स्वत्व स्वाभिमानी स्वतंत्रता सेनानी "जतरा उरांव" उपाख्य टानाभगत।

 

टाना भगत अर्थात जतरा उरांव किसकी विरासत

टाना भगत का मूल नाम जतरा उरांव था, भगवान विरसा मुंडा के बलिदान के पश्चात लगभग13 वर्षों के बाद इस आंदोलन को नई धार दिया जतरा उरांव ने, आंदोलन इतना प्रखर था कि उस समय 26हजार से अधिक लोग इनके अनुयायी बन गए थे। भारत के अंदर आज जिसे हम सम्प्रदाय अथवा पंथ बोल रहे हैं वास्तविकता यह है कि वे सब धार्मिक आंदोलन के साथ हिंदू समाज के जागरण और देश व राष्ट्र के संघर्ष था। चाहे वह रामानुजाचार्य रहे हों या रामानंद स्वामी रहे हों अथवा चाहे असम के शंकरदेव, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, उत्तर प्रदेश में गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, कबीर दास, कुम्हन दास, दक्षिण के समर्थ गुरु रामदास, राजस्थान में महारानी मीराबाई! ब्रिटिश काल में चाहे ऋषि दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, स्वामी रामतीर्थ अथवा विवेकानंद, विरसा मुंडा सभी ने राष्ट्र चेतना जगाने का काम किया। इन लोगों ने धार्मिक आंदोलन द्वारा विधर्मियों के विरुद्ध संघर्ष किया धीरे-धीरे यह आंदोलन पंथ का स्वरूप धारण कर लिया। उसी में से शैव, वैष्णव, शाक्त, द्वैत, अद्वैत, विशिष्टा द्वैत, द्वैताद्वैत, आर्य समाज का त्रैतवाद और फिर टानाभगत ने सम्प्रदाय का रूप धारण कर लिया। वास्तव में टाना भगत (जतरा उरांव) ने भगवान विरसा मुंडा की विरासत सम्हालते हुए ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने का धार्मिक समुदाय खड़ा कर दिया जिसे हम टानाभगत के रूप में जानते हैं। जिस प्रकार ऊपर वर्णित आंदोलन आज सम्प्रदाय के रूप में दिखाई देते हैं ठीक उसी प्रकार आज झारखंड, छत्तीसगढ़ के वनवासियों में टानाभगत सम्प्रदाय पाया जाता है। यदि हम यह कहें कि जतरा उरांव ने यह सारी प्रेरणा शंकराचार्य से लेकर विरसा मुंडा तक से प्रेरणा लिया या अपने तरीके से उन्हीं के आंदोलन को आगे बढ़ाया तो अतिशयोक्ति नहीं होगा।

धार्मिक आंदोलन

विरसा मुंडा के बलिदान होने के 13 वर्षों के पश्चात 'जतरा उरांव' ने पुनः यह धार्मिक अनुष्ठान शुरू किया जिसका राजनैतिक लक्ष्य था। उनका चाहना था वनवासियों को संगठित कर उनके सात्विक जीवन शैली को बढ़ावा देना, सामाजिक बुराइयों को समाप्त कर ब्रिटिश शासन का विरोध उससे मुक्ति पाना। अंग्रेजों ने बाहर से लाकर कुछ लोगों को जंगलों में बसाया क्योंकि वे भली भांति जानते थे कि इन वनवासियों ने घर छोड़ना स्वीकार किया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा और जंगल में रहना स्वीकार किया, इसलिए ब्रिटिशों ने इनके अंदर बुराई पैदा हो यह प्रयत्न किया जैसे शराब बनाने के लिए बाहर से लोगों को ला बसाया गया धीरे-धीरे इनके अंदर यह बुराई घर कर गई। शराब के साथ-साथ अन्य बुराई जैसे मांसाहार, धार्मिक गिरावट, नैतिक पतन इन सभी बुराईयों के बिना अंग्रेज अधिकारी यहाँ टिक नहीं सकते थे यह सब प्रयास कर वनवासियों को दिग्भ्रमित करने का काम किया। यह बुराई और अनैतिकता तो बिना धार्मिक आंदोलन के समाप्त नहीं किया जा सकता था, इसलिए जतरा उरांव ने ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए इस आंदोलन को शुरू किया। 1914 तक इस आंदोलन में 26 हजार लोग जुड़ गए थे इसे देख अंग्रेजी हुकूमत घबड़ा गई। 

