भगवान श्री कृष्ण ने गीता मे कहा कि जब-जब धर्म कि हानी होती है मै आता हूँ और वे आए कभी मत्स्येंद्र नाथ के रूप मे तो कभी गोरखनाथ के रूप मे वे ही राजा भरथरी के रूप मे कैसे इस पंथ कि शुरुवात हुई क्यों इतना महत्व है इस पंथ का आइए हम समझें और जानें कि इसका राज क्या है-?
जनमानस मे चेतना जगाने का काम
योगियों की परंपरा व साधना की वास्तविकता यह है की भारत वर्ष में जो दबे, कुचले, गरीब जनजाति कहते हैं वास्तविकता यह है की सभी की चिंता भगवन शंकर करते थे वे हठयोगी थे जिसे हम बाममार्गी भी कह सकते हैं भारतीय बांग्मय में सर्वेभवन्तु सुखिनः की बात की गयी है यह योगी, मत्स्येन्द्र नाथ, गोरखनाथ इसी सर्वेभवन्तु सुखिनः के लिए कठोर तप यानि हठयोग किया जिस प्रकार 'शंकर परंपरा' ने हिन्दू धर्म को बचाने हेतु सन्यासियों की परंपरा खड़ी की उसी प्रकार समयानुसार राजा भरथरी को योगी बना देश में एक सात्विक आंदोलन खड़ा किया और यह शंदेश दिया कि योगी सन्यासी दबे, कुचले, गरीब ही नहीं राजा महाराजा भी योगी, सन्यासी बन सकते हैं, उत्तर भारत में कहीं योगी, कहीं अघोर पंथी, कहीं उदासी, कहीं गोसाईं भी कहते हैं उस समय परंपरा आज जातियों में बिभाजित दिखाई देते हैं।
प्रारंभिक दशनाथ
आदिनाथ, आनंदीनाथ, करालनाथ, विकरालनाथ, महाकालनाथ, कालभैरवनाथ, बटुकनाथ,भूतनाथ,बिरनाथ, और श्रीकांथनाथ हुए इनके बारह शिष्य थे जड़भरत, नागार्जुन, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, चरपटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कंटाधारीनाथ, जालंधरनाथ और मलयार्जुननाथ थे आगे चलकर इस पंथ में दो मत हो गए चौरासी और नवनाथ परंपरा इसी विकास क्रम में नवनाथ मत में महायोगी माया मछंदरनाथ और गोरखनाथ हुए, कहते हैं कि आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे यशस्वी योगी आचार्य मत्स्येंद्र नाथ हुए, माया मछंदरनाथ की समाधि महाराष्ट्र के सावरगाँव के निकट है कुछ की मान्यता है कि उनकी समाधि उज्जैन के निकट गढ़कालिक के पास है जो वि सं आठवीं शताब्दी पूर्व की है, शंकर दिग्विजय ईशा के दो सौ वर्ष पूर्व बताता है ।
महायोगी गोरक्षनाथ
इनके जन्म के बारे में बहुत विबाद है ''शंकर दिग्विजय'' के अनुसार इसा पूर्व दो सौ वर्ष में हुआ था कुछ योग कहते हैं कि गुरु गोरखनाथ की भेट संत कबीर, नानक और संत रबिदास से हुई थी यह भी हो सकता है कि इस परंपरा में कोई और गोरखनाथ प्रसिद्द संत योगी इस काल में हुए हों, लेकिन जिस गोरखनाथ की चर्चा हम कर रहे हैं वे तो ईसापूर्व 200 वर्ष ही हुए थे क्योंकि इन्ही गुरु गोरखनाथ ने राजा 'भर्तहरि' को अपना शिष्य बनाया था राजा भरथरी महान सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे इस कारन यह सिद्ध हो जाता है कि ईशापूर्व ही इनका जन्म हुआ था, 'योगी गोरखनाथ' का जन्म प्रसिद्द 'योगी मछन्दरनाथ' के आशीर्वाद से एक गोबर के घूर से हुआ था इसी कारण इनका नाम गोरखनाथ पड़ा कहते हैं कि देवी-देवताओं के सभी मंत्र के जन्म दाता गोरखनाथ ही हैं, नाथ और दशनामी जब इकट्ठा होते हैं तो आदेश और नमोनारायन बोलते हैं, गोरखनाथ के हठयोग को नवनाथों ने आगे बढ़ाया ।
गुरु गोरखनाथ की माया
