1857 स्वतंत्रता संग्राम के सेनापति श्रीमंत नाना साहब पेशवा

नाना का जन्म 

 भारतीय वांगमय में कुछ महापुरुष स्वराज्य के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले होते हैं उनमे से एक थे श्रीमंत नाना साहब पेशवा जिसके साथ इतिहास ने बड़ा अन्याय किया है।  महाराष्ट्र की पुण्यभूमि में एक छोटा सा गांव वेणुग्राम में जो कुलीन एवं सदाचारी परिवार थे उनमें माधवराव का परिवार मुख्य रूप से गिना जा सकता था। माधवराव और उनकी भार्या गंगाबाई गृह दरिद्रता से पीड़ित परस्पर प्रेम के सुख में स्वयं को भाग्यवन समझाता था। उस पवित्र परिवार के उस छोटे से घर में 1824 में सबके मन और बदन उस समय उल्लास से खिल उठा जब साध्वी गंगाबाई ने पुत्र को जन्म दिया। वह सुपुत्र कोई और नहीं बल्कि श्रीमंत नाना साहब पेशवा ही थे जिनके नाम से अत्याचारी राजाओ की देह थर थराने लगती थी और जिन्होंने स्वराज्य और स्वधर्म के लिए मर मिटने वालों में अपना नाम अमर कर लिया।

जब गोंद लिए गए 

सारे दरबार में नाना साहब पेसवा छोटे बड़े सबके आनंद के विषय बन गए थे, उनके बाल तेज को देखकर रावबाजी इतने चकित हो गए कि माधवराव उनके सगोत्री हैं यह ज्ञात होते ही उन्होंने नाना साहब को  7 जून, 1827 को दत्तक पुत्र ग्रहण कर लिया। उस समय नाना साहब की आयु केवल ढाई वर्ष की थी इस तरह वेणुग्राम में जन्मा यह बालक अपने पूर्व संचित पुण्य के कारण महाराष्ट्र राज्य के अधिपति की गद्दी का उत्तराधिकारी हो गया। पेशवा की गद्दी का उत्तराधिकारी होना महाभाग्य की बात है, परन्तु हे तेजस्वी राजकुमार ! उस भाग्य के साथ ही आने वाला उत्तरदायित्व भी स्मरण है कि नहीं? पेशवाओं की गद्दी प्राप्त करना कोई सामान्य बात नहीं। गद्दी का उत्तराधिकारी होने का अर्थ होता है उसके संरक्षण और सम्मान की रक्षा करना। मरना हो तो मारते- मारते मरो। बालाजी विश्वनाथ जिस गद्दी का पहला पेशवा था उस गद्दी का अंतिम पेशवा श्रीमंत नाना साहब पेशवा था। यह अभिमान पूर्वक इतिहास को कहा जा सके, इसलिये हे राजतेजयुक्त बालक, तू महाराष्ट्र की पेशवाई गद्दी पर चिरकाल तक विराजमान हो।

प्रशिक्षण 

आगे चलकर अपने स्वधर्म एवं स्वराज्य के लिए तलवारे कैसे चलानी हैँ ? इसका प्रशिक्षण लेते हुए शास्त्रशाला में राजपुत्र नाना साहब एवं मनोहरिणी छबीली लक्ष्मीबाई को साथ साथ खेलते देखकर किन को हर्ष नहीं हुआ होगा? मनुष्य की शक्ति कितनी मर्यादित है! जिस समय राजपुत्र नाना साहब और छबीली तलवार का खेल एक साथ सीखते थे, उस समय लोगों को उन अद्वितीय बच्चों का भावी दिव्यत्वा नहीं दिखा और अब जब वह दिव्यत्व उन्हें दिखता है, तब उनकी वह भूतकालीन बाल लीलाये नहीं दिखतीं। लेकिन मनुष्य के चर्मचक्षु की वह अदूरदृष्टि दूर करने को यदि कल्पना का चश्मा मिले तो भूतकाल की  वह बाल लीला हम सहज़ ही देख सकेंगे। जिसकी गौर तनु उन्मात घोड़े को नियंत्रण में रखने के श्रम से गुलाबी हो गई हो ---- ऐसी छबीली अपने घोड़े पर साथ आते ही दोनों ही दौड़ते निकल जाते हैं। नाना की आयु लगभग अठारह और छबीली की सात वर्ष के आसपास थी, सातवे वर्ष से भावी धर्मयुद्ध के इन दो प्रमुख योद्धाओं की कवायत प्रारंभ हुई, यह कितनी मनोरम घटना है! इन दो मानवीय रत्नो का तब से एक दूसरे  पर बहुत प्रेम था। इन दोनों भाई -बहनों की यम द्वितीय के दिन भाईदूज  होती थी, सुन्दर सतेज मनोहारी छबीली हाथ में सोने का दीप लेकर उस तरुण राजकुमार की आरती उतारती थी।

