काशी
आदि जगद्गुरु रामानंदाचार्य का जन्म ऐसे समय हुआ था जब देश पर केवल गुलामी का संकट ही नहीं था, बल्कि हमारी संस्कृति व धर्म बचेगा या नहीं यह कह पाना भी कठिन था। वे पहले ऐसे आचार्य थे जो उत्तर भारत में जन्म लेते है उनका जन्म प्रयाग में एक कान्यकुब्ज गौड़ ब्रह्मण पिता पुण्यसदन शर्मा और माता सुशीला शर्मा के यहाँ १५ जनवरी १२९९ को प्रयाग के पास "मालकोट" में हुआ था, वचपन का नाम रामदत्त था। वैसे रामानंद संप्रदाय की मान्यता है की इनका प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी १३५६ सम्बत में हुआ। आठ वर्ष की आयु में ही उनका उपनय संस्कार हुआ उसी समय वे सन्यास के लिए जिद किया और अपने पिता को उन्हें काशी शिक्षा के लिए ले जाने के लिए मजबूर कर दिया। अब प्रयागराज से काशी 125 किमी दूरी पर स्थित है प्रयागराज से चलने पर रात्रि में वे जहाँ रुके संध्या के समय कुछ लोग वहां इकट्ठा हुए थे। रामदत्त को ध्यान में आ गया कि ये लोग कौन हैं? रामदत्त प्रवचन करते हुए कहते हैं कि आप सब ने धर्म नहीं छोड़ा बल्कि धर्मरक्षार्थ आपने वन में रहना स्वीकार किया इसलिये आप सभी समान्य मानव नहीं है आप तो धर्म योद्धा हैं धर्मयोद्धा! इनकी शिक्षा- दिक्षा काशी में गुरु राघवाचार्य के सानिध्य में हुई, जब राघवाचार्य ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया और सन्यास की दीक्षा दी फिर उनका नामकरण स्वामी रामानंद हो गया। काशी विद्वानों की नगरी कही जाती है उसे भारत ( हिन्दू धर्म ) के सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। उनका प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब एक हाथ में तलवार दुसरे हाथ में कुरान लेकर भारत को रौदने का प्रयास हो रहा था भारतीय राजा और राजनीती लगभग हार स्वीकार करने के बहुत नजदीक पहुच चुकी थी।श्रीराम व श्रीकृष्ण धर्म के आधार
ऐसे समय रामानंदाचार्य ने जाति, भाषा और प्रान्त से ऊपर उठकर राष्ट्रबाद का अनूठा प्रयोग किया, वे पहले आचार्य है जिन्होंने भगवान श्री राम को परमेश्वर स्वीकार कर --ब्रम्ह, श्रीराम और भारत को एक रूप कर दिया, श्रीराम को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिक रूप में खड़ा कर दिया इतना ही नहीं रामानुजाचार्य ने जिस विष्णु को भगवान मानकर आराधना की और अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया उसी परंपरा वैषणव मत को आगे बढ़ाते हुए उसे विशिष्टाद्वैत दर्शन प्रतिपादित करके श्रीराम, श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर हिन्दू धर्म को अलंकारिक कर रक्षा करने का उपाय किया उन्हें आज पूरा समाज राष्ट्र पुरुष के नाते इन महापुरुषों पूजता है, श्रीराम और श्रीकृष्ण जीवित हिन्दू राष्ट्र के प्रति रूप बन गए है, राष्ट्र उन्होंने कहा 'कलयुग केवल नाम अधारा' और इसी को आधार मानकर भारत के बिभिन्न क्षेत्रो, जातियों और भाषाओ से बड़े-बड़े संत खड़े कर दिए उन संतो ने श्रीराम, के नाम को आधार लेकर पूरे भारत में अलख जगाकर बिधर्मियो को मुहतोड़ जबाब दिया।
