समयानुकूल शंकराचार्यों व अन्य धर्माचार्यो की संख्या बढ़नी चाहिए --!

 


सनातन वैदिक धर्म नित्य नूतन परिवर्तन शील है, सभी को समाहित करने की क्षमता है। समय -समय पर समाज में बदलाव करने की आवस्यकता होने पर हमारे धर्मचार्यो ने समयानुकूल परिवर्तन भी किया है। लेकिन जो मूल तत्व है वह अपरिवर्तन शील है, जैसे "एकंसद विप्राबहुधा वदंति", जब "कुमारिल भट्ट" ने नर्मदा तट पर "गोविंदपाद" से पूछा कि हे आचार्य "एकम् सद विप्रा बहुधा वदंति" यानि एक सत्य है वह सत्य क्या है ? गोविंदपाद ने उत्तर दिया, वह सत्य वेद है, वेद के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है जो वेदों मे नहीं है वह कहीं भी नहीं है इसलिए सनातन धर्म मे सब कुछ समयानुसार परिवर्तन शील हो सकता है लेकिन वेद अंतिम सत्य है जो अपरिवर्तनीय है। "अहम ब्रह्मशमी" सभी के अंदर वही आत्मा है जो ब्रह्म है। "एकंसद विप्रा बहुधा वदांति" एक सत्य है जिसे विद्वान लोग विभिन्न प्रकार से व्याख्या करते हैं।

महात्मा बुद्ध 

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चूका था प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार वैदिक विद्वान गुरुदत्त अपने उपन्यास "यदा -यदाहि धर्मस्य " में लिखते हैं कि उस युद्ध में केवल जन हानि ही नहीं हुई थी बल्कि सारे बड़े -बड़े योद्धा, ऋषि महर्षि सभी समाप्त हो गए थे एक प्रकार से कुरुक्षेत्र विधवाओ का सा हो गया था। गुरुकुलों, आचार्यओं सभी का बड़ा ही नुकसान हुआ था। एक प्रकार से अराजकता ही फैल गई थी वैदिक मत छोड़कर तमाम अवैदिक मत शुरू हो गए थे। जिसमें पशु बलि इतना ही नहीं तो यज्ञयों में भी पशु बलि का प्रचलन शुरू हो गया था। महाभारत के दो हज़ार वर्ष पश्चात् इक्षाकू वंश में सिद्धार्थ नाम का एक बालक ने जन्म लिया आगे चलकर जिसे हम महात्मा बुद्ध के रूप में जानते हैं। वे तत्व ज्ञानी थे लेकिन वैदिक शिक्षा का आभाव था जब उन्होंने बलिप्रथा का बिरोध किया जीव हिंसा होना चाहिए इसको लेकर जन आंदोलन जैसा आध्यात्मिक आंदोलन खड़ा कर दिया। फिर पुरोहितों ने कहा कि ye वेदों में लिखा है तो बुद्ध ने उत्तर दिया जिसमें जीव हिंसा लिखा हो मै ऐसे किसी भी ग्रन्थ को नहीं मानता फिर आगे पुरोहितों ने कहा कि ये ईश्वर को चढ़ता है तो बुद्ध ने कहा मैं ऐसे किसी ईश्वर को नहीं मानता जो हिंसा को स्वीकार करता हो। इस प्रकार महात्मा बुद्ध ने एक नास्तिक मत खड़ा कर दिया और धीरे -धीरे यह मत कायरता का पर्याय बन गया जो राष्ट्र के हित में नहीं रहा।


आदि शंकराचार्य 

वैसे सनातन धर्म नित्य नूतन, समयानुकूल परिवर्तन शील, शास्त्रर्थ की व्यवस्था होने के कारण बहुत सारे मत मतान्तर होने के कारण बहुत सारे आचार्य हुए हैं। लेकिन आज मैं केवल आदि जगद्गुरु शंकराचार्य की ही चर्चा करुँगा। आदि शंकराचार्य का काल महात्मा बुद्ध के बाद का काल है। आदि शंकराचार्य का जन्म युधिष्ठिर संवत 2631 मे वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को हुआ था। राजा सुंधवा के "ताम्रपात्र" का लेख द्वारिकापीठ एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ मे प्रकाशित किया है। सर्वाज्ञासदाशिवकृत "पुण्यश्लोक मंजरी " आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका"तथा उसकी टीका "सुषमा "में कुछ श्लोक हैं उसमें एक श्लोक इस प्रकार है।

तिष्ये प्रयत्यनलशेंवधिबाणनेत्रे, ये नंदने दिन----- शिवगुरु: स च शंकरेति।।

अर्थात -- अनल =3, शेवधि =निधि =9, बाण =5, नेत्र =2, यानी 3952 कलिसम्वत 3201 मे विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ। तदनुसार 3201-2593= 509 विक्रम संवत पूर्व आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था।

आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने शास्त्रर्थ के बल "अद्वैत सिद्धांत" "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" के आधार पर सभी अवैदिक मतों का खंडन कर तथा देश में पनप रहे अराष्ट्रीय भाव, कापुरुषता को समाप्त कर वैदिक मत की पुर्नप्रतिष्ठा की। और सारे भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। उन्होंने भारत वर्ष के चारों कोनो पर चार धाम (उत्तर में ज्योतिर्मठ बद्रीकाश्रम, दक्षिण में श्रृंगेरीपीठ चिकमांगलूर कर्नाटक पूर्व में गोवर्धन पीठ जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) और पश्चिम में शारदा पीठ (गुजरात) द्वारिकापुरी ) की स्थापना कर सभी धामों में शंकराचार्यो की नियुक्ति किया। उनके धार्मिक दृष्टि से वहाँ के समाज, सनातन धर्म के विकास सुरक्षा की जिम्मेदारी तय किया।

चार पीठ ही क्यों ? समय की क्या आवस्यकता ?

आज के कोई ढाई हजार वर्ष पहले आदि जगद्गुरु शंकराचार्य का प्रदुर्भाव हुआ था। उस समय देश की जनसंख्या दस करोड़ के आस पास रही होगी, उसमें भी आदि शंकर ने चार पीठ की स्थापना कर चार आचार्य नियुक्त कर धर्म की सुरक्षा का बीड़ा उठाया था। यह बात ठीक है कि देश में आज बड़ी संख्या में अनेक मतों के आचार्य हैं जो अपने अपने तरीके से धर्म रक्षार्थ काम कर रहे हैं। लेकिन उस समय की अपेक्षा वर्तमान में सनातन धर्मावलंबियों की संख्या कई गुना बढ़ी है उसमें भी बहुत मतभेद  है वे एक दूसरे से सहमत होते नहीं दिखते। आज समय की आवश्य्कता है कि शंकराचार्यो की संख्या पचास से कम नहीं होनी चाहिए। किसी भी शंकराचार्य के पास निश्चित क्षेत्र तय होने चाहिए वे क्षत्र-चवर छोड़कर आम जनता के बीच जायँ और मिशनरी भाव से कार्य करें। देश के अंदर सनातन धर्म को निगलने के लिए लाखों पादरी पास्टर, लाखों मुल्ला मौलबी काम कर रहे हैं इस कारण समयानुसार शंकराचार्यो की संख्या बढाकर उनकी जिम्मेदारी तय करने की आवस्यकता है, जिस प्रकार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने द्वारा स्थापित पीठ व शंकराचार्यो को जिम्मेदारी सौपी थी आज उसी भाव से काम करने की आवस्यकता है और देश में समाज धर्म व राष्ट्र की सुरक्षा हेतु पचास से सौ शंकराचार्यो की योजना बनाने की आवश्यकता है ।

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