भारतीय सत्ता का केंद्र मेवाड़...!

 


चक्रवर्ती सम्राट सूर्य पुत्र मनु

प्रजाति दक्ष के यज्ञ से सँसार और विशेषकर मानवों का वड़ा संहार हुआ, संस्कृति साहित्य इसके वर्णन से भरा पड़ा है। बहुत से आर्य राज्य नष्ट हो गए। ऐसी अवस्था में देवताओं ने परस्पर विचार विमर्श कर तिब्बत में स्थित तेजोवती के राजा सूरज के सुपुत्र मनु को पृथ्वी का चक्रवर्ती सम्राट चयन किया और आदेश दिया कि वह भरतखण्ड में अपनी राजधानी निर्माण कर विश्व के देशों का शासन करें। अतः उसने हिमालय की गोंद में सरयू नदी के तट पर अयोध्या नामक नगर की स्थापना कर शासन करना शुरू किया। मनु को कोई पुत्र नहीं पैदा हुआ एक इला नाम की लड़की थी उन्होंने अपनी पुत्री को राजसत्ता सौप तपस्या के लिए चल दिया। कुछ दिन बाद इला हिमालय को पार कर पर्यटन के लिए चली गयी उसने "शेवली" के राजा चन्द्रमा के पुत्र बुद्ध से विवाह कर लिया उससे पुरुरवा नामक पुत्र पैदा हुआ परंतु उसे वहीं छोड़कर अयोध्या वापस आ गई। इसी बीच वैवस्वत मनु भी तपस्या कर अयोध्या वापस आ गए और राज्य करने लगे। उनके नौ पुत्र हुए। वैवस्वत मनु के पश्चात उनके पुत्र इक्ष्वाकु को अयोध्या के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया गया, दूसरे पुत्र नरिष्यन्त को इराक का राज्य दिया गया।

राष्ट्र और राज्य की कल्पना 

भारत कभी संपूर्ण विश्व के सत्ता का केंद्र था, मानव जीवन की उत्पत्ति उसकी संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, गाँव नगर, राजा राज्य यह सभी कुछ जो भी आज है यदि यह कहा जाय कि इन सभी का विकास भारत में हुआ अथवा हमारे ऋषियों मुनियों ने एक एक विषय पर शोध करके किया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। ऋग्वैदिक काल से हम एक सुसंस्कृत सभ्य समाज थे और आज भी हैं यहीं से सारे विश्व में सभी ज्ञान परोसे गए विश्व समुदाय के लोगों की सारी शिक्षा दीक्षा यहीं से हुई इसका प्रमाण हमारे पुरातात्विक विश्व विद्यालय आज भी प्रमाण के रूप में दिखाई देते हैं। संपूर्ण विश्व में सत्ता का केंद्र हमेशा बदलता रहा है लेकिन जब मनुष्य उत्पत्ति हुई उस समय विश्व की क्षितिज पर सभ्यता की प्रथम किरण भारत में आयी। सूर्य पुत्र मनु, विवस्वान मनु तथा इक्ष्वाकु वंश में से होकर श्रीराम तक अयोध्या मानव समाज की सभ्यता संस्कृति का केंद्र बना रहा। तथा जब मनुष्य सुसंस्कृत, अनुशासित होने का समय आया या उसकी ऋषियों ने आवश्यकता महसूस किया तो पृथ्वी के प्रथम राजा महर्षि मनु हुए जिन्होंने अपनी राजधानी अयोध्या बनाई। आज के भूगर्भ शास्त्रियों का मत है कि अयोध्या धरती का प्रथम गाँव है, जहाँ मनुष्य ने सभ्यता का प्रथम पाठ पढ़ना शुरू किया। अब यह उत्तर वैदिक काल का समय है वैसे सृष्टि संवत एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख से भी अधिक का है, सृष्टि व वेद एक ही समय का है उसी समय ब्रम्हा जी और ग्यारह ऋषि अमैथुनी सृष्टि से उत्पन्न हुए हैं जो विज्ञान यानी वेद सम्मत है (ऋषि दयानंद)। लेकिन ग्राम, नगर व राज्य इन सभी का विकास हम सतयुग से त्रेता युग में कह सकते हैं। उसी समय से धीरे-धीरे राजनैतिक, राज्य, राजा व शासन व्यवस्थाओं का विकास होना शुरू हुआ और फिर विश्व के अंदर राष्ट्रीयता का भी विकास शुरू हुआ इसी कारण पश्चिम में राष्ट्र व राज्यों में कोई भेद नहीं लेकिन भारतीय दृष्टि में ये दोनों दो विषय रहा है। भारत में "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितान" यानी भारत में राष्ट्र की कल्पना ऋग्वैदिक काल से ही है और यह हमारी संस्कृति सभ्यता का एक अंग है।

द्वापरकालीन

जब हम द्वापरयुग के अंतिम काल की बात करते हैं तो ध्यान में आता है कि सारे विश्व का राजनैतिक केंद्र भारत वर्ष था और उसमें हस्तिनापुर महाराज शांतुन से लेकर महाराजा जनमेजय तक का इतिहास सभी के सामने है कि हस्तिनापुर केवल भारतीय सत्ता का केंद्र न होकर सम्पूर्ण विश्व का केंद्र था वे चक्रवर्ती सम्राट हुआ करते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण महाभारत का युद्ध है जिसमें सम्पूर्ण विश्व के राजाओं ने कौरव अथवा पांडवों के पक्ष में भाग लिया था, इतना ही नहीं विश्व के देशों के जिनके राजनयिक संवंध भारत से थे उन देशों के राजाओं के निवास की भी ब्यवस्था राजधानी हस्तिनापुर में थी जैसे आज विश्व के अनेक देशों में एक दूसरे देशों के दूतावास। हरिवंश पुराण भी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि भगवान श्री कृष्ण का पुत्र प्रदुम्न ने विश्व के किन किन किन देशों की विजय यात्रा की विश्व पटल पर महाभारत के पश्चात यदुवंशियों से लोहा लेना वड़ा कठिन था वे भी विश्व विजयी होने पर भी बहुत लंबे समय तक सत्ता का केंद्र हस्तिनापुर ही बना रहा।

राजा दिलीप के नाम पर दिल्ली 

हस्तिनापुर के राजा दिलीप ने अपने नाम पर दिल्ली नामक नगर बसाया, यह नगर ईसापूर्व 6700 वर्ष बसाया गया था। 6633 वर्ष पूर्व चौहान वंश के उत्तराधिकारी चतुरभुज ने इस नगर को अपनी राजधानी बनाया। इसकी 38 पीढियों ने सतत रूप से शासन किया और इस समय में हस्तिनापुर के कौरव और मथुरा के यादव दिल्ली के कर दाता हुआ करते थे। ततपश्चात हस्तिनापुर के राजा परंतप दिल्ली के अंतिम चौहान राजा सहदेव को पराजित कर दक्षिण की ओर भगा दिया और दिल्ली का राज्य हस्तिनापुर के साथ मिला लिया। दिल्ली में चौहान वंश की 38 पीढ़ियों ने शासन किया था

चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद

महापद्मनंद भारतीय नंद वंश साम्राज्य के पहले सम्राट थे (ईशा पूर्व पाचवीं शताब्दी) नंद वंश उत्तर भारत का सबसे ताकतवर साम्राज्य था और पूर्वी भारत मगध साम्राज्य के आधीन था, नंदो ने शिशुनाग वंश को नष्ट कर दिया और राज्य विस्तार किया उत्तर भारत के एक वड़े हिस्से पर उनका प्रभुत्व हो गया। कुछ पुराणों के अनुसार शिशुनाग सम्राट महानंदिन और एक शुद्र महिला का पुत्र था। नंद वंश ने पश्चिम पंजाब से लेकर पूर्व में बंगाल तक के विशाल क्षेत्र पर शासन किया। महापद्मनंद ने उत्तर भारतीय साम्राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी मगध थी, कुछ इतिहासकारों का मत है कि ईशा 345 वर्ष पूर्व में नंदवंश का निर्माण किया था। महाराज जनमेजय के पश्चात हस्तिनापुर राजवंश कमजोर पड़ गया और भारतीय सत्ता का केंद्र मगध साम्राज्य यानी पाटलिपुत्र हो गया। ईशा पूर्व1664-1596 के मध्य में नंदवंश का शासन था यानी इशापूर्व पाचवीं और चौथी शताब्दी में सत्ता का केंद्र बन गया। महापद्मनंद वंश ने सैकड़ों वर्ष तक शासन किया इस साम्राज्य के पास लाखों की संख्या में नियमित सैनिक थे स्थान स्थान पर सैनिक सुरक्षा हेतु ठिकाने यानी किलों का निर्माण किया गया था अपने समय में आर्यावर्त्त भारत का सबसे ताकतवर साम्राज्य बनकर उभरा और लंबे समय तक भारतीय सत्ता का केंद्र बना रहा।

मौर्य वंश

नंदवंश की सत्ता कमजोर होती गई और धीरे धीरे परकीय आक्रमण शुरू हो गया उसमें सिकंदर का हमला सम्पूर्ण विश्व में चर्चित हो गया था, इतिहासकारों में इस पर बड़ा मतभेद है विश्व के बहुत इतिहासकार कहते हैं कि सिकंदर महाराजा पोरस से पराजित हो गया था उसके सैनिक राजा पोरस के भय के कारण लड़ने से इनकार कर दिये और वहीं से सिकंदर वापस चला गया था । कुछ तथा बामपंथी इतिहासकार कहते नहीं थकते कि पोरस पराजित हो गया था जबकि उनके पास कोई ठोस तर्क नहीं है लेकिन इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उसी समय तक्षशिला के राजनीति शास्त्र के आचार्य चाणक्य महापद्मनंद के पास भारतीय राजाओं की एकता और सिमा सुरक्षा को लेकर गए थे जहाँ नंद ने उन्हें अपमानित किया था और उस अपमान का बदला लेने के लिए चाणक्य अपने शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य के साथ सम्पूर्ण भारत को संगठित करने का संकल्प लिया। और वे सफल भी हुए सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य मगध साम्राज्य के सम्राट हुए और उनके गुरू महामंत्री। चंद्रगुप्त मौर्य चक्रवर्ती सम्राट हुआ सम्राट बिंदुसार ने इस विजुगीष परंपरा को अक्षुण्ण बनाये रखा लेकिन अशोक की कापुरुषता निति ने भारतीय राष्ट्र को भारी क्षति पहुचाई और इसी नीति ने इस वंश के समाप्त होने की नींव रखी परिणामस्वरूप राजा बृहद्रथ के सेनापति सेनानी पुष्यमित्र शुंग ने अपने राजा को समझाने का बहुत प्रयत्न किया पर वे असफल रहे अंत में सेनानी ने बृहद्रथ की हत्या कर मगध साम्राज्य की सत्ता अपने मजबूत हाथों में ले लिया। वह स्वयं राजा बना उसने अश्वमेध यज्ञ की समाप्त हुई परंपरा को पुनः शुरू किया,उसने वैदिक धर्म की पुनर्जीवित किया और जो वैदिक साहित्य समाप्त सा हो गए थे पुनः खोज स्थापित किया। शुंगवंश ने 140 वर्षों तक शासन किया और पाटलिपुत्र को भारतीय सत्ता का केंद्र बनाए रखा।

उज्जैनी सम्राट विक्रमादित्य

शुंगवंश के पतन के पश्चात पाटलिपुत्र का भी पराभव तय हो गया और अब यह राजसत्ता उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के पास आ गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि उज्जैन राजवंश का सम्बंध कहीं न कहीं पाटलिपुत्र राजवंश से था, दशकुमारचरित में कालिदास के कुछ इसी प्रकार का वर्णन किया है। फिर भी जो भी हो इतना तो अवश्य सत्य है कि ईसापूर्व 57 वर्ष में बर्बर शकों को सम्राट विक्रमादित्य ने केवल पराजित ही नहीं किया बल्कि भारत से बाहर निकाल दिया इतना ही नहीं तो जो भी शक यहाँ बचे वे सबके सब सनातन मतावलम्बी बन गए जिसके शिला लेख मध्यप्रदेश में और अन्य स्थानों पर पाए जाते हैं। जिस समय शकों ने भारत पर हमला किया उस समय भारत वर्ष के दस राजकुमारों ने विक्रमादित्य के नेतृत्व में युद्ध लड़ा और विजयी होकर एक विशाल साम्राज्य का अधपति बन गया। उसने अरब,ईरान इराक,मिश्र बेबीलोनिया से लेकर पूर्व में ब्रम्हदेश दक्षिण में इंडोनेशिया तक का विशाल साम्राज्य का विस्तार किया अब वह "शकारि विक्रमादित्य" चक्रवर्ती सम्राट था, विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने के पश्चात विक्रम संवत चलाया जो आज 2079 चल रहा है। 

विक्रमादित्य के नवरत्न

धन्वन्तरि क्षपणकामर सिंह शंकु

वेताल भट्ट घटकर्पर कालि दा सा:।

ख्यातो वराह मिहिरो नृपते: सभायां

रत्नानि  वै  वररुचिर्नव   विक्रमस्य।।

धन्वन्तरि नाम का प्रसिद्ध चिकित्सक, क्षपणक नामक जैन साधू, अमरसिंह नामक अमर कोषकार, शंकु महान विद्वान, वेतालभट्ट वेताल "पंचविंशतिका" में उल्लेखित तंत्र ब्राह्मण, घटकर्पर-- शब्दालंकार में निपुण कवि, कालिदास-- प्रसिद्ध नाटककार एवं महाकवि, बराहमिहिर-- बृहत्संहिताकार तथा वररुचि प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य उनकी सभा के नवरत्न थे। जिनके सूझ बूझ और विबेक पूर्ण कार्यों के कारण सम्राट विक्रमादित्य भारतीय राष्ट्रीयता के प्राण पुंज बन गए हैं। वे भारतीय इतिहास में रामराज्य के समकक्ष खड़े दिखाई देते हैंसारे विश्व में ऐसा आदर्श शासन कहीं दिखाई नहीं देता। जहाँ सेनानी पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध काल में नष्ट किये गए वैदिक वांग्मय वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों को पुनः प्रतिस्थापित प्रतिष्ठित किया था वहीं शकारि विक्रमादित्य ने बौद्ध काल में श्रीहीन हुए, नष्ट हुए अपने धार्मिक सांस्कृतिक नगरों अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्तिका जैसी सप्त पुरियों की पुनः स्थापित कर उन्हें प्रतिष्ठित किया। वे केवल भारत आर्यावर्त ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व में सत्ता का केंद्र बनकर उभरे, देश आजादी के पश्चात कांग्रेसी व बामपंथी इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद भारतीय संस्कृति के साथ द्रोह करने के अलावा कुछ भी नहीं किया।

