हिंदू धर्म में जगद्गुरुओं की परंपरा और उनके कर्तव्य।

 

महाभारत के पूर्व का वैदिक काल

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि जब-जब धर्म की हानि होती है अधर्म बढ़ता है तब-तब मैं आता हूँ और वे आये भी! कभी आदि शंकर के रूप मे तो कभी रामानुज, कभी रामानंद तो कभी ऋषि दयानन्द के रूप में और अपना कार्य करते हुए चले गये। उसी क्रम में हिंदू समाज के अंदर राष्ट्रीय हित में जगद्गुरु की परंपरा कोई 2500 वर्ष पूर्व शुरू हुई। इस प्रकार सनातन धर्म में कई प्रकार के दर्शन, सोध और शास्त्रार्थ के आधार हुए हैं। यहां ऐसा नहीं है कि जो किसी पैगम्बर ने कोई विषय, परंपरा तय कर दिया तो वही शास्वत रहने वाला है। यहां सैकड़ों, हज़ारों वर्षों की तपस्चर्या, साधना व सोध के आधार पर ये दर्शन, मत और पंथ बने हैं। यह बात सत्य है कि शंकर मत अद्वेत का प्रथम मत माना जा सकता है, महाभारत काल के पहले सनातन धर्म में कोई सम्प्रदाय नहीं था लेकिन शास्त्रार्थ होता था जिसे ज्ञान मार्ग कहा जा सकता है। वैदिक काल में सारा मानव जगत वेदानुसार जीवन ब्यतीत करता था। महाभारत के शान्ति पर्व में जब धर्मराज युधिष्ठिर वाण शैया पर पड़े भीष्म पितामह से उपदेश ग्रहण करने जाते हैं तो भीष्म पितामह कहते हैं: हे पुत्र, "न राज्यम न राजाशीत न दंडो न दण्डिका" वे कहते हैं कि पुत्र उस समय जब वैदिक काल था तब न कोई राजा था न कोई राज्य था न कोई गलत कार्य करता था न कोई दण्डाधिकारी ही था। इस वैदिक काल में लोग धर्मानुसार जीवन जीते थे। कोई मत पंथ और संप्रदाय नहीं था न कोई जगद्गुरु था।

महाभारत के पश्चात

महाभारत काल आज के पांच हजार वर्ष पूर्व का काल था उस समय भी कोई जातीय भेदभाव व व्यवस्था नहीं था, कोई मत पन्थ न होने के कारण कोई भेद भी नहीं था। यह शास्वत सत्य है कि नित्य नूतन खोज सनातन धर्म यानी हिंदू समाज की विशेषता रही है। महाभारत काल के सबसे बड़े आचार्य वेदव्यास जी थे ऐसी मान्यता है कि वे चारों वेदों के ज्ञाता थे लेकिन उनका झुकाव भक्ति मार्ग की ओर अधिक था। उसी समय एक और आचार्य हुए और यदि यह कहा जाय कि वे उनके शिष्यों में से एक थे जिनका नाम था याज्ञवल्क्य। याज्ञवल्क्य ज्ञान मार्गी थे वे "अहं ब्रम्हास्मि" यानी "ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या" के पक्षधर थे। महाभारत में वड़ी संख्या में योद्धा, संत ज्ञानी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे कितने विद्वान वीर योद्धा समाप्त हो गए कहना कठिन है। एक पुस्तक में वैदिक विद्वान गुरूदत्त लिखते हैं कि महाभारत में इतनी हानि हुई थी कि महिलाएं ही महिलाएं दिखाई देती थीं इतना ही नहीं तो जीवकोपार्जन के लिए बहुत स्थानों पर वेश्या वृत्ति शुरू हो गई थी। इस कारण वैदिक धर्म संस्कृति का भी वड़ा ह्रास हुआ था। आगे चलकर आर्यावर्त में धार्मिक हिंसाचार फैल गया था, महाभारत के कोई दो हजार वर्ष बाद गौतम बुद्ध नामक एक सन्यासी का जन्म होता है। उनकी कुछ कारणों से शिक्षा दीक्षा नहीं हुई थी जबकि वे राजा के लड़के थे, उन्होंने शान्ति का मार्ग खोजा महाबीर और महात्मा बुद्ध दोनों ने नास्तिक मार्ग को अपनाया। सनातन धर्म में प्रथम बार ये मत सम्प्रदाय शुरू हो गया। लेकिन यह दुर्भाग्य पूर्ण रहा भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी दोनों वैदिक सिद्धांत मानते थे न कि वेद विरुद्ध थे धीरे धीरे उनके अनुयायी वेद विरोधी होते चले गए। अराष्ट्रीयता की भावना घर करने लगी और एक समय ऐसा आया कि ये सारे देश में वैदिक साहित्य नष्ट करने लगे, मंदिरों को भी ध्वस्त करने लगे देश में अराजकता का वातावरण होने लगा। उसी समय दक्षिण में एक शंकर नामक बालक का जन्म केरल के कालड़ी नामक गाँव में जन्म हुआ।

