मनुस्मृति भाग-2

 

सर्वाधिक पुराना ग्रंथ 

स्मृति के बारे में जितना अध्ययन करेंगे उतना ही उसके प्रति श्रद्धा और निष्ठा बढ़ती जाती है, ''मनुस्मृति'' हमे लगता है कि वैदिक काल में लिखी गई है, वेंदो के पश्चात यह दूसरा ग्रंथ है अथवा यह भी कह सकते हैं कि मानव द्वारा लिखित यह प्रथम ग्रंथ है। क्योंकि हमारी मान्यता है कि वेद तो अपौरुषेय है इसलिए यह लिखने में कोई संकोच नहीं होता है कि यह सबसे पुराना ग्रंथ है। कुरान चौदह सौ वर्ष, बाइबिल दो हज़ार वर्ष, महाभारत पांच हजार वर्ष है उपनिषदों का काल महाभारत के समकक्ष अथवा इससे पहले का है हमारी मान्यता है कि 'भगवान श्री राम' 'त्रेता युग' के अंतिम समय में आये यदि कालगणना की जाय तो ''रामायण काल'' साढ़े सात लाख वर्षों तक का अनुमान किया जा सकता है, रामायण में मनुस्मृति के श्लोकों महर्षि मनु का वर्णन है जिससे यह सिद्ध होता है कि भारतीय वांग्मय में मनुस्मृति सर्वाधिक लोकप्रिय और पुराना ग्रंथ है। मनुस्मृति की प्रतिष्ठा भारत में इस प्रकार की है कि जब भारतीय संविधान का निर्माण हुआ तो 'डॉ भीमराव अंबेडकर' को आधुनिक मनु कहा जाने लगा। अम्बेडकर वांग्मय को जब हम पढ़ते हैं तो कई स्थानों पर मनुस्मृति का विरोधी करते दिखाई देते हैं कारण यह है कि भारतीय वांग्मय को दूषित करने के लिए बामपंथियों, सेकुलरों तथा चर्च ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा। आज जिसे हम बामपंथी कहते हैं हम लगता है कि भगवान बुद्ध के विचार को विकृत करके उनके नाम पर भारतीय ग्रंथों में क्षेपकों का भरमार कर दिया गया। अंग्रेजों ने सर्वप्रथम यही काम किया वे जानते थे कि मनुस्मृति सर्वमान्य ग्रंथ है इसलिए बड़ी योजनाबद्ध तरीके से इसका अंग्रेजी में भाष्य कराया और विकृत किया। मनुस्मृति वैदिक संस्कृति में है संस्कृति के विद्वान आसानी से क्षेपकों को निकाल सकते हैं। जिस मैक्समूलर को संस्कृत भाषा आती नहीं थी वह मनुस्मृति पर भाष्य करता दिखाई देता है, तो हम उसकी प्रमाणिकता को समझ सकते हैं। डॉ आंबेडकर ही नहीं जो भी इस प्रकार के भाष्य को पढ़ेगा मानसिक विकार जरूर आएगा इसलिए कई स्थानों पर मनु महाराज का विरोध तो कई स्थानों पर समर्थन करते दिखाई देते हैं।

मनुस्मृति का शूद्र उपेक्षित नहीं

मनुस्मृति की कर्मणा वर्ण व्यवस्था में शूद्र उपेक्षित, स्पृश्य और घृणा का पात्र नहीं है। मनु का चिंतन वेद आधारित है जिसमें सभी बराबर हैं--"अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो।वावृधः सौभगाय।" (ऋ.5.60.5) अर्थात "मनुष्यों में न कोई बड़ा है न कोई छोटा, ये सब बराबर के भाई हैं। वे सभी मिलकर लौकिक और पारलौकिक उत्तम ऐश्वर्य के लिए प्रयत्न करें।" वेंदो में शूद्र कहीं भी हेय या निम्न श्रेणी का नहीं माना गया है। उसे वेद पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार दिया गया है। यजुर्वेद (26.2) के अनुसार "जैसे ईश्वर-! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, सेवक और उत्तम तथा अंत्यज आदि मनुष्यों को वेदवाणी का उपदेश करता है वैसे ही सब मनुष्य अच्छे प्रकार इसका उपदेश करें। इसमें किसी का अनाधिकार नहीं है।"

