वैदिक ऋषिकाएँ..! लोमहर्षिणी

 

वैदिक ऋषिकाएं 

भारतीय वांगमय में जो स्थान नारी को दिया गया है वह विश्व के किसी भी संस्कृति में दिखाई नहीं देता यहाँ पुरुषों से अधिक महिलाओं का स्थान है। जहाँ ऋषि महर्षि मंत्र दृष्टा है वहीं अनेक नारिया भी मंत्र दृष्टा हैं जहाँ पुरुष युद्ध में भाग ले रहा है वहीं नारी भी दुर्गा बनकर खड़ी है। जहाँ ऋषि महर्षि गुरुकुल चलाकर समाज को वैदिक ज्ञान दे रहे हैं वहीं लोपामुद्रा जैसी नारी हज़ारों शिष्यों को वात्सल्य प्रदान कर रही है। उसमें से एक नारी जिसकी आज हम चर्चा करने जा रहे हैं वो है लोमहर्षिणी। लोमहर्षिणी ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल की प्रसिद्ध मंत्र दृष्टा ऋषिका है, और कई मंत्रो के दर्शन का श्रेय प्राप्त किया है। लोमहर्षिणी का वर्णन ऋग्वेद, अथर्वेद, एतरेय ब्राह्मण, सतपथ ब्राह्मण और गणेश पुराण इत्यादि में मिलता है। लोमहर्षिणी सप्तसिंधु के प्रसिद्ध राजा दियोदास की पुत्री और सुदास की बहन और प्रसिद्ध ऋषिका लोपामुद्रा की शिष्या है।

भाई-बहन का विवाद

लोमा केवल ऋषिका ही नहीं है, केवल मंत्र दृष्टा ही नहीं है बल्कि वह राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का एक हिस्सा भी है। अब बिना बिश्वामित्र और वशिष्ठ के ये कथा आगे नहीं बढ़ सकती, वास्तविकता यह है कि जन्म तो दिया "तत्स्व राजा दियोदास" ने लेकिन लोमा का लालन पालन शिक्षा संस्कार सब लोपामुद्रा के गुरुकुल में हुआ तो स्वाभाविक है कि संस्कार भी वैसा ही होगा। "विश्वामित्र कृणवंतो विश्वामार्यम" के कायल हैं वहीं वशिष्ठ रक्त शुद्धि की बात करते हैं। विश्वामित्र दस्यु राज संभर को यानि दस्युओं को आर्य बनाने की बात करते हैं दोनों में इसी प्रकार का मेतभेद है। ऋषि विश्वामित्र की प्रतिष्ठा दिन वदिन बढ़ती जा रही है आखिर ये विश्वामित्र कौन हैं? ये भरतों के राजा हैं ये प्रसिद्ध महाराजा गाधि के पुत्र हैं ये ऋषि अगस्त और लोपामुद्रा के प्रिय शिष्य हैं इसलिए ये सारे संस्कार इन्हे यहीं से मिले होंगे यह स्वाभाविक भी है। अब ये मंत्र दृष्टा हैं और तत्सुओं के पुरोहित हैं सारे आर्यावर्त्त में प्रसिद्धि प्राप्त हैं, "रिचीक ऋषि" सहस्त्र वीर अर्जुन जो महिष्मति का राजा है के पुरोहित हैं लेकिन वह देवों को बार -वार अपमानित करता था इस कारण भार्गव रिचीक ने श्राप देते हुए वहाँ से चलें गए। कीर्ति वीर अर्जुन बड़ा वीर था उसके पास बड़ी सेना थी उसके भय से सुदास ने विश्वामित्र को पुरोहित पद से हटाकर वशिष्ठ को बना दिया। जब यह बात लोमा को पता चला वह वर्दास्त न कर सकी और सीधे अपने भाई से भिड़ गई, दोनों में विवाद होने लगा लोमहर्षिणी ने कड़ी आवाज़ में पूछा किससे पूछ कर वशिष्ठ को पुरोहित बनाया गया और तभी सुदास कड़क आवाज में कहा मैं राजा हूँ किसी से पूछने की आवस्यकता नहीं है। जोर से हाथ पकड़कर घर मे जाने के लिए कहा..। लेकिन तभी राजा सुदास के मुख से निकला कि अभी कृतवीर अर्जुन आ रहा है तुम्हारा हाथ मांगने लोमा ने कड़ा प्रतिवाद किया और उसके साथ विवाह से इंकार कर दिया।

