वेदोद्धारक कुमारिल भट्ट

 

कुमारिल की वेदना

कुमारिल भट्ट आर्यावर्त की दुर्दशा देखकर बड़े दुखी होकर अपने विस्वास को बार बार टटोलते रहते थे, आखिर वेद तो सत्य है, अपौरुषेय है तो यह हिंदुओं की दुर्दशा क्यों ? क्यों भारत कापुरुषता की ओर बढ़ता जा रहा है अवैदिक मत अपना बर्चस्व बनाकर समाज को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। किसी को तो यह करना होगा तो मैं क्यों नहीं! वे वेदानुरागी थे उन्होंने शाबर भाष्य पर टीका भी लिखी थी। वे एक दिन नर्मदा नदी के किनारे खोजते खोजते गोविंदपाद से मिले, उन्होंने इस वैदिक धर्म के ह्रास होने पर चिंता ब्यक्त किया फिर जैन धर्म और बौद्ध धर्म के बारे में भी चर्चा की। बिना वेदों के अध्ययन के ही वेदों का खंडन किया जा रहा है। गोविंदपाद ने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि पुत्र किसी का खंडन नहीं बल्कि मंडन किया करो सभी मतों को वैदिक वांग्मय का सावित करना चाहिए, जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं है वेद ईश्वर प्रदत्त है इसी विस्वास को हिंदू समाज में बनाये रखने की आवश्यकता है। जब कुमारिल ने गोविंदपाद को बताया कि आचार्य "एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति" वह सत्य क्या है? गोविंदपाद ने बताया कि वह सत्य "वेद" है, उसी सत्य को विद्वान लोग अपने- अपने हिसाब से ब्याख्या करते हैं। लेकिन परकीय धर्म नहीं! और उन्होंने नास्तिक, जैन और बौद्ध मतों को भी वैदिक वांग्मय में सावित करने के लिए कहा और प्रबलता पूर्वक इस सत्य को सावित करना चाहिए। वेदों के प्रति आचार्य कुमारिल की श्रद्धा अनन्य थी, उस समय बौद्ध दार्शनिकों के द्वारा बिना वेदों के ज्ञान को जाने ही वेदों का खंडन कर रहे थे। वैदिक धर्म के स्थान पर बौद्ध धर्म का प्रचार किया जा रहा था, बौद्ध और जैन मतावलम्बी वैदिक धर्म को जर्जर बनाने में जुटे हुए थे। कुमारिल नास्तिक मत से दुःखी थे दिखाई देता था कि ये बौद्ध भिक्षु धर्म के नाम पर परकियों का साथ दे रहे हैं इसलिए भारत के भविष्य को लेकर चिंतन करने लगे और शास्त्रार्थ के लिए अपने को तैयार करने लगे। उनका अध्ययन और तार्किक शक्ति बहुत थी उनके तर्क के आगे सब परास्त हो जाते थे।

राजा सुंधवा की महारानी

आचार्य कुमारिल भट्ट बौद्ध दार्शनिकों के प्रहारों से वेदों की रक्षा के उपाय में लग गए, वेदों के उद्धार के लिए दृढ़ संकल्प लिया। उस समय देश की हालत भी विचित्र हो चुकी थी भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी की दुर्दशा हो रही थी कहते हैं कि काशी विश्वनाथ का शिवलिंग हटा कर बुद्ध की मूर्ति लगा दिया गया था। लेकिन वैदिक गुरुकुल चल रहे थे राजा सुंधवा की रानी तीर्थयात्रा पर आयी थी उसे शिवलिंग का दर्शन नहीं हुआ वह दुःखी मन से रो रही थी आखिर यह किसे बताये उसके आँसू रुक नहीं रहे थे तभी एक गुरुकुल का क्षात्र उस रास्ते से जा रहा था उसके सिर पर पानी का बूद टपका उसने ऊपर देखा एक माता रो रही है बोला माते क्यों रो रही है उस माँ महारानी ने कहा कौन बचाएगा इस वैदिक धर्म को? गुरुकुल का क्षात्र जोर से चिल्लाया मैं बचाऊँगा इस डूबते हुए वैदिक धर्म को यह क्षात्र कोई और नहीं यह कुमारिल भट्ट ही हो सकता था। तत्पश्चात कुमारिल वेदों के रक्षार्थ दृढ़ प्रतिज्ञ हो शास्त्रार्थ हेतु तैयार..! उन्होंने अपनी प्रखर मेधा व प्रबल तर्क के बल स्थान स्थान स्थान पर बौद्ध विद्वानों को परास्त किया और वेदों की पुनर्प्रतिष्ठा किया, इसके लिए शाबर भाष्य की ब्याख्या भी लिखी। उन्होंने जो शास्त्रार्थ किया वैदिक धर्म की रक्षा की उससे आज तक वेदों की प्रतिष्ठा बनी हुई है उसमें कुमारिल भट्ट की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।