कन्नौज राज्य

सम्राट विक्रमादित्य के पश्चात धीरे धीरे भारतीय सत्ता का नेतृत्व कमजोर होता गया और जैसा कि हमने पहले चर्चा किया है कि भारतीय केंद्रीय सत्ता में चक्रवर्ती सम्राट की ब्यवस्था व अश्वमेध यज्ञ की परंपरा थी धीरे धीरे अब मंद पड़ने लगी और यह लगभग चार सौ वर्षों पश्चात धीरे धीरे भारतीय सत्ता का केंद्र बदल कर कन्नौज बनने लगा वहां का राजा हर्षवर्धन बड़ा पराक्रमी शक्तिशाली उदार और दानवीर था। कालि संबत 3708 से3748 तक शासन किया भारतीय इतिहास में हर्षवर्धन का बहुत महत्व है। स्थानेश्वर राज्य उसने अपने पिता से प्राप्त किया था। बांस खेरा और मधुवन में प्राप्त शिलालेखों से अहिच्छत्र (बरेली) और श्रावस्ती का उनके शासन में होना प्रमाणित करता है। चीनी अनुश्रुति में हर्षवर्धन को मगधराज कहा गया है, इससे ज्ञात होता है कि मगध भी उसके प्रभाव में था। यह सम्भव है कि बौद्ध माधवगुप्त हर्षवर्धन को अपना सहायक और अधिपति मानता हो क्योंकि गुप्त काल का ही गौड़ राजा शशांक बौद्धों का द्वेषी था। उडीसा और चीनी अनुश्रुति अनुसार श्री हर्ष ने जयसेन नामक एक बौद्ध विद्वान को कलिंग में अस्सी नगरों की आय दान रूप दे दिया इससे ज्ञात होता है कि कलिंग के कुछ प्रदेश भी हर्ष के अधीन थे। 

हर्षवर्धन ईसवी सन606 में राजसिंहासन पर बैठा हर्ष ने परिजनों और अमात्यों के सामने अपने पिता के श्रीचरणों की सपथ खा कर एक महान प्रतिज्ञा की कि सीघ्र ही समस्त उपद्रवी राजाओं को समाप्त कर  'चक्रवर्ती शासन' की स्थापना करेगा। हर्षवर्धन इसके बाद निरंतर युद्धरत रहा, सन634 तक का अधिकांश समय युद्धक्षेत्र में ही व्यतीत हुआ। हर्षचरित और शिलालेखों के अनुसार यह स्वतः सिद्ध है कि गौड़, उत्कल, मिथिला, सिन्धु, नेपाल, सौराष्ट्र सब उसके अधीन हो गए थे। कश्मीर से असम और नेपाल से नर्मदा तक उसके राज्य का विस्तार हो गया था।और हर्ष साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी हर्षवर्धन ने प्रान्तीय व्यवस्था का भी निर्माण किया था। हर्षवर्धन को राजातिराज, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, चक्रवर्ती, सार्वभौम, परमेश्वर, परम दैवत, आदि अनेक उपाधियों से सम्राट विभूषित था। युद्ध क्षेत्र में वह सर्वोच्च सेनापति होता था।

राजा की दान बृत्ति

प्रयाग के मेले में राजा अपनी ब्यक्तिगत संपत्ति दान करता था, राजा हर्षवर्धन मेले में कई दिन रहते थे चौथे दिन दस हजार बौद्ध भिक्षुओं को दान-पुण्य करते थे प्रत्येक भिक्षु को सौ स्वर्ण मुद्राएं, एक रत्न, बस्त्र और भोजन व सुगन्ध आदि प्रदान किया जाता था।अगले बीस दिन ब्राह्मणों को दान पुण्य दिया जाता था इसके बाद अगले दस दिन जैन, लोकायत आदि अन्य सम्प्रदायों के लोग दान ग्रहण करते थे। जब राजकोष समाप्त हो जाता था तब राजा अपनी ब्यक्तिगत संपत्ति दान करता था। जब सब कुछ समाप्त हो जाता केवल एक बस्त्र भी नहीं बचता तब अपनी बहन से पुराना बस्त्र मांगकर उसे धारण करके हार्दिक आनन्द प्राप्त किया करते थे। महाराज हर्षवर्धन ने कुल41 वर्ष शासन किये सन 606 में गद्दी पर बैठे और 647 तक राज किया, और अपने कार्यकाल में भारत के सत्ता का केंद्र बने रहे।

चित्तौड़ गढ़

हज़ार वर्ष के संघर्ष के काल में एक ऐसा झूठा प्रचार किया गया कि इस्लामिक आक्रांताओ ने भारत में लाल किला, ताजमहल एवं कुतुबमीनार का निर्माण किया था जैसे वे आक्रांता जहाँ से आये थे वहां इस प्रकार की बहुत सारे किले अथवा अन्य महल रहे हों इससे यह अपने आप सावित हो जाता है कि यह केवल झूठ गढ़ा गया इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं।यह वामपंथी, इस्लामी और सेकुलरिष्ट इतिहासकारों ने यह नैरेटिव सेट करने का प्रयास किया कि भारत एक हज़ार वर्ष तक गुलाम था वास्तविकता इसके विपरीत है ईसवी सन 712 के पश्चात बप्पारावल की ऐसी मार लगी कि जैसे पांच सौ वर्षों तक मुस्लिम आक्रांता भारत का रास्ता भूल गए हों फिर वे लुटेरे बारहवीं शताब्दी में सोमनाथ मंदिर पर हमला करने का साहस किया उसमे भी मंदिर तोड़ने लूटमार करने के पश्चात जाते समय जाट और राजपूतों ने एक एक कदम पर संघर्ष कर उसे समाप्त कर दिया वह अपने मुल्क नहीं पहुँच सका।

भाग्य चक्र और भारतीय सत्ता चक्र बदलता रहता है पूरे भारत भुमि को यह सौभाग्य प्राप्त है कि यहाँ चक्रवर्ती, अश्वमेध यज्ञ जैसी परंपरा थी भारतीय राजा किसी को जीतकर उसके राज्य पर कब्जा नहीं किया करते थे वे भारतवर्ष की सुरक्षा व्यवस्था की चिंता करते राज्य और राजा अलग अलग होने के बावजूद राष्ट्र एक था जिसे चक्रवर्ती सम्राट से लेकर राजा, महाराजा आम जनता मातृत्व संबंध रखते थे इसलिए यहाँ हमने भारत को केवल देश नहीं तो भारतमाता माना है। अब बारी सिमा रक्षक इस्लामी अतितायियों को पराजित करने वाले लगातार सैकड़ो वर्षों तक हिंदू समाज की श्रद्धा बिंदु और सत्ता का केंद्र मेवाड़। महाराणा सांगा, कुम्भा एवं राणा हम्मीर के शासन में मेवाड़ का हिंदू राज्य तथाकथित मुस्लिम दिल्ली सल्तनत से कई गुना अधिक बड़ा था। तुगलक, खिलजी और लोधी जैसे आक्रांताओ लुटेरों का केवल दिल्ली के आस पास कुछ क्षेत्रों पर अधिकार था जिन्हें सेकुलरिष्ट व बामी इतिहासकारों ने इतना बढ़ा चढ़ा कर लिखा है कि जैसे वे कोई सम्राट रहे हों। मध्य भारत के गुर्जर, प्रतिहार राजाओं ने अरब आक्रांताओ को सदैव पराजित किया अरब इतिहास में उन्हें जुर्ज़ के राजा अर्थात मुस्लिम आस्था के सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। सत्यकेतु विद्यालंकार, के एम मुंशी, भगवतदत्त शर्मा जैसे सत्य निष्ट इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को तटस्थ रहकर लिखा यद्यपि उन्हें राज्य द्वारा उचित सहयोग नहीं मिला।


अब भारतीय सत्ता का केंद्र मेवाड़---!

इस्लाम हमें पराधीन करने आया था, मेवाड़ ने ऐसा होने नहीं दिया, भारतीय सेकुलरिष्टों, बामी इतिहासकारों के मुख पर एक मुस्लिम लेखक ने करारा तमाचा लगाया-----!