जतरा उरांव-टानाभगत के रूप में

जतरा उरांव (टानाभगत) वनवासियों के उरांव समाज के थे इनका जन्म झारखंड के गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड के चिंगरी ''नयाटोली'' में पिता 'कोदल उरांव' माता 'लिबरी' के कोख से "2 अक्टूबर 1888" को हुआ था। जतरा उरांव ने अपने आंदोलन में उन आदर्शों, मानदंडों के आधार पर वनवासीय पंथ को सुनिश्चित आकर प्रदान किया। जिस प्रकार विरसा मुंडा ने संघर्ष के दौरान शान्तिमय, अहिंसक तरीका विकसित करने का प्रयास किया जतरा उरांव ने भी उसे अपना अमोघास्त्र बना लिया। विरसा आंदोलन के तहत झारखंड में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक ऐसा संघर्ष स्वरूप विकसित किया जिसे क्षेत्रीय स्वरूप में बांधा नहीं जा सकता। यह 1900 में विरसा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' से प्रेरित औपनिवेशिक सामंत बिरोधी धार्मिक सुधार आंदोलन था, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गांधी जी का अहिंसात्मक आंदोलन टानाभगत जनजातियों से प्रेरित था जो जिसे आज भी देखा जा सकता है।

और अंत में करो या मरो 

टानाभगत आंदोलन ने संगठन का मूल ढांचा और रणनीति क्षेत्रीयता से मुक्त रहकर ऐसा आकर ग्रहण किया कि वह आज़ादी के आंदोलन का अविभाज्य अंग बन गया। जतरा उरांव की मृत्यु उनके अपने गांव चिंगरी नवाटोली जिला गुमला में हुआ। टाना भगतों की 1913 से 1942 तक जप्त की गई भूमि वापस दिलाने का कानून बना प्रावधान किया गया, ब्रिटिश सरकार के अत्याचार के खिलाफ मालगुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टेक्स नहीं देंगे ऐसे आंदोलन का आह्वान किया। और अंत में उन्होंने हथियार उठाया करो या मरो का नारा दिया, उन्हें विरसा मुंडा का बलिदान याद था वे जानते कि अंग्रेज आसानी से मानने वाले नहीं हैं विरसा मुंडा के साथ क्या किया था उन्हें ध्यान था इसलिये वे कोई चूक नहीं करना चाहते थे।1914 में टाना भगतों के आंदोलन से घबराकर ब्रिटिश शासन ने जतरा उरांव अर्थात टानाभगत को गिरफ्तार कर लिया। उनकी मृत्यु 1916 में अपने गांव चिंगरी विशुनपुर गुमला में हो गई, आज भी टानाभगत को जनजातीय समुदाय में भगवान विरसा मुंडा के समान पूजा जाता है। और उनका यह आंदोलन जो धार्मिक होते हुए जिसने देश आजादी के राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए था वह हमेशा हम भारतीयों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा।

और वे रामानुज, रामानंद, दयानंद के समकक्ष खड़े दिखाई दिए 

और जतरा उरांव खड़े हो गए स्वामी रामानुजाचार्य के बगल और वे खड़े दिखाई दिए स्वामी रामानंद की तरह फिर वे ऋषि दयानन्द और स्वामी विवेकानंद की तरह भारतीय संस्कृति स्वतंत्रता के लिए सारा जीवन संघर्ष किया जिस प्रकार रामानुजाचार्य, रामानंद स्वामी ने धार्मिक संघर्ष के द्वारा सामाज और देश हित में काम किया और फिर वही तंत्र एक संप्रदाय के रूप में आज हमे दिखाई देता है। ऋषि दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज की स्थापना कर देश में क्रान्तिकारियों की नर्सरी ही खड़ी कर दिया उसी प्रकार जतरा उरांव ने धार्मिक आंदोलन राष्ट्र स्वतंत्रता समाज संरक्षण के लिए शुरू किया और वे अमर हो गए।


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