समरसता की प्रतिमूर्ति
वे समरसता के महान जीवित मूर्ति थे जहा उन्होंने कबीर जैसे तांती (जुलाहा) रबिदास जैसे दलित को अपने आत्मीयता से देश का सिर मौर बना दिया वहीं कुम्हन दास, धन्ना जाट, पीपा, नाभा, सेन, भावानन्द, इत्यादि को इतनी आध्यात्मिक उचाई पर पहुचाया जिन्हें द्वादस भगवत कहा जाता था। कोई शंकरदेव होगे असम में जिन्होंने रामानंदी परंपरा को स्वीकार कर असम को बिधर्मी होने से बचाया, वही कोई चैतन्य महाप्रभु होगे जिन्होंने इसी परंपरा द्वारा बिधर्मी हुए बंधुओ को घर वापसी की, दक्षिण के स्वामी रामतीर्थ होगे ऐसा अलख जगाकर की डंके की चोट पर शिवाजी महराज ने हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना की, देश भर में बिभिन्न अखाड़ो की स्थापना कर नागाओ की फ़ौज खड़ीकर धर्मरक्षा की परंपरा कायम कर हिन्दुओ का स्वाभिमान जागृत किया, इतना ही नहीं जब चित्तौड़ की महारानी मीरा स्वामी रामानंद जी की शिष्य बनाने काशी आयीं स्वामी जी यह जानते थे कि यह परिवार भारतवर्ष हिन्दू सिरमौर है उन्होंने बड़ी ही योजना पूर्बक वैष्णव भक्त मीरा से कहा की तुम्हारे योग्य गुरु तो संत रविदास ही हैं मीरा यह सुनकर निहाल हो गयी। संत रविदास ने उन्हें शिष्या स्वीकार कर लिया मीरा के आग्रह पर वे चित्तौड़ गए राजमहल में बहुत दिनों तक रहे आज पश्चिम में राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे स्थानो पर रविदासी बड़ी संख्या में दिखायी देते हैं यह इसी का परिणाम है विश्व में कहीं समरसता का ऐसा अद्भुत उदहारण मिल सकता है ।
घर वापसी के द्वार खोले
वैष्णव के बावन द्वारो में ३७ द्वार रामानंद संप्रदाय से ही जुड़े है इनकी शाखा, प्रशाखा जैसे कबीर दासी, दादूपंथी, रामस्नेही, घासीपंथी इत्यादि के श्रोत है। इतिहास साक्षी है कि बल पूर्बक इस्लाम धर्म स्वीकार किये हिन्दुओ को फिर से हिन्दू धर्म में लाने का परावर्तन का यानी घरवापसी का महान कार्य उस काल में सर्व प्रथम रामानंद ने प्रारंभ किया। अयोध्या के राजा हरी सिंह के नेतृत्व में चौतीस हज़ार राजपूतो की एक ही मंच पर स्वधर्म में आने के लिए प्रेरित कर शंकराचार्य की परंपरा को जिबित किया। अयोध्या के आस पास वैश्य राजपूत किन्हीं कारणों से इस्लाम मतावलंबी हो गए थे फिर क्या था? उन्होंने घर वापसी का द्वार खोल दिया।धर्म का आधार बना भारत रक्षा कवच!
