जनजाति समाज-हिंदू संस्कृति की कुंजी

 

जनजाति और सनातन धर्म 

कौन हैं जनजाति--?

जाति और जनजाति मानसिकता भारतीय मानसिकता न होकर औपनिवेशिक मानसिकता है जिसके जाल में भारतीय समाज फंस गया है, हमें इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने की आवश्यकता है। 2013-14 में झारखंड में धर्म जागरण समन्वय के जनजातीय परियोजनाओं की बैठक चक्रधरपुर (जमशेदपुर) में हुई जिसमें 'सबर जनजाति' के कार्यकर्ता भी आये थे उनके सामने चुनौती थी कि उनके महापुरुष कौन हैं ? उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? कुछ पता नहीं था। लेकिन जब ग्रंथों का अध्ययन किया जाता है तो ध्यान में आता है कि ये तो कहीं न कहीं ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण के ही थे, कहीं न कहीं विश्वामित्र के वंशज हैं। सात्विक नियमों के पालन न कर पाने के कारण शूद्र वर्ण में चले गए लेकिन अछूत नहीं क्योंकि हिंदू वांग्मय में छुवाछुत था ही नहीं और इसका कोई उल्लेख किसी धर्म ग्रंथों में नहीं मिलता ! डा. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्रों की खोज" में लिखा है कि ये वो शुद्र नहीं है क्योंकि उस समय वर्ण व्यवस्था थी लेकिन ऊंच नीच, भेद भाव नहीं था। आगे वे इसी पुस्तक में लिखते हैं कि छुआ छूत इस्लामिक काल की देन है।

ब्राह्मण ग्रंथों  का मत --!

जब हम अपने विभिन्न धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हैं तो ध्यान में आता है कि जनजाति हमारे ही पूर्वज हैं।यजुर्वेद में एक स्थान पर वर्णन है कि कीरत गुफाओं में रहते थे और पहाड़ पर आते रहते थे। 'पंचविंश ब्राह्मण' और 'शतपथ ब्राह्मण' (11.4.14) किरातों के एक विशिष्ट परिवार 'कीरत कुल' की ओर संकेत करते हैं, जिसके अनुसार वे इस देश के मूलवासी थे। कीरत शब्द पहाड़ों, जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में निवास करने और शिकार करने वालों के लिए प्रयोग किया जाता था। उन्हें जंगली गैर आर्य माना जाता था। "आर्य" का अर्थ कोई जाति व वर्ण नहीं बल्कि संस्कार से लिया जाता था, यानी गैर जनजातीय समुदाय के लिए संस्कृति शब्द "आर्य" का प्रयोग किया जाता था। उन्हें जंगली असभ्य आर्य (जनजाति) माना जाता था।

महर्षि मनु क्या कहते हैं ?

यहां यह बताना आवस्यक है कि कुछ जनजातियों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से माना जाता है और कुछ का क्षत्रियों से। "मनुस्मृति" के अनुसार कम से कम बारह जातियाँ-- पौंड्रक, औद, द्रविड़, कंबोज, यवन, शक, परद, पहलव, चीना, कीरत, दरद, और खस ये जातियाँ क्षत्रिय से शूद्र वर्ण व्यवस्था में गिर गई क्योंकि इन्होंने पवित्र अनुष्ठानों का पालन नहीं किया, धार्मिक कर्तब्यों और वेदों में दिये गए आदेशों की अवहेलना की, धार्मिक आदेशों और नियमों का उलंघन किया और ब्राह्मणों से परामर्श भी नहीं लिया। जो जातियां आर्य श्रेणी में नीचे गिर गई उन्हें प्रारंभ में व्रात्य कहा जाता था, लेकिन बाद में उन्हें दस्यु, म्लेच्छ, शूद्र इत्यादि नामों से पुकारा जाने लगा।

