आचार्य कुमारिल भट्ट और राजा सुधन्वा

 

कुमारिल कर्णाट देश में

बौद्धों को पराजित कर राष्ट्रवाद का बीजारोपण करने सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय का मूल स्रोत एक ही है और वह श्रुति यानी वेद है अब कुमारिल उत्तर भारत से दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे हैं नर्मदा घाटी से आगे कर्णाट का रास्ता है वे एक आधार स्तंभ खड़ा करना चाहते हैं और वह स्तंभ कर्णाट देश उज्जयिनी नगर के राजा सुधन्वा हो सकता है। इसका अर्थ है कि राजा सुधन्वा कुमारिल और आदि जगद्गुरु शंकराचार्य सभी का काल एक ही है। राजा सुधन्वा वैदिक धर्म मतावलम्बी थे, उन्हें वैदिक धर्म में पूर्ण आस्था थी परंतु देश काल परिस्थिति ऐसी थी कि कोई राजा अपने को वैदिक धर्मावलंबी बताये यह साहस का विषय था। राजा वैदिक होते हुए भी बौद्धाचार्य एवं जैनाचार्य के संपर्क में रहते थे और ऊपर से अपने को बौद्ध धर्म और जैनियों में विस्वास रखना ऐसा प्रकट करते रहते थे। इसलिए कुमारिल भट्ट ने अपना तथा वैदिक धर्म का आधार उसी राजा को बनाना तय कर उज्जयिनी चले गए।

शंकरदिग्विजय के ( सर्ग--1/62)---में उल्लेख मिलता है कि

           "राज्ञ: सुधनवन: प्राप नागरीं स जयनदिश:।  प्रत्युदगम्य क्षितिन्द्रोपि विधिवत्तमपूजयत ।।"

अर्थात आचार्य कुमारिल भट्ट दिग्विजय यात्रा करते हुए राजा सुधन्वा की नगरी में आये।राजा सुधन्वा ने आचार्य कुमारिल भट्ट की अगवानी करके विधिवत पूजा की। कुमारिल ने राजा को आशीर्वाद प्रदान किया और सुवर्ण सिंहासन पर बैठकर उसी तरह सभा को सुशोभित किया जिस तरह कामधेनु स्वर्ग के उद्यान को सुशोभित करती है।

सभा के समीप वृक्ष पर बैठी हुई कोयल की ध्वनि सुनकर पण्डितग्रणी आचार्य कुमारिल भट्ट ने व्यजोक्ति के रूप में नास्तिक जैनियो को लक्ष्य करके राजा सुधन्वा को कहा-- 

            "मलिनिश्चेत्र  संगस्ते  नीचै: काककुलै:  पिक ।   श्रुतिदुषकनिहार्दय:   शलघ्नीयस्तदा   भवे: ॥"

अर्थात पिक!  यदि तुम्हारा संबंध कानों को कष्ट पहुचाने वाली आवाज करने वाले नीच कौओं के साथ नहीं होता तो तुम निश्चय ही प्रशंसनीय होते। आचार्य कुमारिल भट्ट राजा सुधन्वा को वेदमार्ग के उत्थान के लिए चिंतित देखकर उन्होंने कहा-- राजन! आप धर्म के पुनरुत्थान के विषय में तनिक भी चिंता न करें। मेरा नाम कुमारिल भट्टाचार्य है, मैं आपके सामने दृढ़ संकल्प लेता हूँ कि बौद्धों को पराजित कर मैं वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठा करूँगा।

तत्पश्चात राजा सुधन्वा ने आचार्य कुमारिल भट्ट एवं बौद्धाचार्य जैनाचार्य को विविध रूप से परीक्षा लिया। आचार्य कुमारिल भट्ट से जितने प्रश्न राजा सुधन्वा ने पूछा सभी प्रश्नों का उत्तर कुमारिल ने दिया। बौद्धाचार्य और जैनाचार्य कोई उत्तर नहीं दे सके। बौद्धों का वादाहव का मद जब समाप्त हो गया तो आचार्य कुमारिल ने राजा को अनेक प्रकार से वेदवाक्यों के तातपर्य को समझा कर वेदों की प्रशंसा की।

 राजा सुधन्वा का पुनः वैदिक धर्म में विस्वास

कुमारिल को पूर्ण रूप से सुरक्षित देखकर राजा सुंधवा की श्रुतियों में श्रद्धा हो गई तथा अन्य सभी मतों से दूरी बना लिया। अतः आचार्य कुमारिल भट्ट राजा सुधन्वा को बौद्ध एवं जैन धर्म से मुक्ति दिला कर पुनः वैदिक धर्म अर्थात सनातन धर्म का अनुयायी बनाया। राजा सुंधवा अपने दरबार से बौद्धाचार्य एव जैनाचार्य को निकाल दिया। इस प्रकार कुमारिल भट्ट राजा सुधन्वा को नास्तिक दर्शन से मुक्त कर दिया और आस्तिक यानी सनातन धर्म का अनुयायी बनाया। राजा सुधन्वा को एक आधार खड़ा किया जिससे आगे भी दिखाई देता है कि जब आदि शंकराचार्य ने राजा सुधन्वा के यहाँ शास्त्रार्थ के लिए आये विजयी होने पर राजा ने शंकर से कहा कि बौद्ध बड़े छली हैं ये कभी भी कुछ भी कर सकते हैं इसलिए राजा सुधन्वा ने आदि जगदगुरु शंकराचार्य की सुरक्षा हेतु साथ सेना की एक टुकड़ी लगा दी। और भी सारी व्यवस्था की इसी कारण आदि शंकराचार्य को सफलता प्राप्त हुई।

भविष्य की तैयारी

अब कुमारिल भट्ट को गोविंदपाद की बात प्रवचन उपदेश ध्यान में आने लगा कि कोई महापुरुष आने वाला है उसकी पृष्ठभूमि तैयार करनी है और विचार करने लगे। त्रेता युग में जब धर्म की हानि होना शुरू हो गया तो देवताओं ने भगवान श्री राम के आने से पहले भूमिका तैयार किया और सम्पूर्ण जगत में देवता व अन्य सभी अपनी अपनी भूमिका में अपना अपना स्थान ले लिया। द्वापरयुग में जब भगवान कृष्ण को आना था उस समय भी सभी पुण्यात्माओं ने अपना अपना काम किया कहीं ग्वाल बाल के रूप में कहीं गोपियों के रूप में, कहीं पांडव के रूप में और अंत में अधर्म की पराजय हुई और धर्म विजयी हुआ। भगवान श्री कृष्ण गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं---

             " यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम॥"

भगवान गीता में कहते हैं जब जब धर्म की हानि होती है तो मैं आता हूँ, और वे आये भी कभी श्रीराम के रूप में, कभी श्री कृष्ण के रूप में और वे इस बार शंकर के रूप में आ रहे हैं। आज उसी तैयारी में कुमारिल लगे हुए हैं वे केवल आधार नहीं रख रहे हैं बल्कि सारे साज सज्जा, समान युद्ध सबकी तैयारी कर रहे हैं। वे उज्जयिनी राजा सुधन्वा जिसकी महारानी अत्यंत साध्वी वेदानुरागी है उस राजा सुधन्वा को वैदिक धर्म की पृष्ठभूमि में जोड़कर आने वाले महापुरुष के साथ खड़े होकर धर्म की विजय हो इस निमित्त आचार्य कुमारिल भट्ट की तैयारी हो रही है। और अब अपना काम पूर्ण होते देख अपने गुरुकुल महिस्मती की ओर उत्तराधिकारी की खोज के लिए चल दिए।

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