राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक मा रज्जू भैया

 

रज्जू भैया अनथक कर्मयोगी 

आज प्रेरक प्रासंगिक विवेचना में एक चिन्तक, मनीषी, समाज सुधारक कुशलसंगठक, वैज्ञानिक, अनासक्त कर्मयोगी, सादगी व सेवा एवं आत्मीयता से परिपूर्ण एक आदर्श राष्ट्रवादी प्रतिमूर्ति के प्रतिबिम्ब थे। चतुर्थ सरसंघचालक मा. "प्रो0 राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया " प्रो0 राजेन्द्र सिंह जी की जीवन यात्रा आम आदमी को ईमानदारी, प्रमाणिकता, ध्येयनिष्ठा, कर्मठता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाली है । रज्जू भैया का परिचय क्षेत्र बहुत व्यापक था। विभिन्न दलों और विचाधाराओं के राजनेताओं से उनके सहज सम्बन्ध थे, सभी संप्रदायों के आचार्यों व संतों के प्रति उनके मन में श्रद्धा थी और अनेकों का स्नेह और आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हुआ था । देश -विदेश के वैज्ञानिकों, विशेष कर सर सी0 वी0 रमन जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक का उनके प्रति आकर्षण था। ऐसे वहुआयामी व्यक्तित्व एवं उनकी समग्रता को एक छोटे से संकलन में समाहित कर पाना सम्भव नहीं है। यह कृति रज्जू भैया के प्रेरणाप्रद -सार्थक राष्ट्र समर्पित जीवन की एक झाँकी मात्र है जो उनकी विराटता का दिग्दर्शन कराती है। एक तपस्वी ओर महान राष्ट्रसेवी की स्मृति को पुनीत स्मरणांजलि है यह संक्षिप्त विवेचना;-

पारिवारिक पृष्ठभूमि

रज्जू भैया का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर की इन्जीनियर्स कालोनी में २९ जनवरी सन् १९२२ को हुआ था।इनके पिता इं० (कुँवर) बलबीर सिंह जी एवं माता ज्वाला देवी थी। उस समय उनके पिताजी बलबीर सिंह वहाँ सिचाई विभाग में अभियन्ता के रूप में तैनात थे। बलबीर सिंह जी मूलत: उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जनपद के सम्पन्न एवं शिक्षित ख्यातिप्राप्त तौमर राजपूत परिवार के बनैल गाँव (पहासू कस्वे के पास ) के निवासी थे जो बाद में उत्तर प्रदेश के सिचाई विभाग से मुख्य अभियन्ता के पद से सेवानिवृत हुए। वे भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (आई०ई०एस०) में चयनित होने वाले प्रथम भारतीय थे। परिवार की परम्परानुसार सभी बच्चे अपनी माँ ज्वाला देवी को "जियाजी" कहकर सम्बोधित किया करते थे। अपने माता-पिता की कुल पाँच सन्तानों में रज्जू भैया तीसरे थे। उनसे बडी दो बहनें - सुशीला व चन्द्रवती थीं तथा दो छोटे भाई - विजेन्द्र सिंह व यतीन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे और केन्द्र व राज्य सरकार में उच्च पदों पर रहे।

शिक्षा और शिक्षक

रज्जू भैय्या की प्रारंभिक पढाई बुलंदशहर, नैनीताल, उन्नाव और दिल्ली में हुई | उन्होंने बी.एस.सी. व एम.एस.सी. परीक्षा इलाहाबाद विश्व विद्यालय से 1939 -1943 में उत्तीर्ण की। विश्व विद्यालय में उनकी गिनती मेघावी छात्रों में की जाती थी, तत्पश्चात 1943 से 1967 तक इलाहाबाद विश्व विद्यालय में भौतिकी शास्त्र विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए ,फिर प्राध्यापक और अंत में विभागाध्यक्ष रहे ।महान गणतज्ञ हरीशचंद जी उनके वी0 एस 0 सी0 और एम0 एस0 सी0 के सहपाठी थे। रज्जू भैय्या का सम्बन्ध संघ से भले ही 1942 के बाद बना, किन्तु उनका समाज कार्य के प्रति रुझान प्रारम्भ से ही था।