आचार्य  कुमारिल  और आचार्य धर्मपाल

आचार्य धर्मपाल प्रसिद्ध बौद्ध धर्माचार्य थे कहते हैं कि वे नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे, योगाचार्य मत के प्रसिद्ध आचार्यों में उनकी गणना की जाती थी। कुमारिल भट्ट शास्त्रार्थ करते करते बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति से पराजित हो गए लेकिन उन्होंने पराजय स्वीकार नहीं किया उनके विचार में आया कि वेद तो सत्य है सभी ज्ञान और विज्ञान की जननी है फिर मैं पराजित क्यों हो गया उन्हें लगा कि वेदों में नहीं मेरे अध्ययन में कमी है अब वे यह समझ चुके थे कि बौद्ध बड़े छली हैं इसलिए वे बौद्ध साहित्य का भी अध्ययन करना चाहते थे। शंकरदिग्विजय (सर्ग 7/93) --- 

अवादिशं वेदविघातदक्षिस्ताननाशकं जेतुम्बुध्यमान:।

तदियसिद्धान्त - रहस्यवर्धीन निषेधयबोद्धादि निषेधयाबाघ:॥

अर्थात आचार्य कुमारिल कह रहे हैं कि वेद का विघात करने में दक्ष उन बौद्धों के साथ मैंने शास्त्रार्थ किया किन्तु उनके सिद्धांत के रहस्यों को नही जानने के कारण उन्हें जितने में सक्षम नहीं हो पाया। पुनः आचार्य कुमारिल कह रहे हैं--

तदा तदीय शरणं प्रपन्न: सिद्धान्तमश्रौष्मनुद्धतात्मा । (शं. दि.-7/94)

उसके पश्चात मैं बौद्धों के शरणागत हो गया और उनके सिद्धांत को स्थिर मन से श्रवण किया। 

आचार्य कुमारिल भट्ट ने किस आचार्य से शिक्षा ग्रहण किया यह तो स्पष्ट नहीं है लेकिन इतना सत्य है कि वे बौद्ध विश्व विद्यालय नालंदा में अध्ययन किये। उस समय प्रसिद्ध बौद्धाचार्य धर्मपाल वहाँ के कुलपति थे ऐसा ज्ञात होता है। उन्होंने बहुत जल्द ही अपना स्थान आचार्यो और छात्रों के बीच बना लिया और सभी के लोकप्रिय बन गए, वे तो लक्ष्य लेकर बौद्ध विश्वविद्यालय में प्रवेश लिये थे। कुछ बौद्ध आचार्य यह मानते है कि कुमारिल बौद्ध हो गए थे लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता ।

अद्भुत घटना

आचार्य धर्मपाल दीक्षांत समारोह में "नालंदा बिहार" के विशाल प्रांगण में उदबोधन कर रहे थे। प्रसंगवश उन्होंने वेदों की निंदा शुरू कर दिया॥ श्रीविद्यारण्य विरचित श्रीशंकरदिग्विजय (सर्ग--7/99) --

अदुदुषद वैदिकमेव मार्ग तथागतो जातु कुशाग्रबुद्धि:॥

अर्थात कुमारिल भट्ट कहते हैं कि एक बार एक कुशाग्रबुद्धि वाले बौद्ध ने वैदिक सिद्धांत की निंदा की। कुमारिल अपने मन की ब्यथा को सुनाते हुए कहा-- उस समय वेद की निंदा के समय अचानक मेरी आँख में अश्रु निकलने लगा और पास में बैठे क्षात्रों ने देख लिया। तभी सभी को मेरे प्रति संदेह हो गया। तभी आचार्य धर्मपाल ने कहा कुमारिल लगता है कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं हैतुम कमरे में जाकर विश्राम करो लेकिन कुमारिल सावधान हो गए और बैठे रहे तभी धर्मपाल ने पुनः वेदों की निंदा करना शुरू कर दिया पुनः कुमारिल के आँसू गिरने लगा तब तक धर्मपाल की आवाज पुनः गूँजी कुमारिल मैंने कहा कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है कमरे में चले जाओ। तभी वेदों का संवाहक वेदों का रक्षक जाग उठा अब वह कब तक वेदों की निंदा सुनता बोल उठा--! आचार्य मेरा स्वास्थ्य तो ठीक है लेकिन लगता है कि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है! सभा में सन्नाटा छा गया! कुमारिल भट्ट ने कहा आचार्य जिन वेदों को अपने देखा ही नहीं जिन वेदों को आपने पढ़ा नहीं जिसका ज्ञान आपको है ही नहीं आप उसकी निंदा किये जा रहे हैं। धर्मपाल क्रोधित होकर बोले तुम अभी सनातन मतावलम्बी हो! तुम अभी वैदिक धर्मावलंबी हो कुमारिल की आवाज़ आयी इस पर मुझे गर्ब है। महास्थविर ने कहा "मुझे खेद है और दुःख भी," । खेद इस बात का कि मैं तुम्हें सन्मार्ग पर नहीं ला सका, तथागत द्वारा निर्दिष्ट मार्ग ही एकमात्र सन्मार्ग है। "अपने वेदों के लिए मैं प्राण न्योछावर करने को तत्पर हूँ। और मैने कोई अपराध नहीं किया है मैंने वही किया है जो तथागत बुद्ध ने किया है मैंने उनके चरण चिन्हों का अनुसरण किया है।" महास्थविर ने गंभीर होकर कहा कि आप तथागत बुद्ध की निंदा कर रहे हैं, अपने आप को उनके समकक्ष खड़ा करने का प्रयत्न कर रहे हो। इसके लिए तुम्हें मृत्युदंड मिलना चाहिए, परंतु हमारा धर्म दया और प्रेम का है अतः हम तुम्हें क्षमा करते हैं और तुम्हें तत्काल इसी क्षण नालन्दा से निष्कासित करते हैं। कुमारिल ने उत्तर में कुछ भी नहीं कहा, केवल सिर झुका लिया।

