सरदार पटेल गाँधी के शिष्य होने के कारण उनका भी संस्कार पहले मुस्लिम तुष्टिकरण का ही था, पटेल ने भी देश विभाजन के विषय पर कहा कि हम लोग बूढ़े हो गए थे, थक गए थे, इस कारण हमने देश विभाजन स्वीकार कर लिया। लेकिन ज्यों-ज्यों देश विभाजन की ओर बढ़ने लगा और मुसलमानों ने अपना चरित्र दिखाना शुरू किया त्यों-त्यों पटेल के विचारों में परिपक्वता आना दिखाई देता है। उन्होंने कलकत्ता हिंदुओं का नरसंहार, नोआखाली के हिंदुओं की हत्या और बलात धर्मांतरण, पंजाब में मुसलमानों के कृत्य कश्मीर जूनागढ़ और हैदराबाद की सारी घटनाओं से पटेल की आँखे खुलने लगी लेकिन गाँधी, नेहरु पर कोई असर नहीं पड़ा। गाँधी की हालत यह थी कि वे खिलाफत आंदोलन के पहली बैठक में गए हुए थे और साथ में स्वामी श्रद्धानंद को भी ले गए थे, जब मुल्लाओं ने काफिरों की हत्या का ऐलान किया तो स्वामी श्रद्धानंद ने सतर्क किया लेकिन गाँधी ने कहा नहीं ये अंग्रेजों के लिए कह रहे हैं। इसी पर डॉ आंबेडकर गांधी के लिए कहते हैं कि ये सब इल्लिट्रेट हैं। तो वास्तविकता यह है कि इस्लाम को गाँधी और नेहरू ने समझा ही नहीं बल्कि पटेल को बाद में समझदारी आ गई थी।
संविधान सभा में
देश आजादी के पहले और आजादी के बाद सरदार पटेल बखूबी मुस्लिम समाज को पहचान चुके थे वे किसी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आने वाले नहीं थे। दूसरी ओर मौलाना आजाद मुसलमानों के मास्टर माइंड थे पीछे से वे ही सब करवाते थे। संविधान सभा में बहस चल रही थी, तभी मुस्लिम रिजर्व सीटों की मांग करते हुए कांग्रेस के नजीरुद्दीन अहमद ने संविधान सभा में बड़ी चालाकी से कहा, "हिंदू बड़े भाई हैं और मुसलमान छोटे भाई, यदि बड़े भाई अपने छोटे भाई की मांग स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हें अपने छोटे भाई का प्यार मिलेगा, नहीं तो वे हमारा प्यार गवां बैठेंगे।" ज्ञातव्य हो कि इस मांग के अंदरखाने में मौलाना आजाद थे। सरदार पटेल पर ऐसी मीठी बातों का कोई असर नहीं होता था। यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के पहले और आजादी के पश्चात मुसलमानों की मानसिकता को सरदार पटेल से बेहतर कोई नहीं समझ सकता था। सरदार वल्लभ भाई पटेल मुसलमानों की इस चालाकी भरी मांग पर जबाब देने के लिए खड़े हुए, पटेल ने संविधान सभा को सम्बोधित करते हुए कहा--: "यहां बहुत मीठी मीठी बातें हो गई लेकिन इसके अंदर जहर की खुराक भी मिली हुई है। मैं छोटे भाइयों यानी मुसलमानों का प्रेम गवां देने के लिए तैयार हूँ, हमने आपका प्यार देख (भुगत) लिया है।आपको अपनी हरकतों में परिवर्तन करना चाहिए, नहीं तो आपकी मांग मानने से बड़े भाई यानी हिंदुओं की मौत हो सकती है। आप लोग यह तय कीजिए कि आप देश को सहयोग देना चाहते हैं या फिर तोड़-फोड़ की चालें अजमाना चाहते हैं। मैं आपसे हृदय परिवर्तन की अपील करता हूँ, कोरी बातों से कोई काम नहीं चलेगा। आप अपनी मानसिकता पर फिर से विचार करें, आपको जो चाहिए था, वह पाकिस्तान के रूप में आपको मिल गया है। याद रखिये, पाकिस्तान के निवासी नहीं बल्कि आप लोग ही पाकिस्तान बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। आप लोग ही पाकिस्तान आंदोलन के अगुवा थे, अब आप को क्या चाहिए ? हमें सब पता है। हम नहीं चाहते कि देश का फिर से बटवारा हो जाय। जिन्हें पाकिस्तान चाहिए था, उन्हें मिल गया है। जिनकी श्रद्धा पाकिस्तान में है, वे वहाँ चले जाय और सुख से रहें।"
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम कर्मचारियों को पाकिस्तान भेजने की मांग