वास्तव में यदि हम देखे तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामानंद की प्रेरणा से ही रामचरित मानस लिखकर रामलीला का मंचन कराकर भारतीय राष्ट्रबाद को ही पुष्ट किया और धर्म को बचाने में अहम् भूमिका निभाई जिस प्रकार जगद्गुरु शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म जो भारत को नपुंशक बनाकर पर्कियो को शासन सौप रहा था। उसे समाप्त करने हेतु भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रबाद हेतु चारो धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्ति पीठो की स्थापना की और शास्त्रार्थ द्वारा बिधर्मियो को पराजित कर वैदिक धर्म की विजय पताका फहरायी उसी प्रकार स्वामी रामानंद ने २१ जातियों में अपने शिष्यों को संत बनाकर इतना प्रभावशाली किया कि केवल धर्म ही नहीं बचाया बल्कि भारत को बचाया आज भी वे हमारे प्रेरणा श्रोत बने हुए है। स्वामीजी १५० वर्षो तक पूरे भारत वर्ष का भ्रमण अपने द्वादश शिष्यों के साथ करते जहाँ उन्हें संतरबिदास या कबीर के कारण मंदिरों में बिरोध होता, वे शास्त्रार्थ कर मंदिर में प्रवेश करते उन्होंने लगातार १५० वर्ष तक हिन्दू समाज को जागृत करने का प्रयास किया। वे ऐसे आचार्य थे जिनकी प्रेरणा से मेवाड़ की महारानी मीरा ने संतरबिदास को गुरु स्वीकार कर समाज को दिसा दी, स्वामी जी भारत व हिन्दु समाज की तपस्चर्या में १७७ वर्ष जीवित रहे सम्बत १५३२ यानी सन १४७६ में स्वर्ग सिधारे। वे आज भी भारत व हिन्दू समाज को सर्बाधिक प्रभावित करने वाले आचार्य है। उन्होंने कोई संप्रदाय नहीं चलाया वे तो क्रांतिकारी थे मुस्लिम आक्रांताओं से हिंदू समाज की रक्षा करने के लिए तंत्र खड़ा किया, संघर्ष का साहस पैदा किया और सफल भी हुए। धीरे धीरे वह पूजा पद्धति फिर संप्रदाय उनके आचार्य खड़े होते चले गए और आज भी हिंदू समाज का मार्ग प्रशस्त कर रहे है।
उनके द्वारा रचित ग्रन्थ वैष्णव भास्कर, श्री रामार्चनपद्धति, रामरक्षास्त्रोत, सिद्धांतपटल, ज्ञानशीला, ज्ञानपटल, ज्ञानतिलक और योगचिंतामणि इत्यादि आज भी हिन्दू समाज के अन्दर अध्यात्मिक ज्ञान व शांति का मार्ग प्रशस्त कर रहे है।
6 टिप्पणियाँ
आज न तो रामानंद जैसे लोग रहे और ही उनके भक्तों की तरह.
जवाब देंहटाएंजगदगुरू रामानंदचार्य जी के बारे में जो जानकारी आपने प्रस्तुत की है,उसे पढ़ कर बहुत कुछ जानने का अवसर मिला । यह जानकारी प्रदान करने के लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं । मेरे नए पोस्ट "धर्मवीर भारती" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंरामानंदी वैष्णवों के आराध्य आदि जगदगुरु स्वामी रामानंदाचार्य के प्राकट्य दिवस पर प्रकाशित आपके आलेख को पढ़ने का सुअवसर आज मिला। अति प्रसन्नता हुई। ये सही है कि आज देश में व्याप्त छुआ-छूत और ऊंच-नीच जैसे भेद-भाव को दूर करने के लिए स्वामी रामानंद जैसे महामनीषि की आवश्यकता है। एक काम आज भी समाज के कई हिस्सों में जारी है,लेकिन छोटे स्तर पर। संघ और उसके कई अनुषंगिक संगठन हिन्दु समाज को संगठित और बलशाली बनाने का कार्य प्रचार-प्रसिद्धी से दूर रहते हुए कर रहे हैं। मैं रामानंद सम्प्रदाय के मूल आचार्यपीठ श्रीमठ,पंचगंगा घाट ,काशी से जुड़ा हूं,जहां रहते हुए स्वामीजी ने रामभक्ति की धारा को आमजन की झोंपड़ी तक पहुंचाने का महती कार्य किया था। मैं वर्तमान रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज का दीक्षित शिष्य हूं.मेरा ब्लॉग-ramanandacharya.blogspot.com उसी मठ और परंपरा को समर्पित है.
जवाब देंहटाएंpriya devkumar ji
जवाब देंहटाएंnamaste aapne bahut acchha likha hai aaj bhi ramanand ji ka bichar prasangik hai bahut-bahut dhanyabad.
इन्हीं विद्वानों से भारतभूमि बची हुयी है अभी और सभ्यता जीवित हैं । नमन है इन श्रेष्ठ महापुरुषों को।
जवाब देंहटाएंस्वामी रामानन्द ने आध्यात्मिक मार्ग के द्वारा हिन्दू समाज को पूनरपि गौरवान्वित किया।
जवाब देंहटाएंउन्हे शत शत नमन
रामानन्द स्वयं राम: प्रादुर्भूत महीतले