वेदांत की माता है "सदानीरा ( गडकी)".......

सरस्वती के समान ही सदानीरा का महत्व है

 भारतवर्ष जहाँ पर्वत पहाड़ों प्रकृति का महत्व है वहीँ नदियों के महत्व को काम नहीं किया जा सकता वे केवल हमें पानी यानी जीवन ही नहीं बल्कि हमारी संस्कृतियों का निर्माण भी इन्हीं नदियों के किनारे हुआ जहाँ गंगाजी पवित्र मानी जाती हैं वहीँ नर्मदा जी जेष्ठ हैं और पुरे दक्षिण की जीवन धारा भी हैं, इस नदी का नाम कई बार वेदों में आया है वहीँ बहुत सारे ऋषियों की तपस्थली होने का नर्मदा जी को गौरव प्राप्त है, यदि यह कहा जाय की भारतीय संस्कृति का विकाश भारतीय नदियों के किनारे हुआ तो यह अतिसयोक्ति नहीं होगा, इसी कारण भारत में नदियां पूज्य हैं किसी न किसी बहाने नदी तट पर स्नान मेला, कल्पवास इत्यादि मुक्ति मार्ग तलासा जाता है, भारतीय संस्कृति और मानव विकाश में जिनकी मुख्य भूमिका है उसे हम ''कुम्भ'' कहते हैं, भारत में ''कुम्भ'' यानी नित्य नूतन समाज का निर्माण जिसमे कोई रूढ़ि नहीं इन्हीं विकाश के क्रम में, धर्म रक्षा व समाज एकता क्रम में शैव, वैष्णव, शाक्त, गोरक्षपरंपरा, तथा सैकणों संप्रदाय जिनकी अपनी-अपनी विचार धारा है जिसे ऋग्वेद में कहा गया की "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ने " प्रत्येक मस्तिष्क में अलग-अलग विचार हो सकते है लेकिन वे सभी वेदोक्ति हैं और वे सभी मोक्ष का मार्ग ही है यह विश्व की अद्भुत परंपरा है दक्षिण के नासिक में गोदावरी तट, उज्जैन में छिप्रा के तट पर, प्रयाग में गंगा और यमुना जी के संगम पर तथा हरिद्वार में गंगा जी के तट पर कुम्भ लगता है, कुम्भ की परंपरा जहाँ करोणों हिन्दू आते हैं वहीँ सभी मत- पंथ, जाती- बिरादरी से ऊपर उठकर बिना किसी भेद भाव के सभी मुक्ति व समाज कल्याण की कामना करते हैं वास्तव में यह राष्ट्र निर्माण की एक प्रक्रिया भी है तथा यह भारतीय राष्ट्र का स्वरुप भी है जो मत, पंथ, संप्रदाय इस कुम्भ में शामिल नहीं होते उनका भारतीय राष्ट्र उनके इंतजार कर रहा है।

वेद माता व हिन्दू संकृति की जननी सरस्वती

मैं चर्चा कर रहा था अपने जीवन दायिनी नदियों की जो हमें केवल जीवन ही नहीं बल्कि हमारी संस्कृति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है, हम सभी को पता है कि वेद अपौरुषेय है जिसे सर्व प्रथम ब्रम्हा जी के कंठ में ईश्वर ने प्रकट किया ब्रम्हाजी ने आदित्य, अंगिरा, वायु और अग्नि जैसे ऋषियों को सरस्वती नदी के किनारे यह वेदों का ज्ञान दिया, इन ऋषियों ने विश्वामित्र, अगस्त, लोपामुद्रा, वशिष्ठ, भार्गव, गर्ग व जमदग्नि जैसे ऋषियों को दिया यह श्रेय सरस्वती नदी को ही प्राप्त है जिसके किनारे- किनारे वैदिक गुरुकुल खोलकर वेदों की शिक्षा मानव मात्र को दिया इसी नदी के किनारे ही वास्तव मानव संस्कृति का विकाश हुआ उसी समय आदि राजा पृथु ने गो रूपी पृथ्बी की रक्षा की, तथा गांव, नगरों की रचना की, उन्होंने ही कृषि करना सिखाया इसी कारन उन्हें भगवान विष्णु का चौबीसवाँ अवतार माना जाता है यदि यह कहा जाय की सम्पूर्ण भारत ही नहीं विश्व में मानवता का विकाश इस सरस्वती नदी के किनारे रहने वाले ऋषि संत महापुरुषों ने किया तो यह सत्य ही है आज भी सारस्वत ब्राह्मण जिन्हे तीर्थ पुरोहित, जागा, भाट ऐसी सात जातियां है जो सरस्वती नदी के किनारे रहते थे भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ वे भारत के सभी तीर्थों, में पाए जाते हैं इस कारन सरस्वती नदी को वेदों की माता का होने का गौरव प्राप्त है!