आदि जगद्गुरु शंकराचार्य

केरल के कालड़ी नामक गाँव में शंकर नामक बालक का जन्म हुआ यही बालक आगे चलकर आदि जगद्गुरु शांकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ। चार वर्ष में ही उस बालक को वेद-उपनिषदों का अध्ययन ही नहीं कंठस्थ हो गया लोगों ने उनके अंदर ईश्वर को देखा। उन्हें अल्प आयु मिली केवल 32 वर्ष की आयु में स्वर्ग चले गए, उन्होंने पूर्व से पश्चिम और उत्तर हिमालय से दक्षिण केरल तक की अनवरत शास्त्रार्थ यात्रा किया। उज्जैन के राजा सुंधवा ने उन्हें अपनी सेना भी साथ रखने के लिए दिया। उन्होंने शंकराचार्य की उपाधि ग्रहण किया शास्त्रार्थ द्वारा सभी नास्तिक मतों को परास्त कर वैदिक धर्म का प्रचार किया जो राजा महाराजा बौद्ध अथवा जैन हो गए थे सभी वैदिक मतावलंबी हो गए। पूरे आर्यावर्त में वैदिक ध्वजा फहराने लगी। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य भारत के प्रथम आचार्य थे जो अविवाहित थे उन्होंने अविवाहित सन्यासियों की श्रृंखला ही खड़ी कर दिया। देश के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना कर देश को सुरक्षित रखने का काम किया। वास्तविकता यह है कि आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने कोई सम्प्रदाय नहीं खड़ा किया बल्कि हिंदू धर्म रक्षार्थ एक धार्मिक सेना ही खड़ी कर दिया। उस समय पूरे आर्यावर्त की जनसंख्या कोई एक करोड़ रही होगी इसलिए चार शंकराचार्य पर्याप्त रहे होंगे। 

वैष्णव सम्प्रदाय व अन्य

कहते हैं कि कुमारिल भट्ट जब नर्मदा घाटी में गोविंदपाद से मिलने पहुँचे तो कुमारिल ने उनसे पूछा कि आचार्य "एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति" इसका अर्थ क्या है? पुत्र एक ही सत्य है जिसे पंडित ज्ञानी लोग विभिन्न प्रकार से अर्थ करके बताते हैं। फिर उन्होंने पूछा कि आचार्य वह सत्य क्या है तो गोविंदपाद कहते हैं कि पुत्र वह सत्य वेद है। लेकिन किसी का खंडन नहीं करना मंडन करना । यानी सभी को वैदिक सिद्ध करने का काम करने चाहिए क्योंकि सभी कुछ ज्ञान वेदों में ही है। 

इसी क्रम में आदि जगद्गुरु रामानुजाचार्य ने हिंदू धर्म रक्षार्थ ने द्वैत परंपरा का प्रतिपादन किया जहां आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की प्रस्तुति किया वहीं रामानुजाचार्य ने द्वैतवाद फिर रामानंद स्वामी ने विशिष्टाद्वैत की परंपरा शुरू किया। वास्तविकता यह है कि अपने-अपने समय के आचार्यों ने अपने अपने तरीके से धर्म व देश रक्षार्थ जो काम किया वे सभी सम्प्रदाय बनाते चले गए। और ये सारे के सारे सम्प्रदाय द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शैव, वैष्णव, कबीर, रविदासी, नानक पंथी, गोरक्षनाथ पंथ, शाक्त संप्रदाय, बल्लभ संप्रदाय, निंबार्क संप्रदाय, मध्वाचार्य ऐसे इस प्रकार सनातन धर्म में कोई सौ से अधिक मत सम्प्रदाय हैं सभी के अपने-अपने जगद्गुरु हैं। कोई किसी से छोटा अथवा बड़ा नहीं है इसलिए किसी को यह कहने का अधिकार नही है कि मैं सबसे बड़ा हूँ, सनातन धर्म में एक ब्रम्ह को सभी मानते हैं "मुंडे मुंड मतिर्भिन्ना" की मान्यता है।

विकृति कहाँ से ?

