पांच वर्ष में ही गुरुगृह--!
वे अपनी माँ से जिद कर रहे थे मुझे सन्यास की आज्ञा दे दो लेकिन माँ तो माँ सात वर्ष के बालक को कैसे सन्यास की अनुमति देती, माता सुभद्रा को बृद्धा अवस्था में भगवन शंकर की आराधना से उन आसुतोष ने आशिर्बाद स्वरुप यह एक संतान वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी को प्राप्त हुई, बालक तीन वर्ष का था तभी उसके पिता श्री शिवगुरुजी संसार छोड़कर चले गए, यह क्या सामान्य बालक है माता सुभद्रा की गोद में ? साक्षात् शंकर ही तो पधारे है, एक वर्ष की अवस्था में मात्री -भाषा का शुद्ध स्पष्ट ज्ञान, दो वर्ष में माता से सुने पुराणो का कंठ कर लेना, पाचवे वर्ष उनका यज्ञोपवीत संस्कार हो गया दो वर्ष में ही गुरुगृह में रहकर उनको चारो वेद, वेदांग, एवं दर्शन शास्त्र की शिक्षा, उपनिषद का अभ्यास हो गया था और अभी तो सात वर्ष के ही हुए न ! माता ऐसे पुत्र को कैसे छोड़ देती, वे गुरु की खोज में थे ऐसे योग्य बुद्धिमान आत्मज्ञानी शंकर को कौन कहाँ गुरु मिलता माता- पिता की एकलौती संतान, वे माता के बड़े भक्त और प्रिय भी थे उनकी माता बड़ी बिदुसी और बिद्वान महिला थी उन्होंने अपनी माता की गोद में ही बहुत सारी शिक्षाओ को ग्रहण किया जैसे उन्हें पूर्व जन्म में ही सनातन धर्म के ग्रंथो का ज्ञान था और वर्तमान में ध्यान हो आया हो।स्नान करते समय मगरमच्छ ने पकड़ लिया--!
प्रतिदिन की भाति एक दिन अपनी माता के साथ स्नान करने नदी पर गए उन्हें मगर ने पकड़ लिया वे निश्चल भाव से अपने स्थान पर खड़े रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं, उन्होंने कहा माता मुझे मगर ने पकड़ लिया है, यदि आप मुझे सन्यास की आज्ञा दे-दे तो हो सकता है कि यह मगर मुझे छोड़ दे, पुत्र से बढ़ कर कौन--? माता ने सोचा पुत्र जिन्दा रहे कही भी रहे जैसे प्रत्येक भारतीय माताये सोचती है, माता जी ने सन्यास की आज्ञा दे-दी, शंकर को मगर ने छोड़ दिया वे बाहर आकर अमरकंटक पर्बत की तरफ जाने लगे माता ने उनसे एक बचन लिया कि मृत्यु के पहले एक बार दर्शन माता को बड़ा ही स्नेह करने वाले शंकर बचनबद्ध होकर उत्तर की तरफ बढ़ गए, वहां पर उन्हें नर्मदा के उद्गम पर उस समय के उद्भट ब्याकरण विद्वान गोविन्द्पाद से भेट हुई शंकर ने उन्हें गुरु और गोविन्द्पाद ने उन्हें शिष्य स्वीकार किया वे गुरु के बड़े ही भक्त और प्रिय शिष्य थे उनके लिए गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि थी एक वर्ष में ग्रंथो का अध्ययन ब्याकरण का अभ्यास हो गया गुरु ने पहचानने में कोई गलती नहीं की वे उनके जन्म का कारण जानते थे कि इनका जन्म हिन्दू धर्म के उद्धार हेतु हुआ है वे समय ब्यर्थ गवाना नहीं चाहते थे, उन्होंने शंकर को काशी जाकर ब्रम्हासूत्र दर्शन भाष्य करने का आदेश दिया।चांडाल के रूप में शिव दर्शन---!
काशी पहुचकर अपने कार्य में जुट गए पूज्य शंकराचार्य के प्रथम शिष्य काशी में सनंदनजी हुए, इनका नाम पद्दपादाचार्य हुआ, एक दिन भगवान विश्वनाथ दर्शन हेतु जा ही रहे थे गली बड़ी ही सकरी है --- सामने से एक चंडाल साथ में एक कुत्ता लेकर आ रहा था शिष्यों ने उसने रास्ता छोड़ने के लिए कहा यती आ रहे हैं- यती आ रहे हैं उस चंडाल ने पूछा कि किससे रास्ता छोड़ने की बात कर रहे है ? आप तो अद्द्वैत की बात करते है आत्मा को अथवा शरीर को सभी मे तो वही आत्मा है, शंकर तो उन्हें पहचान गए की यह तो स्वयं भगवान शिव ही है, भगवान विश्वनाथ ने उन्हें चंडाल के रूप में दर्शन दिया शंकर ने उन्हें प्रणाम किया, और प्रकट हो गए शशांकशेखर।हिमालय में वेदव्यासजी से भेंट---!