मनु के अनुसार "किसी भी वर्ण में दीक्षित ब्यक्ति आर्य है"(10.57)। मनु ने सम्मान के उत्तरोत्तर क्रमशः पांच आधार माने हैं-- धन, कुटुम्ब, आयु, उत्तम कार्य, और विद्या। इसमे "शूद्र को मुख्यतया आयु के आधार पर सामान्य माना है" (2.136-138)। "नब्बे वर्ष की आयु के शूद्र को सभी पहले रास्ता दे तथा अपने से न्यून से भी विद्या, अनुभव मिले तो ग्रहण करना चाहिए।" (2.138) भारतीय संस्कृति में दास बनाने की प्रथा नहीं है, "तपः शुद्रः" यानी श्रम करना इसलिए श्रमिक का पर्याय शूद्र "सेवक ब भृत्यों को वेतन योग्यता अनुसार करने का आदेश मनुस्मृति में है, आज की परिभाषा में जो कर्मचारी हैं शूद्र है।" मनु की दृष्टि कितनी मानवीय, उदात्त और समुचित है फिर भी आरोप! अतः मनु ने कोई भेदभाव नहीं किया है। इसके विपरीत "निर्धारित आयु सीमा तक उपनयन में दीक्षित न होने वाला द्वीज "ब्रात्य" शूद्र कहलाता है जो प्रायश्चित करके पुनः द्वीज बन जाता है।" (2.37-40)

डॉ भीमराव अंबेडकर का मत

मनुस्मृति में छुवा छूत के संबंध में डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि---!

1-"वैदिक काल में कहीं कोई अस्पृश्यता नहीं थी। जहाँ तक धर्म सूत्रों के काल की बात है तो हम देख चुके हैं कि उस समय अपवित्रता थी न कि अश्पृश्यता थी।" (अछूत, वही खं 14.138)

2- "मनु के समय छुवा छूत नहीं था। उस समय केवल अपवित्रता थी, अशुचिता थी।" 'हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि मनुस्मृति ने छुवाछुत का आदेश नहीं दिया।'(वही, खं14, पृ139)

3- "दूसरी शताब्दी में अस्पृश्यता नहीं थी।" (वही ख 14, पृ141)

4- "दूसरी शताब्दी में तो अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं था"----- किंतु सातवीं शताब्दी तक इसका जन्म हो गया था।" (वही ख. 14 पृ147)

अंत में डॉ आंबेडकर ने साफ-साफ माना है कि वैदिक और मनु काल में अस्पृश्यता नहीं थी। मनुस्मृति में छुवाछुत का आदेश नहीं है, फिर भी अनेक लोग अपनी बात अम्बेडकर के मुख में डालकर यानी उनके नाम पर मनुस्मृति को उत्तरदायी ठहराते हैं जो पूर्णतया भ्रामक, असत्य और झूठा प्रचार मात्र है।

डॉ भीमराव अंबेडकर अपनी पुस्तक ''शूद्रों की खोज'' में लिखते हैं--: "शूद्र राजाओँ और वशीष्ठों के बीच अनवरत संघर्ष होते रहते थे और ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों अनेक कष्ट और अपमान सहने पड़े। शूद्रों द्वारा किए गए उत्पीड़न और पीड़ाओं से त्रस्त होकर ब्राह्मणों ने फलस्वरूप शूद्रों का उपनयन संस्कार संपन्न कराना बंद कर दिया। उपनयन संस्कार से वंचित होने पर शूद्र जो क्षत्रिय थे, उनका सामाजिक ह्रास होता गया। उनका दर्जा वैश्यों से नीचे हो गया और वे चौथे वर्ण में गिने जाने लगे।" (शूद्रों की खोज, वही. ख. 13 पृ3)