पेशवाई के उत्तराधिकारी 

बाजीराव ने मृत्यु के पूर्व ही मृत्युपत्र लिखकर  श्रीमंत नाना साहब पेशवा को पेशवाई के सारे अधिकार और अपने वारिसदारी के सारे अधिकार सौंप दिए थे। परन्तु बाजीराव के मृत्यु का समाचार मिलते ही अंग्रेजी सरकार ने घोषित किया की नाना साहब को आठ लाख की पेंशन पर किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। अंग्रेज सरकार का यह निर्णय सुनकर नाना साहब को कैसा लगा होगा हम समझ सकते हैं! उनके ह्रदय में चल रही वेचैनी का कुछ प्रतिबिम्ब उनके द्वारा स्वयं लिखवाये गए पत्र से प्रतिबिम्बित हुआ है। वे पूछते हैं --- "हमारे बिख्यात राजवंश से आपका यह कृपण व्यवहार पूरी तरह से अन्यायपूर्ण है। हमारा विस्तृत राज्य और राज्य शासन जब आपको श्रीमंत बाजीराव से प्राप्त हुआ तब वह ऐसे समझौते पर प्राप्त हुआ कि आप उनके मूल्य के रूप में आठ लाख रूपये प्रति वर्ष दें। यह पेंशन यदि हमेशा रहने वाली नहीं है तो उस पेंशन के लिए दिया हुआ राज्य हमेशा आपके पास कैसे रह सकता है? उस समझौते की एक शर्त तोड़ी जाय और दूसरी बनी रहे यह अनुचित है। "एक सज्जन नाना साहब के बारे में लिखते हैं --- उनका स्वाभाव गंभीर और रहन -सहन बहुत सादा था, दुर्व्यसन उन्हें छू तक नहीं पाया था। आगे वे लिखते हैं, "मैंने जब उन्हें देखा, उस समय उनकी आयु 28वर्ष की रही होगी, पर वे चालीस के आस पास लग रहे थे। शरीर उनका स्थूल था चेहरा गोल आँखे उग्र, पानीदार और चंचल, कद काठी सामान्य, रंग गोरा और बातचीत विनोदी था। दरबार में वे किनखाबी पोशाक पहनकर बैठते थे।" 

नाना साहब की प्रतिभा 

राष्ट्र युद्ध में जिनकी देह के टुकड़े टुकड़े करना हैं उन्ही प्रति योगियों को अन्य अवसरों पर उपकृत करना, यह वीरता की उच्च कल्पना करना हिंदुस्तान के इतिहास में हर छण दृष्टिगोचर होती आई है। राजपूत वीर अपने कट्टर शत्रु से भी युद्ध अवसर को छोड़कर ऐसी ही उदारता से व्यवहार करते थे, श्रीमंत नाना जी अपनी उदारता के कारण उस समय के अंग्रेजो के बहुत सम्मानीय हो गए थे। परन्तु कानपुर के रण -मैदान में स्वराज्य के लिए और स्वधर्म के लिए उनके द्वारा तलवार उठाये जाते ही उनपर गालियों की बौछार  शुरू हो गयी। श्रीमंत एक विचार संपन्न ब्यक्ति थे। ऐसी स्थिति में श्रीमंत के लिए मन में श्रद्धा और आदर का भाव हिलोरें मारता है। और जिस वंश का बालाजी विश्वनाथ से उदगम हुआ है, उस रण विख्यात भट वंश के इस अंतिम पेशवा की वह गोरी और भव्य मूर्ति रत्नजड़ित मुकुट दमक रहा हो, कान्तिमान देह पर खिनकाबि पोशाक पहने बैठे हैं। कमर में तीन लाख की तलवार लटकी हुई है और स्वराज्य एवं स्वधर्म का प्रतिशोध लेने के लिए गुस्से की ज्वाला जिसकी देह से और पानीदार तलवार जिसकी म्यान से कूदने को तैयार हो, उस अंतिम पेशवा को प्रणाम करने के लिए मस्तक नत होने लगता है।

