कुमारिल भट्ट और यतिवर गोविंदपाद

 

गोविंदपाद

आचार्य कुमारिल भट्ट और विश्वरूप

अगणित विजयों के पुरस्कार स्वरूप कुमारिल के नाम के साथ भट्ट अथवा भट्टाचार्य जुड़ चुका था अब प्रसिद्धि उनके आगे आगे चल रही थी। वे विजय यात्रा पर निकल पड़े थे उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर जा रहे हैं उनका प्रथम गंतव्य कर्नाट राज्य था। जहाँ का राजा सुधन्वा वैदिक धर्म के प्रति आग्रही था लेकिन आचरण में विचलन बौद्धों और जैनियों का प्रभाव भी दिखाई देता था। कुमारिल के यात्रा दल में लगभग 30 लोग थे सबसे आगे अस्वारोही दल था फिर हाथी पर कुमारिल उनके दोनोँ ओर चलती हुई शिष्य मंडली, बैलगाड़ी पर आवश्यक सामग्री तथा उपकरणों के साथ बैठे हुए अनुचर और पीछे अस्वारोही रक्षक।

नर्मदा घाटी में 

मार्ग पहाडी का उबड़ खाबड़ था सभी तेज गति में चल रहे थे लगता है कि यह विंध्याचल पर्वत की शृंखला ही होगी, अब संध्या हो चली है कहाँ छावनी पड़े इसकी चिंता होने लगी, रात्री विश्राम के लिए उपयुक्त स्थान चाहिए तभी ध्यान में आया कि कोई जल स्रोत है शायद जेष्ठा नर्मदा जी होंगी। सूर्य स्ताचल की ओर हैं तभी बालकों का खेलता हुआ एक समूह दिखाई दिया। कुमारिल ने अपनी हाथी रोका, बालकों को बुलाया उसमें एक बालक आगे आया कुमारिल ने पुछा, वत्स, क्या यहां आस पास कोई गांव है ? बालक ने उत्तर दिया, आप जो जानना चाहते थे वह तो दूर से हमे देखकर समझ गए होंगे, सूर्यास्त के समय कुछ बालक यदि खेल रहे हैं तो उनका गांव भी यहीं होगा! तो प्रश्न क्यों? कुमारिल एक क्षण भर के लिए अवाक रह गए फिर उन्होंने पूछा कि तुम्हारा गांव किधर है ? दिखाई क्यों नहीं देता है? वास्तव में यह गांव नर्मदा घाटी की गोद में बसा हुआ है, कुमारिल ने बहुत अच्छा कहते हुए बोले हम यही रुकेंगे। उस बालक ने आग्रह किया कि आप मेरे घर चले आपका स्वागत कर पिता जी बहुत प्रसन्न होंगे, कुमारिल ने कहा नहीं वत्स मेरे पास सब व्यवस्था है हम अपना पड़ाव नर्मदा जी के तट पर ही डालेंगे। परंतु हम तुम्हारे घर जरूर चलेंगे, चलो अब रास्ता बताओ। ग्यारह वर्ष के चंचल बालकसे बात करके आनंदित हो रहे थे कुमारिल तभी उन्होंने पूछा कि हमारे सेवक विश्वरूप का वर्ण क्या है? ब्राह्मण विश्वरूप ने उत्तर दिया, तुम्हारे पिता क्या करते हैं बालक ने कहा जो ब्राह्मण के लिए उचित है वही करते हैं कर्मकांडी हैं। मुझे भी वही पढ़ाते हैं! उन्होंने तुम्हें गुरुकुल नहीं भेजा ? मैं स्वयं नहीं गया मेरी कर्मकाण्ड में रूचि नहीं है, तुम अंततः जो भी दिशा पकड़ोगे उसमें सफल होगे यह मेरा आशिर्वाद है।