कहते हैं कि 'गुरु गोरक्षनाथ' एक दिन भ्रमण करते हुए उज्जैन नगरी 'राजा भरथरी' के दरबार मे आ पहुचे राजा बहुत ही धार्मिक थे गुरु गोरखनाथ को लगा की ये राजा नहीं राष्ट्रसेवक लायक है, आखिर वे शिष्य तो वे माया मछंदरनाथ के ही थे अपनी माया फैलाना शुरू ही कर दिया वे भविष्य द्रष्टा थे योगी ने राजा भरथरी को एक विशेष फल दिया और बताया की जो इसको खाएगा वह हमेशा नवजवान बना रहेगा, राजा दो भाई थे दूसरे का नाम चन्द्रगुप्त था सेना व सुरक्षा का कार्य चन्द्रगुप्त के पास था, राजा भरथरी की तीन पत्नियाँ थी वे सर्वाधिक सबसे छोटी 'रानी पिंगला' से बहुत प्रेम करते थे रानी पिंगला ने इनके छोटे भाई पर गलत आरोप लगा देश से बाहर निकलवा दिया, जब राजा को वह विशेष फल मिला तो उन्हे लगा की मै तो चौथेपन मे हूँ तो मै इस फल को क्यों न पिंगला को देदु वह हमेशा सुंदर और नवजवान बनी रहेगी, रानी राजा से नहीं वह वहाँ के कोतवाल से प्यार करती थी उसे लगा कि मेरी इक्षा की पूर्ति करने वाला कोतवाल को हमेशा जवान बना रहना चाहिए उसने वह फल कोतवाल को दे दिया, कोतवाल रानी से नहीं एक वैश्या से प्रेम करता था उसने वह अमर फल उसको दे दिया, वैश्या को लगा की मै तो ब्यभिचारिणी हूँ यदि मै हमेशा जवान बनी रहूँगी तो मेरा उद्धार नहीं होगा राजा धर्मात्मा है राजा को यह फल देना चाहिए।
जब वैश्या प्रेरणा केंद्र बनी
जब वह वैश्या फल लेकर राजा के पास पहुची तो फल देखकर राजा चकित हो गया राजा ने पूछा कि यह फल कहाँ से मिला उसने बताया कि यह फल शहर के कोतवाल ने दिया राजा ने कोतवाल को बुला भेजा राजा के कड़ाई करने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल रानी ने दिया राजा भरथरी ने यह सब देख सभी अविश्वसनीय है उन्हे वैराग्य होने लगा तभी उसी क्षण गुरु गोरखनाथ पधारे और चन्द्रगुप्त को बुलाया गया उनका राजतिलक कर अपने गुरु के साथ वैराग्य धारण कर चले गए उन्होने वैराग्य शतक, नीति शतक तथा तमाम आध्यात्मिक साहित्यों कि रचना की, दूसरी तरफ सम्राट चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की शकों को भारत से बाहर निकाला उनका शासन ब्रम्ह देश से लेकर अरब तक था मुहम्मद साहब का 'फोरफादर' 'सम्राट विक्रमादित्य' का सामंत हुआ करता था, 'राजा भरथरी' भारत भ्रमण करते-करते हजारों शिष्यों को तैयार किया अंत समय मे वे काशी के पास मिर्जापुर के चुनार मे अंतिम यात्रा पूरी की वहीं पर सम्राट विक्रमादित्य ने स्मारक स्वरूप चुनार का किला बनाया जो समाधि सहित आज भी विद्यमान है ।
संघर्ष की शुरुवात
भृतिहरी ने चौरासी सिद्धों की परंपरा शुरू की शंकराचार्य के समान योगियों का निर्माण शुरू किया राजा विक्रमादित्य ने हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान किया बौद्धकाल मे जो मठ मंदिर समाप्त किए गए थे सभी ग्रन्थों को नष्ट-भ्रष्ट किया गया था सभी देव स्थान समाप्त कर दिये गए थे सम्राट विक्रमादित्य ने सभी की खोज व पुनरुत्थान किया, देश पर परकियों का शासन हुआ बलात धर्मांतरण शुरू किया मठ मंदिरों को तोड़ना शुरू किया गोरखनाथ मंदिर को कई बार यवनों और मुगलों ने ध्वस्त किया 9वीं तथा तेरहवीं शताब्दी मे इसका पुनरुद्धार किया गया, धर्मांतरण हेतु इस्लाम ने सूफी मत शुरू किया जिसने भारत मे सर्वाधिक मतांतरण किया इनके मुक़ाबले योगी परंपरा ने योगियों को फौज ही खड़ी कर दी और धर्म के साथ देश को भी बचा लिया हम सभी जानते हैं जहां-जहां इस्लाम गया वहाँ की सभ्यता, संस्कृति तथा उनके धर्म को भी निगल गया ।