पिछड़ी, अनुसूचित और जनजाति 

आज की 4000 से अधिक ये सारी जातियों में किसी का वर्ण शूद्र वर्ण नहीं था, क्योंकि शूद्र वर्ण की परिभाषा और लक्षण उपरोक्त जातियों पर लागू नहीं होता है। मनु के अनुसार जिसका विद्या रूपी ब्रम्ह जन्म नहीं होता है वह एक जाति में रहने वाला ब्यक्ति शूद्र है। "शूद्रेनहि समरास्तावद यादव वेदे न जायते।" (मनु.2.1.172) "जब तक ब्यक्ति का वेदाध्ययन रूप में जन्म नहीं होता तब तक वह शूद्र के समान होता है," यही बात स्कन्ध पुराण में कही गई है कि'प्रत्येक ब्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार व शिक्षा से दीक्षित होकर ही वह द्वीज होता है।" कर्मणा वर्ण व्यवस्था के शूद्र का आज की जन्मना जाती ब्यवस्था से कोई संबंध नहीं है। अतः मनु ने जिनका नियमित शिक्षा दीक्षा से विद्या रूपी दूसरा जन्म हो चुका हो, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि द्विज हैं। (मनु.10.4) इस परिभाषा में जो जन्मना ब्राह्मण है परंतु अशिक्षित व अज्ञानी है, वे शूद्र हैं और अनेकों जन्म के अनुसूचित व पिछड़ी जातियों के सुशिक्षित, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर डॉक्टर व अन्य विद्वान लोग ब्राह्मण है, अतः मनु की कर्मणा वर्ण व्यवस्था आज के हिंदू समाज की जन्मना जाति ब्यवस्था पर लागू नहीं होती है, क्योंकि मनु जन्मना जाति ब्यवस्था का उल्लेख तक नहीं करते हैं, समर्थन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए मनुस्मृति में वर्ण संकरता प्रक्षिप्त अवश्य है, मगर जन्मना जाति ब्यवस्था नहीं है।

मनु और बुद्ध की तुलना

'मनु और बुद्ध' की तुलना करते हुए 'डॉ केवल मोटवानी' लिखते हैं कि "हालांकि मनु और बुद्ध दोनों की शिक्षायें सत्य यानी धर्म पर ही बल देती हैं। मगर मानव इतिहास में मनु की शिक्षओ की अपेक्षा या उनके तुलनात्मक अध्ययन का अभाव है, फिर भी मनु और बुद्ध की शिक्षाओं में अंतर इस प्रकार कहा जा सकता है, मनु की शिक्षायें विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न वर्गों में विभिन्न जातियों में और श्रेणियों के सामाजिक जीवन और चिंतनों की समस्याओं के पारस्परिक संबंध, उनकी परंपराओं और विधानों से आपस में गुथी हुई है। इनमें शान्ति व युद्ध काल दोनों में, उनकी सरकारों और सार्वजनिक प्रशासकों और क्षेत्रीय संबंधों की समस्याओं का विधान है। मनु की शिक्षाओं ने लोगों के सामुहिक जीवन को प्रभावित किया है" लेकिन बुद्ध के हाथों में आकर धर्म की वही धारणा एक ब्यक्तिगत जीवन पद्धति, एक विशिष्ट चिंतन व आचरण और अनुभूति मात्र बन गई। बुद्ध का मुख्य ध्येय ब्यक्ति था और उनकी शिक्षाओं का उद्देश्य ब्यक्ति को आत्मानुभूति, आत्म प्रकाश, धार्मिक सदाचार और दुखों से मुक्ति के समीपतम लाना था।"

वैदिक धर्म जिसका प्रचार मनु ने किया ब्यक्तिवाद और सामूहिक वाद का एक अद्वितीय सम्मिश्रण है क्योंकि मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों प्रकार के तत्व विद्यमान होते हैं। किसी भी समस्या समाधान हेतु मनु ने विकल्प दिया है स्वतंत्रता दिया इसके लिए बुद्धिजीवियों, हिंदू धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों एवं समाज के प्रभावशाली ब्यक्तियों को स्वयं उदाहरण प्रस्तुत कर सामाजिक समता एवं समरसता लानी होगी।

मनुस्मृति और समाज विज्ञान

महर्षि मनु के विधि विधानों ने मनुष्य की ब्यक्तिगत और सामाजिक सर्वांगीण उन्नति में महान योगदान दिया है, समाज को सुसंगठित, प्रगतिशील एवं स्वतंत्र चिंतनशील बनाने में रचनात्मक भूमिका निभाई है।डॉ मोटवानी इस प्रकार ब्याख्या करते हैं-!

