रामानुजाचार्य जिन्होंने नरक को भी स्वीकार किया

 


रामानुजाचार्य

भारतीय संस्कृति में संत परंपरा भारतीय समाज को हमेशा सचेत सजग और चैतन्य करते रहने की परंपरा का नाम है। हमारे संत ऋषि मुनि केवल आध्यात्मिक ऊँचाई तक सीमित नहीं थे बल्कि उनका मानना था कि बिना स्वराज्य के स्वधर्म का पालन सम्भव नहीं हो सकता। वैदिक काल से लेकर आज तक संतों ने इस परंपरा को जीवंत बना रखा हुआ है। जहां वैदिक ऋषियों ऋषि अगस्त, विश्वामित्र, जमदग्नि इसके उदाहरण हैं, वहीं मध्य काल में आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, रामानंद स्वामी तथा ब्रिटिश काल में ऋषि दयानंद, विवेकानंद, स्वामी श्रद्धानंद तथा स्वामी रामतीर्थ और बर्तमान में स्वामी रामदेव, परमात्मानंद सरस्वती, गोविन्द देव गिरि तथा अवधेशानंद गिरि ने इस परंपरा को बनाए रखा है। 

सुदूर दक्षिण में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम था रामानुज, आगे चलकर यही बालक आचार्य रामानुज और फिर आदि जगद्गुरु रामानुजाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

रामानुजाचार्य का जन्म व लग्न

मद्रास से कोई तीस मील दक्षिण-पश्चिम श्री पेरंबदुर नाम का एक ग्राम है। संस्कृत में इसे महाभूत पूरी कहते हैं, ग्रामवासियों में ब्राह्मणों की संख्या अधिक है। गांव के भीतर सुंदर और विशाल विष्णु मंदिर भी है उसमें केवल त्रिलोकभर्ता विष्णु श्रीआदि केशव पेरूमल नाम धारणकर विराजमान हैं और सबके प्रति उनकी समभाव से कृपादृष्टि है। इसमें भाष्यकार श्री मत रामानुजाचार्य हाथ जोड़े सेवकराज के आसन पर बैठे हैं। श्री पेरमबदुर निवासी केशवाचार्य ने कान्तिमती संग पाणिग्रहण किया, यज्ञनिष्ठ होने के कारण पंडितों ने उन्हें "सर्वक्रतु" की उपाधि दिया। केशवाचार्य को एक रात्रि को स्वप्न आया जिसमें उन्हें ऐसा लगा कि भगवान कह रहे हैं कि हे सर्वकृतो मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूं, तुम चिंतित नहीं होनातुम्हारे यहां यशस्वी पुत्र होगा जो वसुधा के लिए कल्याणकारी होगा। इस घटना के पश्चात भाग्यशालिनी कान्तिमती ने सर्व सुलक्षण सम्पन्न एक पुत्र को जन्म दिया। कलि संबत 4118, शकाब्द 939, ईसवी सन 1017 के अद्रा नक्षत्र में चैत्र मास के द्वादस दिवस, शुक्ल पंचमी तिथि को हरित गोत्रीय श्री रामानुज बालसूर्य के समान अंधकार को अपसारित करते हुए हुए सर्व लोगों के समक्ष उदित हुए। 

कांचीपुर की राजकुमारी और ब्रम्हराक्षस

एक बार कांचीपुर की राजकुमारी ब्रम्हराक्षस ग्रस्त हो गई राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाया, परंतु कोई भी राजकुमारी को स्वस्थ कर पाने में समर्थ नहीं हो सका। बाद में वेदांताचार्य यादवप्रकाश को बड़े मान सम्मान के साथ लाया गया, यादव को देखते ही राजकुमारी अट्टहास करने लगी और कहा, "अरे यादव यहां तुम्हारे मंत्र आदि से कुछ नहीं होने वाला है"। ब्रम्हराक्षस ने फिर उनसे कहा, "बेकार क्यों तकलीफ पा रहे हो? तुम मुझसे दुर्बल हो, अतः किसी प्रकार से तुम मुझे हटा नहीं पाओगे। यदि तुम मुझे इस कोमलांगी राजकुमारी के शरीर से हटाना चाहते हो तो अपने सर्वाधिक अल्पवयस्क आजानुबाहु विशाल नेत्र, यौवन उद्यान के सर्वोत्तम पुरूष श्रीमान रामानुज को यहां ले आओ। यादव के आदेश पर तुरंत रामानुज वहां लाये गए। रामानुज ने राजकुमारी के सिर पर अपने दोनों चरण स्थापित किया और कहा, अब तुम राजपुत्री को छोड़ दो और अपने चले जाने का कोई प्रमाण दिखाते जाओ। ब्रम्हराक्षस बोला मैंने इसे छोड़ दिया है, प्रमाण के रूप में मैं समीपवर्ती पेड़ की एक शाखा तोड़ते हुए जाऊँगा। देखते ही देखते एक ऊँची डाल टूट कर गिर गई। कन्या के स्वस्थ हो जाने पर कांचीनरेश द्रुतवेग से वहां आये रामानुज का चरण वंदन किया, उसी दिन से श्रीरामानुज का नाम पूरे चोल राज्य में विख्यात हो गया।

