ऋषि विश्वामित्र की तपस्या और शुनःशेप------------!

कृण्वन्तो विश्व --!

महर्षि विश्वामित्र महान तपस्वी थे बचपन में गुरुकुल से ही उन्हें मन्त्रों के दर्शन होने शुरू हो गए थे इसलिए शुनःशेप में उन्हें अपनी प्रतिभा दिखायी देती थी, उन्होंने असुरो और आर्यों दोनों को समान अधिकार दिलाने के लिए कठिन परिश्रम किया देवों तक का भी परिक्षण किया, कहते हैं उन्होंने नयी सृष्टि का निर्माण किया जिसमे सब कुछ था सबके लिए सब कुछ समान था सभी को अधिकार था कोई भेद-भाव न था, सम्पूर्ण आर्यावर्त में उनकी तूती बोलती थी वे ऐसे ऋषि थे जिनका लोहा उनके गुरु भी मानते थे ऋषि अगस्त और ऋषि लोपामुद्रा दोनों ही उन्हें अत्यंत प्रेम करते थे जब शम्बर राज द्वारा इनका अपहरण होता है अपनी प्रतिभा द्वारा असुरों को भी प्रभावित किया अंतिम समय जब देखा की असुर उनका बलि 'उग्रदेव'' (असुरों के देव यानी शिवलिंग) को देने वाले हैं उस समय उनका विचार क्या देव भी मनुष्य की बलि लेते हैं-? वे ब्यथित होते हैं असुर राजकन्या उग्रा के कारन वे बच निकले, वे यह मानते थे की असुरो को भी आर्य बनाया जाय सभी को समान शिक्षा, समान अधिकार दिया जाय उनके मन को 'लोपामुद्रा' ही समझती थीं क्यों की उस गुरुकुल की वही अधिष्ठात्री देवी भगवती थीं.।

राजा हरिश्चन्द्र--!

 वे भरतश्रेष्ठ आर्यों की एकता के प्रतिक भी थे तत्सु, भरतों व अन्य आर्यों को एक कर राजा देवदास के पुरोहित बने एक साथ दो कार्य भरतों के सम्राट भी और आर्यों के पुरोहित भी पूरा सप्तसिंधु आर्यवर्त्य उनके आगे नतमस्तक था उसी बीच एक घटना होती है, राजा हरिश्चंद्र को जलोदर रोग हो जाता है, कहते है कि राजा हरिश्चंद्र के ५० रानियां थी लेकिन उनके कोई संतान नहीं थी वरुण देव के प्रार्थना के पश्चात् उन्हें पुत्र सुख प्राप्त हुआ लेकिन वरुण देव ने कहा कि उसी पुत्र का यज्ञ मुझे चाहिए यानी बलि चाहिए, पुत्र पैदा होने के पश्चात् राजा ने वरुण देव से कहा कि बालक रोहिताश को जब दांत निकल आये तब यज्ञ होगा देव ने तथास्तु कहा उसके पश्चात् राजा ने जब बालक जवान हो जाय तब यज्ञ होगा लेकिन रोहिताश को जब पता चला कि उसका बलि होने वाला है तो वह डरकर जंगल में चला गया जब उसे पता चला कि उसके पिता को जलोधर रोग हो गया है वे जल्द ही मर जायेगे उसे बड़ी ग्लानि हुई और अपने पिता राजा हरिश्चंद्र से मिलने के लिए गाव जाने वाला ही था कि नारद ऋषि से उसकी भेट होने पर उसे पिता से मिलने से रोका कहा तुम्हारा भ्रमण ही ठीक है वह अपने गाव नहीं गया उसे पता चला कि वरुण देव को यदि उसके बदले कोई और बलि मिल जाय तो भी चलेगा यदि वह ब्राह्मण हो तो अति उत्तम.।

