मनुस्मृति का आधार वेद

  
मनुस्मृति भारत वर्ष का वेदों के पश्चात् सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। भारत का बच्चा- बच्चा मनुस्मृति के बारे में जनता है भले ही नकारात्मक रूप में ही क्यों नहीं ? कभी - कभी कुछ वामपंथी विचार धारा के इतिहासकार व कुछ प्रगतिशील लोग मनुस्मृति को "सेनानी पुष्यमित्र शुंग" के काल का कहते हैं लेकिन जब हम इस पर विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि आज के 5123 वर्ष पूर्व "महाभारत काल" में भी "मनुस्मृति" की चर्चा है तो महाभारत के पूर्व "रामायण काल" में भी मनुस्मृति की चर्चा है ।कई स्थानों पर रामायण में ऋषि बाल्मीकि ने मनुस्मृति के श्लोकों की चर्चा की है, इतना ही नहीं तो 'ब्राह्मण ग्रंथ' जो वैदिक काल में बाद का माना जाता है। उपनिषद भी वैदिक काल के पश्चात का माना जाता है, इन सभी ग्रंथों में महर्षि मनु और मनुस्मृति दोनों की चर्चा है, इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान मनु ने जो इस पृथ्वी के प्रथम सम्राट थे जिन्होंने मानव जीवन को विकसित करने का काम किया, क्या खाद्य क्या अखाद्य ?, कैसे मनुष्य का जीवन चले ?, माँ-पिता के साथ पुत्र का संबंध, पुत्री का सम्बंध कैसा हो! गांव की सभी महिलाओं का अपना स्थान निश्चित किया कोई माँ, कोई बहन, कोई फुआ, कोई मौसी, कोई बड़ी माँ, कोई दादी माँ सभी को किसी न किसी रिस्तों में बंधे हुए रहते थे ये सब महर्षि मनु ने किया।

वेदों के पश्चात सर्वाधिक  मान्य   


मनुस्मृति के बारे में भ्रम

मुझे लगता है कि वेदों के पश्चात मनुष्यों के लिए जो प्रथम बार उपदेश दिया गया, जिसे लिपिवद्ध किया गया, जो प्रथम ग्रंथ लिखा गया जिसे भगवान मनु ने लिखा वह ग्रंथ मनुस्मृति ही है। मनु ने वेदों के आधार पर वर्ण व्यवस्था की रचना की जिसमे वर्ण जन्मना न होकर कर्मणा था यह सभी गुरुकुलों के माध्यम से जब श्रुति यानी अभ्यास करने के पश्चात याद करते थे। सारे जगत में व्यवस्था बनाने का काम हुआ जिससे मनुष्य संस्कारित हुआ। यह उन लोगों के लिए लिखा जा रहा है जिन्हें यह भ्रम है कि "स्वयंभू मनु" की मनुस्मृति हिंदू समाज में आज व्याप्त जाति-पाँति, ऊंच-नीच और छुवा-छूत का समर्थन करती है। इसका उद्देश्य इस भ्रम को भी दूर करना है कि मनु शूद्रों और स्त्रियों के विरोधी और ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं। इसलिए वर्तमान मनुस्मृतियों में अनेक वेदोत्तर कालीन वेद विरुद्ध परम्पराओ का समावेश मिलता है जो कि वेद और मनु की मान्यताओं के विरूद्ध है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ सुरेंद्र कुमार ने सात प्रकार से सभी श्लोकों का परीक्षण करके मिलावटी श्लोकों को निकाल कर विशुद्ध मनुस्मृति संपादित की है जो स्वयंभू मनु की प्रतिज्ञानुसार, पूर्णतया वेदानुकूल होने के कारण, उपरोक्त सभी आरोपों से मुक्त प्रामाणिक एवं एक आदर्श धर्मशास्त्र है।