विश्वरूप के घर पर

विश्वरूप के पिताजी का नाम हिममित्र था वे वहां के संपन्न ब्यक्ति थे घर भी छोटा मोटा किले का स्वरूप में था, उन्हें लोग राजा कहते थे। हिममित्र ने आये हुए अतिथि का विधिवत स्वागत किया पैर धोकर अपनी उत्तरीय से पोछा आरती और माल्यर्पण किये, हाथ जोड़कर उन्होंने कहा, भगवन की कीर्ति वर्षों से सुनता रहा हूँ आज दर्शन कर धन्य हुआ। अब कुटिया पवित्र और तथा सेवक को गौरवान्वित करने की कृपा करें। स्वागत व ब्यवस्था देखकर कुमारिल चकित रह गए पूछा कि क्या आपको यह पहले से मालुम था कि हम आएंगे ? हां हमे पता था कि आप यहां आएंगे और हमारे यहाँ पधारेंगे और यह भी जनता हूँ कि आप कर्नाट राजधानी है। आप त्रिकाल दर्शी हैं! हिममित्र ने उन्हें बताया कि एक महात्मा प्रातःकाल आये थे उन्होंने बताया था कि आप आएंगे और उनका स्वागत आतिथ्य करना चाहिए। कौन थे वे महात्मा? हिममित्र को पता नहीं था। रात्रि विश्राम के पश्चात जब कुमारिल जाने लगे तो कुमारिल ने कहा कि भोजन के पश्चात ब्राह्मण को दक्षिणा दी जाती है हम मनचाहा दक्षिणा लेंगे, सेवक प्रस्तुत है आचार्य! कुमारिल ने उनके प्रिय पुत्र विश्वरूप को ही मांग लिया तुरंत हिममित्र ने स्वीकार कर दिया क्योंकि उस महात्मा ने बताया था कि वे जो मागेंगे उसे देना चाहिए। और अपने इकलौते बेटे को समर्पित कर दिया।

गोविंदपाद से भेंट

 वे महात्मा एक आम के बृक्ष के नीचे अकेले में मिले उन्होंने कहा विस्मय मत करो, थोड़ा निकट आकर बोले, वत्स कुमारिल हमे तुमसे बहुत कुछ कहना है हम वही कहने के लिए गुफा से निकल कर आये हैं, कहा अब बैठकर हमारी बात सुनो। उस महात्मा ने उन्हें बताया हम सब एक महान प्रयोजन के निमित्त मात्र है। उस महायज्ञ के होता है जिसकी पूर्णाहुति आने वाले समय में एक महामानव देगा। उसका अवतरण हो चुका है सीघ्र ही हमारा मार्ग प्रसस्त करेगा उसकी सफलता के लिए उपयुक्त परिस्थितियों का हमे निर्माण करना है। वह महामानव कौन हैं कुमारिल ने पूछा! यह हमें भी ज्ञात नहीं है शताब्दियों पहले वैदिक धर्म पर जो ग्रहण लगा था अब उसके निवारण का समय आ गया है, उद्धारकर्ता का जन्म हो चुका है वह कहाँ जन्मा है, उसकी संज्ञा क्या है कुछ पता नहीं, कब जन्मा है हम नहीं जानते। वह स्वयं हमारे पास आएंगे और अपने आप को प्रकाशित करेंगे उसी दिन की प्रतीक्षा में अभी तक जीवित हैं। जब तक वह नहीं आता तब तक हम उसकी थाती अपना सम्पूर्ण ज्ञान अपनी सिद्धियां उसे सौंप नहीं देते तब तक इस शरीर का वहन करना हमारी विवसता है। 

