे दू। प्रतापगढ़ जिले में भी उनका प्रवास था मै साथ में था मैंने उन्हें बिना बताये ही अंडरवियर और गंजी सिलाकर उनके झोले में निचे रख दी जब वे कासी पहुचे अपना झोला देखकर उन्होंने फोन किया ----------! आप समझ सकते है उन्होंने क्या कहा होगा--? ज्योति जी अपने प्रचारकों में सब कुछ भर देना चाहते थे किसी को वापस नहीं जाने देना जैसे प्रचारक निकालना ही उनका उद्दश्य हो गया हो।, मै जिला प्रचारक था एक तहसील प्रचारक जो बड़ा ही मेधावी था उसका घर विहार में था घर गया वही पर विबाह तय हुआ मुझे पता लग गया मैंने ज्योती जी को नहीं बताया बाद में उनको यह पता चल ही गया कि उसकी शादी हो गयी । वे मुझसे बड़े ही दुखी हो गए मै उनकी नाराजगी कैसे दूर करू यह समझ में नहीं आ रहा था उस प्रचारक पर ध्यान देकर मैं उसे रोकने का प्रयत्न करने लगा वह विभाग प्रचारक तक रहा लेकिन अंत में उन्ही की बात सही हुई उसे जाना ही था। ज्योति जी ऐसे प्रचारकों को अपने पास रखना चाहते थे प्रचारक उनके हृदय की तड़पन थी आखिर जो वे पारखी थे।
        मै जिला प्रचारक था मेरी आजी (पिता जी की माँ) का देहांत हुआ था बैठक के कारन मै घर नहीं गया । दोपहर में मै "सुध" के दिन सिर मुडाने चला गया ज्योति जी को लगा की मै कही और गया उन्होंने भोजन नहीं किया नाराज़ हो गए मै बैठक में आया जब उन्हें घटना का पता चला वे मेरे पास आये तुरंत दुःख ब्यक्त किया इस प्रकार बड़े ही उदारमना भी थे। जिसको छू लेते उसे सोना बनाने का प्रयास करते उनका उद्देश्य जैसे -तैसे प्रचारक निकालना नहीं था वे योग्य प्रचारक निकालते थे यदि हम जैसे प्रचारक मिले तो उसे योग्य बनाना जो संगठन की जिम्मेदारी निभा सके। वे पारसमणी थे जिसको छुवा वह स्वर्ण हो गया उनके निकाले हुए अथवा उनके निर्माण किये हुए प्रचारकों की एक श्रंखला आज भी उनके कार्यो की गवाह बनी हुई है आज मा दिनेश जी विहिप, रामलाल जी बीजेपी, बालमुकुन्द जी इतिहास संकलन, माँ.डॉ कृष्णा गोपाल जी इसके सबूत के तौर पर है हम जैसे तो अनेक प्रचारक उनके गुणों से लाभ लेकर प्रान्त प्रचारक बने व आज अन्य कार्यो में लगे हुए है।।      

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