मनुस्मृति का मूल विषय

मनुस्मृति का प्रतिपाद्य विषय वेदानुकूल वर्णाश्रम धर्म का विधि-विधान है, जोकि इसके पहले चार श्लोकों से ही सुस्पष्ट है: "महर्षि लोग एकाग्रता पूर्वक बैठे मनु के पास जाकर, यथोचित सत्कार के बाद महर्षि मनु से प्रार्थना करते हैं। स्वयंभू जो वेद हैं, जिनमें असत्य कुछ भी नहीं है और जिनमें सब सत्य विद्याओं का विधान है के आप विशेषज्ञ विद्वान हैं। कृपया हमें सब वर्णो और आश्रमों के वेदानुकूल विधानों व धर्मों यानी कर्तब्यों-अकर्तब्य को बताइये," इसके उत्तर में मनु ने उन ऋषियों का जो वर्णाश्रम धर्म बताया वही मनुस्मृति का मूल विषय है जो कि 12 अध्यायों में क्रमानुसार इस प्रकार है: जगदुत्पत्ति मानव धर्म का स्वरूप, संस्कार, ब्रम्हचर्य एवं गृहस्थाश्रम धर्म, भक्ष्याभक्ष्य एवं सामान्य धर्म, कर्मफल विधान, निःश्रेयस कर्म, आत्मज्ञान, इन्द्रिय संयम, वेदाभ्यास एवं मोक्ष प्राप्त के साधन आदि। संक्षेप में मनुस्मृति सम्पूर्ण मानवधर्म शास्त्र है। विधिविधानों की दृष्टि से वैदिक वांग्मय में यह ग्रंथ अति प्राचीन, सर्वोत्कृष्ट, सर्वमान्य एवं अत्यंत प्रामाणिक है।

विश्व विख्यात समाजशास्त्री एवं मनुस्मृति पर कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय से पीएचडी (लंका) "डॉ केवल मोटवानी" ने 'मनुधर्म' के बारे में कहा: "मनु ने इतिहास के किसी अति प्राचीन अलिखित काल में अपनी शिक्षायें विश्व को दी जिन्हें एक शब्द में "धर्म" कहा जा सकता है। उसने कहा कि 'धर्म' ही समस्त सांसारिक गतिविधियों एवं "ब्रह्मांड" का प्रारंभ, मध्य और अंत है," -- "मनु ने मानव मात्र के लिए 'मनु धर्मशास्त्र' यानी सामाजिक संवंधो का विज्ञान प्रतिस्थापित किया जिसका कि भारत में अपने इतिहास के प्रारंभ से ही पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन और प्रयोग किया जा रहा है। पश्चिम के सभी समाज विज्ञान के चिंतक, आदर्श राज्य व्यवस्था के प्रस्तोता और विधि विधानों के रचनाकार मनु के बौद्धिक कौशल्य की संतानें हैं।" (मनु धर्मशास्त्र, पृ.6)

मनुस्मृति के बारे में 'डॉ केवल मोटवानी' लिखते हैं: मनु धर्मशास्त्र एक बृहद ग्रंथ है जिसे आद्य प्ररूषीय मनुष्य-मनु ने मानव मात्र के मार्गदर्शन के लिए प्रतिपादित किया, जो कि बुद्धि और विवेक से परिपूर्ण है; और जिसमें कला और सामाजिक संबंधों के विज्ञान का विवेचन है। -- मनु केवल भारत के विधि-विधान के प्रणेता नहीं थे हालांकि उनकी प्रस्तावित विचारधारा का सम्बंध अति प्राचीन काल से ही निःसंदेह भारत के सामाजिक और विधि-विषयक संवंधो से रहा है। उसे मानव जीवन की कला तथा भौतिक, जैविक, मनोवैज्ञानिक, नीतिशास्त्र और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का प्रथम एवं मूल प्रणेता कहा जा सकता है।"   (वही पृ.26)

मनुस्मृति का आधार- वेद

मनु के समस्त चिंतन एवं विधि विधान का आधार वेद है, और मनु के अद्वीतीय वेदज्ञ होने के कारण ही ऋषि लोग उनसे वेदानुकूल मानव धर्म का विधान जानने के लिए आये, मनु ने स्वयं वेदानुकूल विधानों को ही मनुस्मृति में कहा है। मनु महाराज मानते हैं कि "सब पदार्थों के नाम और भिन्न भिन्न कर्म और व्यवस्थायें सृष्टि के प्रारंभ में वेदों के शब्दों से ही बनाई गई हैं।"

              सर्वेषां तु स नामामि कर्माणि च पृथक पृथक।

              वेदशब्देभ्य  एवादौ  पृथकसंस्थाश्च  निर्ममे।। (1.21)

इतना ही नहीं मनु कहते हैं कि "जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और वेदानुकूल स्मृतियों के अनुसार धर्म का पालन करता है, वह इस लोक और मरकर परलोक में सुख पाता है।" (1-128)

               श्रुतिसमृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठान्हि मानव:।

               इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम।। (1-128)

पुनः "श्रुति को और 'धर्मशास्त्र को स्मृति' समझना चाहिये। इन श्रुति और स्मृतिशास्त्रों में प्रतिपादित बातों का कुतर्क से खंडन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन दोनों प्रकार के शास्त्रों से धर्म उत्पन्न हुआ है।" (1.129)