अविवाहित जीवन स्वीकार किया

जब वे बी.एस.सी. फाईनल में थे तभी 20 वर्ष की आयु में ही बिना उन्हें बताये उनका विवाह तय कर दिया गया। लड़की के पिता सेना में डॉक्टर थे, ये स्वयं लड़की के पिताजी से जाकर मिले तथा उन्हें बताया कि वे अभी विवाह नहीं करना चाहते, बाद में संघ प्रवेश के बाद संघ पर विवाह परिवार प्रतिबन्ध, सत्याग्रह करने के कारण कारावास के बाद 1949 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपनी माँ से स्पष्ट कह दिया कि वे विवाह नहीं करेंगे । प्रो0 राजेन्द्र सिंह जी एम.एस.सी. में विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान पर रहे थे | नोबल पुरस्कार विजेता सी.वी. रामन ने उनकी प्रायोगिक परिक्षा ली और उन्हीं के रामन इफेक्ट पर रज्जू भैय्या के प्रयोग से इतने प्रभावित हुए कि 100 में से 100 अंक दे दिए और आगे शोध के लिए बंगलौर आने का निमंत्रण दे दिया, किन्तु रज्जू भैय्या को शिक्षक बनना था और अपने गुरू प्रो. कृष्णन के साथ रिसर्च करनी थी, अतः उन्होंने प्रयाग नहीं छोड़ा, कोई अन्य विद्यार्थी होता तो प्रो. रामन के प्रस्ताव को ठुकराने के बारे में सोच भी नहीं सकता था ।

और सी.वी. रमन

रज्जू भैय्या ने एक बार प्रो. सी.वी. रामन से पूछा कि “सर आप इतने बड़े भौतिक विज्ञानी होकर प्रतिवर्ष नवागत विद्यार्थियों को वही वही बेसिक बातें बार बार पढ़ाते हैं, तो बोर नहीं होते ? तो उन्होंने कहा था कि "‘Rajendra, when you take interest in every learner opening a new window to the sky of knowledge, you never get tired. You have to admire and enjoy every learner’s spirit of opening to explore."  महान वैज्ञानिक के शब्दों को आत्मसात करते हुए उन्होंने शिक्षक के नाते अपना जीवन ढाला और सब विद्यार्थियों के प्रिय बने, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी उनके शिष्य रहे हैं।

वैज्ञानिक होते

यदि रज्जू भैया संघ के प्रचारक न निकलते तो निश्चित ही एक बहुत बड़े विख्यात वैज्ञानिक बनते, 1947 में स्वतन्त्रता के बाद डॉक्टर होमी भाभा ने भारत में आणविक शोध को गति देने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू से बात की। नेहरू जी ने उन्हें उसकी अनुमति दे दी और कहा जो भी व्यवस्था करना चाहें करें, जो भी उत्तम वैज्ञानिक वे चाहें इस प्रकल्प में ले सकते हैं, बजट की कोई चिंता न करें, इस प्रकल्प के लिए जब डॉ. भाभा ने प्रो. रमन से बात की तो उन्होंने प्रो. राजेन्द्र सिंह जी का उल्लेख करते हुए कहा कि वह प्रतिभाशाली नवयुवक मेरे साथ बेंगलौर आने को तो नहीं माना था किन्तु यदि वह इस प्रकल्प में साथ आ जाए तो उत्तम रहेगा, रज्जू भैय्या को बुलावा भेजा गया, परन्तु वह नहीं माने उन्होंने भाभा से कहा कि मैं सप्ताह में केवल तीन दिन पढ़ाने के लिए देता हूँ, बाकी समय संघ का काम करता हूँ, इससे कम समय मैं समाज को नहीं दे सकता। 6 – 7 दिन प्रति सप्ताह काम करने वाली सरकारी नौकरी मैं नहीं कर सकता, भाभा ने जब यह बात नेहरू जी को बताई कि एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक है जो नहीं मान रहा, नेहरू जी ने कहा कि ऐसी क्या बात है, उसे मुंह माँगी तनखाह की बात करो | इस पर भाभा ने कहा कि पैसे की बात नहीं है, उसके जीवन की प्राथमिकताएं अलग हैं, बाद में जब होमी भाभा गुरूजी से मिले तो उन्होंने कहा कि आपके कारण हमने भारत का एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक खो दिया । रज्जू भैय्या तमाम आकर्षणों को छोड़कर प्रचारक बने थे, सामान्य प्रचारकों से भिन्न वे बड़े घर के बेटे थे हर सुख सुविधा के आदी थे, संगीत प्रेमी थे, वायलिन उनका प्रिय वाद्ययंत्र था। लेकिन सब छोड़ दिया और एकनिष्ठ होकर संघ कार्य में रम गए। पिताजी उन दिनों लखनऊ में चीफ इंजीनियर के पद पर थे । माननीय भाऊराव ने लखनऊ संभाग प्रचारक के नाते उनकी नियुक्ति की | उनके पास लखनऊ, सीतापुर और प्रयाग तीन विभाग थे । लखनऊ आने पर रज्जू भैय्या अपने घर पर ही रहे, पिताजी से जब पूछा कि कोई आपत्ति तो नहीं, तो उन्होंने हंसकर कहा, मुझे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु सरकारी बंगला है, यहाँ रहकर मित्रों से मिलजुल तो सकते हो, परन्तु कोई मीटिंग न करना ।