एक दिन वे अपने भाष्य जुटे ही थे की एक बृद्ध ब्राहमण ने एक सूत्र के अर्थपर शंका प्रकट कर बैठे, शास्त्रार्थ होने लगा और वह आठ दिन तक चलता रहा पद्दपादाचार्य आश्चर्य में थे की उनके गुरुदेव से इस प्रकार शास्त्रार्थ करने वाले कौन आ गए, ध्यान करने पर उन्हें पता चला की ये तो भगवान वेद्ब्यास ही ब्रह्मण के रूप में है अतः उन्होंने प्रार्थना की ----- आचार्य ने वेदब्यास को पहचाना, उनका बंदन किया ब्यास जी प्रसंन्द होकर उन्हें बरदान देकर उनकीं आयु दो गुनी कर दी यानि ३२ वर्ष! और आदेश दिया कि वेदांत का प्रचार और सनातन धर्म कि प्रतिष्ठा करो वे बिरोधी तार्किकोको शास्त्रार्थ में पराजित करने में लग गए भारत के चारो दिशाओ कि यात्रा की, शंकराचार्य केवल तेरह वर्ष के थे शास्त्रार्थ करते विजय प्राप्त करते आगे बढ़ते तो उनके पीछे तीन- तीन हज़ार विद्वान चलते यह एक अद्भुत दृश्य होता वे जहा अपने अद्दैत दर्शन (ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या ) के प्रवर्तक थे वही वे समन्वय बादी भी थे द्वारिका पहुचे तो भगवान राधा -कृष्ण को स्वीकार कर पूजा की वही जगन्नाथ पूरी पहुचकर जगन्नाथ जी में विस्वास प्रकट किया।और बोध गया पहुंचे---!
एक बार बंगाल के राजा ने उन्हें अपने राज्य में बोधगया निमंत्रण दिया तो शंकर ने कहा की जब- तक वहां बोधबृक्ष है मै कैसे आ सकता हु बंगाल के राजा ने उस बोध बृक्ष को उखाड़ फेका फिर शंकराचार्य गया आते है, दूसरी तरफ जब पश्चिम तक्षशिला पहुचते है तो बौद्ध प्रभाव को देखकर उन्होंने बुद्ध को भगवान विष्णु के अवतार की घोषणा की वे सम्पूर्ण भारत को एक राष्ट्र में पिरोना चाहते थे इसी दृष्टि को लेकर परिवार पूजा शुरू की, उन्होंने जहाँ जैसे उपयुक्त समझा उसका तार्किक उपयोग किया सनातन धर्म में वापसी हेतु जब उनके साथ हजारो संत चलते तो वे कहते की जहाँ तक हमारे शंख की आवाज जाती है यानी जिनके कान में शंख की आवाज सुनाई देती है वे सभी हिन्दू! वे बड़े ही तेजस्वी थे आज भी भारतीय बांग्मय पर सर्बाधिक प्रभाव उन्ही का दिखाई देता है।
शास्त्रार्थ के बल वैदिक धर्म की सार्थकता सिद्ध की--!
सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने भारतीय सनातन ग्रंथो को भाष्य किया इनके द्वारा रचित ग्रंथो की सूचि बड़ी लम्बी है और शेष सोलह वर्षो में पूरे भारत वर्ष में घूम-घूम कर पुनर्धर्म की स्थापना की उस समय पूरे देश में जैन, बौद्ध और कापालिको के मत का प्रभाव था लगभग सभी राजा बौद्ध मतावलंबी हो गए थे, अछार्य शंकर ने शास्त्रार्थ द्वारा बौद्ध ,जैन पंडितो को पराजित कर राजाओ को प्रजा के साथ उन्होंने पावन उपदेश दिया, अशास्त्रीय मतों का दमन हुआ और बौद्ध मत (नास्तिक) प्रायः भारत से समाप्त हो गया, आचार्य ने भारत के चारो दिशाओ पुरी, द्वारिका, श्रृंगेरी और ज्योतिर्मठ (बद्रिकाश्रम ) में पीठ स्थापित कर अपने एक-एक शिष्यों को धर्म की रक्षा हेतु नियुक्त किया और द्वादश ज्योतिर्लिंग ५२ शक्तिपीठ को पुनर्जागृत कर समाज में ब्यापक धर्म के प्रति निष्ठां पैदा करने का प्रयत्न किया, उनके अद्दैत दर्शन का पूरे देश में ब्यापक प्रभाव हुआ वैदिक धर्म के उद्धार के लिए उनका प्रयत्न अद्वितीय है, और इसी प्रकार उनकी सिद्धांत स्थापना प्रणाली विश्व के दार्शनिकोमें अद्वितीय मानी जाती है।
सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने भारतीय सनातन ग्रंथो को भाष्य किया इनके द्वारा रचित ग्रंथो की सूचि बड़ी लम्बी है और शेष सोलह वर्षो में पूरे भारत वर्ष में घूम-घूम कर पुनर्धर्म की स्थापना की उस समय पूरे देश में जैन, बौद्ध और कापालिको के मत का प्रभाव था लगभग सभी राजा बौद्ध मतावलंबी हो गए थे, अछार्य शंकर ने शास्त्रार्थ द्वारा बौद्ध ,जैन पंडितो को पराजित कर राजाओ को प्रजा के साथ उन्होंने पावन उपदेश दिया, अशास्त्रीय मतों का दमन हुआ और बौद्ध मत (नास्तिक) प्रायः भारत से समाप्त हो गया, आचार्य ने भारत के चारो दिशाओ पुरी, द्वारिका, श्रृंगेरी और ज्योतिर्मठ (बद्रिकाश्रम ) में पीठ स्थापित कर अपने एक-एक शिष्यों को धर्म की रक्षा हेतु नियुक्त किया और द्वादश ज्योतिर्लिंग ५२ शक्तिपीठ को पुनर्जागृत कर समाज में ब्यापक धर्म के प्रति निष्ठां पैदा करने का प्रयत्न किया, उनके अद्दैत दर्शन का पूरे देश में ब्यापक प्रभाव हुआ वैदिक धर्म के उद्धार के लिए उनका प्रयत्न अद्वितीय है, और इसी प्रकार उनकी सिद्धांत स्थापना प्रणाली विश्व के दार्शनिकोमें अद्वितीय मानी जाती है।