इतना ही नहीं मनु की वेद के प्रति इतनी प्रबल आस्था है कि वे वेद के निंदक को नास्तिक मानते हैं। (नास्तिकों वेद निन्दक: 1.130)

मनु की मान्यता है कि 'मानव धर्म का मूल वेद है।' (वेदो खिलोधर्म मूलं 2:6) मनु का मानना है कि "धर्म के जिज्ञासुओं के लिए श्रुति ही परम प्रमाण है।" ("धर्म जिज्ञासमनां प्रमाणं परम श्रुति:।" 1-32)

वर्ण व्यवस्था की वैदिक उत्पत्ति

मनु गुणकर्मानुसार "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण स्वीकार किया है," (10.4)

                ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातय:।

                चतुर्थ एकजातिस्तु शुद्रो  नास्ति तु पंचम:।।(10.4)

ऋग्वेद के दशम मण्डल (10.90.12) जिसमें "सर्वशक्तिमान पुरूष रूपी परमेश्वर के श्री मुख यानी मुख्य गुणों से- बल वीर्य शूरता रूपी बाहुओं व ब्यापार आदि माध्यम गुणों रूपी उदर, तथा अविद्या रूपी पैर से किसकी रचना हुई? वेद शास्त्रों में ईश्वर को मानने वाला यानी शास्त्रों का अभ्यास करने वाले सृष्टि के मुख रूपी ब्राह्मण है, बल पराक्रम गुणयुक्त मनुष्य क्षत्रिय, इस विराट पुरूष की बाहे, और खेती, ब्यापार करने वाले वैश्य और श्रम करने वाले मनुष्य शूद्र जिसे इस विराट पुरूष का पैर है"।

       यहाँ परम ब्रम्हा परमेश्वर की शक्तियों का यह अलंकारिक वर्णन है और मानव जाति रूपी शरीर की सर्वांगीण उन्नति के लिए उत्तम शिक्षा, विज्ञान की उन्नति तकनीकी विकास करने वाले विद्वानों को मुख रूप में, राष्ट्र रक्षा व न्यायपूर्वक शासन करने वाले संयमी, मानसिक एवं शरीरिक दृढ़ता वाले वीर पुरुषों को बाहू रूप में, उद्योग धंधे व ब्यापार करने वाले वैश्यों को, कुशल कारीगर व श्रमिकों को पैर रूप में बताया गया है। वास्तविकता यह है कि वेदों के अनुसार मानव समाज की मुख्य अवश्यकताओं के अनुसार मनुष्यों को चार वर्णो में विभाजित किया गया है जो अपने गुण कर्म स्वभावनुसार है। सृष्टि की रचना का ऐसा ही अलंकारिक वर्णन शतपथ ब्राह्मण (2.14.12-13), महाभारत (आदि पर्व 65.75 शान्ति पर्व 208), रामायण ( अयोध्या कांड110. 3-6 अरण्य 14) इस प्रकार और कई ग्रंथों में अलंकारिक वर्णन मिलता है। आदि शंकराचार्य ने बृहदा. उपनिषद (31.2.13) की ब्याख्या में "शुद्र को सबका पोषण करने वाला पूषण अथवा पृथ्वी का देवता कहा है।" जैसे पृथ्वी सब प्राणियों का आधार है वैसे ही शूद्र सब वर्णों आधार स्तम्भ है। वेदों में चारों वर्णो को समान और परस्पर प्रेम का प्रतीक माना गया है। "हम लोगों के ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों में परस्पर प्रीति हो।"

वर्णो के लक्षण

भगवान मनु ने मानव जाति के लिए संस्कार, संस्कृति और मानवता के लिए कुछ नियम बनाये जिसे वर्ण व्यवस्था के नाम से हम जानते हैं, आइये मनु के वैज्ञानिक विधान का विवेचन करें।

