डोम जाति का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है कहा जाता है यह वैदिक काल में इनका संवंध एक बड़े राजवंश से था जैसा कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मनुष्य के जीवन निर्वाह व् सम्पूर्ण व्यवस्था निर्वाहन हेतु कार्य अनुसार वर्ण व्यवस्था की व्यवस्था थी गीता में इसी विचार को भगवान श्रीकृष्ण ने ''चतुर्वर्न्यम मयासृष्टा गुण कर्म विभागशः'' बताया है, एक स्मृति में वर्णन है कि किसी विषय को लेकर भगवान शिवशंकर उस राजा को समूल नष्ट हो जाने का श्राप दिया था जब राजा ने अपनी गलती महसूस करते हुए क्षमा मांगी तो भगवान शंकर ने इन्हें स्मशान पर शासन करने को बताया विना इनके अग्नि दिए हुए आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती ये स्मशान पर वसूलने का कार्य करने लगे लेकिन इन्हें उसी समय से ही डोम राजा कहा जाता है।
राजवंश से सम्वन्ध
धरती पर जो भी मनुष्य आया वह सभी राजवंश के थे और सभी क्षत्रिय वर्ण के थे, भगवान मनु की राजधानी अयोध्या थी वे राजा थे राजा क्षत्रिय हुआ करता था सम्पूर्ण हिंदू समाज मनु की संतान है मनु क्षत्रिय थे इस प्रकार सभी हिन्दू समाज का सम्बंध क्षत्रिय से ही है, मानव जीवन जब इस धरती पर आया भगवान मनु ने जो ब्यवस्था दी "मनुर्भव" ऋग्वेद के प्रथम मंडल में भगवान ने मनुष्य बनने यानी श्रेष्ठ बनने यानी आर्य बनाने का आह्वान किया उसकी ब्यवस्था बनायी सभी को अपनी योग्यता के अनुसार काम करना है किसी को रक्षा का काम किसी को शिक्षा का तो किसी को ब्यापार और किसी को सेवा का काम दिया होगा कहते हैं कि भगवान शंकर ने किसी कारण इस राजा को श्राप दिया नष्ट होने का जब राजा गलती स्वीकार कर क्षमा याचना की भगवान शंकर ने उन्हें लोगों को मुक्ति दिलाने का काम सौंपा उसी राजवंश के लोग सम्पूर्ण भारत में दाह संस्कार कराने का काम करते हैं लेकिन वे बड़े राजा रहे थे क्योंकि सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को खरीदने वाला कोई सामान्य ब्यक्ति नहीं हो सकता, उन्हें डोमराजा ने ही खरीदा था उन्हें नौकरी दी थी आज भी इस जाति के लोगों को केवल डोम नहीं तो डोमराजा ही कहा जाता है, किन्हीं कारणों से एक हजार वर्ष की गुलामी में हिंदू समाज में विस्मृत आ गई जिस समाज में कोई भेदभाव नहीं था जहाँ केवल मनुर्भव की कल्पना हो जो समाज केवल मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी और पेड़ -पौधों इतना ही नहीं तो जड़-चेतन सभी मे ईश्वर देखने का अभ्यास किया हो ऐसे हिन्दू समाज में इस प्रकार की विकृति जिसे एक पागलपन के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता।
डोमराजा के गोत्र