जब पटेल ने मुसलमानों को आयना दिखाया तो सभी सकते में आ गए, क्योंकि सरदार ने यह बड़ी कड़ी बात साफ-साफ कही कि जिनकी पाकिस्तान में श्रद्धा है वे पाकिस्तान चले जांय। आजादी के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश में यह मांग जोर पकड़ने लगी कि मुस्लिम लीग के समर्थक रहे मुस्लिम कर्मचारियों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए इस मांग का सरदार पटेल ने पूरी तरह समर्थन किया। उन्होंने गोविंद मालवीय को एक पत्र लिखा--: "मैंने दस महीने के अपने अनुभव से यह जाना है कि मुसलमान कर्मचारी सरकार के प्रति पूरी तरह से बेवफ़ा रहे हैं। इनके रहते कारगर ढ़ंग से या निष्पक्ष होकर शासन चलाना असंभव था। इनकी पूरी शक्ति विघटनकारी गतिविधियों में लगी है, ये लोग नियम तोड़ने से भी नहीं डरते। इसलिए हम कोशिश कर रहे हैं कि नौकरियों में मौजूद ऐसे सभी तत्व पाकिस्तान चले जायँ। भारत सरकार के प्रति निष्ठा रखना पहली शर्त है और देशद्रोह बर्दास्त नहीं किया जाएगा।" सरदार पटेल को दोहरे मोर्चे पर संघर्ष करना पड़ता था, एक जो गजवाये हिन्द का सपना संजोये मौलाना आजाद जो "जमाते इस्लामी हिन्द" के अध्यक्ष थे वे योजनाबद्ध तरीके से भारत में रह गए दूसरे गांधी और नेहरू दो तरफा विरोध झेल रहे थे लेकिन पटेल कभी डिगे नहीं, बल्कि गाँधी का विरोध भी झेलते रहे।
हिंदू संरक्षक की भूमिका में
सरदार पटेल वैसे तो गाँधी के प्रतिछाया माने जाते थे लेकिन दिल्ली व देश के अन्य भागों में मुस्लिमों के कारनामों को पटेल अनदेखी नहीं कर पा रहे थे। इस बीच गाँधी, नेहरु और मौलाना आजाद एक तरफ तो दूसरी ओर सरदार पटेल अकेले पड़ गए थे। इस पर सरदार पटेल के सचिव रहे वी. शंकर लिखते हैं---: "मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के नेतृत्व में एक मजबूत मुस्लिम लॉबी सक्रिय रूप से प्रचार में लगी थी। इस हालात में पंडित नेहरू और गाँधी मुस्लिम हितों को लेकर अपने दिमाग में सबसे ऊपर रखने की सोच से नहीं बच पाये। ठीक उसी तरह से सरदार वल्लभ भाई पटेल के लिए हिंदू और सिखों के संरक्षक होने की सोच से बचना मुश्किल था।" बिलड़ा भवन की बैठक में नेहरू ने कहा कि दिल्ली की जो स्थिति है मैं उसे सहन नहीं कर सकता, मुसलमान कुत्ते बिल्ली के समान मारे जा रहे हैं! मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिल रही है, मैं मुसलमानों को क्या उत्तर दूं? सरदार पटेल ने उत्तर में कहा माना कि चुट-फुट घटनाएं हुई होंगी, लेकिन सरकार मुसलमानों की जान-माल की रक्षा के लिए जो भी कर सकती है वह कर रही है और इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता है। वी शंकर लिखते हैं, नेहरू और गांधी गुट ने सरदार पटेल के खिलाफ जितना जहर फैलाया, उतना जहर सरदार पटेल के गुट ने नेहरु और गांधी के लिए नहीं फैलाया।"
मुसलमानों को नसीहत
12 नवंबर1947 को उन्होंने राजकोट के मुसलमानों को नसीहत देते हुए कहा, "मुझे याद कि किस तरह से काठियावाड़ के मुसलमानों ने "द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत" का समर्थन करते हुए मुस्लिम लीग के प्रोपोगंडा में अपना योगदान दिया था और वे अब भी मुस्लिम लीग की राजनीति में हिस्सा ले रहे हैं। मैं उनके इस अतीत को भूल नहीं सकता हूँ। लेकिन अगर वे अब भी द्वीराष्ट्र सिद्धांत से लगाव महसूस करते हैं और मदद के लिए बाहरी शक्ति की ओर देखते हैं तो फिर काठियावाड़ में उनके लिए कोई जगह नहीं है। यदि वे भारत में रहना चाहते हैं तो उन्हें वफादार नागरिक बनना होगा और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनके साथ एक विदेशी नागरिक की तरह व्यवहार किया जाएगा। भारत के मुसलमानों को अपनी अंतरात्मा से पूछना चाहिए कि क्या वे वास्तव में इस देश के प्रति वफादार हैं ? यदि वे नहीं है तो उन्हें उस देश में चले जाना चाहिए जिसके प्रति वे वफादार हैं।"
