भारतीय सीमा रक्षक सिंधुपति राजा दाहिरसेन

 


वर्तमान में सिंध के राजा दाहिर,

पंजाब के महाराज रणजीत सिंह को लेकर भारत मे स्थान स्थान पर बड़ी खोज हो रही है, इस समय जब देश अपनी संस्कृति सभ्यता को लेकर जहाँ सतर्क हो रहा है तो वही अपने पराक्रमी पूर्वजो और महापुरुषों को अपने भविष्य की पीढ़ी को सौपना भी चाहता है। पाकिस्तान का एक वर्ग यह मानता है कि पाकिस्तान के बच्चों को उनके देश के वास्तविक इतिहास इस्लामी फूबया  के कारण से वंचित कर दिया गया है। और भारत में तो सेकुलर, बामपंथी इतिहासकारों ने हमारे मूल इतिहास का अपमान ही किया है, ऐसे में अब कुछ लोग अपने देश का प्राचीन और मध्ययुगीन इतिहास खंगालने लगे हैं। इस दरम्यान राजा दाहिर की आए दिन चर्चा होती रहती है। आओ जानते हैं कि वे कौन थे ?

महाराजा दाहिर का वंश  

दाहर (दाहिर) सन्‌ 679 में सिंध के राजा बने। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका शासन काल: 695-712 ई. सन् के बीच रहा। कहते हैं कि सिंधु देश पर राजपूत वंश के राजा 'राय साहसी' का राज्य था। ''राय साहसी'' का कोई उत्तराधिकारी नहीं था अत: उन्होंने अपने प्रधानमंत्री कश्मीरी ब्राह्मण ''चच'' को अपना राज्य सौंपा। राज दरबारियों एवं रानी सोहन्दी की इच्छा पर राजा ''चच'' ने रानी सोहन्दी से विवाह किया। राजा दाहिर ''चच'' के पुत्र थे। 'राजा चच' की मृत्यु के बाद उनका शासन उनके भाई 'चंदर' ने संभाला, जो कि उनके राजकाल में प्रधानमंत्री थे। राजा 'चंदर' ने 7 वर्ष तक सिंध पर राज्य किया। इसके बाद राज्य की बागडोर महाराजा दाहिर के हाथ में आ गई।

दृष्टिकोण अलग-अलग 

 राजा दाहिर के संबंध में सभी इतिहासकारों का दृष्टिकोण अलग अलग है। कई विद्वान मानते हैं कि चचनामा में जो उनके संबंध में लिखा है वह तथ्‍यों से परे हैं क्योंकि चचनामा सन् 1216 में अरब सैलानी अली कोफी ने लिखी थी और इसमें अरब जगत की प्रतिष्ठा का ध्यान रखा गया है। दूसरी ओर मुमताज पठान ने 'तारीख़-ए-सिंध' में राजा दाहिर के संबंध में लिखा है। जीएम सैय्यद की लिखी 'सिंध के सूरमा' नामक पुस्तक में भी इसका उल्लेख मिलता है। इसी तरह सिंधियाना इंसाइक्लोपीडिया भी है जिसमें राजा दाहिर का उल्लेख मिलता है। परंतु राजा दाहिर के संबंध में जो भारतीय इतिहास और सिंधियों द्वारा लिखा इतिहास है उसे पढ़ना भी जरूरी है। कहते हैं कि खलीफाओं के ईरान और फिर अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद वहां की हिन्दू, पारसी और बौद्ध जनता को बलात इस्लाम अपनाने पर मजबूर करने के बाद अरबों ने भारत के बलूच, सिंध, पंजाब की ओर रुख किया।