ए हाजी का बेबाक बेड़ा, न आबे में ठिठका न जम जम में अटका।

किया जिसने पार सातों समुंदर, वो आके गंगा जहाने में डूबा।।

हिजाज के मजहब का हठी युद्धक बेड़ा, अपनी पताका सँसार के हर कोने में ले गया।जिसे सात समंदर भी नहीं रोक पाए, वह इस्लाम का बेड़ा गंगा में आकर डूब गया। अरबों को हिंदू राजाओं द्वारा पांच सौ वर्ष तक निरंतर पराजित कर पीछे ढकेला गया, फिर अफगान, उज्बेक और भारत के उत्तरी-पश्चिमी भागों में आंशिक सफलता प्राप्त किया परंतु मतान्ध हत्यारों के सतत आक्रमणों के उपरांत भी हजार वर्षों तक केशरिया ध्वज सदैव ऊंचा लहराता रहा जिससे ये आतंकी घबड़ाते रहे वह मेवाड़ राजवंश था।

एक महान विचारक सीताराम गोयल लिखते हैं--! "इस्लामी आक्रांताओ के लिए लूटमार और अराजकता, धार्मिक उन्माद की परिणीति थी। मुस्लिम नेतृत्व में और सैनिकों के मध्य लूट के माल का बंटवारा एक नियम था और इसी से मुसलमान सैनिकों में हिंसा व लूट के प्रति अति उत्साह रहता था। हिंदुओं को कोई ऐसा प्रोत्साहन उपलब्ध नहीं था, बल्कि निहत्थे लोगों पर वार करना तो महापाप व दंडनीय अपराध समझा जाता था। हिंदू धर्म के करुणा व न्याय के मौलिक सिद्धांत, हिंदुओं को ऐसे दानवी कर्म करने से रोकते हैं। किंतु लूट और बर्बादी मुस्लिम समुदाय का आधार रहा। मुसलमानों के जिस आपसी भाईचारे का इस्लाम, धर्म के आधार पर अपेक्षा रखता है वह अधर्म तथा लूटपाट के हिस्सों पर आधारित भाईचारा है। ऐसे भाईचारे को 'डकैती का भाईचारा' कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा।"

मेवाड़ राजवंश के संस्थापक बप्पारावल

भारतीय समाज को मुस्लिम आक्रांताओ के बारे में समझदारी का अभाव था वे समझते थे कि जैसा मेरा धर्म सहिष्णु है उसी प्रकार इस्लाम भी होगा लेकिन इस्लाम तो धर्म ही नहीं है ये तो एक आतंकियों का गिरोह मात्र है। लेकिन बप्पारावल और हारीत मुनी ने इन्हें पहचाना। राजा दाहिर के पराजय के पश्चात--- भारतीय हिंदू राजाओं में एकता का संचार हुआ जिसका नेतृत्व बप्पारावल के हाथ में आया।उस समय चित्तौड़गढ़ पर मोरी वंश का शासन था जो कन्नौज के बाद एक शक्तिशाली भारतीय सत्ता का केंद्र बन गया था। बप्पा हरीत मुनि के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण कर भीलों की एक लाख सेना का नेतृत्व के साथ चित्तौड़गढ़ पहुँचे, उस समय मोरिवंश के शासक मनमोरी ने बप्पा रावल का स्वागत किया और अपना सामंत बनाकर जागीर प्रदान किया। यही वह समय था जब इस्लाम की भुजाओं ने सिन्धु पार कर भारत में प्रथम बार प्रवेश किया था।

हिंदू राजाओंको सगठित किया 

अरब के खलीफा का सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के राजा दाहिर सेन पर आक्रमण किया, राजा दाहिर सेन ने उसे कई बार पराजित कर छोड़ दिया वास्तविकता यह है कि दाहिर इस्लाम को समझने में भूल की और बौद्धों ने दाहिर का साथ छोड़कर कासिम का साथ दिया यानी बौद्धों ने धोखा दिया। जेम्स टॉड का मत है कि दाहिर सेन का पुत्र बप्पारावल की शरण में आकर पूरी कथा सुनाई। बप्पारावल कथा सुनकर बिचलित हो गया जो स्वाभाविक था, बप्पारावल ने प्रथम बार हिंदू राजाओं को संगठित किया और ने अपनी अपनी सेना लेकर बप्पा रावल के नेतृत्व को स्वीकारा। बप्पा ने मेवाड़ सेना का नेतृत्व करते हुए गुर्जर प्रतिहार मालवा,जय भट्ट गुजरात, दक्षिण के नागभट्ट चालुक्य साम्राज्य, जयसिम्हा वर्मन सभी का संगठित युद्ध में शामिल होना, अब बप्पा रावल के नेतृत्व में अरबों को प्रथम बार पराजय का मुख देखना पड़ा। जो अरब मध्य पूर्व एशिया, इरान, मैसोपोटामिया, सूर्या, उत्तरी अफ्रीका और पूर्वी यूरोप तक पहुंच गए थे उन्हें प्रथम बार बप्पा रावल के नेतृत्व में हिंदू राजाओं के संगठित समूह ने पराजित किया।

विजय के पश्चात सुरक्षा चौकी 

बप्पारावल शन्ति नहीं हुए अरबों को खदेड़ते हुए ईरान तक पीछा किया, अफगानिस्तान स्थिति गजनी पर धावा बोला सलीम को पराजित कर उसकी पुत्री से विवाह किया।उन्होंने अरब से लौटते हुए प्रत्येक सौ मील पर सुरक्षा चौकी बनाते हुए लौटे ताकि इस्लामी सेनाओं द्वारा भविष्य में होने वाले आक्रमणों को रोका जा सके ध्यान रहे सिंध नदी के उसपार यह चौकी सुरक्षा के काम को अंजाम देने वाले चमरसेन वंश के राजपूतों ने किया था। इस दूरदर्शिता के कारण पांच सौ वर्षों तक इन आक्रांताओ की हिम्मत नहीं हुई कि वे हमला कर सकें। युद्ध के पश्चात लौटकर ईसवी सन 726 में बप्पारावल ने स्वयं मोरी वंश से चित्तौड़गढ़ लेकर स्वयं को इस धरा का सिरमौर बनाया। अब जबसे सत्ता का केंद्र चित्तौड़ बना सारे विश्व में बप्पा का जय जय कार शुरू हो गया भारत की ओर आँख उठाकर किसी की देखने की हिम्मत नहीं।

महारानी पद्मिनी का जौहर

ईसवी सन 1302 में लुटेरे ख़िलजी ने चित्तौड़ दुर्ग की घेरेबंदी की और धोखे से रावल रतन सिंह को बंदी बना लिया, ख़िलजी ने महारानी पद्मिनी को समर्पित करने की शर्त रखी। रानी पद्मिनी स्वयं एक कुशल योद्धा और बुद्धिमान रणनीति कार थी, रानी ने अपने चाचा गोरा और भतीजे बादल के नेतृत्व में मेवाड़ के श्रेष्ठ योद्धाओं के साथ रतन सिंह को छुड़ा लाने की योजना बनाई। इस प्रकार सात सौ पालकियों द्वारा ख़िलजी के कैम्प में प्रबेश कर गए उनके साथ पांच हजार सैनिकों को बाहर ही रोक दिया, आधे घंटे रानी पद्मिनी और रतन सिंह को भेंट के लिए समय दिया था लेकिन उसमें तो गोरा था थोडी दूर अस्वारोहियो का समूह प्रतीक्षा कर रहा था रावल रतन सिंह सुरक्षित दुर्ग में प्रवेश कर गए इस प्रकार ख़िलजी बुरी तरह पराजित हुआ। 18अगस्त, 1303 ईसवी को चित्तौड़ गढ़ के भीतर सहस्त्रों महिलाओं के साथ मेवाड़ की महारानी विरांगना पद्मिनी ने स्वयं को अग्नि को समर्पित करने के लिए 'जौहर' के लिए तैयार किया। यह उन महिलाओं का दृढ़ संकल्प था जिसके कारण आक्रांता उन्हें छूना तो दूर उनके शरीर को देख भी नहीं सके। इस कारण महारानी पद्मिनी ने लगभग बीस हजार सखियों, साधारण नारियों और विस्वासपात्र दासियों के साथ उन क्रूर ब्याभिचारी आक्रांताओ के मुख पर द्वार बंद कर दिया, जिनके लिए आचार विचार व्यवहार में सुंदरता एवं सुचिता का कोई मूल्य नहीं था। जौहर की आत्माहुति से देवी स्वरूपा महारानी पद्मिनी ने भारत वर्ष में जो आत्मास्वर्ग किया वह हिंदू धर्म के लिए सर्बोच्च बलिदान था। इन सब के बावजूद भारतवर्ष के हिंदू समाज की श्रद्धा मेवाड़ के प्रति और बढ़ गई सारा का सारा भारतवर्ष मेवाड़ को ही अपना नेता मानता था औए चित्तौड़गढ़ के नेतृत्व पर ही विस्वास करता था, चित्तौड़गढ़ की सत्ता तो बार बार खण्डित होती रही थी लेकिन वहां की जनता भारत की जनता जागीरदार राजे महाराजे सभी की निष्ठा चित्तौड़गढ़ के प्रति थी इसलिए पुनः उसी वंश से हिंदू धर्म रक्षार्थ नेतृत्व खड़ा होता दिखाई देता है।

