शुन:शेप
भारतीय राष्ट्र का निर्माण कैसे हुआ ? किसने किया ? किस प्रकार हुआ ? यह कहना बड़ा कठिन है। आज के हज़ारों लाखों वर्ष ही नहीं तो करोङो वर्ष पहले राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी हम इस राष्ट्र को सनातन राष्ट्र भी कह सकते हैं। जब वैदिक काल था जब न राज्य थे न राजा था न ही कोई दंडाधिकारी था सभी मानव वेदों के अनुसार जीवन यापन करते थे। लेकिन धीरे -धीरे समय परिवर्तित हुआ फिर राज्य और राजा की आवस्यकता हो गई फिर शासन चलाने हेतु दण्डाधिकारी भी होने लगे। लेकिन ये राष्ट्र कैसे एक रहे कैसे नेक रहे कैसे जीव -जंतु, पशु -पक्षी, पेड़ -पौधों की सुरक्षा हो सभी विषयों पर चिंता करने वाले ऋषि -महर्षि हुए उनमे से आज हम एक मेधावी ऋषि मंत्र दृष्टा के बारे में चर्चा करेंगे।
शुनःशेप की राम से भेंट
आर्यावर्त्त में एक सर्वमान्य ऋषि दम्पति रहती थी जिनके गुरुकुल में विश्वामित्र, जमदग्नी जैसे ऋषि शिक्षा ग्रहण किया करते थे उसी में एक अजिगर्त भी था। अजिगर्त पतित होने के कारण ऋषि अगस्त द्वारा श्रपित हो गया धीरे-धीरे वह दास की श्रेणी में चला गया। इसका मूल नाम अजीगर्त अंगिरा था इसका अर्थ यह हुआ कि इसका सम्बन्ध अंगिरा ऋषि से था और इसी का पुत्र है "शुन:शेप"। श्रपित होने के कारण इन्हे आर्यावर्त्त छोड़ना पड़ा और धीरे-धीरे अपनी पहचान छिपाने के लिए दासों के क्षेत्र में जाने लगा। शुनःशेप तीन भाई था वह मझला था इसलिए बड़े को पिता और छोटे को माँ अधिक प्रेम कैरते थे ये उपेक्षित जैसा था। संयोग वस जंगल भ्रमण के दौरान इसकी भेंट राम (जमदग्नी ) से हो गयी वह राम से मिलकर बहुत प्रभावित हुआ था जब उसे पता चला कि राम का सम्बन्ध विश्वामित्र और जमदगनी से है तो वह देखता ही रह गया। वह तो इन ऋषियों का केवल नाम सुना था देखना तो दूर की बात थी आज वह राम के पास उसकी बात सुन रहा है वैदिक मंत्रो के बारे में देवों के बारे में सुन रहा है उसने राम के हाथ को पकड़ रखा था जैसे उसे कोई मिल गया हो जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता। राम की बात को अंतर्मन से ग्रहण कर रहा था जैसे वेद मन्त्रों के बारे वह पहली बार सुन रहा हो वह राम को छोड़ना नहीं चाह रहा हो। शुनः शेप ने आँखे बंद कर लीं, राम ने जंगल के भयंकर अंधकार में से उसे प्रकाश के मार्ग पर प्रेरित किया था। राम ने ही विद्या के बिना तड़पते हुए पतित को ऋषियों के संस्कार का अमृत पान कराया था वह बारह दिन राम के साथ रह तृषित अमृत वचन का पान करते हुए, वरुण देव का स्मरण मन ही मन कर रहा था। वह भृगु ग्राम तक राम के साथ आया भृगुग्राम थोड़ी ही दूर पर था कि रात हो गई वह रात में राम के साथ रहा। और वहीँ से अकेले ही लौटा। शुन:शेप ने आँखे बंद करके राम की सब बाते सुनी थी। अपने वास्तविक संसार की अधमता भूलकर वह इस समय राम के शब्दों की स्मृति द्वारा सृजित मेघ -धनुष की सृष्टि में विहार कर रहा था। लेकिन वह तो अभिशप्त अजीगर्त का पुत्र था --पतित, अधोगत और बहिस्कृत। इस पतित पुत्र को कौन अपने पास रखेगा -?
