कुमारिल का समय
कुमारिल शंकराचार्य जी के समकालीन हैं इसका मतलब है कि कोई 2500 वर्ष पूर्व कुमारिल का जन्म हुआ था, वह एक ऐसा काल था कि भारतवर्ष के अंदर सनातन वैदिक धर्म का ह्रास होता दिख रहा था और बौद्ध दर्शन का प्रभाव बढ़ रहा था। इतना ही नहीं तो भारतवर्ष में जितने राजा महाराजा थे अधिकांश बौद्ध मतावलम्बी बन गए थे ऐसा नहीं कि उन्हें बौद्ध धर्म बहुत अच्छा लग रहा था ऐसा भी नहीं कि उन्होंने बुद्ध भगवान के जीवन दर्शन को अच्छे प्रकार से पढ़ लिया था और ऐसा भी नहीं कि वे सभी वैदिक धर्म के ज्ञाता थे। लेकिन उन्हें लगता था कि एक राजा सन्यासी हुआ है इस नाते हमें भी बौद्ध धर्म मानना चाहिए और वे बौद्ध हो गए लेकिन आम जनता तो वैदिक मतावलंबी ही बनी रही। धीरे धीरे बौद्धों के अंदर एक दुर्गुण आना शुरू हो गया वे परावलंबी बनने लगे लगभग राज्याश्रित धर्म हो गया। कुछ नहीं करना मठ में पड़े रहना धीरे धीरे बौद्ध भिक्षुणियाँ भी मठों में रहने लगीं लगभग ब्याभिचार सा फैलने लगा इतना ही नहीं तो राष्ट्रभक्ति समाप्त होने लगा। परकीय हमले शुरू होने शुरू हो गए बौद्ध भिक्षु देशद्रोह पर उतारू हो गए। धार्मिक विजय के नाम पर कायरता समाज में परोसना शुरू हो गया था। जो विश्वविद्यालय थे वे सभी धर्मो का आदर तो छोड़िये वे वेदों के विरोधी शिक्षा देने लग गए थे परिणामस्वरूप नालन्दा जैसे विश्वविद्यालय समाप्त होने लगे छोटे छोटे मुस्लिम आक्रांताओ आक्रमणकारियों ने तमाम विश्वविद्यालयों को आग के हवाले कर दिया और शिक्षक, विद्यार्थी देखते रह गए। ऐसे समय कुमारिल का जन्म महिष्मति पुर के पास मंडला में हुआ, वे गृहस्थ आश्रम में थे वैदिक कर्मकांडी ब्राह्मण थे। उन्होंने इस वैदिक धर्म को बचाने की चुनौती को स्वीकार किया, लेकिन क्या यह चुनौती धर्म बचाने की थी नहीं! ये तो राष्ट्र बचाने की चुनौती थी आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी की जो दिग्विजय यात्रा थी उसकी नीव रखने वाले कुमारिल भट्ट ही थे। उन्होंने नास्तिक जैन और बौद्धों के दर्शन को चुनौती दी शास्त्रार्थ कर सभी को आयना दिखाया पुनः वैदिक धर्म हिंदू राष्ट्र की विलुप्त चेतना जागृत होने लगी। वे नर्मदा तट पर तपस्या रत गोविंदाचार्य से भेंट की और पूछा आचार्य "एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति" जो एक सत्य है वह क्या है? गोविंदपाद ने बताया वह सत्य वेद है पर किसी का खंडन नहीं मंडन करना चाहिए इसीलिए कुमारिल भट्ट ने अपने प्रिय शिष्य विश्वरूप का नाम मंडन मिश्र रखा।
जन्म स्थान पर अनेक मत
आचार्य कुमारिल भट्ट मिमांसादर्शन के महान दार्शनिक थे, समाज के लोग प्यार से उन्हें 'ततातीत' नाम से भी सम्बोधित किया करते थे। उक्त नाम का उल्लेख कश्मीर के कबि मंख ने अपनी कृति श्रीकंठविजय नामक ग्रंथ में किया है, आचार्य कुमारिल भट्ट "कुमारिलभट्ट पाद" के नाम से विख्यात थे। उनका अन्य नाम कुमारिल स्वामी अथवा कुमारिल मिश्र भी था। जैन ग्रंथो से पता चलता है कि आचार्य कुमारिल भट्ट महानदी के तट पर स्थित जयमंगल नामक गाँव के निवासी थे, उनके पिता का नाम यज्ञेश्वर भट्ट तथा माँ का नाम चंद्रगुणा था।आचार्य कुमारिल भट्ट के जन्म स्थान के बारे में बहुत मतभेद है कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता कई विद्वान लोग अपने अपने तर्क देते हैं। विद्वानों का एक वर्ग उन्हें दक्षिण भारत का रहने वाला मानते हैं कुछ विद्वान उन्हें उत्तर भारत का रहने वाला बताते हैं। तिब्बत के विद्वान तारानाथ और पी.वी. कांडे के अनुसार वे दक्षिण भारत के निवासी थे। "शंकरदिग्विजय" से पता चलता है कि कुमारिल उत्तर भारत के निवासी थे। बिहार के मिथिला की जनश्रुति के अनुसार कुमारिल भट्ट मिथिला बिहार के निवासी थे। मध्यप्रदेश महिस्मतीपुर के जनश्रुति के अनुसार वे मंडला के निवासी थे।
चौबीस गुणों का दर्शन
