स्वराज्य और स्वधर्म

 

स्वधर्म और स्वधर्म  --

स्वधर्म एवं स्वराज्य -- इन दोनों देवताओं का अधिष्ठान रखकर सन 1857 में प्रारम्भ हुए इस रण युद्ध का संकल्प कब लिया गया? अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार इस रण युद्ध का संकल्प डलहौजी के कार्यकाल में लिया गया। उनकी यह धारणा भ्रमपूर्ण है। जिस छण हिंदुस्तान के तट पर प्रतंत्रता ने पहला कदम रखा तभी। बेचारा डलहौजी! उसने अधिक बुरा किया ही क्या? हिंदुस्तान की जन्मजात स्वतंत्रता का हरण कर उसके बदले गुलामी और स्वधर्म के स्थान पर ईसाइयत लादने का पातकी विचार जब पहले पहल अंग्रेज ब्यापारियों के मन में आया, तभी से हिन्दु भूमि के ह्रदय में क्रांति चेतना का संचार हुआ है। सन 1857 के क्रांति युद्ध के कारण अंग्रेजो के अच्छे बुरे शासन का प्रश्न गौड़ है, मुख्य प्रश्न विधर्मी शासन का है। जिस देश को हिमालय ने उत्तर और समुद्र देवता ने दक्षिण की ओर से सुरक्षित किया हुआ है उस निसर्गत: बलिष्ठ एवं निसर्गप्रिय हिंदुस्तान पर अंग्रेजो की सत्ता चलने देना है या नहीं यह मुख्य प्रश्न सन 1857 के समर पट पर हल किया जा रहा था, यदि यह सत्य है तो फिर इस समर की मूल उत्पत्ति तभी ही हुई होगी जब यह प्रश्न पहले पहल सामने आया होगा।

स्वराज्य और --

      धर्म हेतु मरें, मरते हुए सारे को मारें,

       मारते -मारते जीतें,    राज्य अपना। ....... समर्थ गुरु स्वामी रामदास 

प्रत्येक क्रांति की नींव में कोई न कोई तत्व होना चाहिए, --- इटली के प्रख्यात दार्शनिक और देशभक्त "मैजिनी" ने फ्रांसीसी राज्य क्रांति की एक पुस्तक पर टिका करते हुए कहा है। क्रांति मनुष्य जीवन की उठा पटक होती है। जिसके लिए लाखों जूझते हैं, राजसिंहासन जिस कारण डगमगाते हैं, स्थापित मुकुट लुढ़कते हैं, अजन्मे मुकुट सिर चढ़ते हैं, स्थापित मूर्ति भंग होकर नई मूर्ति की स्थापना भी जिसके कारण होती है और प्रचंड समूह को लगने लगता है कि इसके आगे रक्त बहाना तो कुछ भी नहीं, ऐसे किसी विक्षोभक तत्व के सिवाय किसी अन्य क्षुद्र व क्षणिक नीव पर क्रांति के भव्य भवन का निर्माण असंभव है। परंतु हिंदुस्तान में सन 1857  में घटित प्रचण्ड क्रांति का इतिहास उपरोक्त शास्त्रीय पद्धति से किसी भी स्वदेशी अथवा विदेशी ग्रन्थकार ने नही लिखा। कुछ अंग्रेज लेखकों ने उसका वर्णन करने के सिवाय कुछ भी प्रयास नहीं किया। अधिकतर लेखकों द्वारा दुष्टतापूर्ण बुद्धि से प्रयास और पक्षपात पूर्वक किये जाने के कारण उनकी दूषित बुद्धि को उस क्रांतियुद्ध के मूल तत्व दिखाई नहीं दिए अथवा अनदेखी किया।

जनता की स्वराज्य के प्रति निष्ठा 

1857 जैसी प्रचंड क्रांति ऐसे करणों से उत्पन्न होगी, यह कहने वाले मंद अथवा कुटिल बुद्धि के लोगों को क्रांति एक अविवेकी मूर्खों का समाज लगता है, लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यदि 1857 की क्रांति मुख्यतः करतूसों के कारण ही प्रदीप्त हुई तो इसमें नाना साहेब पेसवा, दिल्ली का बादशाह, झांसी की रानी या वीर कुंवर सिंह कैसे सम्लित हुए ? 1857 की क्रांति पर लिखा गया एक लेख किसी हिन्दू ने उसी समय इंग्लैंड मे प्रकाशित कराया था उसमें वह हिंदू कहता है --- "जिन्होंने अवध के नबाब को जन्म से कभी नहीं देखा था और न आगे कभी देखने की सम्भवना थी, ऐसे कितने ही सरल और दयालु लोग अपनी अपनी झोपड़ियों में नबाब पर आ पड़े दुःखो को कहते जोर -जोर रोते थे, इसकी कल्पना आपको नहीं है। और ऐसे आँसू बह जाने के बाद, जैसे स्वयं पर ही क्रूर प्रहार हो रहा हो, ऐसा मानकर वाज़िद अलीशाह के अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा कितने सिपाही प्रतिदिन कर रहे थे, यह आपको ज्ञात नहीं...।"