देश में जब इस्लामिक काल आया हिंदू समाज संघर्ष कर रहा था जिसका नेतृत्व समय-समय पर हमारे संत महात्मा, राजा, महाराजा कर रहे थे। उस काल में विकृति आना स्वाभाविक था हमारे किसी संत अथवा महापुरुष ने कोई सम्प्रदाय नहीं शुरु किया बल्कि धर्म व राष्ट्र बचाने के लिए संघर्ष का रास्ता तय किया आगे चलकर उनके अनुयायियों ने उसे सम्प्रदाय घोषित कर दिया जैसे लश्करी सम्प्रदाय आखिर ये कौन सम्प्रदाय है नागा साधुओं का अर्थ क्या है? तो ये सब हिंदू धर्म के लिए संघर्ष करने वाली सेनाओं के नाम हैं जिसे आज हम सम्प्रदाय के नाते जान रहे हैं। मैं प्रयाग में आरएसएस का जिला प्रचारक था या घटना 1986 से 1991 की है, प्रयागराज के दुर्बासा खंड में गंगाजी के किनारे एक आश्रम था जिसे दुर्बासा आश्रम के नाम से जाना जाता था, वहाँ एक त्रिदंडी स्वामी रहा करते थे उनकी उस क्षेत्र में बड़ी मान्यता थी वे बड़े विद्वान थे। उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि आपको पता है कि जगदगुरुओं के पास सोने चांदी के "छत्र और चँवर" कब से और कहाँ से आई? मैंने कहा नहीं स्वामी जी मुझे नहीं पता फिर उन्होंने बोलना शुरू किया! ये मुगलों ने किया! वह कैसे? उन्होंने बताया कि पूरे देश में कभी भी मुगलों का राज नहीं था उन्होंने हिंदू राजाओं से समझौते किये इतना ही नहीं उन्हें यह भी ध्यान में था कि भारतीय संतों के प्रति भारतीयों में बड़ी श्रद्धा है, उसने उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए बड़े बड़े संतों को अपने दरबार में बुलाया और षड्यंत्र रचा भोला भाला बनकर अकबर ने कहा महराज हम तो राजा हैं लेकिन आप सभी महाराजा है, हम सोने चांदी के बर्तनों में खाते हैं सोने चांदी का मुकुट पहनते हैं आप सभी के पास कुछ भी नहीं है यह हमें अच्छा नहीं लग रहा है। उसने सभी जगदगुरुओं को सोने चांदी का छत्र-चँवर भेंट कर दिया हमारे संतों को लगा कि हमारे हिंदू राजाओं ने तो हमारी चिन्ता की ही नहीं ये तो मलेक्ष होकर भी हमारा सम्मान कर रहा है। अब हम ध्यान दे सकते हैं कि धीरे धीरे ये सब लोग मुगलों के प्रति श्रद्धा रखने लगे। जबकि चाहे रामानुजाचार्य हो वल्लभाचार्य हो अथवा रामानंदाचार्य हो या कोई अन्य संत सभी ने अपने धर्म व देश की रक्षा के लिए ही संघर्ष किया है। ध्यान में आता है कि राजपूताना ने चित्तौड़ के नेतृत्व में लगभग 1200 वर्षों तक भारत वर्ष की ढाल बनकर इस्लामी अक्रमणकारियो से लड़ता रहा लेकिन शंकराचार्यों की कोई भूमिका दिखाई नहीं देती जबकि मेवाड़ तो एकलिंग भगवान का पुजारी था।

ब्रिटिश काल

इसका परिणाम यह हुआ कि मुगलों के समय से धीरे धीरे इन संतो को समझाया गया कि धर्म और राजनीतिक अलग अलग है जबकि कटु सत्य यह है कि "बिना स्वराज्य के स्वधर्म का पालन संभव नहीं हो सकता।"  परिणामस्वरूप सारे बड़े बड़े संत अपने धन संपत्ति की सुरक्षा में लग गए और आम जनता से संतों की दूरी बढ़ती गई। इसका प्रत्यक्ष दर्शन तब होता है जब ऋषि दयानंद सरस्वती सभी राजाओं महाराजाओं के यहां भ्रमण करते हैं वे शास्त्रार्थ करते हैं फिर सामंतो से देश के आजादी की बात करते हैं परिणाम स्वरूप अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते हैं। अंग्रेजी सरकार स्वामी जी के पीछे खुफिया एजेंसी लगा देती है इतना ही नहीं तो जहाँ वे जाते वहां के जिलाधिकारी व अन्य अधिकारी पहुँच जाते। जिस प्रकार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, आदि जगद्गुरु रामानुजाचार्य, आदि जगद्गुरु रामानंदाचार्य अपने धर्म को बचाने देश को सुरक्षित रखने के लिए अपने अपने तरीके से संघर्ष किया हज़ारों हज़ार साधू सन्यासियों को खड़ा कर दिया ठीक उसी प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू समाज के जागरण उसमे आयी विकृति और देशभक्ति के लिए एक तंत्र खड़ा करने शुरू कर दिया। अब अंग्रेजों को यह बात बर्दास्त नहीं हो रहा था उन्होंने बड़ी योजनाबद्ध तरीके से प्रचार करना शुरू कर दिया कि ये स्वामी दयानंद सरस्वती हिंदू विरोधी है, मूर्ति पूजा विरोधी है ये तो अंग्रेजों का आदमी है देखिए न ये जहाँ जाता है वहां कलेक्टर अंग्रेज अधिकारी पहुँचे रहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि देश आजादी में यदि किसी एक महापुरुष को श्रेय दिया जा सकता है तो उसका नाम ऋषि दयानंद सरस्वती का ही होगा।