उसके माता-पिता श्मशान भूमि पर जीवन बिता रहे थे। लेकिन शुनः शेप का मानस बदल गया था ऋषियों के जीवन से उसकी कल्पना ओत -प्रोत हो गई थी। इससे उसके रहन सहन बदल गए, वह चुपचाप घूमता रहता उसके मानस में राम की प्रति छाया घूमती रहती। अपने को राम जैसा बनाने का प्रयत्न करता था। राम को देव मान मन ही मन पूजा करता था। अचानक उसके पिता अजीगर्त उत्तर की ओर जाने का निश्चय किया, पैदल चलते और भीख मांग जीवन यापन करते अब अजीगर्त ऋषि होने का ढोंग करने लगा। लेकिन शुनःशेप और उसकी माता दोनों दुखी रहने लगे इस कृत्य से, किन्तु अजीगर्त की निर्लज्जता और बढ़ने लगी। अब ये सरस्वती नदी से दूर चला गया उसको पहचानने वाला अब कोई नहीं मिल सकता था ऐसे निर्लज्जता में अजीगर्त ने पांच वर्ष ब्यतीत किये।
और अब राजा हरिश्चन्द्र
सिंधु नदी के उत्तर तट पर इक्षाकु वंश के राजा हरिश्चन्द्र बसें हुए थे, उनके कोई संतान पैदा नहीं हो रही थी बड़े दुखी थे। उन्होंने एक वरुण देव के लिए यज्ञ किया, वरुण देव प्रकट हुए उन्होंने आशीर्वाद दिया पुत्र तो होगा लेकिन उसे मुझे देना होगा। लेकिन राजा हरिश्चन्द्र ने पुत्र मोह में ये सब वरुण देव को भूल गए समय व्यतीत होता गया राजा को जलोधर रोग हो गया उन्हें बार बार स्वप्न आने लगा कि यदि राजा अपने लड़के रोहिताश की बलि दे दे तो राजा बच सकता है अब राजा क्या करें.? जब यह बात रोहिताश को पता चला तो उसे लगा कि राजा कहीं उसकी बलि न दे दे भय के कारण रोहिताश घर छोड़कर जंगल को ओर चला गया। फिर उसे ध्यान में आया कि मेरी कायरता के कारण मेरे पिता की मौत होने वाली है साहस जुटाकर पुनः राजधानी लौट आया। पुरोहितों से राजा ने पूछा कि बदले में कोई दूसरे मानव की बलि दी जा सकती है क्या.? पुरोहितों ने हां में उत्तर दिया! फिर राजा ने इस निमित्त नर बलि के लिए एक युवक खोजने लगे तभी राजा के एक हरकरा को समाचार मिला कि एक ब्राह्मण जो लालच में अपने पुत्र को दे सकता है। वह ब्राह्मण कोई और नहीं अजीगर्त ही था उसने सौ गायों के बदले अपने मझले पुत्र शुनःशेप को देने का निश्चय किया, शुनः शेप को अब राजधानी लाया गया और उसे पता चला कि वह ऋषि विश्वामित्र और जमदगनी से मिलेगा दर्शन करेगा उसका मन प्रफुल्लित होने लगा।
कौन कराएगा नर बलि ?
