"यत्र नारियस्य पूज्यंते रमंते तत्र देवता।" ( "मनुस्मृति")
सनातन धर्म में सर्वाधिक पुराना सर्वमान्य ग्रन्थ, सनातन विधान "मनुस्मृति" में "महर्षि मनु" ने ये लिखा, जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता वाश करते हैं। जहां नारी ऋषिका है, सरस्वती है वहीं भारतीय नारी काली और दुर्गा भी है।
वैदिक कालीन संस्कृति
लोपामुद्रा एक दार्शनिक नारी थी वे मंत्र दृष्टा भी थी। जब हम ऋग्वैदिक काल में जाते हैं और उसके समय के पत्रों के बारे में पढ़ते हैं समझते हैं तो ध्यान में आता है कि उन कथाओं की तुलना में पौराणिक कथाएँ उतनी रुचिकर ज्ञान प्रद नहीं दिखाई देतीं, इस इतिहास में तुलना करें तो पौराणिक कथाएँ नीरस लगती हैं। ऋग्वेद का जीवन नया करने खोजने का जीवन है उसमें उषा काल की हलचल और तेजस्विता है। ऋग्वेद के प्रमाणानुसार लोपामुद्रा ऋषिका थीं उनका विवाह अगस्त ऋषि से हुथा, इस प्रसंग के लोपामुद्रा के दर्शन किये अर्थात शोध किये गये मंत्र भी हैं। समय ऐसा था जिस समय आर्यो और दस्युओ के बीच रंग, संस्कृति के भेद को लेकर संघर्ष का रूप धारण कर रहा था। शम्बर और उसके अनुयायी लोग लिंग की पूजा किया करते थे दस्यु भी वीर साहसी थे वे किसी भी कीमत पर आर्यो से कम न थे। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है विश्वामित्र और वशिष्ठ दोनों का वैचारिक मेतभेद इन्हीं विषयों को लेकर था वशिष्ठ रक्त शुद्धि के पक्षधर थे वहीँ विश्वामित्र "कृणवंन्तो विश्वामार्यम" के संकल्प को लेकर चलते थे यानी वे दस्यु को मिलाने की बात करते थे। विश्वामित्र दस्युओं को आर्य बनाने, गायत्री मंत्र जाप से शुद्ध कर यज्ञवोपवीत पहनने से शुद्धि हो जाती है। कोई भी मनुष्य नया जन्म ग्रहण कर सकता है आर्य बन सकता है यह रीति ऋषि विश्वामित्र ने दिया। इस मंत्र के प्रभाव से इस देश में रंग भेद मिट गया, बिप्र का काम करने वाले ब्राह्मण कहलाये।
लोपामुद्रा का जन्म
लोपामुद्रा का जन्म विदर्भ राज्य के निमी क्रथपुत्र भीम के यहाँ हुआ, वैदिक काल में राजाओं के कन्याओ का विवाह अधिकांश ऋषियों के साथ हुआ करता था। विदर्भ राज भीम ने अपनी पुत्री का विवाह उस समय के एक अद्भुत ऋषि अगस्त से किया। लोपामुद्रा के एक पुत्र हुआ जिसका नाम दृढ़स्य था वह भी उसी गुरुकुल का क्षात्र था जिसके आचार्य ऋषि अगस्त थे। ऋषिका लोपामुद्रा भी उसी गुरुकुल में आचार्य थीं। लोपामुद्रा को वरप्रदा और कौशितक़ी के नाम से भी जाना जाता था। कुछ कथाओं व कीवदंतियों के अनुसार ऋषि अगस्त ने अपने तपोबल से अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से सृष्टि बना विदर्भ राज को दे दिया था यानी रानी के पेट में गर्भधान किया था। लोपामुद्रा को विदर्भ राज ने पाला था इसलिए उसे वैधर्वी भी कहा जाता है। लोपामुद्रा की विशेषता यह थीं कि उन्होंने अगस्त से विवाह करने के लिए राजसी बस्त्रों -गहनों व राजसी रहन-सहन का त्याग कर दिया।
लोपामुद्रा की तपस्या
