हल्दी घाटी का विजेता

गुलामी की योजना 

"राणा प्रताप के रण की जय, राणा प्रताप के प्रण की जय।
मेवाड़ देश कण कण की जय, बोलो भारत माता की जय।।"       (हल्दी घाटी)
मध्य काल में देश आज़ादी के संघर्ष में केवल राजा महाराजा ही नहीं तो साधू सन्यासियों ने भी अपनी भूमिका निभाई भारतीय जनमानस ने कभी गुलामी की अनुभूति नहीं की। लेकिन दुर्भाग्य उस समय हुआ जब भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं। स्वतंत्र भारत में षड्यंत्र पूर्वक नेहरू प्रधानमंत्री बना जो राष्ट्रवादी नहीं था यदि यह कहा जाय कि पूरा खानदान ही अराष्ट्रीय था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। 'जवाहरलाल नेहरू' प्रधानमंत्री होते ही सारे के सारे पाठ्यक्रम में हम गुलाम थे। इसी को पढ़ाया जाने लगा और आजादी का श्रेय गांधी, नेहरू व कांग्रेस के अलावा किसी क्रांतिकारी को कोई श्रेय नहीं। जब 'इंदिरागांधी' प्रधानमंत्री हुई तो उसने वामपंथियों और मुस्लिमों को ही शिक्षा मंत्रालय दे दिया और सारे शिक्षा व वैचारिक संस्थानों में भारत बिरोधी लोगों को स्थापित किया। JNU जैसे वामपंथी नर्सरी की स्थापना हुई बड़ी ही योजना पूर्वक आठवीं से दसवीं शताब्दी को पाठ्यक्रम में सामिल ही नहीं किया बल्कि ''महाराणा प्रताप'' युद्ध जीते ही नहीं ''शिवजी महाराज'' को पहाड़ी चूहा, असम के आहोम साम्राज्य विजेता को इतिहास से गायब कर दिया। और अकबर को महान पढ़ाया जाता रहा इस कारण देश का वास्तविक इतिहास भारतीयों के सामने आ ही नहीं सका।

राजा को पिद्दीयों से शेर को मात देने की योजना

क्या 'मानसिंह' राजा था ? यह प्रश्न सबके सामने खड़ा है। वास्तविकता यह है कि भगवान सिंह 'मेवाङ नरेश' के सामंत थे जब 'अकबर' आगरा की गद्दी पर बैठा तो 'भागवंतदास' ने उसकी आधीनता स्वीकार कर लिया तथा अपनी बहन को अकबर को सौंप दिया। ध्यान देना होगा आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर इत्यादि रियासतें 'चित्तौड़' के अधीन थीं। ये सभी भारत द्रोह- हिन्दूद्रोह करके हिंदू कुल भूषण को छोड़कर तुर्क के साथ जा मिले, ''राणाप्रताप'' को यह स्वीकार नहीं था। वे सम्पूर्ण भारतवर्ष व हिन्दू समाज की आशा के केन्द्र थे सारा का सारा हिन्दू समाज 'महाराणा' को अपना राजा मानता था। इससे विदेशी तुर्कों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचती थी बड़ी ही चालबाजी से अपने स्वामी (राणाप्रताप) से सामंतो को भिड़ाने में 'अकबर' कामयाब हो गया।

स्वतंत्रता की वेदी पर एक और रणभूमि

भारत तो 'महाभारत' के युद्ध तथा ''चंद्रगुप्त मौर्य'' द्वारा 'सिकंदर' को पराजित होते देखा है आनासागर (अजमेर), तराईन, पानीपत, अयोध्या, बहराइच (राजा सुहेलदेव द्वारा गाजी का पराजय), "खानवा" जैसे प्रसिद्ध युद्ध भूमि देखा है, जहाँ देश रक्षार्थ भारत माता के लाखों पुत्रों ने प्राणोत्सर्ग करके शत्रुओं को भारत भूमि से दूर रखने का प्रयास किया। इन सब युद्धों में बहुत सफलता भले ही न मिली हो परंतु भारतीय वीरों की अमर गाथाएं विश्व पटल पर कोई भुला नहीं सकता। अब भारत की रणभूमियों में हल्दीघाटी के रूप में एक और कड़ी जुड़ने का समय आ गया था। हल्दीघाटी और कुम्भलगढ़ की घाटियों में 'बलीचा गांव' से लेकर 'खमनौर की पहाड़ियों' तक पूरे तीन मील फैली है।