राजा हरिश्चन्द्र ने बहुत सारे ऋषियों मुनियों से संपर्क किया पर कोई भी नर बलि कराने को तैयार नहीं था। लेकिन पूरे आर्यावर्त्त में ऋषि विश्वामित्र की घोषणा गुंजायमान हो रही थी कि मनुष्य -मनुष्य में भेद नहीं है, आर्य और दास भिन्न नहीं हैं सच्चा भेद तो यज्ञ करने वाले और यज्ञ न करने वाले में ही है। अब विश्वामित्र नर बलि यज्ञ कराने को तैयार हैं ऋषियों में श्रेष्ठ विश्वामित्र को यह धर्म -संकट अपनी कठिन कसौटी के समान दिखाई देने लगा। विश्वामित्र ने विनय पूर्वक देव की प्रार्थना की, किन्तु देव टस से मस नहीं हुए। नरमेध के बिना हरिश्चन्द्र को ठीक करना उन्होंने स्वीकार नहीं किये और राजा हरिश्चन्द्र का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता चला जा रहा था। सम्पूर्ण आर्यावर्त्त में यह प्रचार हो गया कि विश्वामित्र नरमेध यज्ञ कराने जा रहे हैं अब लोगों में उनका उपहास होने लगा और इस यज्ञ को कराने में विश्वामित्र का अंध:पतन स्पष्ट दिखाई देने लगा। किन्तु विश्वामित्र अडिग थे यदि देवता मनुष्य बलि लेते हैं तो उनका (विश्वामित्र) उपहास होगा … यदि देवता बिना बलि के हरिश्चन्द्र को ठीक कर देते हैं तो यह निश्चित है कि वरुण देव से जो विश्वामित्र ने करा लिया और कोई ऋषि नहीं करा पाया।
नर बलि से व्यथित विश्वामित्र
इस विचित्र नर बलि यज्ञ को देखने के लिए गांव गांव के राजा, महाराजा, तपस्वी और जनसमान्य लोग राजा के यहाँ आ गए हैं। क्या देव बिना "नर मेध यज्ञ" के राजा को रोग मुक्त कर विश्वामित्र की टेक रखेंगे..? किन्तु देव की इच्छा कुछ और ही थी! उन्हें ज्ञात हुआ कि जिस दुष्ट पिता ने यज्ञ बलि के लिए पुत्र को बेचा था वह स्वयं सौ गाएं अधिक लेकर पुत्र को यज्ञ स्तम्भ से बाधने को तैयार था। विश्वामित्र इस बात से और भी गंभीर हो गये, एक ओर राजा का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था दूसरी ओर यज्ञ पूर्ण आहुति का दिन भी आ पंहुचा। वे नर बलि का अंत करना चाहते हैं। थोड़ी देर में जमदगनी ने विश्वामित्र के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा "यदि देव की ऐसी ही इच्छा है तो हम क्या कर सकते हैं?" विश्वामित्र ने स्वास छोड़ते हुए कहा, -- जमदगनी, इसका अर्थ यह हुआ कि मेरे तपस्या की इतिश्री हो गई!" "रोहिणी ने कहा ऋषिवर देव इच्छा के अधीन होने से तप की इतिश्री कैसे हो सकती है?" विश्वामित्र ने खिन्न होकर कहा तुम सब मेरे मन को फुसलाना चाहते हो, लेकिन मैं सब कुछ समझता हूँ।
तभी एक सैनिक ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम करते हुए कहा, मुझे राजा रोहिताश ने आपके पास भेजा है, तभी जमदाग्नि ने पूछा कि कोई क्या कोई शुनःशेप क़ा बध करने वाला मिला? उत्तर मिला जी हॉ शुनःशेप क़ा पिता! अजीगर्त ने सौ और गायों को लेकर यह स्वीकार किया है। यह सुनकर विश्वामित्र बहुत खिन्न थे तभी जमदाग्नि के मुख से स्वाभाविक रूप से निकल गया क्या वह राक्षस है..? विश्वामित्र की विचार माला आगे बढ़ रही थी क्या निर्दोष बालक को होम हो जाने दूँ! मैं शुनःशेप को अपना नहीं कह सकता और पराया कर दूँ ये संभव नहीं! मैं नरमेध करा नहीं सकता और इसे छोड़कर जा भी नहीं सकता। अब विश्वामित्र एकाएक खड़े हो जाते हैं नहीं मैं अपनी तपस्या से इस बलि को रोकूंगा ही नहीं बल्कि राजा को रोग मुक्त भी कराऊंगा।