औपनिवेशिक काल

आधुनिक युग में मनुष्यों की सारीरिक बौद्धिक अथवा नैतिक विशेषताओं में वर्गीकरण को अकादमिक क्षेत्र में अन्ततः संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है। इसलिए औपनिवेशिक काल में प्रस्तावित जातीय सिद्धांतों को हम कोई महत्व नहीं देते हैं, क्योंकि ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने भारतीयों की अद्भुत क्षमता को देखकर उन्होंने भेद पैदा करने का काम किया और वामपंथी विचारधारा के लेखकों ने बढ़-चढ़ कर हिंदू समाज में भेद पैदा करने, ग्रंथों का गलत तरीके से परिभाषित करने का काम किया जो हमारी ताकत थी उसी को कमजोरी बताने का काम किया। लेकिन इनके कई जातीय पूर्वग्रह धोखे से हमारे विद्वत वर्ग व विस्तृत समाज में भी प्रवेश कर गए है। और अक्सर अनजाने में गंभीर विद्वानों द्वारा भी प्रयोग किया जाता है। इसलिए हम भारतीयों के औपनिवेशिक जातीय वर्गीकरण और चर्च और साम्राज्य के लिए उसके महत्व पर लघु दृष्टि डालेगें।

वैदिक ऋषि और राजा

कीरतों में विंध्य क्षेत्र की पुलिंद, सबर और मुटिबा जैसी सजातिय जनजातियां सामिल हैं, जिन्हें पारंपरिक रूप से प्रसिद्ध वैदिक ऋषि विश्वामित्र के पचास पुत्रों का वंशज माना जाता है। अपने पिता द्वारा ब्राह्मण वर्ण से से निकाले जाने के पश्चात उन्हें दस्यु निर्वासित कहा जाने लगा। 'दस्युनाम भुथिस्था'  (ऐतरेय ब्राह्मण) के अनुसार इनमें से कुछ सीमांत क्षेत्र के म्लेच्छों से मिल गए, अन्य दक्षिण की ओर चले गए और उनके वंशज पुलिंद, सबर, और मुटिबा कहलाये। अनेक ब्राह्मण और पौराणिक परम्परायें बताती हैं कि अनेक आर्य वर्ण की जनजातियों को उनके जंगली रहन सहन और रीति-रिवाजों का पालन न करने के कारण पुनः अनार्य वर्गीय परिवार होते गये ।

राजा ययाति ने भी तुर्वसु को जो यवन और म्लेच्छों से मिलता था, सहित अपने बेटों को निर्वासित कर दिया। राजा सगर ने शक, यवन और कांबोजों को गैर वैदिक कहकर विभिन्न दिशाओं में भगा दिया। यवन पदच्युत क्षत्रिय थे। 'मनावधर्मशास्त्र'के अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि स्थानीय मलेच्छ क्षत्रिय वर्ण के थे और धार्मिक कर्तव्य नहीं निभा पाने के कारण उन्हें इस वर्ण से पदच्युत किया गया। स्थानीय जनजातियों ने जैसे कीरत, द्रविड़, अभीर, शिवि, त्रिगर्त और यौधेय व्रत्य (पदच्युत) क्षत्रिय थे (थापर:1984: 164-5)

कई जनजाति ब्राह्मणों से

कीरत, जिनमें सभ्य और असभ्य ब्राह्मण व गैर ब्राह्मण शामिल थे, विंध्य क्षेत्र के विशाल जंगलों में मिल-जुल कर रहते थे। इनमें निषाद भी शामिल थे। एक इतिहासकार कहते हैं कि मतंग नामक एक कीरत ने यज्ञोपवीत धारण कर राजवाहन नामक राजकुमार से कहा कि वह एक ब्राह्मण का पुत्र है। राजकुमार को जंगल में मगध (राजधानी पुष्पपुरा) के राजा राजहंस ने भेजा था, जिसने वहां मालवा के राजा मानसर से पराजित होकर बाद में शरण ली थी। मतंग का आतिथ्य स्वीकार करने के पश्चात राजकुमार ने उससे पूछा कि वह क्यों इस भयानक जंगल में रह रहा है ? जबकि यज्ञोपवीत से तो ब्राह्मण लगता है, उसके सारे शरीर में घाव लगने के कारण उसे कीरत कहते हैं। मतंग ने कहा जंगल में कई ऐसे लोग हैं, जो केवल नाम के ब्राह्मण हैं, क्योंकि वे जाति नियमों का पालन नहीं करते और जंगलियों, वनचर जैसे रहते हैं। हालांकि अनेक ऐसे भी हैं जो बहुत सभ्य हैं, शास्त्र और तंत्र पढ़ते हैं और ब्राह्मणों की रक्षा भी करते हैं।