उत्प्रेरक आत्मकथ्य

एक पुस्तक में उन्होंने यह रहस्योद्घाटन उस समय किया था जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के पद को सुशोभित कर रहे थे। "मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे, उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद 'बिस्मिल' प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि 'बिस्मिल' जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बडा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बडा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: 'बिस्मिल' जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।"

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश

रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है, वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एससी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में सर कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने। १९९४ में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण जब अपना उत्तराधिकारी खोजना शुरू किया तो सबकी निगाहें रज्जू भैया पर ठहर गयीं और ११ मार्च १९९४ को बाला साहेब ने सरसंघचालक का शीर्षस्थ दायित्व स्वयमेव उन्हें सौंप दिया।

पहली बार उत्तर भारतीय

संघ के इतिहास में यह एक असामान्य घटना थी। प्रचार माध्यमों और संघ के आलोचकों की आँखे इस दृश्य को देखकर फटी की फटी रह गयीं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर वे अब तक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के एकाधिकार की छवि थोपते आये हैं, उसके शिखर पर उत्तर भारत का कोई गैर-महाराष्ट्रियन अब्राह्मण पहुँच सकता है, वह भी सर्वसम्मति से। वास्तव में जिन्हें संघ समझ में नहीं आता वे अनर्गल विचार करने लगते हैं, रज्जू भैया का शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल था किन्तु उन्होंने प्राण-पण से सौंपे गये दायित्व को निभाने का जी-तोड प्रयास किया। परन्तु अहर्निश कार्य और समाज-चिन्तन से बुरी तरह टूट चुके अपने शरीर से भला और कब तक काम लिया जा सकता था। अतएव सन् १९९९ में ही उन्होंने उस दायित्व का भार किसी कम उम्र के व्यक्ति को सौंपने का मन बना लिया। और अन्त में अपने सहयोगियों के आग्रहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद, मार्च २००० में सुदर्शन जी को यह दायित्व सौपकर स्वैच्छिक पद-संन्यास का संघ के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया।

