सावरकर का सच...!

 

इतिहास में छुपाया गया एक सच ...वीर सावरकर !

45 साल के महात्मा गाँधी 1915 में भारत आते हैं, 2 दशक से भी ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में बिता कर ! गांधी अफ्रीका क्या करने गए थे ? आजादी की लड़ाई के लिए अथवा देश सेवा के लिए तो नहीं गए थे ! वे वकालत करने अथवा पैसा कमाने के लिए ही गए थे। गाँधी को क्यों प्लांट किया गया? यह भी शोध का विषय है! और क्यों गाँधी ने नेहरू का चयन किया यह भी शोध का विषय है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को क्यों सैनिक अपराधी घोषित किया गया यह भी देश के सामने आना चाहिए, देश विभाजन के बाद क्रांतिकारियों का अपमान क्यों किया गया? क्या कोई कांग्रेसी नेता आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूमा! अथवा वह जेल के सलाखों के पीछे गया यह भी शोध का विषय है, ऐसा क्या कारण है कि जिसका आजादी में कोई योगदान नहीं रहा उन्हीं लोगों को श्रेय दिया गया ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिसे आने वाली पीढ़ियों को बताना होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ी को आजादी की कीमत समझ में नहीं आएगी। गांधी के अफ्रीका से आने के चार साल पहले 28 वर्ष का एक युवक अंडमान में एक काल कोठरी में बन्द होता है। अंग्रेज उससे दिन भर कोल्हू में बैल की जगह हाँकते हुए तेल पेरवाते हैं, रस्सी बटवाते हैं और छिलके कूटवाते हैं। वो तमाम कैदियों को शिक्षित कर रहा होता है, उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ प्रगाढ़ कर रहा होता है और साथ ही दीवालों कर कील, काँटों और नाखून से साहित्य की रचना कर रहा होता है। उसका नाम था- विनायक दामोदर सावरकर।

उन्हें भी कई बार आत्महत्या के ख्याल आते। उस खिड़की की ओर एक-टक देखते रहते थे, जहाँ से अन्य कैदियों ने पहले आत्महत्या की थी। पीड़ा असह्य हो रही थी। यातनाओं की सीमा पार हो रही थी। अंधेरा उन कोठरियों में ही नहीं, दिलोदिमाग पर भी छाया हुआ था। दिन भर बैल की जगह कोल्हू घुमाते रहो, रात को करवट बदलते रहो। 11 साल ऐसे ही बीते। कैदी उनकी इतनी इज्जत करते थे कि मना करने पर भी उनके बर्तन, कपड़े वगैरह धो देते थे, उनके काम में मदद करते थे। सावरकर से अँग्रेज बाकी कैदियों को दूर रखने की कोशिश करते थे। अंत में बुद्धि को विजय हुई तो उन्होंने अन्य कैदियों को भी आत्महत्या से विमुख किया। लेकिन नहीं, महा गँवारों का कहना है कि सावरकर ने मर्सी पेटिशन लिखा, सॉरी कहा, माफ़ी माँगी। क्या अब इस कसौटी पर क्रांतिकारियों को तौला जाएगा? शेर जब बड़ी छलाँग लगाता है तो कुछ कदम पीछे लेता ही है। उस समय उनके मन में क्या था, आगे की क्या रणनीति थी- ये आज कुछ लोग अपने घरों में बैठे-बैठे जान जाते हैं।

कौन ऐसा स्वतंत्रता सेनानी है जिसे 11 साल कालापानी की सज़ा मिली हो। नेहरू ? गाँधी ? ..कौन ?

नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुँवर सिंह जैसे कितने ही वीर इतिहास में दबे हुए थे। 1857 को सिपाही विद्रोह बताया गया था। तब इसके पर्दाफाश के लिए 20-22 साल का एक युवक लंदन की एक लाइब्रेरी का किसी तरह एक्सेस लेकर और दिन-रात लग कर अँग्रेजों के एक के बाद एक दस्तावेज पढ़ कर सच्चाई की तह तक जा रहा था, जो भारतवासियों से छिपाया गया था। उसने साबित कर दिया कि वो सैनिक विद्रोह नहीं, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। उसके सभी अमर बलिदानियों की गाथा उसने जन-जन तक पहुँचाई। भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने मिल कर उसे पढ़ा, अनुवाद किया।