1- "मनुष्य के लिखित इतिहास के समय से लेकर आज तक समाज शास्त्र के चिंतकों, दार्शनिकों और योजनाकारों में संस्कृतियों के रचनाकार के रूप में मनु के अलावा कोई अन्य नाम ज्ञात नहीं है।" 

2-यदि कोई इतिहासकार इतिहास के प्रारम्भो इतना पीछे ढकेल कर देखे जितना वह कर सके तो वह मनु को अपनी शिक्षाओं सहित पायेगा, जो अब्यवस्था की जगह व्यवस्थाओं, अज्ञान की जगह बुद्धिमत्ता और असभ्य मानव सामग्री की काया पलट कर उसे प्रगतिशील, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक मानव बना रहा है। वेदों के समकालीन मनु प्रत्येक देश के जीवन में, उसके प्राचीन सामाजिक जीवन और चिंतन की धरोहर के साथ प्रवेश करता दिखाई देगा। मनु किसी अत्यंत प्राचीन भूले विसरे मृत अतीत की धरोहर नहीं बल्कि वह प्रत्येक सभ्य जीते जागते जाज्वल्यमान मानव के सामाजिक जीवन की जीवन्त शक्ति है जो कि आज इस धरती में सांस ले रहा है।" 

"इस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से पूर्णतया परीक्षण किया हुआ, मानव जाति में से चुने हुए लोगों में से केवल मनु ही एक ऐसा उपदेशक है जिसकी शिक्षाओं ने विश्व के सर्वाधिक क्षेत्र के, सर्वाधिक लोगों का, सर्वाधिक समय तक, सर्वाधिक भला किया है। लेकिन मानव इतिहास का यह कालखंड शास्त्रीय इतिहासकारों की दृष्टि से ओझल हो गया। परिणामस्वरूप आज विश्व भर के स्कूलों, कालेजों एवं विश्वविद्यालयों की इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में इसके अंश मात्र का भी मिलना, हमारा एक निष्फल प्रयास होगा।"

3- "मनु किसी अकेले देश या जाति की संपत्ति नहीं है, वे तो समस्त विश्व की धरोहर है। उनकी शिक्षायें किसी एक अकेले वर्ग, जाति या सम्प्रदाय के लिए नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए है। वे समय की सीमाओं से परे हैं। और वे स्वयं मनुष्य में व्याप्त शास्वत तत्वों को सम्बोधित करती हैं, आधुनिक ज्ञान और अनुभूति की दृष्टि से यह आवश्यक है कि मनु की मौलिक शिक्षाओं की पुनः ब्याख्या की जाय। भारत, जो कि उनकी शिक्षाओं का संरक्षक और प्रसारण केंद्र भी रहा है, और जहाँ से वे विश्व के विभिन्न कोनों में गई का यह उत्तरदायित्व है कि वह मनु के चिंतन और दृष्टिकोण को पुनर्जागृत एवं प्रसारित करे।लेकिन आधुनिक विज्ञान और तकनीकी ने उसके किनारे उस संस्कृति को ला दिया है जो उसके मूल स्वभाव के विपरीत है। संपत्ति और श्रम के मध्य संघर्ष, हड़ताल, तालाबन्दी, बेरोजगारी, जनसंख्या बृद्धि, पर्यावरण असंतुलन, साम्प्रदायिकता, भाषायी एवं प्रांतीय प्रतिद्वंदिता और घृणा आदि पश्चिम के संहारक युद्ध के समान यहां भी घर कर गए हैं।" (वही पृ.13-15)

मनु की समाज व्यवस्था का विदेशों में प्रभाव

मनु की मनुष्यों की मूल प्रबृत्तियों के आधार पर समाज व्यवस्था और श्रम के विभाजन का सिद्धांत, भारत में ही नहीं विदेशों में भी व्यापक रूप से सराहा गया है। डॉ केवल मोटवानी ने मनुस्मृति की विस्तृत विवेचना (मानव धर्मशास्त्र पृ.105. 325) द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि आर्यो और राजर्षि मनु का सुदूर पूर्वी चीन, जापान, फिलीपींस द्वीप, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों में क्या प्रभाव है तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता भारत के अलावा ईरान, सुमेरिया, मिश्र, क्रीट, बेबिलोनिया, असीरिया (इराक), हेटी, पैलिस्तीन, ग्रीस, रोम यूरोप, साइबेरिया (रूस), तुर्किस्तान, स्कैंडिनेविया स्लोवनिक, गौलिक और ट्युतानिक देशों में मनु का प्रभाव क्या और किस रूप में दिखाई देता है। इसके लिए पूर्वी और दक्षिण एशिया के देशों जापान, चीन, स्याम, मलेशिया, चम्बा, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बाली, श्री लंका तथा सिंघल द्वीप में बसी हुई आदिम जातियों में आचार विचार एवं व्यवहार मनु द्वारा उपदिष्ट नियमों से मिले जुले दिखाई देते हैं। वस्तुतः मनु के दूरगामी प्रभाव को और अधिक गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है।

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