आज की वास्तविकता क्या है मठ की
जिस प्रकार वैदिक काल मे आर्य सेनाओं का नेतृत्व 'ऋषि अगस्त' ने किया राजा संभर और आर्य वैदिक सम्राट सुदास की सेना का नेतृत्व 'वशिष्ठ ऋषि' ने किया ऐसे तमाम राजाओं का नीतिगत और युद्धगत नेतृत्व 'ऋषि विश्वामित्र' ने किया था वैदिक काल हो अथवा रामायण काल हो सभी ऋषियों ने केवल आध्यात्मिक अलख ही नहीं जगाया वल्कि राजनैतिक नेतृत्व भी किया जहां ऋषि धर्म का अधिष्ठाता था वहीं वह राष्ट्र रक्षक भी था इसी कारण हमारे हिन्दू बाँगमय मे संत, ऋषियों का महत्व हमेशा बना रहा इसी वैदिक परंपरा को इस गोरक्ष पीठ ने आगे बढ़ाया, ब्रिटिश काल मे महंत दिग्विजयनाथ ने राष्ट्र की मुख्य धारा हिन्दू महासभा के वीर सावरकर से जुड़कर स्वतन्त्रता आंदोलन मे अग्रगनी भूमिका निभाई इतना ही नहीं वे हिन्दू महासभाके अध्यक्ष भी रहे, उनके उत्तराधिकारी महंत अवैद्यनाथ हमेसा हिन्दू महासभा के चुनाव चिन्ह चेतक से लड़ते थे उनका मन पूरा साधू का था यदि कहा जाय कि वे समरसता के प्रेरणा पुंज थे कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, अपने जीवन काल मे उन्होने गोरखनाथ मंदिर ट्रष्ट द्वारा 28 स्कूल कालेज खोल पूर्बांचल की शिक्षा मे बड़ा ही योगदान किया जब भी बाढ़ व सूखा पड़ता तो मठ खुले हाथ सहयोग करता समरसता भोज करना उनका तो स्वभाव ही था वे कई बार सांसद और विधायक रहे, उत्तराधिकारी के खोज मे ही थे कि अचानक एक विद्यार्थी गुरु गोरखनाथ पर सोध करने आया और यहीं मंदिर का ही बनकर रह गया वे और कोई नहीं महंत योगी आदित्यनाथ ही हैं।
परंपरा कायम ही नहीं उसे आगे भी बढ़ाया
उत्तराधिकारी का चयन ही नहीं हुआ तो महंत जी ने सब कुछ दे दिया जैसे रामकृष्ण परमहंश ने एक बार ही विवेकानंद को छुआ और सब कुछ दे दिया महंत अवैद्यनाथ ने केवल उत्तराधिकारी ही नहीं तो सभी ट्रष्ट, राजनैतिक उत्तराधिकार भी दे दिया फिर उन्होने चुनाव नहीं लड़ा योगी जी 1997 मे सांसद चुने गए और फिर आजतक सांसद हैं क्षेत्र के साथ मंदिर के विकास पर भी ध्यान मंदिर परिसर के हास्पिटाल सभी गरीब के लिए दवा जिसकी फीस 30 रु मात्र मंदिर के 28 ट्रष्टों द्वारा 28 कालेज चलते है सबको निःशुल्क शिक्षा कि ब्यवस्था है जिसमे 70 हज़ार से अधिक क्षात्र पढ़ते हैं मंदिर के तीन चिकित्सालयों मे 350 बेड और 12 एंबुलेंस है इतना ही नहीं वहाँ भर्ती मरीज के लिए दस रुपये मे भर-पेट भोजन मिलता है, योगी जी रात्री 11 से 12 बजे तक सोते हैं पुनः प्रातः 3 बजे जागकर 4.30 बजे नीचे आ जाते हैं जीतने भी पशु- पक्षी और जानवर सभी से मिलना यहा तक कि केवल गोशाला नहीं जाना तो परिसर मे तालाब के पक्षियों से भी मिलना, प्रातः 7से 8 बजे तक अपने मंदिर के ट्राष्टों का कम देखना और फिर नीचे जनता को समर्पित पुनः 10 बजे जलपान के पश्चात क्षेत्र मे कार्यक्रम के लिए निकाल जाना साय 4 बजे पुनः जनता से मिलना लगभग प्रति दिन हज़ार लोगों की समस्या का समाधान करना ऐसा है योगी का जीवन ।