महाराणा हम्मीर सिंह

कहते हैं कि राजा जंगल से आता है और आया भी तुगलक का एक आतंकी मुजा डाकू बहुत आतंक मचाया था, पता चला कि मुजा सेमरी गांव में आने वाला है, तभी मुजा का सामना 13 वर्ष के हम्मीर से हुआ। हम्मीर ने एक ही वॉर में मुंजा का सिर धड़ से अलग कर दिया और तलवार की नोंक से उठाकर अजय सिंह के चरणों में रख दिया। हम्मीर का परिचय जानकर कि ये मेरा भतीजा और बप्पारावल के वंश का है अजय सिंह ने अपने भतीजे का सिर चूमा और जोर से चिल्लाये कौन कहता है कि चित्तौड़ का सिंहासन खाली है और मुंजा के सिर से निकलते हुए रक्त से हम्मीर का राजतिलक कर दिया। इस तरह हम्मीर सिंह 1326 ईसवी में मेवाड़ के महाराणा बन गए। भारतवर्ष के सभी हिंदुओं, राजाओं के आशा का केंद्र पुनः जागृत हो गया।  कहते हैं कि अजय सिंह का एक पुत्र दक्षिण चला गया उन्हीं के वंशज महान मराठा शासक छत्रपति शिवाजी महाराज के पूर्वज और सतारा के संस्थापक थे इनकी वंशावली आज भी उदयपुर के किले में लगी हुई है।

और हम्मीर की मलेक्षों पर विजय

तुगलक ने चम्बल नदी के किनारे 'सिंगोली' नामक स्थान पर डेरा डाला। उसके पास 70000 घुड़सवार, 20000 पैदल सेना थी। राणा हम्मीर ने बीस हजार घुड़सवारों और दस हजार पैदल सैनिकों के साथ चुप चाप तुगलक के डेरे को घेर लिया। हम्मीर ने रात के अंधेरे में आक्रामक कर तुगलक के अधिकांश सेनानायकों को मार गिराया। 1336 ईसवी के इस यशस्वी दिन महाराणा हम्मीर ने मेवाड़ से दुगनी सेना को पूरी तरह समाप्त कर दिया। राणा ने मालदेव के पुत्र हरिदास को एकल युद्ध में मार दिया और तुगलक को बंदी बना लिया। वास्तव में जिसे तथाकथित सल्तनत कहा जाता था उसका प्रभाव कुछ सौ वर्ग किलोमीटर तक सीमित था, महाराणा की इस विजय ने समस्त भारतीयों की आशा को विस्वास में बदल दिया। भारतीय बामपंथी, सेकुलरिष्ट इतिहासकारों ने महाराणाओं के इतिहास को गौड़ करने के बहाने भारत को अपमानित करने का काम किया। आज यह जो इतिहास आपके सामने आ रहा है वह मेवाड़ की लोक कथाएं, लोक गीतों में आज भी प्रचलित है उसे जीवित रखा है। राणा हम्मीर सिंह उत्तर भारत के अथवा भारत वर्ष के एकमात्र शक्तिशाली हिंदू राजा बने जिनके तीन ओर दिल्ली, मालवा और गुजरात जैसे मुस्लिम राज्य थे, किन्तु उन्होंने इन तीनों राज्यों को अपने अधीन कर लिया था।आज भी हम्मीर की यशोगाथा हिंदू समाज में पुनर्स्थापित हो यह हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है।

राणा लाखा----!

चूँकि भारतीय सत्ता का केन्द्र था मेवाड़ इस नाते उसकी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है जब लुटेरा गयासुद्दीन तुगलक बिहार के गयाजी स्थिति विष्णुपाद मंदिर को तोड़ने के लिए चला तो राणा लाखा ने मेवाड़ से सेना लेकर उसका पीछा किया। गयासुद्दीन को लाखा ने केवल पराजित ही नहीं किया बल्कि उसे बंदी बनाकर भारी दंडराशि लेने के बाद छोड़ा साथ ही उन्होंने गयाजी, काशी और प्रयाग आने वाले तीर्थ यात्रियों से कर न लेने की सपथ भी दिया। गयासुद्दीन कोई राजा नहीं था वास्तविकता यह है कि वे लुटेरों के गिरोह मात्र थे जो इसी प्रकार का काम किया करते थे। बिहार के कुछ इतिहासकारों का मत है कि जो मेवाड़ से सेना आयी थी वह वापस नहीं गयी कुछ लोग मंदिरों की सुरक्षा के लिए रुक गए वे पहले गोहिल राजपूत और अब उन्हें दुसाद कहा जाता है किन्हीं कारणों से उन्हें दलित घोषित कर दिया। आज भी दुसाद समाज में राणा लाखा को देवता मानकर पूजा की जाती है। कहते हैं कि राणा लाखा अपनी बृद्धावस्था में पूर्वी भारत में स्थित हिंदू तीर्थों को यवनों से मुक्त कराने निकल गए और वहीं एक युद्ध में मोक्ष को प्राप्त हो गए।

महाराणा कुम्भा

महाराणा कुम्भा उस सद्गुण विकृति से परिचित थे जिसके कारण महराज पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई हिंदू राजाओं की क्षमाशीलता यह उनके अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थी। कुम्भा का पहला सामना 1440 में महमूद के साथ मालवा के सारंगपुर में हुआ राणा कुम्भा ने उसे बुरी तरह पराजित किया महमूद युद्ध छोड़कर भाग गया। कुंभा ने उसका पीछा कर बंदी बनाकर चित्तौड़ लेकर आये और छः माह तक बन्दी गृह में रखा गया। कुम्भा ने गागनौर, अजमेर, चाकसू, इत्यादि के अतिरिक्त जयपुर के निकट सांभर को भी कब्जे में ले लिया। कुम्भा ने राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से34 किलों का निर्माण कराया जिसमे कुंभलगढ़ का विशेष महत्व है यह दुर्ग समुद्र तल से 1100 मीटर की ऊँचाई पर अरावली पर्वतमाला में स्थित है 36 किलोमीटर की परिधि में फैला है जो विश्व में चीन की दीवार के बाद सबसे लंबी दीवार होने का गौरव रखता है। राणा कुम्भा ने बप्पारावल के बनाये हुए परंपरा को कायम रखा और अपने समय तक भारतीय सत्ता का केंद्र बनाए रखा। आजादी के पश्चात सेकुलरिष्टों के कारण जिन्हें हिंदू इतिहास की पटल पर जो सर्बोच्च स्थान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला।

