भारत के महान हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान

चक्रवर्तियों की धरती 

पृथ्वीराज चौहान
भारत भूमि सदा रत्नगर्भा रही है एक समय था जब यहां चक्रवर्ती सम्राटों, अश्वमेध करने वाले राजाओं की राजधानी हुआ करती थी यह भूमि ! इसी भूमि ने महाराज मनु, इक्ष्वाकु, मान्धाता, राजा पृथु, विदेहराज जनक, रघु, श्रीराम जैसे चक्रवर्ती सम्राट दिये वहीँ सम्राट चंद्रगुप्त, विम्बसार जैसा देश रक्षक जिसने अरब से लेकर वर्मा, इंडोनेशिया तक भारत वर्ष पर शासन किया तो यहीं पुष्यमित्र शुंग ने वैदिक धर्म को पुनर्जीवित कर अश्वमेघ यज्ञ किया वहीँ सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य हुए जिन्होंने सप्त नगरियों जैसे अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची का पुनरुद्धार किया पर क्या हुआ कि वीर योद्धा तो हुए लेकिन चक्रवर्ती नहीं हुआ क्यों--? इस्लाम के आक्रमण को जिसके बारे में एक कवि ने कहा है---!
 "ओ हाजी जेहादी का बेबाक बेड़ा न आबे ठिठका न जम जम में अटका,
 किये जिसने पार सातों समुंदर ओ आके गंगा जहाने में डूबा"! 
भारत ने इस इस्लामी अमानवीय आततायी बलात आक्रमण अपने सीने पर झेलकर पूरे दक्षिणी एशिया को बचा लिया, वह महाराजा दाहिर व बप्पा रावल के पश्चात सम्राट पृथ्वीराज चौहान का प्रथम सीना था।

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैसी प्रतिभा 

चंद्रवरदाई कहते हैं कि हमारे महाराज के पास वे सब गुण थे वे चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे चक्रवर्ती सम्राट हो सकता था लेकिन उनके पास कोई चाणक्य जैसा गुरू नहीं था जब लोगों ने पूछा कि आप तो थे कबि ने कहा कि मैं तो उसका मित्र व कबि था केवल उसे प्रसन्द देखना चाहता था, पृथ्वीराज का जन्म गुजरात के पाटण राज्य में 1.6.1163 को पिता सोमेश्वर माता कपुरीदेवी के यहाँ हुआ रासों में कबि चंद ने लिखा, "यह लहै द्रव्य हरै भूमि, सुख लहै अंग जब होई भूमि" पांच वर्ष की आयु में शिक्षा हेतु अजयमेरू में "सरस्वती कंठाभरण विद्यापीठ में भेजा (वर्तमान में तीन दिन का झोपड़ा मस्जिद) महाराजा सोमेश्वर के मृत्यु पश्चात पृथ्वीराज चौहान का राज्याभिषेक 18 अगस्त 1178 को 15 वर्ष की आयु में हुआ वे केवल वीर ही नहीं थे बल्कि महान सेनापति भी थे कहते हैं कि एकबार सिंह से संघर्ष में उसके जबड़े को फाड़कर शिकार किया यहाँ तक कि वे शब्द वेधी वांण भी चलाते थे, सत्तरह बार मुहम्मद गोरी को पराजित करने के पश्चात अपने ही जयचंदों के धोखा देने से यह धर्म रक्षक महावीर 1192 में इस हिन्दू धरा के लिये लड़ते लड़ते चला गया ।

ईश्वर इक्षा 

 एक दिन 'चौहान' को स्वप्न में देखा कि एक साधू धर्म व देश रक्षा करने का आह्वान कर रहा है चौहान को बार-बार वह से साधू ध्यान में आता लेकिन वह तो स्वप्न ही था, एक दिन वे शिकार के लिए जंगल जा रहे थे किसी को अपने नहीं ले जाना चाहते थे लेकिन चंद्रवरदाई उनके साथ गए वे जंगल में चलते गए किसी भी जानवर के ऊपर बाण नहीं चलाया वे तो शेर की खोज में थे, आगे घना जंगल पार कर गये फिर देखा देख़ो कबि वही सन्यासी पेड़ के नीचे समतल शिलाखंड समाधिस्थ बैठा है उनके पास न जयमाला थी न मृगछाला, न योग विभूति, केवल कमंडल उनके मुख पर तेज विकीर्णित हो रहा था अच्छा तुम रूको मैं अकेले ही जाता हूँ, चौहान के पहुचते ही महात्मा की आंखे खुल गई आओ राजन, आओ, और आश्चर्य मत करो, तुम हमें पहले भी देख चुके हो, भवितब्यता को कोइ अन्यथा नहीं कर सकता परन्तु प्रयास कर सकता है इसी उद्देश्य से मैं आपके शयन कक्ष में गया था लेकिन आपने उसे स्वप्न समझा इसी कारण तुम्हें यहाँ बुलाना पड़ा, ऋषियों का धर्म, संकट में है, ''मनु'' और ''याज्ञवल्क्य'' की ब्यवस्थायें संकट में है, वेदों की मर्यादा औऱ ब्राह्मणों की निष्ठा संकट में है भवितब्यता को तुम भी रोक नहीं सकते, परन्तु हमारी तरह प्रयास कर सकते हो औऱ करना चाहिए, तुम समर्थ हो ईक्षा करो तो बहुत कुछ कर सकते हो यही धर्म का सार है आगे हरि ईक्षा, आगे अभिभूत होकर चौहान ने कहा करूँगा देव अवश्य करूँगा !