गोविंदपाद का कुमारिल को उपदेश

वैदिक धर्म के नवजागरण में तुम्हारी भूमिका सराहनीय तथा अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अतः तुम जो कर रहे हो करते जाओ परंतु यदि नया आयाम दे सको तो अधिक प्रभावकारी होगा। अवैदिक मतों का खंडन अवश्य करो, परन्तु साथ ही विचार करें कि उनका उद्भव और विस्तार क्यों हुआ? कारण खोजना होगा उसके लिए धर्म का विश्लेषण करना आवश्यक है क्योंकि नए पंथों का उद्भव प्रतिक्रियात्मक है यह कहकर महात्मा मौन हो गए। उन्होंने बताया कि वैदिक धर्म सबसे प्राचीन, सबसे महत्वपूर्ण और सम्पूर्ण धर्म है, इसी कारण सनातन धर्म कहा जाता है। परंतु परिवर्तन नियम से परे नहीं है इस संसार में ब्रम्हा जी और वेदों के अतिरिक्त जो भी है वह सब परिवर्तनशील है, धर्म को भी होना चाहिए। उसकी और जल की प्रबृत्ति समान होती है, जब जल ठहर जाता है तब उस पर काई जमने लगती है जो समय के साथ बढ़कर सम्पूर्ण जल को आच्छादित कर देती है। इसी प्रकार जब धर्म में ठहराव आता है तो उसमें विकृतियां उत्पन्न होने लगती हैं और वह रूढ़ तथा आत्महीन हो जाता है। अतः नए मतों का खंडन अवश्य करो परंतु साथ ही अपने धर्म को भी देखो- समझो कि यदि रूढ़ हो गया है तो उसे गतिशील बनाओ। तभी तुम्हारे धर्म की विजय होगी अभी तो केवल तुम्हारी हो रही है। धर्माचार्य ने पुनः कहा! वर्ण व्यवस्था को ही देखो क्या यह मूलतः कर्म आधारित व्यवस्था थी आज पूर्णतया जन्म-आधारित नहीं बन गई है ? क्या इसमें ऊँच नीच की भावना नहीं पनप रही है? धीरे धीरे यह वर्ग प्रताड़ित किया जाएगा और फिर प्रतिक्रिया स्वरूप वैकल्पिक व्यवस्था की ओर आकृष्ट होगा। अतः वैदिक धर्म का उद्धार करना है तो उसे उदार बनाये रखो विकृतियां खोजो और उसे दूर करो। 

एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति 

हमारे दूसरे उपदेश का संबंध सनातन धर्म की आंतरिक एकता से है, हमारे अनेक देवता हैं हमारी दृष्टि में सभी पूज्य हैं सभी उपास्य हैं, परंतु उपासकों ने अलग अलग सम्प्रदाय बना लिए हैं और प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को श्रेष्ठ बताता है, इस कारण परस्पर संघर्ष की संभावना रहती है यह धर्म के हित में नहीं है विविधता उदारता की वैचारिक स्वतंत्रता का द्योतक है। विविधता में एकता के सारे सूत्र वेदान्त में उपलब्ध है उस अद्वैत ब्रम्ह का प्रतिपादन करो जो सच्चिदानंद है, जो जगत की उत्पत्ति तथा लय का कारण है। वह प्रदेशहीन है मन, बुद्धि, वाणी से परे है अंतः उपासना का विषय नहीं हो सकता "अहं ब्रम्हास्मि" "एकं सद विप्रा बहुदा वदन्ति" उसकी अनुभूति, आत्मज्ञान द्वारा उससे तादात्म्य। हमारे तीसरे उपदेश का संबंध तुम्हारे संभाषण शैली से है! शास्त्रार्थ में दो शैलियों का प्रयोग किया जाता है या तो बिपक्ष की मान्यताओं का खंडन करता है या तो अपने पक्ष का मंडन। अधिकांश शास्त्रार्थी विपक्ष की मान्यताओं का खंडन करते हैं यह निति संगत नहीं है खंडन द्वारा बिपक्ष के तर्क जाल को ध्वस्त किया जा सकता है लेकिन अपने पक्ष की श्रेष्ठता प्रमाणित नहीं की जा सकती। अतः मंडन अधिक करो, खंडन आवश्यकता अनुसार न्यूनतम मात्रा में करो। कुमारिल के मन में कई प्रश्न उमड़ रहा था लेकिन महात्मा ने उन्हें अवसर नहीं दिया। अब कुमारिल परेशान थे आखिर ये महात्मा हैं कौन और कौन हो सकता है ? इस बर्तमान समय में जो कुमारिल को उपदेश दे सके! वास्तव में वे कोई और नहीं नर्मदा घाटी में तपस्या रत वेदव्यास शिष्य गौडपादाचार्य के शिष्य गोविंदपाद थे।

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