संगठन के प्रति समर्पण

रज्जू भैया की ६० वर्ष लम्बी संघ-यात्रा केवल इस दृष्टि से ही असामान्य नहीं है कि किस प्रकार वे एक के बाद दूसरा बड़ा दायित्व सफलतापूर्वक निभाते रहे अपितु इस दृष्टि से भी है कि १९४३ से १९६६ तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के साथ-साथ एक पूर्णकालिक प्रचारक की भाँति यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते हुए समस्त दायित्वों का निर्वाह करते रहे। संघ-कार्य हेतु अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिये वे संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष के परम्परागत प्रशिक्षण पर निर्भर नहीं रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने १९४७ में तब प्राप्त किया जब वे प्रयाग के नगर कार्यवाह की स्थिति में पहुँच चुके थे, द्वितीय वर्ष उन्होंने १९५४ में बरेली के संघ-शिक्षा-वर्ग में उस समय किया जब भाऊराव देवरस उन्हें समूचे प्रान्त का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष उन्होंने १९५७ में किया जब वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रान्त का दायित्व सँभाल रहे थे। इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने तीन वर्ष के प्रशिक्षण की औपचारिकता का निर्वाह संघ के अन्य स्वयंसेवकों के सम्मुख योग्य उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये किया अपने लिये योग्यता अर्जित करने के लिये नहीं।

प्राध्यापक और प्रचारक

प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे संघ-कार्य में प्रचारकवत जुटे रहे। औपचारिक तौर पर उन्हें प्रचारक १९५८ में घोषित किया गया पर सचाई यह है कि उन्होंने कार्यवाह पद को प्रचारक की भूमिका स्वयं प्रदान कर दी। भौतिक शास्त्र जैसे गूढ विषय पर असामान्य अधिकार रखने के साथ-साथ अत्यन्त सरल व रोचक अध्यापन शैली और अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे। वरिष्ठता और योग्यता के कारण उन्हें कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष-पद का दायित्व भी प्रोफेसर के साथ-साथ सँभालना पड़ा। किन्तु यह सब करते हुए भी वे संघ-कार्य में अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी तरह करते रहे। रीडर या प्रोफेसर बनने की कोई कामना उनके मन में कभी नहीं जगी। जिन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के रीडर पद के लिये आवदेन माँगे गये उन्होंने आवेदन पत्र ही नहीं दिया। सहयोगियों ने पूछा कि रज्जू भैया! आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने बड़े सहज ढँग से उत्तर दिया- "अरे मेरा जीवन-कार्य तो संघ-कार्य है, विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी नहीं। अभी मैं सप्ताह में चार दिन कक्षायें लेता हूँ, तीन दिन संघ-कार्य के लिए दौरा करता हूँ। कभी-कभी बहुत कोशिश करने पर भी विश्वविद्यालय समय पर नहीं पहुँच पाता। अभी तो विभाग के सब अध्यापक मेरा सहयोग करते हैं किन्तु यदि मैं रीडर पद पर अभ्यार्थी बना तो वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझने लगेंगे। इसलिए क्यों इस पचड़े में फँसना।" रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं। विश्वविद्यालय में अध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। वे अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ-कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे। एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशन आर्थिक संकट में फँस गया तो उन्होंने अपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति!

संवेदनशील अंत:करण

नि:स्वार्थ स्नेह और निष्काम कर्म साधना के कारण रज्जू भैया सबके प्रिय था। संघ के भीतर भी और बाहर भी। पुरुषोत्तम दास टण्डन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे राजनेताओं के साथ-साथ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जैसे सन्तों का विश्वास और स्नेह भी उन्होंने अर्जित किया था। बहुत संवेदनशील अन्त:करण के साथ-साथ रज्जू भैया घोर यथार्थवादी भी थे। वे किसी से भी कोई भी बात निस्संकोच कह देते थे और उनकी बात को टालना कठिन हो जाता था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणीजी - तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा? नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार किया। चाहे अटलजी हों, या आडवाणीजी; अशोकजी सिंहल हों, या दत्तोपन्त ठेंगडीजी - हरेक शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करता था; क्योंकि उसके पीछे स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की भावना नहीं होती थी। इस दृष्टि से देखें तो रज्जू भैया सचमुच संघ-परिवार के न केवल बोधि-वृक्ष अपितु सबको जोड़ने वाली कड़ी थे, नैतिक शक्ति और प्रभाव का स्रोत थे। उनके चले जाने से केवल संघ ही नहीं अपितु भारत के सार्वजनिक जीवन में एक युग का अन्त हो गया है। रज्जू भैया केवल हाड़-माँस का शरीर नहीं थे। वे स्वयं में ध्येयनिष्ठा, संकल्प व मूर्तिमन्त आदर्शवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इसलिए रज्जू भैया सभी के अन्त:करण में सदैव जीवित रहेंगे। देखा जाये तो रज्जू भैया आज मर कर भी अमर हैं।