दुनिया में कौन सी ऐसी किताब है जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था? अँग्रेज कितने डरे हुए थे उससे कि हर वो इंतजाम किया गया, जिससे वो पुस्तक भारत न पहुँचे। जब किसी तरह पहुँची तो क्रांति की ज्वाला में घी की आहुति पड़ गई। कलम और दिमाग, दोनों से अँग्रेजों से लड़ने वाले सावरकर थे। दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सावरकर थे। 11 साल कालकोठरी में बंद रहने वाले सावरकर थे। क्रांतिकारियों की नर्सरी थे सावरकर ! क्रांतिकारियों की मिसाइल थे सावरकर ! क्रांतिकारियों के प्रेरक थे सावरकर ! क्रांतिकारियों के दिलों की धड़कन थे सावरकर ! निराशा में आशा की किरण थे सावरकर, हिंदुत्व को पुनर्जीवित कर के राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले सावरकर थे। साहित्य की विधा में पारंगत योद्धा सावरकर थे।

आज़ादी के बाद क्या मिला उन्हें ? अपमान ! 

 नेहरू व मौलाना अबुल कलाम जैसों ने तो मलाई चाटी सत्ता की, सावरकर को गाँधी हत्या केस में फँसा दिया। गिरफ़्तार किया। पेंशन तक नहीं दिया। प्रताड़ित किया। भारत आजादी के बाद भी उन्हें एक देशद्रोही मुजरिमों की तरह परेशान किया गया । हर मौके पर उन्हें अपमानित करना , दुर्व्यवहार करना तत्कालीन कांग्रेस दैनिक दिनचर्या थी। 60 के दशक में उन्हें फिर गिरफ्तार किया, आदरणीय सवारकर जी प्रतिबंध लगा दिया जाता था। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में जाने से मना कर दिया गया। ये सब उसी भारत में हुआ, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। आज़ादी के मतवाले से उसकी आज़ादी उसी देश में छीन ली गई, जिसे उसने आज़ाद करवाने में योगदान दिया था। उस असंवेदन शील कांग्रेसी झुंड में धरतीपुत्र, गरीबों के हमदर्द, देश के सच्चे सपूत आदरणीय लाल बहादुर शास्त्री जी जैसे बलिदानियों की सुध लेने वाले एक महान इंसान भी थे। जब शास्त्री जी प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने आदरणीय सवारकर जी के लिए पेंशन की व्यवस्था किया। वीर सावरकर जी का जितना अपमान नेहरू ने किया उसे भारतीय सामाज कभी माफ नहीं करेगा और यह सावरकर का अपमान नहीं बल्कि देश के क्रान्तिकारियों का अपमान है। और नेहरू के वंशज यह बोलने में कोई गुरेज नहीं करते कि मैं सावरकर थोड़े हूं! अरे सावरकर होना तुम्हारे बस की बात नहीं है और तुम्हारे पूर्वज भी सावरकर बनने की कूवत नहीं रखते थे। वो कालापानी में कैदियों को समझाते थे कि धीरज रखो, एक दिन आएगा जब ये जगह तीर्थस्थल बन जाएगी। आज भले ही हमारा पूरे विश्व में मजाक बन रहा हो, एक समय ऐसा होगा जब लोग कहेंगे कि देखो, इन्हीं कालकोठरियों में हिंदुस्तानी कैदी बन्द थे। सावरकर कहते थे कि तब उन्हीं कैदियों की यहाँ प्रतिमाएँ होंगी। आज आप अंडमान जाते हैं तो सीधा 'वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट' पर उतरते हैं। सेल्युलर जेल में उनकी प्रतिमा लगी है। उस कमरे में प्रधानमंत्री भी जाकर ध्यान धरते हैं, जिसमें वीर सावरकर को रखा गया था। 

आज कुछ नेता सावरकर जी पर कमेंट करते हैं कि "मैं सावरकर थोड़े हूं!" अरे सावरकर होना तुम्हारे बस का नहीं है और तुम्हारे पूर्वजों के बस का भी नहीं था। तुम्हारे पूर्वज तो केवल और केवल अंग्रेजों के दलाल थे और इसके शिवा कुछ भी नहीं! नेहरू तो अंग्रेजों की योजना से प्रधानमन्त्री बना था न कि भारतीय जनता ने बनाया था। इसलिए बोलते समय किसके बारे में बोल रहे हैं ध्यान रखना चाहिए, लेकिन यह भी आप नहीं कर सकते क्योंकि यह अपेक्षा किसी भारतीय से ही की जा सकती है न कि किसी विदेशी डीएनए के व्यक्ति से।

ह्रदय से नमन वीर विनायक दामोदर सावरकर जी 

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