रक्त की देवी खप्पर लिए तैयार

'मानसिंह' को ज्ञात हुआ कि ''राणा'' कुम्भलगढ़ से निकल कर 'गोगुन्दा' होते हुए 'बनास नदी' के किनारे पहुंच गए हैं। दोनों सेनाएं "हल्दीघाटी" के दोनों ओर सज धज कर तैयार हो गई मृत्यु की देवी वीरों का रक्त पीने के लिए खप्पर भरने को तैयार हो गई। 'महाराणा प्रताप' ने 'हल्दीघाटी' मैदान में उतारने के पहले "मायरा की गुफ़ा" में राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट के समय मेवाङ का कोष एवं शस्त्र शत्रु की दृष्टि में न आ सकें इस गुफा की रक्षा का भार 'कुँवर अमरसिंह' को दिया गया उनके सहयोगी भामाशाह पुत्र 'जीवशाह' झालामान का पुत्र 'शत्रुशाल' लगाए गए यद्यपि 'आम्बेर' के कछवाहे, जोधपुर, बीकानेर मुगलों की ओर से थे लेकिन शेष बचे मित्र सामंत मरने मारने के लिए तैयार थे 'ग्वालियर' का "राजा रामसिंह तंवर" अपने पुत्रों सहित ''महाराणा प्रताप' की ओर से लड़ने के लिए आया।

और अब लाशों पर लाशें

'हल्दीघाटी' के युद्ध में सेना की संख्या बल पर बहुत मतभेद है कुछ लोग यह कहते हैं कि 'मानसिंह' के साथ 80000 'मुगल सेना' और 'महाराणा प्रताप' के साथ 20000 सेना थी। अलबदायूँनी जो मानसिंह के साथ युद्ध में था वह लिखता है कि मुगलों की सेना 5000 तथा राजपूतों की सेना में 3000 सवार थे। 18 जून 1576 को हल्दीघाटी और खमनोर के बीच दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध शुरू हो गया, 'मानसिंह' मुगल सेना को सजाये खड़ा था 'महाराणा' भी हमले का इंतजार कर रहे थे। अभी 'मानसिंह' के सैनिक भौचक्के होकर स्थिति को समझ ही रहे थे कि अचानक 'राणा प्रताप' के योद्धा 'मानसिंह' पर टूट पड़े, युद्ध आरंभ होते ही 'अल्बदायूँनी' भयाक्रांत होकर खुदा से प्रार्थना करना शुरू कर दिया। इस प्रकार पहली ही मुठभेड़ में 'महाराणा' ने 'मुगल सेना' पर अपनी धाक जमा ली। ''कछवाहे'' और ''सिसौदिया'' आमने-सामने युद्ध करना प्रारंभ कर दिया मुसलमानों ने बिना विचार किये सभी राजपूतों पर बाणों की वर्षा शुरु कर दी, मैदान मनुष्यों, हाथियों घोड़ों के शवो कटे अंगों से भर गया रक्त की नदी बह निकली रक्त के कीचड़ से पैदल सेना फिसलने लगी।