महाराणा सांगा

भारतीय सत्ता का केन्द्र मेवाड़ बना रहा जो सांगा को विरासत में मिला था उसको बनाये रखना राणा सांगा का कर्तब्य था राणा सांगा ने अपने समय में विजय पर विजय किये मुस्लिम सत्ताओं को पराजित कर अपने अधीन कर लिया। 21 फरवरी 1527 ईसवी को राणा सांगा और बाबर की सेनाओं का सामना राजस्थान के उत्तर पूर्वी छोर पर स्थित बयाना के दुर्ग में हुआ था। सांगा की लगभग दो लाख योद्धाओं से सुसज्जित सेना ने तुर्क सेना को खदेड़ दिया और बाबर को प्राण बचाकर भागना पड़ा। राणा सांगा बाबर से युद्ध करने का मानस बना चुके थे। बाबर को भी समझ में आ गया था कि दो सप्ताह की बातचीत के पश्चात राणा सांगा उस पर आक्रमण करेगें। राणा सांगा ने बाबर को बंदी बनाकर दिल्ली का सिंहासन हस्तगत करके, देश को एक बार में हिंदू राष्ट्र बनाने का निश्चय कर लिया था। राणा सांगा व बाबर के बीच पूरे एक वर्ष संघर्ष चला, जो कि 30 जनवरी 1528 के दिन पैतालीस वर्ष की अल्पायु में महाराणा सांगा को विष देकर उनकी हत्या पर समाप्त हुआ। 

हेमचंद विक्रमादित्य 

बाबर ढाई साल बाद मर गया हुमायूं कभी शांति से नहीं रह सका उस पर शेरशाह सूरी ने हमला कर पराजित कर शासन अपने हाथ में ले लिया लेकिन यह बहुत दिन इस्लामी हुकूमत नहीं चल सकी और शेरशाह सूरी के सेनापति महान हिंदू योद्धा ने शेरशाह सूरी की मृत्य पश्चात शासन पर कब्जा कर लिया और पृथ्वी राज चौहान के बाद पुनः दिल्ली पर हिंदू शासन की स्थापना हेमू कालाणी ने किया। और उन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि ग्रहण किया। अब उन्हें हिंदू सम्राट हेमचंद विक्रमादित्य के नाम से पुकारा जाने लगा। उन्होंने हिंदू रीति रिवाज से शासन करना शुरू कर दिया, मुस्लिम सेनाध्यक्षों को मुक्त कर हिंदू राजपूतों की नियुक्ति किया। हुमायूं की मृत्य के पश्चात अकबर की राजतिलक हुई और उसने भारत पर हमला किया यह प्रसिद्ध युद्ध पानीपत के मैदान में हुआ जिसमें भय के कारण अकबर युद्ध में भाग नहीं लिया। और धोखे एक तीर हेमचंद विक्रमादित्य को लगी और जो मुस्लिम सेना थी जाकर अकबर की सेना में मिल गई इस धोखे के साथ एक महान हिंदू सम्राट का अंत हो गया।

दिग्विजयी राजा 

हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक ऐसा राजा जो एक पैर से लंगड़ाकर चलता हो और उसे घोड़े पर चढ़ने के लिए भी किसी की सहायता लेनी पड़े, अपनी एक आँख से देखते हुए अपनी सेना का मार्गदर्शन करते हुए उसके साथ अफगानिस्तान, बंगाल, महाराष्ट्र और दिल्ली की विजय यात्रायें करे। मैऔर किसी की बात नहीं कर रहा मै तो महाराणा सांगाकी ही बात कर रहा हूँ! उन्होंने अपने सरदारों और सेना में इतना आत्मविश्वास जगाया कि अकेले ही मध्ययुगीन भारत का सबसे बड़ा हिंदू राज्य स्थापित कर लिया। राणा सांगा ने केवल मेवाड़ के महाराणाओं की परंपरा को ही नहीं निभाया, वरन साहस और दृढ़ निश्चय के नए मापदंड भी स्थापित किए। उन्हीं की प्रेरणा लेकर मेवाड़ का राजपरिवार कभी तुर्को के अधीन नहीं रहा और सदैव 'हिंदुआ सूरज' का ध्वज धारण करके शताब्दियों तक हिंदू धर्म का सर्बोच्च संरक्षक और प्रतिपालक बना रहा।

हिंदू श्रद्धा व राष्ट्र रक्षा का केंद्र

स्थान स्थान पर इस्लामिक लुटेरों का गिरोह सक्रिय था वह कभी मालवा, कभी गुजरात तो कभी लखनऊ कभी दिल्ली वे हमेशा हिंसा हत्या और बलात्कार करते हुए आतंक फैलाने का काम किया करते थे इनके कुछ स्थानों पर अड्डे भी थे। वे अपने को बादशाह, नबाब इत्यादि उपाधि भी लिया करते थे और अपने साथ कुछ भांट (जिसे दरबारी लेखक कह सकते हैं) रखते थे वे उनका इतिहास लिखते थे (अपने मुँह मियां मिट्ठू बनना) जैसे बाबर नामा, अकबर नामा वास्तव में ये कोई शासक नहीं थे ये केवल लुटेरों का गिरोह मात्र था। और राजाओ ने तो इन लुटेरों से समझौता कर लिया था लेकिन जिसके ऊपर भारतवर्ष की जिम्मेदारी हो जो हिंदू धर्म रक्षक राष्ट्र रक्षक हो वह कैसे समझौता कर सकता है।

महारानी कर्मावती 

"वीर विनोद" के अनुसार रानी कर्मावती ने अपने सामंतो को पत्र लिखा--- "अब तक चित्तौड़ राजपूतों के हाथ में रहा पर अब उनके हाथ से निकलने का समय आ गया है। मैं किला तुम्हें सौंपती हूँ चाहे रखो चाहे शत्रु को दे दो । मानलो तुम्हारा स्वामी अयोग्य ही है तो भी जो राज्य वंश परंपरा से तुम्हारा है उसके शत्रु के हाथ में चले जाने से तुम्हारी बड़ी अपकीर्ति होगी।" फिर क्या था सारे के सारे सामंत राजवाड़े मातृभूमि की पुकार सुनकर चित्तौड़ की रक्षा हेतु लामबंद हो गए। 8मार्च 1535 ईसवी को 32000 राजपूत व अन्य हिंदू सैनिक चित्तौड़ की रक्षा हेतु बलिदान हुए। महारानी कर्मावती ने 13000 हिंदू महिलाओं के साथ जौहर किया।

सोमनाथ मंदिर 

बप्पारावल ने जिहादियों को इतना मार लगाई थी कि उन्हें पांच सौ वर्ष याद रहा लेकिन पीढियां बीतने के पश्चात उन्हें पुनः कुरान की वह आयतें याद आने लगती जिसमें काफिरों की हत्या करने, मूर्तियों को तोडऩे काफिर को तब तक मारते रहो जब तक वे ईमान न लाएं फिर क्या जोश में आकर सोमनाथ मंदिर पर अचानक हमला जबतक हिंदू राजा, हिंदू समाज सावधान होता हमला हो गया क्योंकि यह तो धोखेबाज जाति है कभी अपनी बात पर नही अड़ना। मंदिर की सुरक्षा में हज़ारों लोग मारे गए मंदिर को तहस नहस कर दिया लेकिन महमूद गजनवी को इस बात का पता नहीं था कि हिन्दू जब मारता है तो बड़ी मार मारता है। डॉ रामगोपाल मिश्र के अनुसार हिंदू राजा चालुक्य भीमदेव प्रथम ने महमूद का पीछा किया और सिंध के जाटों ने सोमनाथ मंदिर के लूट व नरसंहार से लौट रही महमूद गजनवी की सेना को बुरी तरह पराजित किया। इस्लामी इतिहासकार गर्दिजी के अनुसार महमूद भारत से निकलने के लिए उतावला था हिंदुओं का बादशाह भीमदेव उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, महमूद गजनवी को डर था कि मेरी जीत कहीं पराजय में न बदल जाय! इसलिए वह रास्ता बदलकर मनशूरा के रास्ते मुल्तान लौटा, उसकी लौटती हुई सेना को भोजन व पानी नहीं मिला। और फिर सिंध के जाट योद्धाओं ने इस्लामी सैनिकों लुटेरों का सँहार किया, आचार्य चतुरसेन के अनुसार वीर गोगा ने आगे अपने56 पुत्रों के साथ संघर्ष किया सभी मारे गए लेकिन एक पुत्र जिंदा बच गया था। महमूद भय के कारण भटक गया और वहीं वीर गोगा का पुत्र उसे रास्ता बताया रेगिस्तान में वह जोर से हँसा कहा अब मरो मंदिर तोड़ने वालो इस प्रकार महमूद गजनवी का अंत कर दिया।