मुस्लिम का मूल मंत्र धोखा 

सिंध पर तब ब्राह्मण राजा दाहिर का शासन था। राजा दाहिर का शासन धार्मिक सहिष्णुता और उदार विचारों वाला था जिसके कारण विभिन्न धर्म के लोग शांति पूर्वक यहाँ रहते थे, जहां हिन्दुओं के मंदिर, पारसियों के अग्नि मंदिर, बौद्ध स्तूप और अरब से आकर बस गए मुसलमानों की भी मस्जिदें थीं। अरब मुसलमानों को समुद्र के किनारे पर बसने की अनुमति दी गई थी। जहां से अरबों से व्यापार चलता था, लेकिन इन अरबों ने राजा के साथ धोखा किया।कुछ इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद बिन कासिम एक नवयुवक अरब सेनापति था, लेकिन वास्तविकता यह है कि वह खलीफा का सेनापति था। उसे इराक के 'प्रांतपति' अल हज्जाज ने सिन्ध के शासक 'राजा दाहिर' को एक गलत फहमी के कारण दण्ड देने के लिए भेजा था। असल मामला "चचनामा" के अनुसार श्रीलंका के राजा ने बगदाद के गवर्नर हुज्जाज बिन यूसुफ के लिए कुछ तोहफे भेजे थे जो 'देवल' बंदरगाह के करीब लूट लिए गए। इन समुद्री जहाजों में औरतें भी मौजूद थीं। कुछ लोग फरार होकर हुज्जाज के पास पहुंच गए और उन्हें बताया दाहिर के क्षेत्र में लूट उनके आदमियों ने की। हुज्जाज बिन यूसुफ ने राजा दाहिर को पत्र लिखा और आदेश जारी किया कि औरतें और लूटे गए माल और सामान वापस किया जाए हालांकि राजा दाहिर ने इससे इनकार किया और कहा कि ये लूटमार उनके इलाके में नहीं हुई और ना ही हमने ये लूट की है। परंतु हुज्जाज नहीं माना। असल घटना कुछ इतिहासकार इस तरह बयां करते हैं कि सिंध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए खुला हुआ था। सिंध के व्यापारी उस काल में भी समुद्र मार्ग से व्यापार करने दूर देशों तक जाया करते थे और अरब, इराक, ईरान से आने वाले जहाज सिंध के देवल बंदर होते हुए अन्य देशों की तरफ जाते थे। जहाज में सवार अरब व्यापारियों के सुरक्षा कर्मियों ने ''देवल'' के शहर पर बिना कारण हमला कर दिया और शहर से कुछ बच्चों और औरतों को जहाज में कैद कर लिया। जब इसका समाचार सूबेदार को मिला तो उसने अपने रक्षकों सहित जहाज पर आक्रमण कर अपहृत औरतों ओर बच्चों को बंधनमुक्त कराया। अरबी जान बचाकर अपना जहाज लेकर भाग खड़े हुए, वास्तविकता यह है कि वे गजवाए हिन्द के लिए इस्लाम की स्थापना काल से ही प्रयास में हैं जो आज तक उन्हें (मोमिनो) को सफलता नहीं मिली।

खलीफा द्वारा सिंध पर हमला 

उन दिनों ईरान में इस्लामी धर्मगुरु खलीफा का शासन था। हुज्जाज या हजाज उनका मंत्री था। खलीफा के पूर्वजों ने सिंध फतह करने के मंसूबे बनाए थे, लेकिन अब तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली थी। अरब व्यपारी ने खलीफा के सामने उपस्थित होकर सिंध में हुई घटना को लूटपाट की घटना बताकर सहानुभूति प्राप्त करनी चाही। खलीफा स्वयं सिंध पर आक्रमण करने का बहाना ढूंढ रहा था। उसे ऐसे ही अवसर की तलाश थी। उसने अब्दुल्ला नामक व्यक्ति के नेतृत्व में अरबी सैनिकों का दल सिंध विजय करने के लिए रवाना किया। युद्ध में अरब सेनापति अब्दुल्ला को जान से हाथ धोना पड़ा। खलीफा अपनी हार से तिलमिला उठा।

फिर कासिम का हमला 

मोहम्मद बिन कासिम का हमला : इसके बाद दस हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिंध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया। कहते हैं कि 712 में अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की आयु में सिन्ध के अभियान का सफल नेतृत्व किया। इसने सिंध और आसपास बहुत खून-खराबा किया और पारसी व हिन्दुओं को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। सिन्ध के कुछ किलों को जीत लेने के बाद बिन कासिम ने इराक के प्रांतपति अपने चाचा हज्जाज को लिखा था-  'सिवस्तान और सीसाम के किले पहले ही जीत लिए गए हैं। गैर मुसलमानों का धर्मांतरण कर दिया गया है या फिर उनका वध कर दिया गया है। मूर्ति वाले मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं, बना दी गई हैं।- किताब 'चचनामा अलकुफी' (खण्ड 1 पृष्ठ 164), लेखक एलियट और डाउसन। देवल, नेऊन, सेहवान, सीसम, राओर, आलोर, मुल्तान आदि पर विजय प्राप्त कर कासिम ने यहां अरब शासन और इस्लाम की स्थापना की।