चक्रवर्ती सम्राट की क्षमता 

  महाराजा पृथ्वीराज चौहान के पास भारत के चक्रवर्ती सम्राट बनने की क्षमता और सामर्थ्य दोनों था वे उसके महत्वाकांक्षी भी थे इसलिए अपने सीमावर्ती छोटे छोटे राज्यों को आधीनता स्वीकार करा भारत के सिमा रक्षक ही नहीं तो विधर्मियों को समाप्त कर हिंदू धर्म की रक्षा करने की महत्वाकांक्षी भी थे, लेकिन उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी महाराजा जयचन्द थे वे सैन्य शक्ति में भी कम नहीं थे उनके सलाहकारों ने यह सलाह भी दी युद्ध पश्चिमी सीमा मुहम्मद गोरी से किया जाय फिर यहाँ के राजाओँ से लेकिन जो होनी थी वही हुई दिलेश्वर ने महोबा चंदेलों का सुदृढ़ दुर्ग था उनके सामंत सिरसागढ़ पर हमला किया मलखान प्रख्यात योद्धा था कम सेना के बावजूद जिधर मलखान निकलते पृथ्वीराज चौहान के सैनिक धरासायी होते दिखायी देते बिना निर्णय के युद्ध समाप्त हो गया शायं विचार विमर्श में तय किया कि दिन में यदि महोबा की भी सेना आ गई तो युद्ध जितना कठिन होगा सिरसा की सेना विश्राम में थी योजना पूर्वक आक्रमण हुआ मलखान बीरगति को प्राप्त हुआ, दूसरे दिन शायं तक महोबा की सेना आल्हा ऊदल के नेतृत्व में आ गई रात्रि में वीर योद्धा आल्हा ने हमला नहीं किया पृथ्वीराज की सेना को भी विश्राम मिला दोनों सेनाये आमने सामने आई घनघोर युद्ध हुआ ऊदल बीरगति को प्राप्त हुआ आल्हा ने ऐसा युद्ध किया कि सारे सैनिक स्तभ्ध रह गए आल्हा औऱ पृथ्वीराज में धनुष बाण फिर तलवार और फिर द्वन्द्व युद्ध हुआ 'पृथ्वीराज' पराजित हो बेहोश हो गए थोड़ी देर तक आल्हा ने आसमान की तरफ ध्यान से देखा फिर आपनी तलवार उठाया पृथ्वीराज के सामंत सतर्क हो गए लेक़िन आल्हा ने उन पर कोई वार नहीं किया कहा मैं जानता हूँ कि यह धर्म रक्षक ही नहीं सिमा रक्षक भी है और वे जंगल में विलीन हो गए, इस युद्ध से भारत की बहुत हानि हुई 'राजा परिमल' जब पराजित मुद्रा में आधीनता स्वीकार किया पृथ्वीराज को अच्छा नहीं लगा वे बहुत से वीरों को खो चुके थे चौहान बोले हमने पाया क़ुछ नहीं खोया ही खोया है, इधर भी और उधर भी वे वीर अब कभी लौटकर नहीं आएंगे।