श्री कांचीपुर्ण का प्रादुर्भाव

श्री रामानुज अपने घर पर शास्त्रों के अध्ययन में रत थे उसी समय श्री कांचिपूर्ण वहां आ पहुंचे, कांचिपूर्ण का मुखमंडल देखकर रामानुज के खुशी की कोई सीमा नहीं रही। उठकर उन्हें बैठने का आसन देते हुए कहा, मेरे भाग्य से आज आपका आगमन हुआ है। आप मेरे गुरू हैं, कृपा करके मुझे अपने शिष्यरूप में स्वीकार करिये। यह सुनकर कांचिपूर्ण बोले, "वत्स रामानुज मैं शूद्र तथा अज्ञानी हूँ और तुम सद्ब्रह्माड तथा महापंडित हो अतः तुम्हारा ऐसा कहना उचित नहीं है। मैं वयोवृद्ध तुम ज्ञानबुद्ध हो मैं तुम्हारा दास हूँ, तुम्हीं मेरे गुरू हो।" रामानुज वेदों के ज्ञाता हैं उन्होंने गीता जी के श्लोक का वर्णन किया, "चातुर्वर्ण्य मयासृष्टा गुण कर्म विभागशः" सनातन धर्म में कोई छूत अछूत नहीं कोई बड़ा छोटा नहीं है सभी अपने कर्मों से अलग अलग वर्ण व्यवस्था में जाते रहते हैं।और ऐसा विचार कर रामानुज बोले,  "महाशय आप ही यथार्थ पंडित हैं।"

अंतिम समय यामुनाचार्य ने रामानुज को याद किया

यामुनाचार्य परलोक गमन की तैयारी में है लेकिन काम पूरा नहीं हो सका अब क्या करना ? जब वे नारायण के नित्यधाम पधारने लगे। आचार्य श्रीरंगम पहुंचे इसके पूर्व ही उनका महाप्रस्थान हो गया। आचार्य ने देखा, अलम्बरदार के हाथों की तीन उंगलियां मुड़ी हुई हैं। उन्होंने संकेत समझ लिया और नम्रतापूर्वक कहा कि 'मैं ब्रम्हासूत्र, विष्णुसहस्रनाम और दिव्यप्रबंधम की टीका अवश्य लिखूंगा यह आवाज आते ही महापुरुष की तीनों उंगलियां सीधी हो गई।

जब गुरु से दीक्षा ली

आचार्य रामानुज ने श्रीयतिराज से सन्यास की दीक्षा ली तिरुकोटटीयूर के महात्मा नाम्बिने इन्हें अष्टाक्षर (ॐ नमो नारायणाय) मंत्र की दीक्षा दी। गुरू ने आदेश दिया कि यह परम गोप्य नारायण मंत्र है अनाधिकारी को इस मंत्र का श्रावण नहीं करना चाहिए। इसके श्रमण मात्र से अधम प्राणी भी बैकुंठ के अधिकारी हो जाते हैं। रामानुज को लगा कि सामान्य लोगों को भी यह बैकुण्ठ जाने का अधिकार होना चाहिए और जोर जोर से चिल्लाने लगे आओ सब लोग सुनो बैकुंठ का मार्ग मिल गया है, आचार्य मंदिर के शिखर पर खड़े होकर जोर से चिल्लाये इस मंत्र के सुनने मात्र से ही प्राणी वैकुंठ का अधिकारी हो जाता है। आचार्य मंदिर के शिखर पर खड़े होकर भीड़ का आह्वान करके घोषणा कर रहे थे। तभी जोर से आवाज आई रामानुज तुम यह क्या कर रहे हो ? मेरी आज्ञा के उलंघन का फल जानते हो! गुरुदेव बहुत अप्रसन्न हुए इस प्रकार कहीं मंत्र की घोषणा की जाती है! गुरुदेव आपकी आज्ञा भंग करके मैं नरक में जाऊँगा, यही तो ? बेचारे इतने प्राणी हरिधाम को जाएंगे, मैं अकेला ही नरक की यातना भोगूँगा। 'आचार्य तो सचमुच तुम्हीं हो, गुरुदेव ने अपने प्रिय शिष्य को गले से लगा लिया।