सिंधी शूरवीरों की वीरता 

कहते हैं कि सिंध के दीवान गुन्दुमल की बेटी ने सर कटवाना स्वीकर किया, पर मीर कासिम की पत्नी बनना नहीं। इसी तरह वहां के राजा दाहिर और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। सिंध देश के सभी राजाओं की कहानियां बहुत ही मार्मिक और दुखदायी हैं। आज सिंध देश पाकिस्तान का एक प्रांत बनकर रह गया है। राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के दरिंदों से लड़ते रहे। उन्होंने लगभग पंद्रह बार मुसलमानों को पराजित किया, उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी की।

बौद्धो  द्वारा धोखा 

 सिंधी शूरवीरों को सेना में भर्ती होने और मातृभूमि की रक्षा करने के लिए सर्वस्व अर्पण करने का आह्वान किया। कई नवयुवक सेना में भर्ती किए गए। सिंधु वीरों ने डटकर मुकाबला किया और कासिम को सोचने पर मजबूर कर दिया। सूर्यास्त तक अरबी सेना हार के कगार पर खड़ी थी। सूर्यास्त के समय युद्धविराम हुआ। सभी सिंधुवीर अपने शिविरों में विश्राम हेतु चले गए। ज्ञानबुद्ध और मोक्षवासव नामक दो बौद्ध मत को मानने वाले थे उन्हें इस्लाम पसंद था लेकिन वादिक धर्म पसंद नहीं था और धीरे धीरे वे बौद्ध मतावलंबी राष्ट्रद्रोही हो गए, इन लोगों ने कासिम की सेना का साथ दिया और रात्रि में सिंधुवीरों के शिविर पर हमला बोल दिया गया। महाराज की वीरगति और अरबी सेना के ''अलोर किला'' की ओर बढ़ने के समाचार से 'रानी लाडी' अचेत हो गईं। सिंधी वीरांगनाओं ने अरबी सेनाओं का स्वागत अलोर में तीरों और भालों की वर्षा के साथ किया। कई वीरांगनाओं ने अपने प्राण मातृभूमि की रक्षार्थ दे दिए। जब अरबी सेना के सामने सिंधी वीरांगनाएं टिक नहीं पाईं तो उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर किया, यह भारत में पहला जौहर था।

राज परिवार कि महिलाओ का  प्रतिशोध  

बच गईं दोनों राजकुमारियां सूरजदेवी और परमाल ने युद्ध क्षेत्र में घायल सैनिकों की सेवा की। तभी उन्हें दुश्मनों ने पकड़कर कैद कर लिया। सेनानायक मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी जीत की खुशी में दोनों राजकन्याओं को भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। खलीफा दोनों राजकुमारियों की खूबसूरती पर मोहित हो गया और दोनों कन्याओं को अपने जनानखाने में शामिल करने का हुक्म दिया, लेकिन राजकुमारियों ने अपनी चतुराई से कासिम को सजा दिलाई। लेकिन जब राजकुमारियों के इस धोखे का पता चला तो खलीफा ने दोनों को कत्ल करने का आदेश दिया तभी दोनों राजकुमारियों ने खंजर निकाला और अपने पेट में घोंप लिया और इस तरह राजपरिवार की सभी महिलाओं ने अपने देश के लिए बलिदान दे दिया। इतिहासकार यह कई स्थानों पर लिखते है कि महाराजा दाहिर कि एक रानी बचकर पूर्वी ओर बढ़ गयी, जिसकी भेट महर्षि हरित मुनि से हुई रात्रि भर वह रानी हिन्दू समाज को जगाने का कार्य करती थी उसी खोज में बाप्पा रावल से भेट और एक लाख की 'भील सेना' तैयार फिर बदला अरब तक हिन्दू समाज की विजय , कहते हैं कि जीत के साथ समझौते की शर्त बप्पारावल का विवाह खलीफा के सेनापती की लड़की से हुई। 

 (विभिन्न स्रोतों से खोज के आधार पर)

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