और काका कान्ह 

  ऐसा हो सकता है कि महाराज पृथ्वीराज चौहान कम आयु के होने के कारण अनुभव की कमी रहीं हो लेकिन अनुभवी मन्त्री, वीर योद्धा तो थे जहाँ स्वयं महान योद्धा थे वहीं वे प्रेम में भी उसी प्रकार लिप्त होते थे, उनके दरबारियों में परमार, सोलंकी, चौहान तथा अन्य राजपूत बीर सामन्त हुआ करते थे वहीँ उनके काका कान्ह भी थे जो परम योद्धा औऱ राजभक्त थे लेकिन उन्हें किसी मोछ पर ताव देना बर्दास्त नहीं था, काका कान्ह दरबार में अपने स्वभाव के विपरीत सभा में पहले आकर बैठे थे तभी चालुक्य राजपुत्र प्रताप सिंह अपने भाइयों के साथ सभा भवन में प्रबेश किया औऱ बैठते अपनी मूछों पर हाथ फेर दिया काका कान्ह बोले ठाकुर मूछ से हाथ हटा लो! क्यों विस्मित हो प्रताप सिंह ने पूछा ? बात बढ़ गई मैं आप के वय व पद का हूँ, आपको अपमान करने का अधिकार नहीं दे सकता, काका कान्ह ने तलवार से हमला कर प्रताप सिंह सहित छहों भाई आत्मरक्षा करते मारे गए, जिससे अहिलवाड़ चालुक्य राजा भीमदेव की प्रतिक्रिया हुई उनका अपराधी उन्हें सौंप दिया जाय, जो युद्ध 'पृथ्वीराज चौहान' औऱ 'मुहम्मद गोरी' के साथ होना चाहिए था वह आपस में होने को तैयार सेनाये आमने सामने लेकिन क़ुछ सूझ-बूझ के कारण संधि हुई बिना किसी शर्त के !

सद्गुण विकृति के शिकार 

 लगातार युद्ध जारी है विजय पर विजय भी हो रही है तभी ''संयोगिता'' का पत्र महराज को मिला सैयम बरतते हुए उन्होने युद्ध को प्राथमिकता दी लालकोट तक 'शहाबुद्दीन' चढ़ आया है चौहान से घनघोर युद्ध में सहाबुद्दीन पराजित हुआ सामन्त पुंडीर उसका वध करने वाले थे कि शाकम्बरी ''नरेश पृथ्वीराज'' चौहान ने वध करने से रोका ही नहीं बल्कि उसे क्षमा कर दिया, कितनी बार क्षमा यह तो सद्गुण विकृति थीं कितने बार क्षमा उसकी भी कोई सीमा होगी ! लगता है कि कहीं 'पृथ्वीराज चौहान' ने क्षमा को ही धर्म मान लिया था, फिर उस धर्मद्रोही को सम्हलने का मौका! देशद्रोहियों से मिलने का मौका दे दिया इससे बडी भूल हुई औऱ क्या हो सकती है ?

संयोगिता का स्वयंवर 

 ''संयोगिता'' का पत्र पाकर 'चौहान' ने तुर्क से ध्यान हटा महराज 'जयचंद' की तरफ ध्यान चला गया जहां संयोगिता के स्वयंवर में चौहान को अपमानित करने हेतु अपने दरवाजे पर चौहान की एक प्रतिमा लगा दी अब चौहान को यह उकसाने वाली घटना थी, चौहान अपने चुने हुए योद्धाओं के साथ छ्द्म वेष धारण कर कन्नौज पहुंचे स्वयंवर शुरू हुआ संयोगिता ने अपनी जयमाला 'पृथ्वीराज' के मूर्ति को पहना दी फिर क्या था चौहान ने भरे स्वयंवर से संयोगिता को उठा लिया रास्ते भर घनघोर युद्ध हुआ जिसमें महा पराक्रमी योद्धा काका कान्ह सहित चौहानों के वड़े -वड़े योद्धा काम आए जिसकी क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती थी,  जहाँ मुहम्मद गोरी से युद्ध होना चाहिये था सभी हिंदू राजाओं को एकत्रित हो उस विधर्मी को समाप्त करना चाहिए था, वहीं हम आपस मे ही लड़कर अपनी शक्ति समाप्त कर रहे हैं, जिसे चक्रवर्ती होना है उसे दूरदर्शी भी होना चाहिये अपने सभी राजाओं को एकत्रित कर मित्रवत व्यवहार द्वारा शक्ति संचय करना चाहिए था लेकिन हिन्दू समाज व भारत के दुर्भाग्य को कौन रोक सकता था !