पटेल और नेहरू में वैचारिक जंग
सरदार पटेल मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं चाहते थे वे न्याय प्रिय थे, जैसे को तैसा वाले सिद्धांत को मानते थे वहीं नेहरु घोर मुस्लिम तुष्टिकरण करते थे, यही है जो पटेल की सोच से नेहरु, मौलाना आजाद की सोच को अलग करता था। 27 अगस्त 1947 को अजमेर में हिंदुओं ने एक जुलूस निकाला जिस पर मस्जिद से पथराव शुरू हो गया, पथराव के कारण पूरे शहर में दंगा भड़क गया। मुसलमानों ने अपने स्वभाव से हिंदुओ पर जानलेवा हमला किया लेकिन दंगा दबा दिया गया। दिसंबर में बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी सिंध से अजमेर आ गए थे, दरगाह बाजार में किसी विवाद को लेकर दंगा हो गया। अधिकतर मुस्लिम इलाकों में अपने स्वभाव के अनुसार पुलिस पर हमले किए, फायरिंग, पत्थरबाजी की दर्जनों घटनाएं हुई। हालात पर काबू पाने के लिए सेना बुलाई गई, सेना की फायरिंग में कई मुस्लिम व हिंदू मारे गए। नुकसान हिंदू मुसलमान दोनों का हुआ लेकिन इसे मुस्लिम विरोधी दंगों के रूप में प्रचारित किया गया। नेहरु जी तो यही मानकर चल रहे थे क्योंकि उनके दिमाग में तो हिंदू ही दंगाई होते थे। उन्होंने सरदार पटेल को 16 दिसंबर 1947 को एक पत्र लिखा--: "मैं गांधी जी को मिला था, उन्होंने मुझे अजमेर की घटना के बारे में बताया। मुझे अजमेर के हालत से बहुत निराशा हुई है, खासकर वहाँ के अधिकारियों और पुलिस के रवैये से। अजमेर की दरगाह दुनिया भर में एक प्रसिद्ध स्थान है। अगर यहां पर कोई घटना हो जाती है तो पूरी दुनिया में हमारे देश की छवि और सम्मान को नुकसान पहुचता। ऐसा लगता है कि अब मुझे अजमेर जाना चाहिए।" इस पत्र से सरदार पटेल को बड़ा धक्का लगा उन्होंने 19 दिसंबर को सार्वजनिक बयान जारी किया जिसमें दंगों का पूरा विवरण दिया लेकिन नेहरु को पटेल के बयान पर भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने सिकरेटरी आयंगर को अजमेर भेजा और रिपोर्ट तैयार करने को कहा। एक प्रकार से अब नेहरु सरदार पटेल की अनदेखी कर रहे थे। सरदार पटेल ने 23 दिसम्बर 47को एक कड़ा पत्र नेहरु को लिखा,--: "यह सुनकर मैं सिर्फ आश्चर्य चकित ही नहीं बल्कि स्तब्ध हूँ कि आपने आयंगर को अजमेर भेजा। जबकि मैंने आपको पहले ही अजमेर में हो रही घटनाओं की रिपोर्ट भेज दी थी जो19 दिसम्बर को रेडियो पर प्रसारित हुई थी। इसके बाद भी आयंगर को अजमेर भेजने का एक ही मतलब हो सकता है कि आप मेरी रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं थे तो आप किसी और मंत्री को वहाँ भेज सकते थे। हालांकि, इस विषय से मेरा मन व्यथित हो चुका है।"
इस विवाद की जड़ में नेहरु की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति थी, अजमेर विवाद पर नेहरू के लिखे पत्र इसका साक्ष्य है, जो 29 दिसंबर को उन्होंने पटेल को लिखा---: "इसमें कोई शक नहीं कि अजमेर के मुसलमान डरे हुए हैं। मैं नहीं जानता कि यह संख्या कितनी सही है लेकिन ऐसा बताया जा रहा है कि अजमेर के पचास हजार मुसलमानों में से करीब दस हजार मुसलमानों ने अजमेर छोड़ दिया है। और यह पलायन अब भी जारी है। इससे यह साबित होता है कि जब स्थिति नियंत्रण में है तब भी मुसलमान इसलिए डरे हुए हैं कि भविष्य में भी उन पर हमला हो सकता है। आरएसएस बहुत आक्रामक है और वह धमकियां दी रहा है जिससे लोग डरे हुए हैं।" जबकि नेहरू यह जानते थे कि दंगों की शुरुआत मुसलमानों ने किया था, दंगों में हिंदू मुसलमान दोनों का नुकसान हुआ था। लेकिन नेहरु को सिर्फ मुसलमानों की ही चिंता थी, और दंगों के नाम पर अपने सबसे बड़े शत्रु आरएसएस पर भी हमला बोलना था और बोले भी।