झाला मानसिंह का बलिदान 

इस प्रकार "प्रताप" का घोड़ा 'मानसिंह' के हाथी के सामने पहुंच गया अब महाराणा का शिकार सामने था 'महाराणा' अपने "नीले घोड़े" पर सवार थे जो इतिहास में चेतक के नाम से प्रसिद्ध है। महाराणा ने चक्कर लगाते 'मानसिंह' को कहा तुम जहाँ तक हो सके बहादुरी दिखाओ प्रताप आ गया है कहकर भाले से वार किया 'मानसिंह' हौदे में झुक गया लेकिन उसका कवच फट गया 'राणाप्रताप' ने समझा कि उसका काम तमाम हो गया। 'महाराणा प्रताप' ने 'मानसिंह' को मरा समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया। अब "महाराणा" घिर चुके थे संकट का आभाष पाते ही 'झालामान सिंह' ने अनूठी स्वामिभक्ति का परिचय दिया अपने प्राण देकर 'राणाप्रताप' को बचा लिया ''झालामान'' ने महाराणा का 'राजकीय छत्र' छीन लिया और अपने सिर पर लगा लिया शत्रुओं को ललकारा जोर शोर से चिल्लाने लगा मैं 'महाराणा' आ गया सभी "झालामान'' के पीछे भागे, प्रताप पर दबाव बढ़ता जा रहा था। लेकिन "राणा" युद्ध क्षेत्र से जाना नहीं चाहते थे 'प्रताप' के स्वामिभक्त सामंतो और सैनिकों ने चेतक की रास अपने हाथ में लेली उसका मुख मोड़ दिया घाटी के पीछे, 'भामाशाह' उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गए। मुगल सैनिकों ने "झालामान" को घेर कर मार डाला, 'राजा रामशाह' अपने तीनों पुत्रों 300 तोमरों सहित काम आए खमनौर और 'भागल' के बीच आज भी 'तंवरो' की 'छतरियाँ' बनी हुई है आज भी जिसे 'रक्त तलैया' कहते हैं।

हल्दीघाटी युद्ध का विस्तार

''हल्दीघाटी'' का युद्ध तो उसी दिन शुरू हो गया जिस दिन ''मानसिंह, 'राणाप्रताप' से संधि वार्ता के लिए गया था और 'राणा प्रताप' ने उसके साथ भोजन नहीं किया था भोजन न करने के कई कारण थे एक तो वह "राजा" नहीं एक 'मुगल सेनापति' अथवा दूत था दूसरे उसने अपने परिवार की बेटी मलेक्ष को दी थी। ''राणा प्रताप'' यह शंदेश देना चाहते थे कि मुसलमान अछूत है उससे रोटी बेटी का संबंध नहीं किया जा सकता। युद्ध तो 'हल्दीघाटी' का शुरू होकर वर्षों तक चलता रहा। 'बदायूनी' लिखता है कि 'महाराणा' के 'हल्दीघाटी' छोड़ने के पश्चात मुगल सेना भयाक्रांत थी मुगल सेना वही खड़ी की खड़ी रह गई उसे डर था कि कहीं राजपूतों की सेना गुरिल्ला युद्ध न शुरू कर दे। पहाड़ियों के पीछे कहीं घात लगाए खड़ा होगा देर बाद वे अपनी शिविर में गए, राणा ने अपने सैनिकों की सहायता से समस्त पहाड़ी नाके रोक दिया। उनकी योजना अरावली की पहाड़ियों के बीच मुगल सेना को समाप्त कर देने की थी, मुगल सेना इतना भयाक्रांत थी कि सैनिक छावनी के चारो तरफ चौड़ी खाई खुदाई की कही रात्रि में राणा की सेना धावा बोलकर सब कुछ समाप्त न कर दे।