एक और घटना जिसका वर्णन इस प्रकार मिलता है, मिथिला का राजा, मगध के राजा का निकट का सहयोगी यानी मित्र था मिथिला के राजा प्रहारवर्मन जब मालवा के राजा से पराजित होकर अपनी राजधानी लौट रहा था तो उसने एक संकटपूर्ण जंगली रास्ते से गुजरते हुए किरतों और सवरों (मूल रूप से विंध्य जनजातियां) की देवी चण्डिका या दुर्गा के प्रति निष्ठा देखी जिससे उनकी ब्राह्मण उत्पत्ति सिद्ध हो गई। विद्वानों का मानना है कि दंडिन द्वारा इस घटना का वर्णन प्रामाणिक और अत्यंत ऐतिहासिक महत्व का है, क्योंकि बर्बरता और ब्राह्मणवाद का एक ही जनजातीय समुदाय में ऐसा अनोखा सम्लित और कहीं नहीं मिलता। इसके अलावा यह "महर्षि मनु" की ब्याख्या को भी प्रमाणित करता है। इसलिए सुनीत कुमार चटर्जी चेतावनी देते हैं कि, "जब किसी पुराने भारतीय मूल-पाठ में गैर-आर्य अथवा विदेशियों को गिरे हुए क्षत्रिय वर्ण के रूप में बताया जाता है तो इसके पीछे सदैव यह अभिप्राय है कि वे कम से कम सभ्यता या सैन्य संगठन में आगे थे और इसलिए उन्हें केवल बर्बर कहकर अस्वीकार नहीं किया जा सकता।"

हिमालयी राज्यों में शासक

कीरत हिमालय की घाटियों के निवासी थे और उन्होंने नेपाल में लंबे समय तक चलने वाली एक राजवंश की स्थापना की। वे उत्तराखंड के वर्तमान में अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ क्षेत्र में रहते थे, जहां प्राचीन काल से लोग रहते आ रहे हैं।  'कल्कि पुराण' में उन्हें कामरूप का मूल निवासी बताया गया है। कश्मीर में "कल्हण" (1148-50 ईसवी) 'राजतरंगिणी' में एक स्थानीय वन जनजाति के रूप में इनका उल्लेख किया है। दक्षिण में कीरत जैसे बोया और बेड़ा हिंदू समाज के कपास का काम करने वाले थे। वे स्वयं को 'निषादुलु' 'निषादु' के वैद्य वंशज बताते थे। अंग्रेजों ने जंगली जनजातियों के रूप में उनका वर्गीकरण किया, जो ब्राह्मणों को पुरोहित के रूप में रखते थे।

महाभारत कालीन

उत्तर पूर्व में अनेक अत्यंत प्राचीन कीरत जनजातियां हैं जैसे--नागा (नागालैंड) गारो, खासी, जैंतिया (मेघालय, असम, त्रिपुरा) अका, मिसमिस (अरुणांचल) कछारी (असम) चुटिया(असम) हिल-टिप्पये (अरुणांचल) जहॉ तक मिशमिस जनजाति का है तो उसका संबंध ब्रह्मकुंड से है, जो सुदूर पूर्व में हिंदू तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाता है। जिसे परसुराम कुण्ड के नाम से भी जानते हैं, कहते है कि परसुराम ने इसी कुंड में अपने परसु को धोया था जिसकी बहुत मान्यता है सम्पूर्ण देश भर से लोग यहां आते हैं। इस क्षेत्र में किरतों की आदि कालीन जड़े उनके राजा "घटक" तक जाती है, जिन्हें "नरक" ने पराजित किया था और जिन्होंने चाइना व अन्य जनजाति सहित महाभारत के युद्ध में नरक के उत्तराधिकारी, "राजा भगदत्त" की सेना की ओर से युद्ध करने गया था। (महा. सभा पर्व-उद्दोग पर्व) 