भक्ति काल के संतों की अलख

गंगाजी और गंडक के संगम पर हरिहर नाथ मंदिर है जिसे शैव व वैष्णव दोनों का मिलन स्थल भी कहा जाता है जो भारत वर्ष में सात पवित्र क्षेत्र माने जाते हैं उसमे से हरिहर क्षेत्र एक है, वैष्णव जगत में इसकी बड़ी मान्यता है इसी गण्डकी (नारायणी ) में सालिग्राम भगवान पाए जाते हैं आदि जगतगुरु रामानुजाचार्य से लेकर रामानन्द स्वामी, चैतन्य महाप्रभु, शंकरदेव, गुजरात के स्वामी सहजानंद (स्वामीनारायण परंपरा) सहित हज़ारों संतों ने इसी नदी के किनारे-किनारे मुक्तिनाथ तक की यात्रा की आज भी हज़ारों वैष्णव संत इसी नदी के किनारे मुक्तिनाथ जाते हैं, हमारी मुक्तिनाथ यात्रा चैत्र एकादशी को निकलती है जो इसी नदी के किनारे-किनारे मुक्तिनाथ तक जाती है मैं सोच रहा था की इसकी महिमा केवल ये "सालिग्राम भगवान" को जन्म देने वाली माता है ऐसा नहीं कुछ और भी है! हम सभी को ज्ञात है की यही भूमि है जहाँ क्षीर सागर था जहाँ भगवन विष्णु निवास किया करते थे उसका प्रणाम भी है यहीं मंदार पर्वत' है यहीं 'नाग वासुकी' भी हैं वास्तव में हिमालय सहित यह भाग क्षीर सागर था यहीं गज-ग्राह का युद्ध शुरू हुआ था भगवान यहीं प्रकट हुए इसी कारन इसे हरिपुर भी कहते हैं, लेकिन इस 'ममता मई' नदी की महिमा और भी है वास्तविकता यह है कि इसी नदी के किनारे मिथिला राज्य शुरू होता है सरस्वती नदी के वासी ऋषि याज्ञवल्क्य आर्य संस्कृति (यज्ञ) के प्रचार हेतु सदानीरा (गंडक) तक की यात्रा की और यहीं के होकर रह गए वेदांत यानी वेदों का सार, वास्तविकता यह है की यहीं पर उपनिषदों की रचना हुई यहीं राजा जनक की राजधानी थी यहीं जनक के पुरोहितों से यज्ञबल्क्य का संवाद हुआ यही वह भूमि है जहाँ जनक ने अष्टावक्र का अहंकार को नष्ट किया यानी ज्ञान दिया, गार्गी के प्रश्नों और ऋषि के उत्तरों ने उपनिषदों का निर्माण किया उपनिषद कर्मकांड नहीं स्वीकारता बल्कि ज्ञान कर्म को स्वीकार करता है जिसका निर्माण वैदिक ऋषि गार्गी, कात्यायनी, अष्टावक्र और ऋषि याज्ञवल्क्य जनक के संवादों से हुआ, यदि यह कहा जाय कि वेदों के ज्ञान मार्ग का निर्माण नारायणी नदी के किनारे हुआ तो इसमें कोई अतिसयोक्ति नहीं है केवल वेदांत यानी उपनिषद ही नहीं तो हिन्दू संस्कृति (यज्ञ संस्कृति) के विकाश में इसका महत्वपूर्ण योगदान है, इसी नदी के किनारे राजा जनक (विदेह) ने मनुष्य जाती को हल चलाना, कृषि करना सिखाया जंगल से गांव की तरफ, तथा नगरों की ओर लाने का काम किया इसी नदी के किनारे इसी राजा ने हमारी संस्कृति का निर्माण किया, आदि राजा पृथु के पश्चात राजा जनक ही ऐसे राजा थे जिन्होंने गांव का निर्माण कराया जहाँ चाचा-चाची, काका-काकी, भाई- बहन, फुआ- फूफा, बाबा- आजी, मौसी- मौसा ऐसे कितने रिस्तों गांव की सभी लड़कियां बहन सभी माताएं चाची व काकी पूरा गांव एक परिवार के सामान था का निर्माण किया इस महान संस्कृति के निर्माण में 'सदानीरा' की महत्व पूर्ण भूमिका है इस कारन इसे वेदांत के माता का भी अधिकार प्राप्त है ।

और वेदान्त 


एक तरफ जहाँ सरस्वती नदी को लाखों करोणों वर्ष पहले ब्रम्हा जी के मानस पुत्रों तथा वैदिक मंत्र द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र, वशिष्ठ, ऋषि अगस्त, लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, कवष ऐलूष, आचार्य भृगु, ऋषि जमदग्नि तथा परसुराम, सुनःशेप जैसे ऋषियों का पालन पोषण करने, वैदिक गुरुकुल इसी नदी के किनारे स्थापित कर वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार करने का श्रेय 'माता सरस्वती' को जाता है तो वहीँ हज़ारों वर्ष पहले सदानीरा के किनारे जहाँ वेदांत अथवा उपनिषद के द्रष्टाओं जिन्होंने वेदों का मंथन कर उपनिषदों की रचना की ऐसे ऋषि याज्ञवल्क्य, अष्ट्रावक्र, गार्गी, राजर्षि जनक, कात्यायनी, गौतम, अलारकलाम जैसे ऋषियों का पोषण विकसित करने का श्रेय 'माता सदानीरा' को है, इस कारन इसे वेदांत की माता भी कहा जाता है, जहां गंगाजी मोक्ष दायिनी हैं वहीँ सरस्वती और सदानीरा संस्कृति, सभ्यता तथा आत्मा से परमात्मा से साक्षात्कार दायिनी है ।।        

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