और महाराणा प्रताप

मुगल तो लुटेरे थे, आतंकी थे, असभ्य थे,कुरान उन्हें हिंसा हत्या का आदेश देता है वे तो उसका पालन कर ही रहे थे! चित्तौड़ के निरीह जनता की हत्या और मंदिरों को तोडऩे का ताण्डव जारी था, तब वहीं हिंदू राजा भगवान सिंह तथा राजा टोडरमल और उनकी सेनाएं जड़वत, मुँह बाएं, दुर्ग के हिंदुओं का नरसंहार देख रही थीं!मृत्यु के तांडब के मध्य अपने देवी देवताओं के मंदिरों को यूं खंडित होते देखकर भी कोई क्षत्रिय हिंदू कैसे तटस्थ रह सकता है यह समझ से परे है। क्योंकि धर्म वह तत्व है, जो हमे धारण करता है, किन्तु 25 फरवरी 1568 के उस अभूत पूर्व दिन 40000 हिंदुओं ने अपने धर्म को अपने वक्ष पर धारण किया था।

प्रताप का राज्याभिषेक 

ईसवी 1572 पचास वर्ष की आयु में महाराणा उदय सिंह का देहांत हो चुका था, "एक ओर हमारे सामने अकबर जैसा विराट शत्रु है, चित्तौड़ हमारे हाथ से जा ही चुका है मेवाड़ बंजर हो गया है, यदि राजपरिवार में गृहयुद्ध होता है तो मेवाड़ का नाश निश्चित है और शीघ्र ही हम सब मुगलों के दास होगें।" यह सब अक्षय राज सोनगरा ने कहा! जगमल से प्रताप योग्य हैं और वीर हैं, तो इन्हें किस दोष के कारण राज्याभिषेक से वंचित किया जा रहा है? अक्षय राज और ग्वालियर के रामशाह तंवर ने मृत राजा से क्षमा याचना करते हुए कहा कि हम देश हित में आपके वचन की अवहेलना कर रहे हैं जगमल की बाह पकड़कर उसे सिंहासन से उतार दिया। और प्रताप को महाराणा घोषित किया। कर्नल टॉड के अनुसार-- प्रताप कभी कभी दुखी होकर कहते थे-- "मेरे और दादो सा, राणा सांगा के बीच में यदि दाजीराज सा (उदय सिंह) नहीं होते किसी तुर्क की क्या सामर्थ्य कि राजस्थान को आदेश दे।" प्रताप ने 1568 का तीसरा साका महिलाओं का जौहर और अकबर द्वारा चित्तौड़ में किया गया भीषण नरसंहार देखा था। "अतः उन्होंने इस्लामियों को दंड देने की सपथ ली। चित्तौड़ हाथ से निकल जाने पर प्रताप के मन को गहरा आघात लगा सिसौदिया राजाओं का अजेय कहा जाने वाला दुर्ग इस्लामी उपद्रवियों की सेना द्वारा तहस नहस कर दिया गया।" राणा प्रताप ने एक अकबर के सामंत पृथ्वीराज को उत्तर में कहा--! "जब तक शरीर में प्राण है, भगवान एकलिंग की कृपा से मैं तो अकबर को केवल तुर्क ही कहूंगा। सूर्य पहले की भांति पूर्व ही उगेगा। जब तक मेरी तलवार यवनों की गरदन पर है, आप मूछों पर ताव देते रहिये।" महाराणा प्रताप ने हिंदू धर्म के लिए हर आघात हर चालबाजी हर विस्वासघात हर संकट को अपनी विशाल छाती पर सहन किया।

पग-पग भूमि को स्वाधीन किया 

अगर राणा प्रताप कमजोर थे यदि वे हल्दीघाटी युद्ध हार गए थे तो अकबर बार बार सन्धि का शंदेश क्यों भेजता था वास्तविकता यह है कि हल्दीघाटी महाराणा प्रताप ने जीता था सेकुलरिष्ट और बामपंथी इतिहासकारों ने युद्ध में पराजित करवाया। हल्दीघाटी के युद्ध ने महाराणा प्रताप को सम्पूर्ण भारतवर्ष के एक मात्र हिंदू नायक के रूप में स्थापित कर दिया था। प्रताप की योजना आरंभ से ही मुगलों से लंबी लड़ाई लड़ने की थी। उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं को मुस्लिम आक्रांताओ के विरुद्ध एकजुट किया था और वह उनकी जिम्मेदारी भी थी क्योंकि मेवाड़ उस समय भारत की सत्ता का केंद्र था भारतवर्ष की सुरक्षा हिंदू समाज की सुरक्षा ये प्रताप के ऊपर थी। दिवेर में प्रताप ने मुगलों द्वारा बार बार घुसपैठ के प्रयास का पटाक्षेप कर दिया, उन्होंने 1583 में चित्तौड़ के अतिरिक्त मेवाड़ की पग पग भूमि को स्वाधीनता कर लिया था। 1597 ईसवी तक एक स्वाभिमानी राजा के समान शासन किया एक भरा पुरा राज्य अपने पुत्र अमरसिंह को सौंपकर देवलोक चले गए।

महाराणा राजसिंह

अमरसिंह महाराणा बनते ही मुगलों से संघर्ष जारी रखा उन्होंने जहाँगीर को सत्तरह बार पराजित किया। मेवाड़ लड़ते लड़ते थक सा गया था। वहाँ के सामंतों ने बड़ी बुद्धिमानी से तुर्कों से सन्धि कर ली लेकिन शर्त था कि कोई भी राणा कभी मुगल दरबार में नहीं जाएगा।अब मेवाड़ के भाग्य बदलने लगे और सैनिक सुरक्षा सब मजबूत करने लगे पूरा राज्य धन धान्य से परिपूर्ण होने लगा। फिर राणा राजसिंह ने महाराणा प्रताप के समान मुगलों के छक्के छुड़ाने लगे। राजसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत करवाकर मेवाड़ तथा आसपास के क्षेत्र में मस्जिदों को तोड़कर, गौहत्या करने वाले मुसलमानों के सार्वजनिक रूप से सिर काटकर शाहजहां को कुपित करने का अपना उद्योग जारी रखा। 1654 में शाहजहां तीस हजार घुड़सवार लेकर राजसिंह से युद्ध करने अजमेर आया। शाहजहां ने एक ब्राह्मण चंद्रभान को राजसिंह के पास समझाने के लिए भेजा कि अपनी महत्वाकांक्षा को नियंत्रित करें। उससे पहले राणा राजसिंह ने अपने दो दूतों को मुगल सेनापति सादुल्ला खा के पास भेज दिया था।

सादुल्ला-- इसका मतलब यह कि तुम राजपूत दिल्ली को दोयम दर्जे की ताकत समझते हो।

राजसिंह झाला- नहीं, किन्तु मेवाड़ भी कम शक्तिशाली नहीं है। मेवाड़ के राजपूत दिल्ली में रहे अथवा उदयपुर में यह उनके मन पर निर्भर करता है।

सादुल्ला-- अच्छा ! अगर उदयपुर को दिल्ली से जंग करनी है तो ठीक है, हम इस्तकबाल करेंगे तुम्हारा! वैसे राणा राजसिंह के पास घोड़े कितने हैं?