वर्ण व्यवस्था के अंग

सातवीं शताब्दी के एक वर्णन में किरतों को विंध्य पर्वत की भिल्ल, लुब्धक और मतंग जनजातियों को समान रूप बताया गया है। "दंडिन" बल देते हैं कि कीरत और सबर एक ही है, ये सभी पर्वतारोही और जंगलों में रहने वाले थे, धनुर्धर और लड़ाकू सबर कहलाये, जबकि शिकारी पुलिंदा थे। "कल्हण की राजतरंगिणी" किरतों की भीलों, विंध्य पर्वत और राजस्थान की एक स्थानीय जनजाति से संबंध की पुष्टि करती है। 'कीचक' जो नेपाल और भूटान के बीच पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे और मैसूर के 'बेदर' भी 'कीरत' ही थे। इस प्रकार जब हम अध्ययन करते हैं तो ध्यान में आता है कि ये पहले आर्यों के प्रचलित वर्ण व्यवस्था के अंग थे उसमे ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण से आते थे। जैसा कि सनातन धर्म में वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था थी कोई भी किसी वर्ण का हो सकता था सभी को वेदाध्ययन का अधिकार था सभी गुरुकुलों में पड़ने जाते थे और उनकी क्षमता -योग्यता के अनुसार उनका वर्ण निर्धारण होता था। 

श्रीअरविंद के शब्दों में--!

"वह समस्त आध्यत्मिक उपासना और अनुभव का संश्लेषण बन गई, अपने अनेक पक्षों में से एक सत्य का अवलोकन किया, स्वयं को कोई विशिष्ट नाम या सीमित करने वाली विशिष्टता ने देकर अपने निरंतर चलने वाले पंथों और विभाजनों को केवल पदवालियाँ दी। अपनी मूल भूत विशेषता में, अपने पारंपरिक धर्मग्रंथों, संप्रदायों और चिन्हों के माध्यम से विशिष्ट रूप से भिन्न यह एक सैद्धांतिक धर्म न होकर आध्यात्मिक संस्कृति की विस्तृत, सर्वव्यापक और एकीकृत करने वाली प्रणाली है।"

जाति का उदय

बहुत सारे ऋषियों-मुनियों और विचारकों का मत है कि जाति का उदय विभिन्न समूहों के एकीकरण, माध्यम और आपसी मतभेद सुलझाने के तंत्र के रूप में हुआ था।जैसे-जैसे प्राचीन रीति रिवाजों का विस्तार हुआ मानवजातीय अंतर समाप्त और जनजातियों और अन्य समुदायों ने स्वयं को जातियों के केंद्र के इर्द-गिर्द भली-भाँति समायोजित कर लिया। क्योंकि इस एकता ने सभी को अपने मे समेट लिया, इसलिए जातियां भारतीय समाज का एक मात्र और पर्याप्त बंधन अथवा सुरक्षा कवच सिद्ध हुई। इसी भूमि की उपज होने के कारण हिंदू धर्म वंशानुगत सिद्धांतों के व्यवहारों पर बल देता है। जन्म और आनुवंशिकता का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण वन गया और सभी हिंदू समाज के लिए गोत्र अनिवार्य हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि जैसा जनजातियों में पूर्वजों की आत्मा का आह्वान सभी संस्कारों में किया जाता था जो लंबे समय से चले आ रहे अनुवांशिक गुणों के कारण व्यक्ति के संस्कारों का योग्य होने के प्रतीक थे। अतः इस कार्य में उन लोगों के साथ आध्यात्मिक समानुभूति शामिल है, 'जिन्होंने हमें पैदा किया है।'

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