सृष्टि का प्रथम विधान (मनुस्मृति)--!

क्या महर्षि मनु जातिवाद के पोषक थे--?

''मनुस्मृति'' जो 'सृष्टि' में नीति और धर्म (कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उसको घोर जाति प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि 'मनुस्मृति' ''वैदिक संस्कृति'' की सबसे अधिक विवादित पुस्तक बना दी गई है, पूरा का पूरा दलित आन्दोलन 'मनुवाद' के विरोध पर ही खड़ा हुआ है, ध्यान देने वाली बात यह है कि 'महर्षि मनु' की निंदा करने वाले इन लोगों ने 'मनुस्मृति' को कभी गंभीरता से पढ़ा भी नहीं है, ''स्वामी दयानंद'' द्वारा आज से 140 वर्ष पूर्व यह सिद्ध कर दिया था की मनुस्मृति में मिलावट की गई है, इस कारण से ऐसा प्रतीत होता है कि 'मनुस्मृति' वर्ण व्यवस्था की नहीं अपितु जातिवाद का समर्थन करती है, ''महर्षि मनु'' ने "सृष्टि का प्रथम संविधान" 'मनु -स्मृति' के रूप में बनाया था, कालांतर में इसमें जो मिलावट हुई उसी के कारण इसका मूल सन्देश जो 'वर्ण व्यवस्था' का समर्थन करना था के स्थान पर जातिवाद प्रचारित हो गया।

जन्मना जायते शूद्र:

जन्म से सभी शूद्र हैं ऐसा मनुस्मृति में भगवान मनु ने वर्णन किया है यह इतना प्रभावी था कि शूद्र कुल में पैदा हुआ ''कवष एलूष'' और ''दीर्घतमा'' 'वैदिक मंत्रद्रष्टा' होकर 'ब्राह्मण' हो जाते हैं, 'मनुस्मृति' के प्रभाव को हम और देख सकते हैं ''डॉ भीमराव आंबेडकर'' अपनी पुस्तक ''शूद्रो कि खोज'' में लिखते हैं धरती पर जो प्रथम ''शूद्र'' हुआ वह 'सूर्यवंशी' ''क्षत्रिय राजा सुदास'' था, वे आगे लिखते है कि उस समय कोई छुवा-छूत नहीं था केवल 'वर्ण ब्यवस्था' था, मनुस्मृति पर दलित चिन्तक यह आक्षेप लगाता है कि ''मनु'' ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया और शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति विशेषरूप से ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान का विधान किया।
मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था, अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कही पर भी समर्थन नहीं करती' महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना करके वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है (देखें – ऋग्वेद- १०. १०. ११-१२, यजुर्वेद- ३१.१०-११, अथर्ववेद- १९. ६.५-६) |

वर्ण व्यवस्था 

यह वर्ण व्यवस्था है! वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द 'वरण' भी यही अर्थ रखता है, मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, यदि जाति का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौन सी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौन सी क्षत्रियों से, कौन सी वैश्यों और शूद्रों से सम्बंधित हैं, इसका मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है, ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे, जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे ? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे ?

वर्णों में परिवर्तन की ब्यवस्था 

मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए,अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए ।
मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं । इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है, 
मनुस्मृति १०.६५: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है । इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं, 
मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है ।
मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ट कर्म नहीं करता, तो शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है ।

उदाहरण

मनुस्मृति-२.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए ।
मनुस्मृति-२.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।
मनुस्मृति-४.२४५ : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है, इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है, अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है, इसका, किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है ।
मनुस्मृति-२.१६८: जो ब्राह्मण,क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है, और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है, अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं ।
मनुस्मृति-२ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है ।

शूद्र भी पढ़ सकते हैं

शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति-२.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।
मनुस्मृति-२.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे ।

ब्राह्मणत्व का आधार कर्म

मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती। मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए, कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है, ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों।
मनुस्मृति-२.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है ।
मनुस्मृति-२.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है ।

शिक्षा ही वास्तविक जन्म

मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है, जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है, ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है, शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं, यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।
मनुस्मृति-२.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है, यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है, ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है, सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता, इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा ।
मनुस्मृति-२.१४६ : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं, पिता द्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।
मनुस्मृति-२.१४७ : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है, वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है, अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है, अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा ।
मनुस्मृति- १०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं, विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है, इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है, इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता, उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा, अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं ।

तथाकथित सामान्च ’ कुल में जन्में व्यक्ति का तिरस्कार नहीं!

किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं ।
मनुस्मृति-४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और या अधिकार से वंचित न करें, क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।

प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण

ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं, यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था, जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना आज भी कर रहें हैं।

वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण

(अ) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे, परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की, ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है ।
(ब) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे, जुआरी और हीन चरित्र भी थे, परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये, ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया । (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(स) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए ।
(द) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए ?
(क) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए , पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया । (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(ख) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया । (विष्णु पुराण ४.२.२)
(ग) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए । (विष्णु पुराण ४.२.२)
(घ) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए ।
(च) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने ।
(छ) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए । (विष्णु पुराण ४.३.५)
(ज) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए, इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं ।
(झ) 'मातंग ऋषि' चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने ।
(त) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना ।
(थ ) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ ।
(द ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे ।
(ध) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया, विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया ।
(न) विदुर दासी पुत्र थे, तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया ।
(प) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) ।
(फ) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं, वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं, इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश ।
(ब ) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर।
(भ ) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं, इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं, लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए ।

शूद्रों के प्रति आदर

मनु परम मानवीय थे! वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते, जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं, उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं। 
मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थिति वश भटक सकता है, अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं ।

कुछ और उदात्त उदाहरण देखें 

मनुस्मृति-३.११२: शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए ।
मनुस्मृति-३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें ।
मनुस्मृति-२.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए ।

मनुस्मृति वेदों पर आधारित 

वेदों को छोड़कर अन्य कोई ग्रंथ मिलावटों से बचा नहीं है । वेद प्रक्षेपों से कैसे अछूते रहे, जानने के लिए ‘ वेदों में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता ? ‘ पढ़ें वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सभी विद्याएँ उसी से निकली हैं, उन्हीं को आधार मानकर ऋषियों ने अन्य ग्रंथ बनाए, वेदों का स्थान और प्रमाणिकता सबसे ऊपर है और उनके रक्षण से ही आगे भी जगत में नए सृजन संभव हैं, अत: अन्य सभी ग्रंथ स्मृति, ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, दर्शन इत्यादि को परखने की कसौटी वेद ही हैं और जहां तक वे वेदानुकूल हैं वहीं तक मान्य हैं , वेद ही धर्म का मूल ही----!
मनु भी वेदों को ही धर्म का मूल मानते हैं (२.८-२.११)
२.८: विद्वान मनुष्य को अपने ज्ञान चक्षुओं से सब कुछ वेदों के अनुसार परखते हुए, कर्तव्य का पालन करना चाहिए ।
इस से साफ़ है कि मनु के विचार, उनकी मूल रचना वेदानुकूल ही है और मनुस्मृति में वेद विरुद्ध मिलने वाली मान्यताएं प्रक्षिप्त मानी जानी चाहियें ।

शूद्रों को भी वेद पढने और वैदिक संस्कार करने का अधिकार 

वेद में ईश्वर कहता है कि मेरा ज्ञान सबके लिए समान है चाहे पुरुष हो या नारी, ब्राह्मण हो या शूद्र सबको वेद पढने और यज्ञ करने का अधिकार है, देखें – यजुर्वेद २६.१, ऋग्वेद १०.५३.४, निरुक्त ३.८ इत्यादि और मनुस्मृति भी यही कहती है, मनु ने शूद्रों को उपनयन ( विद्या आरंभ ) से वंचित नहीं रखा है; इसके विपरीत उपनयन से इंकार करने वाला ही शूद्र कहलाता है, वेदों के ही अनुसार मनु शासकों के लिए विधान करते हैं कि वे शूद्रों का वेतन और भत्ता किसी भी परिस्थिति में न काटें ( ७.१२-१२६, ८.२१६) ।

संक्षेप में 

मनु को जन्मना जाति – व्यवस्था का जनक मानना निराधार है, इसके विपरीत मनु मनुष्य की पहचान में जन्म या कुल की सख्त उपेक्षा करते हैं, मनु की वर्ण व्यवस्था पूरी तरह गुणवत्ता पर टिकी हुई है, प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, मनु ने ऐसा प्रयत्न किया है कि प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान जो सबसे सशक्त वर्ण है – जैसे किसी में ब्राह्मणत्व ज्यादा है, किसी में क्षत्रियत्व, इत्यादि का विकास हो और यह विकास पूरे समाज के विकास में सहायक हो ।

'महर्षि मनु' पर जातिवाद का समर्थक होने का आक्षेप लगाना मूर्खता पूर्ण हैं क्यूंकि दोष मिलावट करने वालो का हैं न की 'मनु महर्षि' का।

(इस लेख को लिखने में अग्निवीर वेबसाइट का सहयोग लिया गया है)