देश पर संकट और जगद्गुरु 

पूरा राजपुताना संघर्षरत रहा ये आचार्य कहीं दिखाई नहीं देते, क्षत्रपति शिवाजी महराज, संभाजी महराज युद्ध पर युद्ध लड़ रहे हैं तब भी ये सब कहीं नहीं दिखे जबकि समर्थगुरु रामदास जी गांव -गांव मे हनुमान जी की स्थापना कर समस्त मराठो का जागरण करते दिखाई देते हैं। आजादी के संघर्ष में कोई जगद्गुरु शंकराचार्य दिखाई नहीं देते आखिर क्यों ? देश विभाजन के समय ये सब कहाँ थे? देश विभाजन के समय लाखों हिन्दुओं का संहार हुआ, हज़ारों बहनो को नंगाकर जुलूस निकाला गया बलात्कार हुए तब ये शांकराचार्य कहाँ थे ? मोपला, नोआखाली, कोलकाता मे हिन्दू नर संहार होता रहा आपकी बोलती बंद क्यों थी ? देश खंड-खंड होता रहा आप सोने चांदी के छत्र घुमाते रहे। तो उसके पीछे मुगलों का षड्यंत्र ध्यान में आता है कि धर्म से राजनीति का क्या लेना देना है जबकि प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि जो मत सम्प्रदाय पाकिस्तानी क्षेत्र में पड़ गए या तो सभी समाप्त हो गया नहीं तो भागकर हिंदू देश भारत में आ बसे, इसलिए बिना धर्म के न तो राजनीति हो सकती है और न ही बिना राजनीति के धर्म का पालन किया जा सकता है। अब हम श्री राम जन्मभूमि की ओर लौटते हैं इन मुस्लिम शासकों, लुटेरों ने अयोध्या, मथुरा, काशी के मंदिरों को ढहाया, बलात धर्मांतरण कराया उस समय ये सब जगद्गुरु शंकराचार्य कहाँ चले गए थे ? दिपावली के पर्व पर आधी रात को कांची के शांकराचार्य को गिरफ्तार किया गया उस समय ये आचार्य कहाँ थे? जबकि भारत के शीर्ष नेता आंदोलित थे। देश आजादी के पश्चात कश्मीरी हिन्दुओं का नर संहार और कश्मीर से पलायन हो रहा था उस समय ये सब आचार्य कहाँ थे? श्रीराम जन्मभूमि, श्री कृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ मंदिर की चिंता इन जगदगुरुओं ने क्यों नहीं किया? हां जब श्री राम जन्मभूमि के लिए आंदोलन शुरू किया गया उस समय के एकाध रामानुजाचार्य इत्यादि संत खड़े हुए और संघर्ष भी किये लेकिन शैव मत के आचार्य जगद्गुरु तो दिखाई ही नहीं दिये हाँ जो दिखाई दिये ''बद्रिकाआश्रम के शंकराचार्य बासुदेवानंद सरस्वती'', काँची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी महराज! लेकिन ये लोग तो इन्हें फर्जी शंकराचार्य बता रहे हैं इसका मतलब यही है न कि शैव परंपरा के आचार्यों शंकराचार्यों का राम मंदिर से कोई लेना देना नहीं है उनके अंदर की आत्मा गुलामी मानसिकता जो मुगलों द्वारा प्राप्त हुई अभी छोड़ नहीं पाए हैं। जो अपने को सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं ये उनकी अज्ञानता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि सनातन धर्म में सौ से ऊपर सम्प्रदाय हैं और सबके अपने-अपने जगद्गुरु भी है वे सभी अपने को श्रेष्ठ मानते हैं और हैं भी। इसलिए इस समय श्री राम जन्मभूमि प्राण प्रतिष्ठा के बारे में कुछ बोलना हिंदू समाज का अपमान करने जैसा है यह बात ठीक है कि कुछ शंकराचार्य पोप की मानसिक गुलामी में लगे रहते हैं उन्हें अब समय के साथ उससे बाहर निकल आना चाहिए। 

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