ब्राह्मण-- "वेद ज्ञान के अध्ययन और परमेश्वर की उपासना में तल्लीन रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से ब्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है।" वेदों के अनुसार'जिसका तप, शौच, दम, शम वाले मनुष्य चित्त बृत्ति से सूक्ष्म विषयों का विचार करते हैं, मन की चंचलता से बचकर संयम, इन्द्रिय-निग्रह कर सम दृष्टि से अपनी जीविका चलाते हैं तथा बुद्धि तर्क द्वारा ज्ञान का प्रचार करते हैं, ब्राह्मण हैं" (ऋ.10.7.1.8) "जो ब्यक्ति धर्म ग्रंथों के अनुसार यज्ञकर्ता, सत्यव्रती तथा वेदादि शास्त्रों का चिंतन मनन व गायन करता है, ब्राह्मण है"। भगवान बुद्ध पूर्णतः वैदिक वांग्मय की ही बात करते हैं-"न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है, जिसमें सत्य और धर्म है वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है" (सुत निपात -620,623,624)।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भगवान बुद्ध और महावीर दोनों वेदों को ही आधार मानते थे, वे वर्णों को ही कर्म से मानते हैं आचरण से ऊंचा नीचा मानते हैं। कार्यों से ही मनुष्य का वर्गीकरण मानते हैं, वहाँ उच्चता व नीचता का छुवा छूत का मापदंड नहीं होता। मनु कहते हैं शास्त्र आदि पढना पढ़ाना, यज्ञ करना,और दान करना लेना ब्राह्मण का कर्म है और दान ब्राह्मण के जीविका का साधन है। (मनु.1.88)

क्षत्रिय-- वेदानुसार " बलशाली, यज्ञकर्ता, तेजस्वी व दिव्यगुण युक्त ब्यक्ति क्षत्रिय है" (ऋ10.66.8)। "प्रजा रक्षक, योद्धा, पराक्रमी व दान देने वाला क्षत्रिय है" (महा. मा. शां.189.5)। उसका मुख्य कर्तब्य "राज्य ब्यवस्था व प्रजा की रक्षा करना है" (गीता18.43)। मनु के अनुसार "दीर्घ ब्रम्हचर्य से सांगोपांग वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, यज्ञ करना दान देना, प्रजा पालन करना, विषयों में आसक्त न होना, दुर्व्यसनों से दूर रहना एवं शुभ कार्य करना क्षत्रियों का कर्तव्य है" (मनु.1.89)

वैश्य-- वेदों में, वैश्यों के कर्म, 'खेती करना, क्रय- विक्रय करना', गौ सेवा, धन की समृद्धि करना, मिलजुलकर व्यापार करना आदि है वैश्य है (अथर्व.3.15.1)। भगवान मनु के अनुसार "गौ आदि पशुओं का पालन, विद्या, धर्म आदि की बृद्धि के लिए दान करना, अध्ययन व यज्ञ करना, ब्यापार करना और खेती करना वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं।" (मनु.1.90)

शूद्र-- जो प्रयास करने पर भी अपनी मंद बुद्धि व अज्ञानता के कारण उन्नत नहीं कर सकते और अपनी उन्नत स्थिति को प्राप्त करने के लिए दुःखी रहता है, इस प्रकार गुण-कर्म स्वभावनुसार शूद्र होता है। "जो शोक के पीछे दौड़ता है वह शूद्र है।" (वेदांत1.3.34) तपो वै शूद्र: अर्थात "अज्ञान और अविद्या से जिसकी निम्न स्थिति रह जाती है, जो केवल परिश्रम आदि से जीविका कमाते हैं शूद्र हैं।"(शत.3.6.2.10) इसी को यजुर्वेद में "तपसे शूद्रम" एवं "तपसे कोलालम" परिश्रम से जीवन निर्वाह यानी कर्मचारी, तकनीकी शिक्षा कार्य करने वाले शूद्र वर्ग से है। "ब्राम्हण होते हुए भी यदि हिंसक, मिथ्यावादी, लोभी, सर्वकर्मोपजीवी और अशुद्ध रहे तो वह शूद्र वर्ग का हो जाता है।" (महा. शा. 189.8)

शूद्र आर्य राजा थे

डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि "शूद्र आर्यों के सूर्य वंशी समुदाय में से ही थे, एक समय था जब आर्य समुदाय ने केवल तीन वर्णो, ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को ही मान्यता दी। शूद्र अलग से कोई वर्ण नहीं था, वे भारतीय आर्य समुदाय के क्षत्रिय वर्ण से आते थे।शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों के बीच अनवरत संघर्ष होते रहते थे और ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों अनेक कष्ट और अपमान सहने पड़े ,शूद्रों के द्वारा किए गए उत्पीड़न और पीड़ाओं से त्रस्त होकर ब्राह्मणों ने फलस्वरूप शूद्रों का उपनयन संस्कार करवाना बंद कर दिया। उपनयन संस्कार से वंचित होने पर शूद्र जो क्षत्रिय थे उनका सामाजिक ह्रास होता गया। उनका वैश्यों से दर्जा नीचे हो गया और वे चौथे वर्ण के हो गए।" (शूद्रों की खोज)

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