विजय की मुद्रा में कुमारिल 

जो बौद्ध अपने को अहिंसक बताते हैं जो अहिंसा परमोधर्मः की बात करते हैं उन्होंने कुमारिल भट्ट को क्या सजा दी? धर्मपाल का आदेश हुआ इसे सात मंजिला की शिखर से नीचे सिर के बल फेंक दिया जाय। कुमारिल को ऊपर ले जाया गया, कुमारिल ने कहा एक क्षण समय चाहिए ध्यान में बैठ गए और कहा यदि वेद सत्य है ईश्वर की वाणी है तो मुझे कुछ नहीं होगा और कुमारिल को शिखर से नीचे फेंक दिया गया। एक अटारी से दूसरे अटारी पर गिरते हुए श्रुतियों को प्रामाण्य सावित कर दिया। उनकी एक आँख चली गई उस पर वे कहते हैं कि मैंने यदि शब्द का प्रयोग न किया होता तो शायद मेरी आँख नहीं जाती।

यदिः  संदेह्पद्प्रयोगाद  व्याजेन  शास्त्र   श्रवानाच्चहेतो;

ममोच्च देशात पततो व्यनान्क्षित तदेकचक्षुर्विधिकल्पना सा 

अर्थात कुमारिल कह रहे है 'यदि' इस संदेह सूचक शब्द प्रयोग करने के कारण गिरने पर मेरी एक आँख फूट गयी विधि की बिडम्बना ऐसी ही थी। मगध में इस घटना को सुनकर कुमारिल को लोगों ने हाथों हाथ ले लिया उन्हें महास्थविर धर्मपाल से शास्त्रार्थ के लिए प्रोत्साहित करने लगे, कुमारिल असमंजस में पड़ गए लेकिन शास्त्रार्थ के लिए तत्पर हो गए। दोनों प्रतिद्वंद्वियों ने प्रतिज्ञा लिया कि जो पराजित होगा वह दूसरे के धर्म को स्वीकार करेगा अथवा तुषानल में प्रवेश करके प्राण दे देगा। शास्त्रार्थ हुआ! महास्थविर धर्मपाल अनेक शास्त्रों के विजेता को इस बार पराजय का मुख देखना पड़ा। कुमारिल के अकाट्य तर्को ने उन्हें निरूत्तर कर दिया, परन्तु पराजित होने के बाद भी उन्होंने अपने धर्म को नहीं छोड़ा। कहा, "पराजय मेरी हुई है मेरे मार्ग की नहीं! मेरा दृढ़ विश्वास है कि कमी मुझमें है न कि मेरे सन्मार्ग की जो कि मैं सदधर्म की श्रेष्ठता साबित नहीं कर सका तथागत बुद्ध के धर्म में कोई त्रुटि नहीं है वह सभी धर्मों से श्रेष्ठ है और सदा रहेगा"। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने तुषानल में प्रवेश कर प्राण त्याग दिया। वेद की प्रामाणिकता सिद्ध करने के साथ उन्होंने बौद्धाचार्य धर्मपाल से शास्त्रार्थ कर पराजित किया। वेद सत्य है, अनादि है, अपौरुषेय है, सम्पूर्ण ज्ञान एवं सभी प्रमाणों का स्रोत केवल वेद ही है। अब कुमारिल विजयी मुद्रा में चले जा रहे थे सारे विद्यार्थी भौचक्के दिख रहे थे, कुमारिल विजयी मुद्रा में थे उन्होंने समस्त नास्तिक मतों को पराजित कर दिया था, अब मिथिला वासियों को वेदों का उद्धारक मिल गया था। और कुमारिल उसकी वैजयंती फहराते हुए यात्रा पर निकल पड़े, इस प्रकार मगध से आरंभ हुई यात्रा दिग्विजय अभियान का रूप धारण कर लिया जो अब दक्षिण की ओर बढ़ते जा रहे हैं।

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