शुनःशेप उल्लासमय
समय निकट आ गया लेकिन शुनः शेप को अपने बलि क़ा भय नहीं था उसका ह्रदय तो देवों के दर्शन, ऋषि विश्वामित्र के तेज को देखने में लगा था उसे ध्यान में ही नहीं था कि उसकी बलि होने वाली है। निर्धनता क़ा दंश, पतित जीवन की वेदना, विद्या की अतृप्त तृषा, तिमिरमय जीवन की निशफलता आदि सब कुछ जाता रहा। उसके जीवन के महान दिन आने शुरू हो चुके थे, दोपहर तक वह वरुण देव के चरणों में पहुंच जायेगा और फिर यमराज उसे अपने लोक लें जाएंगे। वह अधम नहीं था पतित नहीं था, विद्या हीन भी नहीं था, उसकी बलि देवाधिदेव मांग रहे थे। उसके मुख पर लालिमा छा गई थी, उसकी आँखों में चमक आ गई थी, उसकी गति में निराधारीत्व क़ा शैथिल्य जाता रहा। जब राजा हरिश्चन्द्र के सैनिक उसे लेने आये वह तब वह अधीर होकर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। विजय प्रस्थान करने के समान वह उत्साह और हर्ष से अपने कारावास से निकला।
अध्यात्मिक शुनःशेप
पानी से, दूध से, घी से, मधु से उसे नहलाया गया, दो ऋषियों ने मंत्र पढ़कर उसे पवित्र किया। उसकी सब अधमता स्नान करते ही चली गयी, जिस दिन के लिए वह लालायित था वह दिन आ गया था। अब वह पतित नहीं था अब वह ऋषियों के सानिध्य में जाने, देवों के चरणों में गिरने के योग्य हो चुका था। शुनःशेप क़ा ह्रदय उमड़ आया, उसकी आखें भीग गयी थी उसे ऐसा लग रहा था मानों उन शोकग्रस्त और वेदनापूर्ण आँखों में वह वो ऋषि समा रहे थे। स्नेह और मान के असह्य भार से उसका गला भर आया, उसकी सूरत रोनी सी हो गई। शुनःशेप को इस प्रकार देखकर सभी आश्चर्य से चकित थे सब ओर हाहाकार मच गया। सैनिक उसे पकड़ने के लिए दौड़े उसके पीछे कितने लोग उसे देखने के लिए लालायित हो रहे थे तभी वह ऋषियों के चरणों में गिर पड़ा। वे आसन से उठे और उन्होंने शुनः शेप को उठाया "वत्स देव तुम्हारा कल्याण करें " यह कहकर स्नेह से उसके सिर पर हाथ रख दिया। शुनःशेप के आँखो से आँसू गिरने लगे, उसने पुनः ऋषि के पैर छूकर उनकी चरण रज अपने माथे पर लगाया।
शुनःशेप क़ा ह्रदय गर्व से उछलने लगा, सैनिकों ने उसे यूप के पास ले जाकर खड़ा किया। खाट पर सुलाकर राजा हरिश्चन्द्र को यज्ञ मंडप में लाया गया। वहाँ रखी हुई शिला पर शुनः शेप को खड़ा करके अजीगर्त ने उसे एक स्तम्भ में तीन बंधनों से बांधा। वहाँ खड़े -खड़े ही शुनःशेप को आस -पास दृष्टि डालकर संतोष हो रहा था। वह यथार्थ देव ही था, क्योंकि ये सब उसे अर्ध्य देने के लिए एकत्रित हुए थे। तभी हसकर उसने विश्वामित्र को ओर देखा, ऋषि की बेदना पूर्ण आखें हंसी। और उसका मुख और मलान हो गया।
मन्त्रदृष्टा शुनःशेप शाप से मुक्त राजा