लोपामुद्रा एक उच्च कोटि की पतिब्रता स्त्री थीं, जो अपने पति के साथ तपस्या और साधना में सहयोग करती थीं। ऋषि अगस्त जब तपस्या में लीन होते, तो लोपामुद्रा समाज सेवा में लगी रहती थीं। खासकर वनवासी बच्चों और जानवरों की देख -भाल करती थीं। लोपामुद्रा का जीवन त्याग, तपस्या और समाज सेवा का एक सुन्दर उदाहरण है। पुराणों के अनुसार लोपामुद्रा के पास अपर्मित मात्रा में अन्न देने वाली एक अक्षय थाली थी। एक स्थान पर लोपामुद्रा कहती है मै कवियों और मंत्रद्रष्टा ऋषियों की सुमेधा वरप्रदा - उनके द्वारा सर्जित दिव्य रूपों की दिव्यता ---! वे कहती हैं जो पृथ्बी के रहस्यों को जनता है पृथ्बी को चलाने वाले सर्वदर्शी ऋषियों को मार्ग दिखाई देता है, जो दिव्य प्रेम और धीरज का प्रतीक है। लोपामुद्रा का चरित्र एक ऐसी महिला का उदाहरण है जो अपने धर्म को निभाने के साथ -साथ समाज सेवा भी करती है, वह आज की महिलाओ के लिए प्रेरणादायक है जो घर और बाहर दोनों जगह अपने कर्तब्य का निर्वाहन करती है। जिसके शिष्य विश्वामित्र, वशिष्ठ और जमदग्नि रहे हो वह ऋषिका कैसी रही होगी उसकी कल्पना हम कर सकते हैं कि वह कितना प्रतिभा संपन्न, मेधावी और अपने शिष्यों के प्रति वात्सल्य रहा होगा।
लोपा, विश्वरथ से कहती हैं --! पुत्र , वरुण के मंत्रो को तुमने जैसा समझा है वैसा और कौन समझ पाया ? एक -एक मनुष्य का आर्यत्व तू परख सकता है। आगे लोपामुद्रा कहती है हे पुत्र तुम्हारे वचन जन्हु के जनपद के नहीं, महर्षि के है, वत्स! तुमने तो सूर्यदेव को सदेह देखा है। तुमने तो इस अवस्था में ही मंत्रदर्शन कर लिया है वाणी तुम्हारे मुख में आ बसी है। पार्थिव प्रताप की श्रंखला को तोड़ फेको ऋत के स्वयं दर्शन करो और जगत को कराओ। पुत्रक आत्म श्रद्धा धारण करो .जो मंत्र मेरे ह्रदय में बसा है वह आज तुम्हारी जिह्वा पर बसा हुआ है। मनुष्य मात्र को आर्य बनाने की का तुम्हारा तत्व देखकर मै तो तुम्हे प्रणाम करती हूँ ।
शंभर राज का प्रवेश
आर्यावर्त्त में कई राजा-महाराजा थे उसमें एक राजा दियोदास थे। शंभर राज के पास नब्बे किले थे उनके कुल देवता शिव जी थे वे सभी लिंग की उपासना करते थे। यही संस्कृति को लेकर टकराहट थी लेकिन आर्यावर्त्त में महाराजा गाधि की बड़ी प्रतिष्ठा थी, शंभर राज ने ऋषि अगस्त के गुरुकुल से कुछ विद्यार्थियों का अपहरण किया। वह सुदास का अपहरण करना चाहता था लेकिन विश्वामित्र का अपहरण हो गया। वहीँ विश्वामित्र को ज्ञात हुआ की अन्य आर्य वंदियों के साथ लोपामुद्रा को भी लाया गया है, कुछ कथाकारों का मानना है कि बड़ी योजना से लोपामुद्रा अपने छात्रों के साथ चली गयीं थी। उसके आश्चर्य की सीमा न रही। अब घटनाक्रम में अजीव सा मोड़ आता है, लोपामुद्रा को पता चला कि शंबर कन्या उग्रा ने विश्वरथ को अपना पति स्वीकार कर लिया है तो लोपामुद्रा ने शंबर को बधाई दी। सारे सप्त सिंधु प्रदेश में विश्वरथ से पराक्रमी एवं प्रतापी कोई दूसरा न था, लोपामुद्रा की बातों से शंबर को बड़ी प्रसन्नता हुई। परंतु विश्वरथ को अपना बंदी जीवन सर्पदंश सा प्रतीत होता था। उसने बातों -बातों में लोपामुद्रा से शिकायत की कि "दस्युराज" ने उसे मनुष्य से पशु बना दिया है। लेकिन वहाँ लोपामुद्रा की उपस्थिति विश्वरथ के लिए प्रेरणा और उत्साह का प्रतीक बन गई। दस्युराज लोपामुद्रा को बंदी तो बना लाया था लेकिन बड़ा आदर, सम्मान करता था, उन्हें अपनी उग्रा के समान ही प्रिय समझता था। उग्रा को यह बात खटकने लगी तब शंबर ने बताया कि यदि लोपा ने उसकी सेवा न की होती तो वह जाने कब समाप्त हो गया होता। वह युद्ध में घायल होकर जब युद्ध भूमि से जंगल में लौट रहा था तो लोपामुद्रा ने उसे अथर्वण के आश्रम में ले गयीं और सेवा तथा उपचार से उसे जीवन दान दिया।