नाना के घर विशाल समारोह की तैयारी शुरू है तो उधर उनकी बहन छबीली भी शांति नहीं बैठी है उसके सामने भी न्याय और अन्याय का प्रश्न खड़ा है वहाँ भी उत्तराधिकार का अधिकार न देकर अंग्रेजो ने झांसी आधीग्रहित कर लिया। वहाँ तो नाना की छबीली बहन राज कर रही थी वह ऐसे अधिग्रहण की क्या परवाह ? झांसी की उस चपला ने कड़कड़ा हट की -- "मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।" जिसमे हिम्मत हो लेकर देखे!

स्वराज्य के लिए 

श्रीमंत नाना साहब के बाड़े में मेरठ के विस्फोट के समय जितने कार्यकर्ता इकठ्ठा थे उतने उस समय लखनऊ के राजमंदिर में, बरेली प्रान्त में अथवा दिल्ली के दीवान-ए -खास में भी मिलने कठिन थे। इस ब्राम्हवर्त महल मे 1857 की क्रांति का गर्भ संभव हुआ और वहीँ वह गर्भ विकसित हो रहा था। सन 1857 के मई मास मे वहाँ पर पहली, 53वीं एवं 56वीं पैदल सिपाहियों की पल्टन और घुड़सवार सिपाहियों की दूसरी पल्टन --ऐसे कोई तीन हजार सेना थी। 

कानपुर सेना की चंचलता से सर व्हीलर चौंका था फिर भी उसे इसकी तिल भर शंका नहीं हुई कि ब्राम्हवर्त का राजा अपने विरुद्ध है। जिसके मस्तक का मुकुट अभि क्षण भर पहले पैरों से कुचला है, एक क्षण पहले ही जिस नाना की पूछ जानबूझकर मसला हो, उसी नाना को अंग्रेजो ने अपनी सुरक्षा की विनती कर कानपुर बुलाया, नाना साहनशील हिन्दु है, वह मनमे द्वेष पालने वाला जहरीला नाग नहीं, ऐसा अंग्रेजो को लगता था तो कोई कदम गलत भी नहीं था। क्योंकि आज तक अंग्रेजो के पैरों तले कुचले, निर्जीव, निरुपद्रवी और नपुंसक केंचुवे क्या हिंदुस्तान में कम थे? उन्ही केंचुओ जैसा केंचुआ नाना भी होगा, इस भ्रम मे पड़कर ही सर व्हीलर ने ब्राम्हवर्त की बाम्बी में अपना हाथ डाला था। ब्रम्हांवर्त की बांबी में बैठे नाग को और क्या चाहिए था? उसने दो तोपे, तीन सौ निजी सिपाही, पैदल और घुड़सावारों के साथ  22 मई को कानपुर में प्रवेश किया। कानपुर मे अंग्रेजी सैनिक और असैनिक अधिकारियो की बहुत बड़ी बस्ती थी, उसी के बीचोबीच जाकर नाना ने अपना शिविर लगाया। अंग्रेज उन्हें लाखों रूपये का खजाना सौंप दें और इस तरह की सहायता देने के लिए धन्यवाद दें -- इसी का नाम है "मराठी दांव "  और ये सारी बाते उस प्रचंड विस्फोट के एक सप्ताह के पहले की है। स्वतंत्रता की अनिवार्य इक्षा - यही साध्य और उसके प्राप्ति हेतु युद्ध संग्राम यह साधन।