और सुनःशेप

राजकुमार रोहिताश को जंगल में एक 'अजिगर्त अंगिरा' नाम के ब्राह्मण से भेट हुई सौ गाय लेकर उसने अपने मझले पुत्र शुनःशेप को बेच दिया उसे राजदरवार में लाया गया अब एक दूसरी समस्या आ गयी कि कौन पुरोहित यजमान होगा आर्यावर्त में हाहाकार मच गया अभी तक केवल असुरो के देव ही इस प्रकार की बलि लेते थे आज आर्यों के देवों को क्या हो गया ? इस कसौटी पर विश्वामित्र को खरा उतरना था कोई भी यह यज्ञ करने को तैयार नहीं ऋषि विश्वामित्र तैयार पुरे आर्यावर्त में उनकी भद्द पीटने लगी क्या कर रहे हैं ऋषि ? वे आर्यावर्त के सबसे ताकतवर राजा दियोदास के राज पुरोहित थे उनका पुत्र सुदास जो विश्वामित्र से गुरुकुल से ही बिरोध रखता था वह उनके स्थान पर वशिष्ठ को पुरोहित बनाना चाहता था ऋषि विश्वामित्र और ऋषि जमदग्नि दोनों यज्ञ के हेतु रवाना हो गए दोनों ही एक-दूसरे को बचपन से केवल जानते ही नहीं था बल्कि एक प्राण दो शरीर थे उधर जमदग्नि पुत्र राम की भी मित्रता शुनःशेप से हो गयी थी वह अत्यंत मेधावी था राम भी शुनःशेप को बचाना चाहता था विश्वामित्र को यह पता था की यदि वे यज्ञ करने नहीं गए तो यह अनर्थ होगा उस निरपराध बालक का बध होगा और देव भी कलंकित होगे उधर राजा दिनो- दिन दुखी हो रहे थे यज्ञ वेदी पर उपस्थित विश्वामित्र के सामने समस्या कौन शुनःशेप को बाधेगा फिर दुराचारी पिता अजिगर्त १०० धेनुए लेकर अपने पुत्र को बांध दिया, पुनः १०० धेनुएँ और लेकर अपने ही पुत्र का बध करने को तैयार हो तलवार ले खड़ा हो गया, विश्वामित्र बड़े ही असहज हो रहे थे दूसरी तरफ शुनःशेप वरुणदेव से मिलने के लिए ब्याकुल हो रहा था विश्वामित्र और जमदग्नि को देख धन्य हो रहा था, शुनःशेप की विशेषता तो देखिये वह मौत के मुख में है परन्तु उसे वरुणदेव से मिलने की छटपटाहट तीब्र हो रही है उसे अपनी मौत नहीं देव दिखायी दे रहे हैं ।

सुनःशेप विश्वामित्र एकात्म हो गए

विश्वामित्र मन ही मन शुनःशेप के भाव को पढ़ने लगे दोनों का भाव एकात्म हो गया ऐसे लगरहा था की विश्वामित्र का उसका कोई पुराना सम्बन्ध हो वे उसे वेद मन्त्रों का दर्शन कराने की ठान लिया और उस शुनःशेप को हृदयांगमय कर गुरु शिष्य एकात्म हो गए उसने मंत्र दर्शन शुरू कर दिए, सूक्त और ऋचाएं गुंजायमान होने लगीं प्रत्येक ऋचा से वरुणदेव प्रसंद हो एक-एक बंधन खोलने लगे ज्यों-ज्यों एकात्म भाव से वह ऋचाओं को बोलता मंत्र दर्शन करता बंधन अपने- आप खुलते जाते औए राजा हरिश्चंद्र का जलोधर रोग ठीक होता जाता उसके एक-एक ऋचा के पथ करने के साथ-साथ उसके बंधन खुलते गए और हरिश्चंद्र का पेट कम होता गया, अंतिम मंत्र पढ़ते-पढ़ते उसके सभी बंधन खुल गए और हरिश्चंद्र निरोग हो गए. वह शुनःशेप मंत्र दर्शन करते वेहोश होकर गिर पड़ा, होस आने पर शुनःशेप विश्वामित्र कि गोद में आकर बैठ गए, तब अजिर्गत ने विश्वामित्र से कहा हे ऋषि मेरे पुत्र को पुनः हमें दे दीजिये, विश्वामित्र ने कहा नहीं, देवोँ ने इसे मुझे दिया है, कुछ शास्त्रों में शुनःशेप को विश्वामित्र की असुर पत्नी उग्रा का पुत्र माना गया हैं, ऋषि विश्वामित्र की जय- जयकार होने लगी उन्हें अपना अध्यात्मिक उत्तराधिकारी मिला गया, उन्होंने केवल शुनःशेप को ही नहीं बचाया केवल राजा हरिश्चंद्र को ही नहीं निरोग किया (यानी वरुणदेव के शाप से मुक्ति दिलाया) बल्कि देवों को कलंकित होने से भी बचालिया, जिनके मन में था कि ऋषि कि खिल्ली होगी उन्हें निराश होना पड़ा, वे सुर-असुर दोनों में प्रतिष्ठित थे सभी को साथ लेकर चलने की क्षमता रखते थे वे भारतवर्ष के सूर्य थे वे दूरदर्शी, राष्ट्रवाद-तत्वज्ञान के प्रेरकपुंज ऋषि थे।
               

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2 टिप्पणियाँ

  1. विश्वामित्र असामान्य ऋषि थे जिन्होंने नयी श्रिष्टि का निर्माण किया पुरे आर्यावर्त को एक किया सभी को सामान दृष्टि से देखते ही नहीं समरसता का भाव पैदा किया दस्यु राज पुत्री से विबाह कर ब्यवहार में उतारा.

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