स्वका आह्वान धर्म 

वे कौन से तत्व थे? हज़ारों शूर वीरों की तलवारों को उनकी म्यानों से खींचकर रणक्षेत्र में चमचामाने वाले वे तत्व कौन से थे? निस्तेज हुए मुकुटों को सतेज करने वाले और टूटे पड़े ध्वजों को फिर से खड़ा करने वाले वे तत्व कौन से थे? जिनपर हज़ारों ब्यक्तियों ने अपने उष्ण रक्त का अभिषेक करना वर्षानुवर्ष अखंड चालू रखा है, ऐसे तत्व कौन थे ? ब्राह्मण जिन्हे विजयी भव : कहकर आशीर्वाद देते थे, काशी, मथुरा, अयोध्या, कांची, बालाजी तिरुपति इत्यादि मंदिरों से जिनकी यश प्राप्ति के लिए परमेश्वर की ओर दिव्य प्रार्थनाएं भेजी जाती थीं। जिनकी सहायता के लिए स्वयं श्री हनुमान जी कानपुर के रण मैदान मे हुंकार भरी और जिनके लिए झांसी की महालक्ष्मी ने शुम्भ निशुम्भ के रक्त से भीगी अपनी पुराण प्रसिद्ध तलवार फिर से चलाई, ऐसे वे तत्व कौन से थे?

प्रेरणा श्रोत 

1857 की क्रांति का प्रथम कारण, जो दिव्य तत्व थे वे थे स्वधर्म व स्वराज्य। अपने प्राणप्रिय धर्म पर भयंकर, विघातक एवं कपतपूर्ण हमला हुआ है, यह यथार्थ दिखते ही स्वधर्म रक्षार्थ जो स्वधर्म की गर्जना शुरू हुई उस गर्जना मे अपनी प्रकृतिदत्त स्वतंत्रता छीने जाने पर और अपने पैरों में पड़ी राजनैतिक गुलामी की जंजीर देखते ही स्वराज्य प्राप्त करने की पवित्र इच्छा उत्पन्न होने के कारण इस दास श्रृंखला पर जो आघात किये गए उन्ही में इस क्रांतियुद्ध की जड़े हैं। स्वराज्य के लिए हिंदुस्तान ने कौन सा प्रयास नहीं किया और स्वधर्म के लिए हिंदुस्तान ने कौन सी दिव्यता अंगीकार नहीं किया। " सूरा सो पचाजिये जो लढ़े दीन के हेतु। पूरजा -पुरजा कट मरे तबहु न छोड़े खेत।"  ( गुरू गोविन्द सिंह )

दिल्ली और अयोध्या 

स्वदेश रक्षा, स्वराज्य संस्थापन एवं स्वधर्म परित्राण के लिए दिल्ली के सिंहासन से प्रार्थना इस स्पष्ट दिव्य एवं सफुर्तीजनक मंत्र में ही सन 1857 के क्रांति का बीज है। बरेली में मुद्रित कर प्रकाशित किये हुए, अयोध्या के नबाब द्वारा निकाले गए दूसरे आज्ञा पत्र में वे कहते हैं --- "हिंदुस्तान के सारे हिन्दुओं और मुसलमानो उठो! स्वदेश बन्धुओं, परमेश्वर की दी हुई सौगात में सबसे श्रेष्ठ सौगात स्वराज्य ही है। यह ईश्वरीय सौगात जिसने हमसे छल से छीन ली है उस अत्याचारी राक्षस को वह बहुत दिन पचेगी क्या? यह ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध किया गया कृत्य क्या जय प्राप्त करेगी ? नहीं नहीं। अंग्रेजो ने इतने जुल्म ढाये हैं कि इनके पाप के घड़े पहले ही लबालब भरे हुए हैं। "स्वधर्म के बिना स्वराज्य तुच्छ है और स्वराज्य के बिना स्वधर्म बलहीन है।"

एक ब्रिटिश इतिहासकार की तिलमिलाहट 

एक ब्रिटिश इतिहास लेखक 'व्हाइट' अपने पुस्तक के शीर्षक में लिखते हैं -- "यदि मैं अवधवासियों द्वारा प्रदर्शित साहस की प्रशंसा नहीं करूँगा तो एक इतिहासकार का पावन दायित्व न निभा पाउँगा। नैतिक दृष्टि से अवध के तालुकेदारों की एक महान भूल यह थी की उन्होंने हत्यारे विद्रोहियों से हाथ मिलाया। किंतु इसके लिए भी उन्हें सदउद्देश्य से प्रेरित निष्ठावान देशभक्तों के रूप में मान्यता दी जा सकती है, क्योंकि वे अपनी मातृभूमि और सम्राट के लिए संग्राम कर रहे थे। स्वराज्य और स्वधर्म के लिए संघर्षरत हुए थे।"

समर्थ स्वामी रामदास 

---ईश्वर की आज्ञा है कि स्वराज्य प्राप्त करो, क्योंकि स्वधर्म का रक्षण का वह मूल साधन है। जो स्वराज्य प्राप्त नहीं करता, जो गुलामी में तटस्थ रहता है वह अधर्मी एवं धर्मद्रोही है। इसलिए स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो। 

"स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो "--- इस तत्व ने हिंदुस्तान के इतिहास में कितने दैवीय चमत्कार किए हैं ? श्रीसमर्थ गुरू रामदास ने महाराष्ट्र को ढाई सौ वर्ष पहले यही दीक्षा दी थी-------

      "धर्मसाठी मरावे, मरोनि अवध्यानसी मारावे। मारिता मारिता ध्यावे, राज्य आपुलें।"

       धर्म हेतु मरे, मरते हुए सारों को मारें, मारते -मारते जीतें, राज्य अपना।

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