राजसिंह झाला-- छब्बीस हज़ार !

सादुल्ला -- शाहजहां के पास एक लाख है!

राजसिंह झाला--तुम्हें पराजित करने के लिए 26000 पर्याप्त है।

राजसिंह अदम्य साहसी, किंतु सुलभ सरलता के नायक थे, उधर औरंगजेब भी अति महत्वाकांक्षी, कपटी व मिथ्याचारी राजा था।औरंगजेब के हिंदूद्रोही शासन के प्रथम बीस वर्ष में औरंगजेब को राणा राजसिंह ने चुनौती दी और बार बार पराजित भी किया। इस दृष्टि से राजसिंह राजपूत व हिंदू एकता के लिए बप्पारावल, राणा सांगा व राणा प्रताप के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण धुरी बन कर उभरे।

और नाथद्वारा प्रकरण

10 अक्टूबर1669 को श्रीनाथजी मंदिर मथुरा के पुजारी दामोदर जी बालकृष्ण, वल्लभ और गंगा बाई के साथ भगवान श्री कृष्ण की अद्भुत मूर्ति को लेकर औरंगजेब से बचाने के लिए राजस्थान की ओर प्रस्थान किया। कोई भी राजा औरंगजेब के साथ दुश्मनी नहीं लेना चाहता था एक एक करके अधिकांश राजाओं ने गिसाईयों को कहीं और शरण लेने को कहा, बूंदी, कोटा, जोधपुर, जयपुर ये सभी राजघराने असमर्थता ब्यक्त किया। अन्ततः पुजारियों ने मेवाड़ की ओर रूख किया और महाराणा राजसिंह से सम्पर्क किया ताकी औरंगजेब के क्रूर मंतब्य से श्रीनाथजी को बचाया जा सके। राणा राजसिंह ने पुजारियों से कहा, "जब तक मेरे एक लाख सैनिकों के सर कट नहीं जाते और मेरे वंश का कोई भी रहेगा तब तक औरंगजेब, श्रीनाथजी की मूर्ति को स्पर्श भी नहीं कर सकता।" और नाथद्वारा में आज भगवान श्रीनाथजी विराजमान हैं सारे विश्व से श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं।

एक समय ऐसा आया कि औरंगजेब ने जोधपुर राजा को विष देकर हत्या करवा दिया और वह उस वंश को समाप्त करना चाहता था, उस वंश के संरक्षक दुर्गादास राठौड़ ने बचाने का बीड़ा उठाया था। दुर्गादास ने बालक अजीत सिंह को लेकर मेवाड़ महाराणा राजसिंह के पास पहुचे, जिन्होंने सहर्ष अजीत सिंह को मेवाड़ में आश्रय दिया। राजसिंह ने केलवा के पास बारह गांव की जागीर बालक अजित को दे दिया। फिर दुर्गादास से कहा, "औरंगजेब में मेवाड़ और मारवाड़ की संयुक्त सेना से लड़ने का साहस नहीं है आप निश्चिंत होकर मेवाड़ में रहिये।" 

जैसे को तैसा

राणा राजसिंह ने मेवाड़, मारवाड़ और जयपुर के मतभेदों को भुलाकर सभी को एक कर लिया। अब राजसिंह हिंदुत्व और भारतीयता के केंद्र विंदु बन गए थे, जिनके इर्द गिर्द हिंदुओं की शक्ति का एकत्रीकरण हो रहा था। राणा राजसिंह ने छत्रपति शिवाजी महाराज और गुरू गोविंद सिंह को भी पत्र लिखा दिल्ली के इस्लामी शासन के विरुद्ध पूरे भारतवर्ष में बिरोध का सर्वाधिक प्रबल स्वर बनकर उभरे।राजसिंह और औरंगजेब के मध्य 1679 से 1680 दो वर्षों तक निरंतर चलते युद्ध के परिणामस्वरूप औरंगजेब की सेना को पराजित व अपमानित कर राजस्थान की सीमा से बाहर निकाल दिया। राणा राजसिंह ने मुगलों के हाथी, घोड़े, शस्त्रास्त्र, रथ आदि सभी सैन्य संसाधनों पर कब्जा कर लिया। औरंगजेब बहुत अपमानित महसूस किया और उसकी पूर्ण पराजय हुई, धन, सेना और सैन्य उपकरणों की भारी छति के पश्चात बहुत लज्जास्पद परिस्थितियों में पीछे हटना पड़ा। 'वीर विनोद' के अनुसार-- "महाराणा ने अपने पुत्र भीम सिंह को चार हजार अस्वारोहियो के साथ वडनगर, गुजरात भेजा, जहाँ उन्होंने तीन सौ मस्जिदों को तोड़ा और वहाँ से चालीस हजार रुपये हर्जाना वसूल कर विजयी होकर लौटे।"  मेवाड़ की सेना ने इस्लामी आक्रांताओ को उन्हीं की भाषा में जबाब दिया उनके धर्म पर दया नहीं दिखाई दयाल शाह (भामाशाह का पोता) ने सैकड़ों मस्जिदों को ध्वस्त किया। काजियों को बंदी बना लिया गया उनकी दाढ़ी मुँड़वा दी गई।

भय-भीत औरंगजेब 

1680 में औरंगजेब मेवाड़ से इतना भयभीत हो गया कि अपने मृत्यु पर्यंत पुनः कभी मेवाड़ की ओर आँख उठाकर नहीं देख सका। बप्पारावल के समान उन्होंने हिंदुओं से आपस में मैत्री कर भारत बर्बर इस्लामी आक्रांताओ को रोकने का काम किया। बप्पारावल से महाराणा राजसिंह तक सैनिकों का सैनिकों से, लोहे का लोहे से, अग्नि का अग्नि से, पशु का पशुओं से, छल का छल से, साहस का साहस से और रक्त का रक्त से प्रतिकार लिया और हजार वर्षों तक हिंदू धर्म पर हर आघात को अपने सीने पर लिया।

अश्वमेध-चक्रवर्ती व सत्ता का केंद्र 

मेवाड़ सत्ता का केंद्र बनकर उभरा पहले जैसे अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा जाता था, जैसे चक्रवर्ती राजा की ब्यवस्था होती थी उसी प्रकार भारत में सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के काल से भारतीय सत्ता का केंद्र बदलता रहा कभी हस्तिनापुर, कभी राजगीर, कभी पाटिलीपुत्र तो कभी उज्जैन तो कभी कन्नौज रहा और कन्नौज के पश्चात मेवाड़ भारतीय सत्ता का केंद्र बनकर उभरा उसके पश्चात राणा राजसिंह की मृत्यु के साथ यह केंद्र मराठों के पास चला गया।

भगवान की महती अनुकंपा, परम् कृपा और आनंदमई दया हो कि भारतीय संस्कृति फिर हरी भरी होकर मानव जीवन की यात्रा को सुखी बनाने में सहायक हो।

(संदर्भ ग्रन्थ-- वीर विनोद, महाराणा, नीले घोड़े का सवार, महाराणा कुम्भा, कलिकालीन भारत, आर्यावर्त का प्राचीन इतिहास, बृहत्तर भारत का इतिहास, सत्यार्थ प्रकाश, मेवाड़ केशरी महाराणा सांगा, मनुस्मृति, वैदिक वांग्मय का इतिहास)  

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