महिदास का जन्म
भारतीय परंपरा में इतिहास लेखन की अद्भुत परंपरा रही है, पश्चिम के इतिहासकार यह कहते नहीं अघाते कि भारत में इतिहास लेखन की परंपरा नहीं थी। उन लोगों ने न तो हमारे ब्राह्मण ग्रंथो को पढ़ा न ही पुराणों अथवा अन्य साहित्यों को पढ़ा। ऋषि दयानंद सरस्वती इनका उत्तर देते हुए कहा कि हमारे ब्राह्मण ग्रन्थ ही हमारे इतिहास हैं। महिदास ने ब्राह्मण ग्रन्थ लिखकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया और इतिहास लेखन वेदों के पढ़ने की सरल प्रक्रिया भी दिया। महिदास के जन्म के बारे में कई मतभेद हैं लेकिन बहुतार्थ यह मानते हैं कि उनका जन्म चैत्र पूर्णिया के दिन हुआ था वे हरीत ऋषि वंश के मांडूक ऋषि के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम इतरा था। वे बचपन में चुपचाप रहते थे। और "ऊ नमो भगवते वासुदेवाय " का जाप किया करते थे, ये चार भाई थे। सभी भाई बड़े विद्वान थे पिता सभी भाइयों को बड़ा प्रेम करते थे लेकिन महिदास को उतना नहीं मानते थे। एक दिन इतरा यानी महिदास की माँ ने महिदास से कहा तुम अपने भाइयों जैसे योग्य नहीं हो इस कारण पिता तुम्हें सम्मान नहीं देते और मुझे भी अपमान झेलना पड़ता है अतः अब मेरी इक्षा जिन्दा रहने की नहीं है अब मै देह त्याग करुँगी। महिदास ने माँ को ज्ञान देकर मृत्यु से रोका। कहते हैं कि कालांतर में महिदास और उनकी माँ ने भगवान विष्णु काध्यान करते रहे, उन्हें भगवान विष्णु ने दर्शन दिया और फिर उन्हें विद्वान होने का आशीर्वाद मिला।
वर्ण में शूद्र
मांडूकी ऋषि की अनेक पत्नियां थी उनमे से एक "इतरा" थी जिसके पुत्र महिदास थे। इतरा यानी परित्यक्तता अथवा दूसरी इस कारण हो सकता है कि इतरा के साथ कुछ भेद हुआ हो कुछ का मत है कि वे वहिस्कृत जैसी रही होंगी। इस कारण कुछ विद्वानों का मानना है कि वे शूद्र थी और महिदास के नाम में दास लगा है यह इनके शूद्र होने का प्रमाण है। शायण ने एतरेय ब्राह्मण की अपने भाष्य भूमिका मेँ कथा का जो स्वरुप दिया है उसमें शूद्र ही नजर आता है। ऐसा लगता है माता का अपमान अथवा उपेक्षा से महिदास दुखी थे इसलिए उन्होंने अपना स्वाभिमान माता इतरा के साथ अपने नाम में एतरेय जोड़ लिया। और स्वयं को महिदास हरीत के अतिरिक्त महिदास एतरेय कहा ठीक उसी प्रकार जैसे वैदिक ऋषि मन्त्र दृष्टा दीर्घतमा ने अपने को अपनी ममता यानी मामतेय जोड़ लिया था। इतना सत्य है कि वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था थी न कि जाति व्यवस्था! इसी को भगवान श्री कृष्णा ने वेदों के सार गीता में कहते हैं-- "चतुर्वर्णम् महासृष्टा गुण कर्म विभागसः।" इसलिए इसका कोई महत्व नहीं है कि कौन किस वर्ण में पैदा हुआ महत्व है उसके गुणों का, यही वेदों का मूल सिद्धांत है।
माँ के नाम को प्रतिष्ठित किया