कुमारिल के स्थिति काल के विषय में भी विद्वानों का विभिन्न मत है, आचार्य कुमारिल भट्ट आचार्य शंकराचार्य के समकालीन थे। मद्रास के राजकीय हस्तलेख संग्रह में मीमांसानयकोष ग्रंथ से पता चलता है कि बृहट्टीका, मध्यमटीका, तुप्प्टीका, कारिका और तंत्रवार्तिक। उक्त पांच ग्रंथों में से बृहट्टीका और मध्यमटीका इस समय उपलब्ध नहीं है। आचार्य कुमारिल भट्ट छह प्रमाण मानते हैं, यथा- प्रत्यक्ष,अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि (अभाव) ।आचार्य कुमारिल भट्ट के मतानुसार गुण चौबीस हैं- रुप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संस्कार, ध्वनि, प्राकट्य और शक्ति। आचार्य कुमारिल भट्ट के मत से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा, मन, शब्द और तम ये ग्यारह द्रब्य हैं। आचार्य कुमारिल भट्ट के मतानुसार पदार्थ पाँच है- द्रव्य, जाति, वायु, गुण, कर्म तथा अभाव । कुमारिल भट्ट प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव, और अन्योन्याभाव ये चार अभाव मानते हैं, आचार्य कुमारिल अभिहितंव्यवादी हैं। आचार्य ने आगम अथवा शब्द प्रमाण को वैदिक एवं लौकिक वाक्यों के भेद से दो प्रकार का माना है, आचार्य कुमारिल ने प्रत्यक्ष को सविकल्प एवं निर्विकल्प भेद दो प्रकार का मानते हैं। कुमारिल भट्ट अनुमान को स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान भेद को दो प्रकार का मानते हैं, स्वयं के लिए किया जाने वाला अनुमान स्वार्थानुमान तथा अन्य ब्यक्ति के लिए किया जाने वाला अनुमान को परार्थानुमान कहते हैं। आचार्य कुमारिल भट्ट द्विविध अर्थापत्ति, दृष्टार्थपति और श्रुतार्थापत्ति मानते हैं। कुमरिल के मतानुसार ज्ञान का प्रमाण कहीं बाहर से नहीं आता, अपितु ज्ञान ग्राहक- सामग्री के साथ साथ स्वतः उत्पन्न हो जाता है, अप्रमान्य परतः होता है, कुमारिल भ्रम की व्याख्या "विपरीतख्याति" के रूप में करते हैं।
शंकराचार्य के गुरु स्थान
कुमारिल मीमांसाशास्त्र के बहुत बड़े विद्वान हैं, कुमारिल भट्ट दर्शन जगत में प्रखर प्रतिभा, सूक्ष्म विवेचन तथा अपनी मौलिक विचारधारा के कारण विख्यात हैं। आचार्य कुमारिल भट्ट का तंत्रवार्तिक दर्शन वैदिक धर्म के लिए प्रामाणिक विश्वकोश है। वेदों के प्रति आचार्य की श्रद्धा बहुत थी, वेदों के पुनरुद्धार के लिए उन्होंने अनेक कार्य किया। भाष्यकार शबरस्वामी ने जिस धारा को प्रवाहित किया उसी धारा को विकास की ओर ले जाने का श्रेय कुमारिल भट्ट को ही है। आचार्य कुमारिल भट्ट का महत्व यह है कि उन्होंने वैदिक संस्कृति विषयों की उत्कृष्ट व्याख्या प्रस्तुत किया, जिससे वेद के ज्ञानभंडार को जन-जन तक पहुचाया जा सके। आचार्य कुमारिल भट्ट का मीमांसाशास्त्र में प्रमुख महत्व है उन्होंने मीमांसाशास्त्र को आस्तिक मार्ग पर ले जाने का कार्य किया, उक्त बात का उल्लेख मिमांसश्लोकवर्तिक के प्रतिज्ञा सूत्र में किया है। कुमारिल भट्ट का महान लक्ष्य था कि मीमांसाशास्त्र एवं वेदों का ज्ञानभंडार लोक जन तक पहुचाया जा सके, इसलिए उन्होंने लोक एवं वेद दोनों में समन्वय स्थापित करने का काम किया। आचार्य कुमारिल न केवल संस्कृत के विद्वान थे अपितु बहुत सारे भाषाओं के विद्वान थे, उन्होंने वैदिक सिद्धांतों की व्याख्या के लिए व्यापक एवं अतिमहत्वपूर्ण काम किया है। मिमांसादर्शन को दार्शनिक रूप प्रदान करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। भारतीय इतिहास ने उनके साथ न्याय नहीं किया, जो स्थान कुमारिल भट्ट को मिलना चाहिए था वह उन्हें नहीं मिला। देश विभाजन के पश्चात समाजवादी नेहरू ने बामपंथी इतिहासकारों के कंधे पर सवार होकर भारतीय वांग्मय का भारी नुकसान किया। शंकरदिग्विजय में आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने कुमारिल भट्ट को गुरु स्थान पर रखा है लेकिन वामी इतिहासकारों ने कुमारिल के साथ न्याय नहीं किया, आज समय की आवश्यकता है कि प्रत्येक भारतीय को इन महान दार्शनिक के बारे में जानना समझना चाहिये।
सूबेदार
धर्म जागरण
1 टिप्पणियाँ
बहुत ही सारगर्भित लेखनी
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