अविचल राष्ट्रभक्ति

रज्जू भैय्या की अविचल भारत भक्ति का प्रमाण है उनकी अंतिम इच्छा, उन्होंने कहा था कि "जहां मेरा शरीर शांत हो, वहीं मेरा अंतिम संस्कार किया जाए।" वह भी मातृभूमि भारत का ही तो हिस्सा होगा अकारण शव इधर उधर ले जाने की आवश्यकता नहीं है। उनकी इच्छानुसार वैसा ही हुआ उनका देहावसान 14 जुलाई 2003 को पुणे में कौशिक आश्रम में हुआ और वहीं के बैकुंठधाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया। मैं उस समय काठमांडू में था श्रद्धांजलि सभा में जब मैं बोलने के लिए खड़ा हुआ तो आश्चर्य रूप से मैं बोल नहीं सका जिन कार्यकर्ताओं ने देखा वे भी चकित थे क्या हो गया! उनके प्रति सभी कार्यकर्ता जो उनकी सरलता से परिचित थे। रज्जू भैया किसी विद्यार्थी से मिलते अथवा उसे ब्यवस्था में लगाया जाता तो उसे पढ़ाने लगते थे, वे अपना सारा का सारा ज्ञान स्वयंसेवक में उड़ेल देना चाहते थे। रज्जू भैय्या के व्यक्तित्व के बारे में सोचते समय परम आदरणीय गुरूजी का कार्यकर्ता संबंधी विवेचन स्मरण में आता है । कोयला और हीरा दोनों का मूल धातु ‘कार्बन’ है, कोयला जलता है और शेष रहती है राख, जलते कोयले को सब दूर से देखते हैं असहनीय उष्णता के कारण कोई पास नहीं जाता, जबकि हीरा जलता नहीं चमकता है सब उसके पास दौड़े जाते हैं, उसको हथेली पर रखते हैं, निहारते हैं, अपनाना चाहते हैं । ध्येयवादिता की दृष्टि से कोयला हीरा समान हैं, किन्तु उपगम्यता एवं स्वीकार्यता की दृष्टि से कोयला कोयला है और हीरा हीरा है, कार्यकर्ता को हीरे जैसा होना चाहिए हाँ, रज्जू भैय्या सबके उपगम्य हीरा थे !

रज्जू भैया की इच्छा थी

रज्जू भैया इस बात से बड़े दुखी थे कि क्रान्तिकारी 'बिस्मिल' के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता लोग नहीं बना सके। वे तुर्की के राष्ट्रीय स्मारक जैसा स्मारक भारत की राजधानी दिल्ली में बना हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने कहा था: "लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिये तालियाँ बटोर लेना अलग बात है, नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिये कुछ करना अलग बात है।" वे चिन्तक थे, मनीषी थे, समाज-सुधारक थे, कुशल संगठक थे और कुल मिलाकर एक बहुत ही सहज और सर्वसुलभ महापुरुष थे। ऐसा व्यक्ति बड़ी दीर्घ अवधि में कोई एकाध ही पैदा होता है। मैं ऐसे महान देशभक्त की जन्म जयंती के अवसर पर सादर श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ ।

स्वदेशी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे रज्जू भैया, रज्जू भैया प्रथम श्रेणी में एम एस सी उत्तीर्ण करने के पश्चात प्रयाग विश्व विद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक हो गए। वे रज्जू भैया के नाम से लोकप्रिय विख्यात हो गए, नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ सी वी रमन उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। 1943 में काशी से प्रथम संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लेने के बाद अपना जीवन संघ कार्य के लिए समर्पित कर दिया। 1994 में आरएसएस के सरसंघचालक बने और14 जुलाई 2003 में उनका निधन हो गया।

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