युद्ध का विस्तार

'अकबर' ने 'मुगल सेना' की एक टुकड़ी को 'गोगुन्दा' भेजा था 'मानसिंह' को विस्वास था कि ''राणा'' ने 'मुगल सेना' को बन्दी बना लिया है। वह झूठा अपने जीत का समाचार अकबर को भेजता रहा और अपने सुरक्षित निकलने के लिए रास्ता खोजता रहा । उधर गोगुन्दा में मुगल सेना की रसद को राजपूत सेना लूट लिया करते खाने को मजबूर मुगल सेना आम के पेड़ से आम तोड़कर खाने लगे बहुत से सैनिक बीमार होने लगे। 'मुगल सेना' 'गोगुन्दा' में कैदियों की भांति पड़ी थी जो भी सैनिक घोड़े पर खाद्य सामग्री लेने के लिए जाते राजपूत उन पर धावा बोल देते, इस बिपत्ति के कारण लड़ते भिड़ते 'मुगल सेना' अजमेर 'अकबर' के पास चली गई। मानसिंह और आसफ खां की पराजय के कारण अकबर ने इनकी ड्योढ़ी वंद कर दी। उधर महाराणा अनेक मुगल थानों को समाप्त कर अपने थाने नियतकर ''कुम्भलगढ़'' की ओर बढ़ने लगे, इसी बीच अकबर गोगुन्दा केंद्र बनाकर ''भगवंतदास'', मानसिंह तथा अन्य सरदारों को राणा प्रताप के पीछे लगा दिया लेकिन जहाँ जहाँ ये लोग गए महाराणा इन पर हमला करते रहे अन्त हार मानकर लौटना पड़ा। अकबर के बिना आज्ञा से लौटने के कारण इनकी दरबार में जाना रोक दिया, इधर लगातार राजपूतों ने मुगलों के स्थापित थानों को समाप्त करते अपने थाने स्थापित करते रहे यहाँ तक 'उदयपुर' और 'गोगुन्दा' पर महाराणा का पुनः कब्जा हो गया। एक बार 'मुगल सेना' पर 'राजपूत सेना' ने धावा बोलकर 'अब्दुल रहीम खानखाना' की औरतों को जो 'कुँवर अमरसिंह' के द्वारा पकड़ी गयी थी लेकीन 'महाराणा प्रताप' ने उनकी बहन बेटी के समान प्रतिष्ठा के साथ उसके पति के पास भेज दिया इस ब्यवहार से 'मिर्जा खां' राणाओं के प्रति सद्भाव रखने लगा। अकबर अपनी पराजय को पचा नहीं पा रहा था वह अपने जीवन काल में 'महाराणा प्रताप' को मृत देखना चाहता था इसलिए 15 अक्टूबर 1578 को पुनः भारी सैन्य बलों के साथ 'राजा भगवन्तदास', कुँवर मानसिंह, सैयद काशिम मिर्जा खा इत्यादि को मेवाङ पर चढ़ाई करने भेजा राजपूत अरावली की पहाड़ियों में 'मुगल सेना' पर आक्रमण करने लगे। एक रात 'मुगल सेना' पर छापा मार कर उनके चार हाथी ''कुम्भलगढ़'' में 'महाराणा' को भेट किया, थक हारकर 'अकबर' पंजाब की ओर चला गया, 'महाराणा' ने एक राजाज्ञा प्रसारित की, कि मैदानी भाग में कोई खेती न करें इसके कारण 'मुगल' भूखे मरने लगे।

सन 1576 से 1586 तक हल्दीघाटी- विजय ही विजय

''हल्दीघाटी'' से युद्ध शुरु होकर युद्ध स्वतंत्रता की ड्योढ़ी तक 1586 में पहुच गया अकबर ने जिन जिन सेनापतियों को भेजा वे सभी पराजित होकर लौट गए महाराणा का बाल तक बांका नहीं कर सके। ''महाराणा उदयसिंह'' अथवा ''महाराणा प्रताप'' के समय जो भी किले 'अकबर' ने कब्जा किया था वे सभी किले ई. सन 1586 तक 'चित्तौड़गढ़' छोड़कर सभी किले 'महाराणा प्रताप' ने जीत लिया और पूरा 'मेवाङ' अपने अधीन कर लिया। मुगलों का गर्व धूल में मिलाने के पश्चात 'महाराणा' ने 'कछवाहों' को दंडित करने का संकल्प लिया ''आम्बेर राज्य'' पर हमला कर 'कछवाहों' के धनाड्य नगर ''मालपुरा'' को लूट कर रहा नष्ट भ्रष्ट कर दिया वे ''महाराणा प्रताप'' के विरुद्ध कुछ न कर सके। हल्दीघाटी का युद्ध केवल एक दिन का नहीं था ये युद्ध पूरे दस वर्षो तक चला और 'महाराणा प्रताप' ने 'अकबर' को पराजित कर विजयी हुए ।
(संदर्भ सूची-- राणा रासौ, मानप्रकाश, हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप, नीले घोड़े का सवार, अरावली के मुक्त शिखर)