मन्त्रोंच्चारण होने लगा आहुतिया पड़ने लगी शुनः शेप जहाँ यूप में बधा था वहाँ से बहुत दूर तक देख सकता था। शुनः शेप अपनी शरीर क़ा सुध -बुध खो बैठा था उसने समझ की वह व्योम में ही है, विकसित नयनों से वह वरुणदेव के आने की प्रतीक्षा कर रहा था, क्या वह मानव है? क्या वह देव है? निकतस्ट मृत्यु भी उसे भयभीत नहीं कर पा रही थी। विश्वामित्र ने अपना कर्तव्य अंतिम छण के लिए छोड़ रखा था, वह कभी -कभी विश्वामित्र की ओर देखते कभी शुनः शेप की ओर की देव की कृपा हो जाय दोनो बच जाय। मन्त्रोंचारण पूरा होने को आया, वरुणदेव से मिलने की अतुरता शुनः शेप की बढ़ती जा रही थी। अब उसे आभास होने लगा था वह ज्यों-ज्यों मंत्र बोलता गया त्यों-त्यों देव उसके पास आने लगे। शुनःशेप राजा वरुण देव की तेजपूर्ण आँखे देख रहा था -- सभी दंग होकर देख रहे थे, विश्वामित्र की आँखों से धड़ा धड़ आँसू गिरने लगे। विश्वामित्र ने अपनी आत्मा शुनः शेप में स्थापित कर दिया ऐसा लगता है कि विश्वामित्र की आत्मा शुनःशेप के शरीर में प्रवेश कर गई है और वरुणदेव के मंत्र बोलने लगे लेकिन क्या हुआ यह मंत्र तो खम्भे में बधा हुआ शुनःशेप के मुख से निकल रहा है। एक ओर मंत्र निकलता दूसरी ओर शुनःशेप के बंधन टूटते और राजा का पेट कम होता जाता देखते ही देखते शुनःशेप के सारे बंधन टूट गये राजा हरिश्चन्द्र निरोग हो गये और वरुणदेव प्रसन्न हो गए। ऋषि खड़े हो गए वहाँ हाहाकार मच गया और शुनःशेप मूर्छित होकर विश्वामित्र की गोद में आ गिरा। विश्वामित्र ने उसे अपनी गोद में उठा लिया, राजा हरिश्चन्द्र का स्वास अवरुद्ध होते- होते रुक गया, वरुण देव ने उन्हें शाप मुक्त कर दिया और शुनःशेप को विश्वामित्र अपने साथ लेकर चलें गये शुनःशेप अब ऋषि का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बन गया था। सुन: शेप का भारत की सभ्यता में जो योगदान हुआ उससे उसने अपनी विराट आध्यात्मिकता से पहली बार एक सूक्त विश्वामित्र ने अपने तपोबल से वैदिक ऋचाओं को उसके अंतर्मन से बोलवाया। कुल मिलाकर उसने आठ सूक्तों में सौ से अधिक ऋचाओं का मंत्र दृष्टा था विश्वामित्र की वास्तविक उत्तराधिकारी बलि होने वाला है और उसके मुख से वेद मंत्र निकल रहे हैं यह कैसा अध्यात्म है और विश्वामित्र की कैसी विलक्षण क्षमता है।
विश्वामित्र की तपस्या
सुन:शेप की इस घटना से विश्वामित्र की प्रतिभा और निखर कर सामने आ जाती है, अपने को ब्राह्मण मनवाने वाले विश्वामित्र कितना प्रखर तप किया कि सुन:शेप को बचाने हेतु कितना बड़ा कदम विपरीत परिस्थिति में उठा लिया अपने संतानों के विरोध और बहिष्कार के बीच सुन:शेप को अपना पुत्र बनाकर उसे अपने कुल का नाम दिया। इस प्रकार का उद्भट व्यक्तित्व की कल्पना तो करिए पर जिसने विश्वामित्र जैसे क्रांतिकारी ऋषि को अपने सम्मोहन हेतु विवश कर दिया वह सुन:शेप कोई सामान्य व्यक्तित्व नहीं रहा होगा। भारतीय इतिहास ने हमारे अद्भुत ऋषियों को भारतीय मानस से भुलाने का जो कार्य किया है वह अक्षम्य है। आइए अब भारतीय चीती को पढ़ने समझने का प्रयत्न करें।
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