लोपामुद्रा की आन
शंबर राज की मृत्यु हो जाती है, ऋषि अगस्त विश्वरथ से उग्रा को त्यागने को कहते हैं भय से कम्पित होती उग्रा विश्वरथ से लिपट जाती है। किन्तु विश्वरथ ने दृढ़ संकल्पित होकर कहा कि शांबरी उसकी है वह भरत जनपति की पत्नी है, उसे कोई हाथ नहीं लगा सकता। जिस शांबरी को उसने वरण किया तथा जिसने उग्रकाल के आगे उनको बलि होने से बचाया, उसको वह जीते जी कैसे छोड़ सकता है। ऋषि अगस्त को यह बात बहुत बुरी लगी, वह क्रोध से तमतमा उठे, तब लोपामुद्रा बीच में आकर बोली क्या इस बेचारी लड़की के आसुओ से भी तुम्हारी क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई? पुत्र और पुत्र बधू दोनों को एक साथ मार डालने पर कटिवद्ध हो रहे हैं आप! अगस्त ने लोपामुद्रा से कहा तुम --- भी, लोपामुद्रा बोलीं हॉ मैं भी! अगस्त का हाथ वहीँ रुक जाता है और तलवार उनके हाथ से गिर जाती है। हम लोपामुद्रा के न्याय और प्रभाव को समझ सकते हैं ऐसी है भारतीय नारी। लोपामुद्रा ऋषि अगस्त से कहती है अपने प्रिय शिष्य को क्षमा कर दीजिये लेकिन ऋषि कई तर्क देते हैं और कहते हैं कि उसने आर्य मर्यादा का उलंघन किया है। लेकिन लोपामुद्रा तो पतिव्रता नारी हैं वे मंत्रदृष्टा भी हैं और ऋषि अगस्त के गुरुकुल की आचार्य भी हैं हज़ारों विद्यार्थियों की ज्ञानदात्री हैं। पीछे हटने का नाम नहीं उन्होंने ऋषि अगस्त से कहा कि उसके माता -पिता और गुरुजन हम और आप ही हैं। और फिर ऋषि अपने प्रिय शिष्य को बुलाते हैं उठो विश्वरथ अब तुम्हे ऋषि विश्वामित्र के नाम से जाना जायेगा। "कृणवंतो विश्वमार्यम" ऋग्वेद की ऋचा है जिसको लोपामुद्रा ने विश्वामित्र द्वारा परिलक्षित किया, विश्वामित्र, लोपामुद्रा और ऋषि अगस्त की आत्मा हैं।
और काबेरी
लोपामुद्रा ऋषि अगस्त से कहती हैं कि है मैत्रावरुण! आप धन्य हैं आप सप्तसिन्धु की सीमाएं दिगंत तक ले जाने वाले हैं यानी विंध्याचल पार समुद्र तक सभी को आर्य बनाना है "कृणवन्तो विश्वमार्यम" को चरितार्थ करना है। तो तुम भी तो हो न और वे दोनों चल देते हैं। एक और कथानक है जिसमें कहा गया है कि दक्षिण में काबेरी नदी है लोपामुद्रा हैं। इसका तात्पर्य यह है कि ऋषि अगस्त जब दक्षिण गए तो दक्षिण के जन जीवन के कल्याण हेतु लोपामुद्रा ने नदी का रूप धारण कर दक्षिण को आज भी सुखी सम्पन्न कर रही हैं। काबेरी नदी आज दक्षिण भारत की जीवन रेखा बनी हुई है। कहते है कि ऋषि अगस्त जब आर्यावर्त यानि सप्तसिंधु के पर दक्षिण के लिए चलते है तो बिंध्याचल पर्वत लेटकर प्रणाम करता है अगस्त आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि तुम लेटे रहो। हमें लगता है जैसे विश्वामित्र ने मगध कैमूर इत्यादि का जो क्षेत्र है उसे कृषिम योग्य भूमि बनाया समतल कराया और साडी ब्यवस्था की। ठीक उसी प्रकार विन्ध्याचल पर सुदूर दक्षिण तक धरती को समतल करवाना नदियों को सृजित करवाना यानि कृषि योग्य भूमि तैयार किया और लोपामुद्रा ने काबेरी नदी वन दक्षिण की जीवन रेखा बन गयी ।
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