और आयंगर
आयंगर एक बेहद ईमानदार आईसीएस अधिकारी थे, उन्होंने पटेल के साथ भी काम किया, उन्होंने अपने संस्मरण का वर्णन करते हुए लिखा कि जब नेहरु ने उन्हें अजमेर जाने के लिए कहा तो वे स्वयं आश्चर्य चकित हो गए, आगे आयंगर ने लिखा---: "प्रधानमंत्री ने मुझे बुलाया और कहा कि एचवीआर तुम्हें अजमेर जाकर दंगों की रिपोर्ट तैयार करनी है। हालांकि, अब मुझे महसूस होता है कि मैंने तब गलती कर दी थी। यह मेरा कर्तब्य था कि मैं PM नेहरु को बताता कि मुझे अजमेर भेजने से पहले वह गृहमंत्री सरदार पटेल से सलाह ले लें। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया और मैं उनके आदेश को मानते हुए अजमेर चला गया और मैंने वहां रिपोर्ट तैयार की। आकर रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप दी। यह एक तरह से सरदार पटेल के प्रति प्रधानमंत्री नेहरु का अविस्वास था कि उन्होंने मुझ जैसे जूनियर से यह सब करने को कहा।" पटेल ने गांधी को लिखा जिसमें नेहरु का विरोध किया--: "लोकतंत्र में प्रधानमंत्री सबसे बड़ा नहीं होता बल्कि सिर्फ 'फर्स्ट एमंग द इक्वल्स' यानी बराबरी के लोगों में पहले नंबर पर होता है।" पटेल ने कहा लोकतंत्र में प्रधानमंत्री से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह मंत्रियों पर अपना हुक्म चलाये।
सरदार पटेल की प्रतिक्रिया
लखनऊ प्रवास में 6 जनवरी को एक जनसभा को संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने कहा---: "मैं मुसलमानों को बताना चाहता हूं कि भारत के प्रति निष्ठा की महज घोषणा कर देने से बात नहीं बनेगी। उन्हें अपनी वफादारी का व्यवहारिक सुबूत देना होगा, इसी लखनऊ में द्वीराष्ट्र सिद्धांत की नींव रखी गई थी। इस सिद्धांत को फैलाने में शहर के मुसलमानों का भी योगदान रहा है, मुस्लिम लीग ने जो मांग की, उससे पूरे भारत में अधिकतर मुस्लिम युवा प्रभावित हुए और उन्होंने इस मांग को पूरी तरह स्वीकार भी किया। मैं भारत के मुसलमानों से एक सवाल पूछना चाहता हूं। हाल में लखनऊ में हुई मुस्लिम कांफ्रेंस में कश्मीर के मुद्दे पर मुसलमानों ने मुँह क्यों नहीं खोला ? पाकिस्तान जो कश्मीर में कर रहा है उसकी उन्होंने निंदा क्यों नहीं किया ? ये सब बातें लोगों के मन में संदेह पैदा करती हैं। मैं आपको बताना चाहूंगा कि आप दोनों घोड़ों पर सवार नहीं हो सकते। जो पाकिस्तान जाना चाहते हैं वह जा सकते हैं और शांति से वहां पर रह सकते हैं। हमें यहां शान्ति से रहने दें, ताकि हम अपने देश का विकास कर सकें।" पटेल ने सीधे सीधे मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की सलाह देदी, क्या वर्तमान में कोई भी राजनैतिक नेता ऐसी कड़ी भाषा में भाषण दे सकता है तो नहीं! कट्टरपंथियों ने उनपर कट्टरपंथी होने का आरोप लगाया फिर पलटवार करते हुए पटेल ने कहा--: "मुस्लिम लीग के लोग पहले महात्मा गांधी को अपना दुश्मन नंबर वन मानते थे लेकिन अब उन्हें लगता है कि गाँधी उनके दोस्त हैं। गाँधी के बदले अब वह मुझे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगे हैं, क्योंकि मैं सच बोलता