मूर्ति पूजा और स्वामी दयानंद सरस्वती

 

सन्यास का उद्देश्य


स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म एक प्रकार से देश की आजादी, सामाजिक समरसता और हिंदू समाज की समाज की बुराइयों को समाप्त करने के लिए हुआ था। जहाँ वे स्वराज्य के लिए अनगिनत सन्यासी, क्रांतिकारियों को खड़ा कर रहे थे वहीं भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए विदेशी बस्तुओं का बहिष्कार, विदेशी भाषा का तिरस्कार, वेदों का उद्धार, गोरक्षा, नमक कर का विरोध आदि स्वामी जी के ऐसे कार्य हैं कि यदि उन्हें स्वाधीनता संग्राम की प्राणशक्ति कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।

मूर्ति पूजा के प्रति दृष्टिकोण

स्वामी दयानंद जी के समस्त शिष्य पहले मूर्ति पूजक थे, किन्तु उन्होंने उनमें से किसी ने भी इस आधार पर अपने पारिवारिक - सामाजिक संबंध शिया- सुन्नियों या कैथोलिक - प्रोटैस्टों की भांति नहीं बिगाड़ा। यदि किसी ने मूर्तिपूजा का त्याग करते समय देवमूर्तियों का अपमान किया तो स्वामीजी ने उसकी निंदा करते हुए कहते कि "ये हमारे पुण्यात्मा पूर्वजों की मूर्तियां हैं। इन्हें जल में विसर्जित कर दो, इनका अपमान मत करो।" वे कहते थे कि "मंदिर नहीं जाना है तो मत जाओ किन्तु वे हिंदू समाज के हैं- यह कभी मत भूलो।"

जब मूर्तियों के बारे में एक पादरी ने कहा

स्वामी जी बरेली प्रवास में आये थे उसी समय एक अंग्रेज अधिकारी उनसे मिलना चाहते थे, उन्होंने स्वामीजी को संदेश भेजा कि वे स्वामीजी से एकांत में मिलता चाहते हैं, कुछ गोपनीय चर्चा करना चाहते हैं। पहले तो स्वामीजी ने कहा कि सन्यासी से क्या गोपनीय चर्चा हो सकती है? किंतु बहुत आग्रह पर उन्होंने उस वक्त अधिकारी को प्रातः 4 बजे का समय दिया। बरेली की भयंकर सर्दी किन्तु मरता क्या न करता, वह अधिकारी पुरा लबादा ओढ़कर ठंढ से कांपता-हिलता स्वामीजी के स्थान पर आ पहुंचा। देखा कि तारों की छांव में एक कोपीन पहने पशीने से भीगे स्वामीजी बैठे हुए हैं, स्वामी जी ने पहले से ही एक कुर्सी खाली करवा रखी थी। वह अपने दोनो हाथ बगल में दबाये हुए बोला---! "स्वामीजी! ईसाईयों से आपका मत शत प्रतिशत मिलता जुलता है। हम और आप दोनों मूर्ति पूजा के विरोधी और एकेश्वरवादी हैं । परंतु मूर्ति पूजक हिंदू अपनी प्रतिष्ठा में बाधक हैं। अतः हमने विचार किया है कि आपके शिष्य सेवक मंदिरों पर आक्रमण कर, मूर्तियाँ को तोड़े। हमारी फौज उनकी पूरी मदद करेगी। कंपनी सरकार उनके विरूद्ध कोई केस नहीं बनने देगी । इस कार्य में बाहरी कार्यकर्ताओं को बुलाने में अथवा अन्य किसी मद में धन की आवश्यकता होगी तो वह आपको, आपकी इच्छानुसार दिया जायेगा। आप कार्य करें।"

स्वामी जी सहसा खड़े हो गए 

 ब्रिटिश अधिकारी की बात सुनते ही स्वामी जी की आँखों से अंगारे निकलने लगे। वे सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पास रखा हुआ मोटा डंडा उठा लिया। गरजते हुए बोले, "धूर्त! यह सत्य है कि मैं मूर्ति पूजक नहीं हूँ किन्तु तुम जैसे विधर्मी - विदेशियों की भांति मूर्ति भंजक भी नहीं हूँ, सनातन धर्म के मंदिर मेरे हैं। उनमें मेरे पूर्वजों की मूर्तियां स्थापित है यदि किसी ने उनकी ओर कुदृष्टि से देखने की कुचेष्टा की तो मंदिर वाले जो कुछ करेंगे, वे जाने किन्तु उससे पूर्व मेरा यह दंड मंदिर पर आक्रमण करने वाले उदंडो के मुख भंजन कर डालेगा। तुम मेरे स्थान पर आए हुए हो, अतः तुरंत चले जाओ।"

           हिंदू संगठन के प्रति स्वामी जी का दृष्टिकोण समझने के लिए यह प्रसंग पर्याप्त है।

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