बिना स्वराज्य के स्वधर्म नहीं

रामानुजाचार्य का प्रभाव बढ़ने लगा था उन्होंने आदि शंकराचार्य का ठीक से अध्ययन किया था। जब भारत में कापुरुषता बढ़ रही थी, राष्ट्रवाद का लोप हो रहा था, वेद विरुद्ध षड्यंत्र चल रहे थे, सनातन धर्म, हिंदू संस्कृति को समाप्त करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा था ठीक उसी समय एक आचार्य का प्रादुर्भाव हुआ जिसका नाम था शंकर जिसे हम आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम से जानते हैं। भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है जिसे सम्राट अशोक के कारण जानते हैं, अशोक हीन भावना से ग्रसित था उसने अपने सौ भाइयों की हत्याकर राजसिंहासन प्राप्त किया था। अति कामुक लेकिन कुरूप था उसके पांच सौ पत्नियां थीं कोई भी अशोक को पसंद नहीं करती थी इस कारण उसने इन सभी को आग के हवाले कर दिया। अपने पुत्र कुणाल की आँख निकलवा ली। सारे तीर्थ ऐतिहासिक स्थल सभी को नष्ट कर दिया। शकराचार्य के अनुगामी सेनानी पुष्यमित्र शुंग और सम्राट विक्रमादित्य ने वेदों, उपनिषदों, रामायण और महाभारत तथा अयोध्या, मथुरा, काशी कांची इत्यादि को पुनर्प्रतिष्ठित किया। 

और फिर दिग्विजय

रामानुज स्वामीजी ने इन सबका गहराईयों से अध्ययन किया और सम्पूर्ण भारत वर्ष के राजाओं - महाराजाओं, तीर्थों, ऐतिहासिक महत्व के स्थालों सभी जगह भ्रमण किया, अध्ययन किया और धर्म को समाज जागरण का आधार बनाया। वास्तविकता यह है कि रामानुजाचार्य ने कोई सम्प्रदाय नहीं चलाया बल्कि स्वराज्य के लिए धर्म को आधार बनाया जिससे स्वराज्य जब अपना होगा तो धर्म अपने-आप सुरक्षित होगा। स्वामी रामानुजाचार्य ने संपूर्ण भारत को ११०भागों में बाटकर अध्यात्मिक रचना खड़ी किया। वे भविष्य दृष्टा थे उस समय चक्रवर्ती, अश्वमेध यज्ञ की परंपरा लगभग समाप्त हो गई थी स्वामी जी ने अखंड भारत के लिए विभिन्न प्रकार की रचना समाज को जोड़ना जैसे -- उन्होंने तिब्बत नेपाल सीमा पर स्थित मुक्तिनाथ की यात्र किया। आज भी नारायणी नदी के किनारे किनारे रामानुज परंपरा के लोगों यात्रियों के ठहरने इत्यादि की व्यवस्था करते हैं। एक प्रकार से रामानुजाचार्य ने नारायणी नदी व मुक्तिनाथ और हरिहरनाथ को तीर्थ स्वरूप विकसित कर नेपाल और भारत को एक रिश्ते में बांध कर संवंध बना दिया है।केवल चोल साम्राज्य ही नहीं तो भारतवर्ष के सभी राजाओं, सम्राटों के स्वत्व को जगाया। सभी को पता है कि इस्लामी विस्तारवादी, कट्टरपंथी उस समय तेज गति से बढ़ रहे थे रामानुजाचार्य ने सभी राजाओं को संगठित कर इस्लामी ताक़तों को परास्त कर रोक दिया। वे ''एक सौ बीस वर्ष'' लम्बी आयु पाकर देश और धर्म की सेवा में लगा दिया, भविष्य में इसी परंपरा को उनके अनुयायियों ने एक सम्प्रदाय का स्वरूप प्रदान कर अपने काम को आगे बढ़ाते रहे। आचार्य रामनुज ने चोल साम्राज्य, मैसूर, उत्तर में दिल्ली इत्यादि स्थानों पर मंदिर बनाकर अपने क्रांतिकारी आंदोलन को स्थापित करने का काम किया। इस परंपरा को उनके अनुयायियों ने विशिष्टाद्वैत नाम दिया वे धार्मिक एकता के पक्षधर थे इसलिए उन्होंने शास्त्रार्थ कर अपने मत की सार्थकता को सिद्ध किया।


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