हिंदू सम्राट महाराजा सुहेलदेव



महाराजा सुहेलदेव

राजा सुहेलदेव के बारे मे बड़ी भ्रान्तियाँ हैं लेकिन स्थानीय कीवदन्तियां बहुत प्रकार की है जितनी जातियाँ उतने प्रकार लोग सभी उन्हें अपनी जाति का बताने में लगे रहते हैं। उन्हें वैश्य राजपूत, नागवंशी राजपूत तो कहीं पासी और कुछ लोग उन्हें राजभर बताते हैं लेकिन यह सत्य है कि वे हिंदू राजा थे। यदि वे राजा थे उन्होंने कई बार विधर्मियो को पराजित किया तो उनका गुण क्षत्रिय का था और वे क्षत्रिय थे। यह स्वाभाविक है कि लोग उन्हें अपने से जोड़े और अपनी-अपनी जाति का बतायें इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है राजा सुहेलदेव, हिंदुत्व और सनातन धर्म के पुरोधा थे उन्होंने स्थानीय सभी राजाओं को संगठित कर मीरबाकी जैसे दुरदान्त बिधर्मी कर बध किया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव गांव में आज भी राजा सुहेलदेव लीला खेली जाती है और 'मीरबाकी' का बध किया जाता है।

सुहेलदेव जी 11वीं सदी में श्रावस्ती के राजा थे, जिन्होंने महमूद गजनवी के भांजे गाज़ी सैयद सालार मसूद को युद्ध में बुरी तरह पराजित किया था। इसी कारण उनकी चर्चा होती है। इस बात का उल्लेख चौदहवीं सदी में अमीर खुसरो की किताब एजाज-ए-खुसरवी में मिलता है। 1034 में सुहेलदेव की सेना ने मसूद की सेना के बीच लड़ाई हुई थी।

सैयद सालार मसूद की पराजय 

महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी ने सिंधु नदी के पार तत्कालीन भारत के कई हिस्सों पर अपना कब्जा जमा लिया था। लेकिन जब उसने बहराइच को अपने कब्जे में लेना चाहा तो उसका सामना महाराजा सुहेलदेव से हुआ और महाराजा सुहेलदेव वे उसे और उसकी सेना को धूल चटा दी थी। इस युद्ध में मजूद गाजी बुरी तरह घायल हो गया था और बाद में उसकी मौत हो गई थी। 

 मुगल जहांगीर के दौर में अब्दुर रहमान चिश्ती ने 'मिरात-इ-मसूदी' नामक किताब लिखी। इस दस्तावेजी किताब को गाज़ी सैयद सालार मसूद की बायोग्राफी माना जाता है। इस किताब के अनुसार गाज़ी सैयद सालार साहू के साथ भारत पर हमला करने आया था। अपने पिता के साथ उसने इंडस नदी पार करके मुल्तान, दिल्ली, मेरठ और सतरिख (बाराबंकी) तक जीत दर्ज की थी। बाद में उसने बहराइच पर हमला किया लेकिन राजा सुहेलदेव ने उसे बुरी तरह धूल चटा दी थी। घायल होने के बाद मौत से पहले उसकी इच्छानुसार उसे बहराइच में ही दफना दिया गया था। अब तो उसकी कब्र मजार और फिर दरगाह में बदल गई। पहले इस जगह पर हिंदू संत और ऋषि बलार्क का एक आश्रम था।

थोथा इतिहासकार 

हालांकि कुछ इतिहासकार कहते हैं कि गजनवी के समाकालीन इतिहासकार इस युद्ध का जिक्र नहीं करते हैं। महमूद गजनवी के समकालीन इतिहासकारों में मुख्‍य तौर पर उतबी और अलबरूनी थे। हो सकता है कि उन्होंने इस भयानक हार का जिक्र इसलिए नहीं किया हो क्योंकि यह उनके लिए शर्म की बात होती, इतना ही नहीं अलबरूनी जिहादी इतिहासकार था उसने अपने मतलब से इतिहास लिखा, लेकिन स्थानीय किब्दन्तियों को नकारा नहीं जा सकता ।

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