वास्तव में हम बिना अध्ययन के डोम, शमशान पाल, अन्तवासी, थाप, वशोर, शुदर्शन इत्यादि जातियों को एक ही मान बैठते हैं जिसकी वास्तविकता कुछ और है डोम को डोम राजा कहा जाता है यह किसी न किसी राजवंश से संबंधित है क्योंकि राजा हरिश्चंद्र को खरीदने की क्षमता समान्य मनुष्य के बस की बात नहीं हो सकता यह सम्भव है कि राजाओं के अलग अलग कार्य रहे होंगे इस वंश के पास मुर्दाघाट पर काम रहा होगा क्योंकि जब हम गहराई में विचार करते हैं तो ध्यान में आता है इनके गोत्र गहलौत, परमार इस प्रकार का मिलता है, इतना ही नहीं कुल देवी बन्नी गौरिया इत्यादि जो राजपूत भूमिहारों में पाया जाता है इससे यह पता चलता है कि सभी जातियोँ कहीँ न कही किसी राजवंश से निकली हैं सबके काम अलग अलग थे वही काम आज जाती बनकर खड़ी हो गई है इतना ही नहीं इनकी सेना में बटालियन भी थी यानी यानी एक मार्शल कौम है, फूट डालो राज करो का सिद्धांत केवल अंग्रेजों का ही नहीं था बल्कि इस्लामिक सत्ता धारियों ने भी यही किया भेद भाव किया एक प्रत्यक्ष उदाहरण है कि राजा मानसिंह के प्रति आज भी इतनी घृणा है कि सामान्य राजपूत उनके यहाँ शादी विबाह तो दूर उनके साथ खाना भी नहीं खाना चाहते इस प्रकार जिससे मुसलमानों का हित सधा उसको अपने साथ जो उनका विरोध किया उनसे लड़ा उन्हें अछूत घोषित करने का काम किया ऐसा लगता है कि ये लोग भंगी, धरकार व अन्य न होकर ये केवल डोम हैं जो कभी राजा हुआ करता था।
इधर भी शासक
इतिहासकार डॉ विजय क्षितिज के अनुसार 18वी शताब्दी में डोम राजवंश के अंतिम शासक रायभान थे डोम राजा रायभान के राज्य में अराजकता से उनकी प्रजा में असंतोष की भावना पनप रही थी इसी वक़्त जशपुर की धरती पर बिहार के सोनपुर रियासत के राजा सुजान राय ने कदम रखा, राजा सुजान राय ने ही जशपुर रियासत की नींव रखी, लगता हैं कि राजा सुजान राय ने ही डोम राजा को पराजित कर राज्य कायम किया क्योंकि आज भी विजयदशमी व दशहरा पर्व पर आज भी जो नगाड़ा बजता है वह उसी डोम राजवंश के लोग बड़े स्वाभिमान के साथ बजाते हैं और यह बताते हैं कि यह हमारे 27 पीढ़ी पहले हमारे वंश की राज परंपरा है महोत्सव के दौरान पूजा पाठ, हवन कुंड की सामग्री सब की देख भाल यही लोग करते हैं लगता है कि इस वंश ने संगीत वाद्ययंत्र बजाने का भी कार्य करते थे क्योंकि आज भी शादी विबाह के अवसर पर अधिकांश यही लोग बाज़ा बजाने का काम करते हैं।
इस्लामिक काल
डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन हैं" में लिखते हैं कि ये वो शुद्र नहीं है जो वैदिक काल में थे क्योंकि वैदिक युग में ऊँच-नीच, भेद -भाव नहीं था यह जो भी विकृति है सब इस्लामिक काल की देन है आगे वे कहते हैं कि दलित मुस्लिम एकता एक कोरी कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है क्योंकि मुसलमान केवल मुसलमानों को ही मोमिन मानता है शेष काफिर है और कुरान में काफ़िरों की हत्या करनी चाहिए उनकी बहन बेटियों को आपनी खेती समझनी चाहिए, डॉ आंबेडकर कहते हैं कि हिन्दू समाज की समस्या अपनी समस्या है हम मिल बैठकर उसे सुलझ सकते हैं और वे आगे भी कहते हैं कि मैं धार्मिक (हिन्दू) हूँ इस कारण ही मेरे ऐसे विचार हैं और जब वे अपने को धार्मिक कहते हैं तो अपने को सीधा हिंदू ही मानते हैं।
1 टिप्पणियां
pita kon ?
जवाब देंहटाएंjo sab kuch bhul gaya