हूँ।" इसी सरदार पटेल ने कोलकाता में भी भाषण देते हुए कहा--: "हिंदुस्तान में 3-4 करोड़ मुसलमान हैं, इसमें काफी लोगों ने, ज्यादातर लोगों ने पाकिस्तान बनाने में साथ दिया था। लेकिन क्या अब एक रात में ही इनका दिल बदल गया ? कैसे दिल बदल गया ? यह मुझे समझ में नहीं आता। वे मुसलमान कहते हैं कि हम वफादार हैं और हमारी वफादारी पर शंका क्यों की जाती है ? तो हम उनसे कहते हैं कि हमसे क्यों पूछते हो, अपने दिल से पूछो! वे मुसलमान कहते हैं कि पाकिस्तान और हम एक हो जायं, तो मैं कहता हूँ कि मेहरबानी करके ऐसी बात मत करो, हमें अलग ही रहने दो।" लौहपुरूष सरदार वल्लभ भाई पूरे लौह दिख रहे थे, ऐसा लग रहा था कि अपने भाषणों के द्वारा गाँधी और नेहरु की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति द्वारा हिन्दुओं के घावों पर मलहम लगा रहे हों दूसरे यह भी विचार कर सकते हैं कि वे नेहरू व गांधी के तुष्टिकरण को चुनौती दे रहे हो। इन भाषणों के द्वारा वे क्या संदेश देना चाहते थे क्या वे मुसलमानों को देशभक्ति का पाठ पढाना चाहते थे?
गाँधी का व्यवहार
गाँधी धीरे धीरे पटेल के प्रति कठोर होते जा रहे थे ज्यों ज्यों पटेल राष्ट्रवाद की ओर आगे बढ़ते त्यों त्यों गाँधी-नेहरु उनके प्रति नकारात्मक होते जा रहे थे गांधी जी प्रतिदिन अपने प्रार्थना सभा में कुछ ऐसी बात करते जो पटेल के प्रति नकारात्मक होती। आखिर गाँधी ऐसा क्यों कर रहे थे ? गाँधी प्रोपोगंडा के शिकार थे अथवा अंग्रेजों की जाल में या राष्ट्रवाद उन्हें पच नहीं रहा था। जब नेहरू हिंदुओं के खिलाफ बोलते थे तो गाँधी ने कभी कोई प्रश्न नहीं उठता आखिर क्यों ? मुसलमानों के खाली पड़े मकानों पर मुसलमानों ने ही कब्जा कर लिया था। और दूसरी तरफ हिंदू, सिख शरणार्थी कड़ी ठंढ में धैर्य जबाब देने के कारण खाली पड़ी मस्जिदों में रहना शुरू कर दिया, इस पर मौलाना आजाद गुस्से में क्यों गाँधी उन्हें निकालने के लिए पुलिस का उपयोग क्यों आखिर देश विभाजन की जिम्मेदारी केवल हिंदू शरणार्थी पर क्यों देश बाटने वाले नेहरू पर क्यों नहीं ?इसका दंड हिंदू क्यों भोगे नेहरू क्यों नहीं ? गांधी जी अनसन पर बैठने वाले थे कलकत्ता का नरसंहार और नोआखाली में हिंदू नरसंहार और बलात धर्मान्तरण से पटेल बहुत दुखी थे गाँधी के इस अनसन से पटेल को बड़ा धक्का पहुचा, गाँधी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे। वहां नेहरू, मौलाना भी मौजूद थे, पटेल ने चिल्लाते हुए कहा कि यहां मेरे रहने का कोई मतलब नहीं है जब गाँधी मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हैं। वे यह तय कर चुके हैं कि पूरी दुनिया के सामने हिंदुओं के मुख पर कालिख पोत दी जाय। यह कहकर पटेल वहां से उठकर चले गए। गाँधी जी का अनसन एक प्रकार से सरदार पटेल के विरोध में था और पटेल इस बात को भली -भांति जानते भी थे।
अंतिम समय में सरदार पटेल और नेहरु, गांधी और मौलाना आजाद के दो रास्ते हो गए थे पटेल का रास्ता भारतीय जनता भारतीय संस्कृति को लेकर राष्ट्रवाद था दूसरे ओर मुस्लिम तुष्टिकरण जिसे भारत आज भी झेल रहा है। डॉ आंबेडकर के शब्दों में--: "देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है इस कारण भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहना चाहिए और पाकिस्तान में एक भी हिंदू, यदि मुसलमान यहां रह गए तो पचास साल बाद फिर भारत को यह दर्द झेलना पड़ेगा।" आज सरदार पटेल और डॉ आंबेडकर दोनों की बहुत याद आ रही है!
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