हरिश्चन्द्र राजा के यज्ञ की ओर

लोमहर्षिणी भाई से प्रतिवाद करके राम का साथ वह जहाँ विश्वामित्र और जमदग्नि यज्ञ कराने राजा हरिश्चन्द्र के यहाँ जाने के लिए तैयार थे। ऋषि जमदग्नि और रेणुका अपने पुत्रों और पट्ट शिष्यों के साथ हरिश्चन्द्र के यज्ञ मे गए थे और विश्वामित्र तथा जमदग्नि दोनों अपने आश्रम सप्तसिंधु में अप्रतिम वीर समझें जाने वाले वृद्ध कबि चायमान को सौंप दिए गये थे। ये दोनों वृद्ध कवि को वृद्धा कहते थे। लोमहर्षिणी और राम घोड़े पर सवार होकर राजा हरिश्चन्द्र के यज्ञ स्थान की ओर चल पड़े। लोमहर्षिणी बहुत प्रसन्न थी, क्योंकि उसने एक ही फटकार में सुदास और वशिष्ठ दोनों को छकाया था। अब वह त्रित्सुग्राम के संकुचित वातावरण को छोड़कर बाहर चली आयी थी और राम के साथ घूम रही थी। राजा दियोदास की लाडली और भगवती लोपामुद्रा की प्रिय शिष्या के नाते वह विश्वामित्र से पुरोहित पद न छोड़ने की प्रार्थना करने जा रही थी। इस कारण उसके उल्लास में कर्तव्यनिष्ठा का अंश भी था। लोमा यह समझती थी कि विश्वामित्र, अगस्त और लोपामुद्रा के शिष्य हैं वे सारे जगत को आर्य बनाने के लिए संकल्पित हैं इसलिए यह विश्वामित्र के नेतृत्व में होना चाहिए। दूसरी ओर अपने पिता दियोदास को अर्जुन की सहायता से सुदास स्वयं राजा बन गया ऐसी स्थित में विश्वामित्र कैसे उसके सहायक सिद्ध होते, सुदास ने वशिष्ठ को चुना।

वशिष्ठ का चिंतन

वशिष्ठ यह विचार विकल्प के रूप में देखते थे, सुदास क्यों अपनी बहन लोमहर्षिणी कर विवाह अर्जुन से करना चाहता था यह नहीं पता! अब इसमें ऋषि वशिष्ठ के दिमाग़ में था कि यदि लोमहर्षिणी का विवाह अर्जुन के साथ होता है तो वह अर्जुन पर शासन करेंगी, अर्जुन के संस्कार जागृत होंगे लोमा जैसी जाज्वल्यामान युवती वैचारिक रूप से शासन करेगी। आखिर वह मेरी गुरु शिष्या है एक ही गुरुकुल के छात्र है वे लोमा को ठीक प्रकार से जानते थे उनका लोमा पर बड़ा विस्वास था। देव की इच्छा ही है कि सरस्वती से विशाल रेवा तट पर विद्या और तप का प्रसार होगा। वे यह समझते थे कि बिना युद्ध के सप्तसिंधु से लेकर रेवा तक का राज्य एक राष्ट्र में परिणीति हो जायेगा।देव की इच्छा है कि उन्ही हाथों आर्यावर्त्त की सीमा रेवा के तट तक फैल जायेगी, लोमा और अर्जुन का विवाह आर्यत्व की विजय का एक अंग था, इसी में आर्यावर्त्त की जय- जयकार थी। और जिसके पुरोहित रिचीक ऋषि थे अर्जुन को श्राप देकर चलें आये थे मैं उसका पुरोहित भी बनूँगा ऐसा भी वे सोच रहे थे। 

लोमहर्षिणी --वैदिक विहारनी 

चूकि लोमा ऋषि अगस्त और लोपामुद्रा की शिष्या थी वह सब जानती थी कि विश्वामित्र सभी से समान व्यवहार करते थे वे मानव मानव में भेद नहीं करते थे दूसरी ओर वशिष्ठ रक्त सुद्धि की बात करते थे। विश्वामित्र सारे भरत के अंदर संस्कार, शिक्षा, गुरुकुल सभी के लिए होना चाहिए, उनका चिंतन था कि राज्य अनेक होते हुए राष्ट्र एक है, ऐसा संस्कार होना चाहिए। लोमहर्षिणी बिलकुल विश्वामित्र के रास्ते विचार करती थी आखिर वह मंत्र दृष्टा है, ऋषिका है, स्वछन्द विचरण करने वाली है और फिर जिसके साथ देव "राम" हो! सारा का सारा आर्यावर्त्त लोमहर्षिणी की नियति को समझता था वह लोमहर्षिणी --! अगस्त, लोपामुद्रा और विश्वामित्र का प्रतिनिधित्व करती थी "कृणवंतो विश्वमार्यम" के उद्घोष के साथ महिष्मति राज अर्जुन के मंसूबों पर उसने पानी फेर दिया। और फिर मजबूर होकर वशिष्ठ ने राज सुदास को समझाया। और फिर सारा का सारा आर्यावर्त्त विजय यात्रा पर निकल गया।

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