जयचंद का देश के साथ धोखा और तरायीन का युद्ध

तराईन के प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को केवल पराजित ही नहीं किया बल्कि उसे पकड़कर कई महीने दिल्ली में लाकर बन्दी बना कर रखा। और यह सिलसिला जारी रहा पृथ्वीराज रासो जो महाराज के बारे में प्रामाणिक ग्रंथ है लिखता है कि सत्तरह बार गोरी पराजित हुआ और महाराज ने उसे प्रत्येक बार क्षमा कर दिया। एक समय आया कि संयोगिता का स्वयंवर हुआ जिसमें पृथ्वीराज चौहान ने भाग लिया और इतना ही नहीं तो महराज जयचंद ने पृथ्वीराज चौहान को अपमानित करने के लिए उनका एक स्टेच्यू बनाकर गेट पर खड़ा कर दिया था। फिर क्या था राजकुमारी संयोगिता ने उसी गेट की मूर्ति को जयमाला पहना दिया और फिर पृथ्वीराज ने संयोगिता को लेकर दिल्ली चले गए।
चौहान दिल्ली पहुँचे ही थे कि पुनः 'मुहम्मद गोरी' चढ़ आया लेकिन दिल्लीश्वर चौहान युद्ध में पहुँचे ही नहीं वहाँ अकेले इनके बहनोई ''महाराणा समर सिंह'' ने भीषण युद्ध किया लेकिन ध्यान देने योग्य बात है कि संयोगिता हरण में बहुत नुकसान हो चुका था अधिकांश योद्धा मारे जा चुके थे दूसरी तरफ महाराज ''जयचंद'' की पूरी सहायता सहाबुद्दीन गोरी के साथ होने के कारण राणा समरसिंह पराजित हो गए तब चौहान युद्ध भूमि में पहुचे जम्मू नरेश भी परोक्ष रूप से गोरी के साथ था, चौहान केवल पराजित ही नहीं हुए वल्कि गोरी ने बन्धक बना गज़नी ले गया गोरी ने पूछा कि तुम्हारे साथ कैसा ब्यवहार किया जाय चौहान ने कहा कि हमने तुम्हें 17 बार छोड़ा है लेकिन गौरी ने कहा तुम मुर्ख हो मैं ऐसी मूर्खता नहीं कर सकता, महाराज की आँखों में गरम सलाखें डाल फोड़ दिया औऱ वंदी गृह में बंद कर दिया पृथ्वीराज चौहान केवल योद्धा ही नहीं था बल्कि वह एक महान सेनापति धर्म रक्षक और राजनीतिज्ञ भी थे जनता के प्रति समर्पित प्रेम था वे अश्वमेघ यज्ञ करने की क्षमता रखते थे उनके अंदर चक्रवर्ती सम्राट होने की क्षमता थी लेकिन भारत की तकदीर को कौन बदल सकता था !


 अब मत चुकौ चौहा


 इधर पराजय का समाचार दिल्ली आ चुका था चंद्रवरदाई जिसे जम्मू नरेश ने बन्दी बनालिया था वे भी छूटकर राजधानी दिल्ली आ चुके थे देखा ''रानी संयोगिता'' महाराज को छुड़ाने हेतु सैनिक वेष धारण कर चुकी है महाराज के मित्र और कबि 'चंद्रवरदाई' ने उन्हें रोक कर कहा मै जाकर इसका बदला लूंगा उन्होने महारानी को रोक ग़जनी के लिए प्रस्थान कर दिया, वे 'गजनी' पहुंच महराज से मिले कबि की आहट को सुनकर उन्हें लगा कि कबि रो रहे हैं बोले मित्र रोओ नहीं, "जब अपने ही लोग देशद्रोही हो जाय तब देश का पतन हो जाता है" 'चंद्रवरदाई' महाराज को समझाते हैं कि हम अपने महराज का बदला लेंगे लेकिन महाराज निराश थे यह कैसे होगा अपनी बात उनको समझा वे 'मुहम्मद गोरी' से मिले उन्होंने बताया कि आप हमारे महाराज को सजा देने से पहले उनकी एक विद्या जो किसी के पास नहीं है समाप्त हो जाएगी वे शब्द वेधी बाण चलाते हैं आप के कहने पर किसी भी आवाज में बाण मार सकते हैं कई स्थानों पर घड़े बांधे गए आवाज देने पर बाण नहीं चला तभी गोरी क्रोधित होकर बोला ही था ! कि कबि ने कहा---

 "चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण ता ऊपर सुल्तान है मत चुकौ चौहान"

'चौहान' ने घूमकर बाण चलाया और 'मुहम्मद गोरी' को मार गिराया ! तभी सभी तुर्क दौड़ पड़े लेक़िन चन्द्रवर दाई ने कोइ चूक नहीं की ! अपनी कटार महराज से क्षमा मांगते हुए उनके शीने में घुसेड अपने पेट में मार दोनों समाप्त हुए लेकिन सहाबुद्दीन का वध करने के पश्चात।
"सत्रह बार क्षमा अरिदल को ऐसी भूल न अब होगी"