श्रीमंत नाना साहब को राजा चुना 

स्थान स्थान पर अंग्रेजों से संघर्ष करने मे ही भला था, उसमें भी कानपुर, पंजाब, कलकत्ता और दिल्ली प्रान्त के बीच की कड़ी होने से उसपर आघात कर अंग्रेजी यातायात को तोडना अति आवश्यक था। ये सारी बातें सिपाहियों को उनके सूबेदारों एवं नाना के मंत्रियों के समझाने पर कानपुर की ओर ही लौटना यही योजना सर्वसम्मति से बनी उन तीन हजार सिपाहियों ने श्रीमंत नाना साहब को अपना राजा चुना और उनके प्रत्यक्ष दर्शन की तीव्र इक्षा प्रकट किया। श्रीमंत को देखते ही उनके नाम से सब ओर जायघोष करने लगे और उन सभी ने उस स्वयं वृणीत महाराजा के भक्ति भाव से मुजरा किया। श्रेष्ठ का चयन होते ही नाना की सहमति से अपने लशकरी अधिकारी चुनने का काम शुरू हो गया।

सात जून को जब बिद्रोहियों की ओर से लगातार गोले वरसने लगे तब उस भयंकर परिस्थिति का कभी भी अनुभव न होने के कारण महिलाएं और बच्चे जोर -जोर से आक्रोश करते यहाँ वहाँ दौड़ने लगे। शारांश में यह कि कानपुर मे सात जून को जो एक हजार अंग्रेज जीवित थे उनमें से चार पुरुष और एक सौ पचीस स्त्री, बच्चे ही तीस जून को जीवित थे। उनमें से ये एक सौ पचीस स्त्री बच्चे नाना साहब की कैद मे थे और चार पुरुष अधमरे दुरविजय सिंह के दीवान खाने मे दवा दारू करवा रहे थे। 

फिरांगियों के प्रति भयंकर क्षोभ 

फिरांगियों के प्रति लोगों में कैसा भयंकर क्षोभ था यह दरसाने के लिए यहाँ एक कथा प्रस्तुत है, कैद खाने की दिवार पर से एक ब्राह्मण ने झांककर देखा कि आज तक जो स्त्रियां पालकी के सिवाय एक कदम भी उठाती नहीं थी वे स्वयं के कपड़े धो रही हैं। ब्राह्मण को उनपर दया आ गई और उसने पडोसी से पूछा -- "उनके कपड़े धोबी को क्यों नहीं दिए जाते ? " उस ब्राह्मण द्वारा बिना बात दिखाई गई इस मानवता के प्रति घृणा से उस पडोसी ने उस ब्राह्मण को एक चाटा मारा। कैद की कुछ स्त्रियों से आटा पिसवाया जाता था और उसके बदले उनको एक रोटी के आटा दिया जाता था। स्वयं जीवित रहने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं इसका पाठ उन्हें मिला।

विजयी महराज को तोपों का सम्मान 

28 जून को कानपुर के अंग्रेजी शासन के पूर्ण निर्मूल हो जाने के बाद कोई 5 बजे नाना साहब ने एक विशाल दरबार का आयोजन किया। उस राजदरबार में सम्मानार्थ उस समय उपस्थिति सारे लश्कर की परेड भी बुलाई गई। पैदल सेना पूरी छ: रेजिमेंट और घुड़सवारों की दो रेजिमेंट उस समारोह में उपस्थित थी। प्रथमत: दिल्ली बादशाह के नाम एक सौ एक तोपे दागी गई, बाद मे श्रीमंत नाना साहब की सवारी मैदान मे आयी, यह देखते ही सबने महराज की जय-जयकार की और इक्कीस तोपों की सलामी दी। कहते हैं कि यह सलामी इक्कीस दिनों चले युद्ध की इक्कीस तोपों की सलामी थी। उस सम्मान के लिए महराज ने उस विशाल सेना का आभार प्रटक कर बोले --- "आज की विजय आप सबकी विजय है इसलिए इसमें आप सबका भी सम्मान है..." बाद मे नाना के भतीजे राव साहब और बाला साहब प्रत्येक को 16-17 तोपों की सलामी दी गई। ब्रिगेडियर ज्वाला प्रसाद और सेनापति तात्या टोपे को भी ग्यारह ग्यारह तोपों का सम्मान मिला। इस तरह उस दिन के सूर्यनारायण को स्वतंत्रता समर में विजयी तोपों की आवाज सुनाकर सारी सेना को अपने शिविर मे भेज दिया गया।


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