ऐसा लगता है कि पिता की उपेक्षा के शिकार थे और उससे दुखी भी माँ की उपेक्षा स्वीकार नहीं थी। महिदास का संकल्प और संघर्ष में माँ की सक्रिय भूमिका थी उसी तपस्या का परिणाम ब्राह्मणग्रन्थ लिखा जाना था। अब ध्यान में आता है कि महिदास ने अपने माँ के नाम से अपनी प्रसिद्धि क्यों की? यह सब मिलाकर जो चित्र सामने उभरता है संघर्षशील महाविद्वान महिदास येतरेया की बनती है। महिदास इतने महत्वकांक्षी थे की भारत के बाहर ईरान इत्यादि देशों में अपने विचारों के प्रचार के लिए गए। उन्होंने जो ग्रन्थ लिखा उसमें अपने माँ का नाम प्रथम दिया "येतरेय ब्राह्मण"। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि चौदह ब्राह्मणग्रंथो मेँ अकेला येतरेया ब्राह्मण ऐसा है जिसे उसके लेखक के नाम से प्रसिद्धि मिली इसके अतिरिक्त किसी को भी यह गौरव नहीं मिला।
अद्भुत ग्रन्थ
ऐतरेय ब्राह्मण में वह सब कुछ है जो दूसरे ब्राह्मणग्रंथों में है। भारतीय संस्कृति में वेदों के पश्चात् सर्वाधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मणग्रन्थ हैं जिसे हम महाभारत के समकालीन मान सकते हैं। उस समय एक ऐसा ग्रन्थ लिखा गया जो शायद अपनी शैली का पहला ग्रन्थ था जिसके लेखक महिदास शूद्र थे और शूद्र होने के वावजूद उनके इस महाग्रन्थ को न केवल उनका नाम मिला बल्कि सदियों से अनुकरण भी मिला। बल्कि यह कहना अधिक अच्छा रहेगा कि ऐतरेय ने जो ऐतिहासिक परंपरा डाली उसी परंपरा का अनुकरण बाद के सभी ब्राह्मणों में, शतपथ ब्राह्मण में भी अनुकरण किया गया है वही यज्ञ की व्याख्या, रहस्यपूर्ण भी और सामान्य तरीके से भी की गई है। और आध्यात्मिक भी! वही लौकिक संस्कृत में भी! महिदास शूद्र थे संघर्ष व तप के आधार पर उभरे इसलिए उन्होंने उन चरित्रों को निरुपित किया जो उपेक्षित थे। यह आश्चर्य नहीं कि महिदास ने कवष ऐलुष और उनके वंशज "तुर कावषेय" का वर्णन अपने इस महाग्रन्थ में किया है। शुनःशेप ब्राह्मण थे, "अजीतगर्त" ब्राह्मण के पुत्र। लेकिन जिस बेदर्दी से पिता ने पुत्र शुनःशेप को यज्ञ में बलि के लिए पेश किया, वह तमाम घटनाक्रम "शुनःशेप" को महिदास के संघर्ष प्रिय मानस का सहज़ ही नायक बना देता है।
सर्वाधिक महत्व का ब्राह्मण "ऐतरेय ब्राह्मण"
वेदों के बाद सनातन धर्म में सर्वाधिक महत्व ब्राह्मण ग्रंथों का है एक प्रकार से इन्हें वेद के सदृश्य ही नहीं तो वेद ही माना जाता है। यह बात अलग है कि हस्त लिखित पहला ग्रंथ मनुस्मृति है इसका अर्थ यह हुआ कि मनुस्मृति रामायण काल से पहले कम से कम नौ लाख वर्ष पुराना है। ब्राह्मण ग्रंथों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि वेदों को समझने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों द्वारा एक सरल प्रयत्न है। इसलिए सनातन धर्म में ब्राह्मण ग्रंथों को वेद के समदृष्य ही नहीं तो वेद ही माना गया है। और इसका सर्वाधिक श्रेय महिदास ऐतरेय को जाता है क्योंकि महिदास ने ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ लिखकर एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर ब्राह्मण ग्रंथों के प्रेरक वन गए। सभी वेदों के अपने अपने ब्राह्मण ग्रन्थ है लेकिन सर्वाधिक पुराना सर्वमान्य वेद ऋग्वेद है जिसका ब्राह्मण ग्रन्थ "ऐतरेय ब्राह्मण" है।
"भारतीय संस्कृति भी अद्भुत है अदुतीय भी है नित्य नूतन भी है चैतन्य भी है प्रत्येक को समाहित करने की क्षमता भी रखती है। यहाँ वर्ण और जाती को कोई महत्व नहीं है । हिन्दू संस्कृति, हिंदू धर्म में तो विद्वता को ही महत्व है देखिये न वैदिक ऋषि दीर्घतमा, कवष एलुष को ही देखिये ये मंत्रद्रष्टा होकर ब्राह्मण हो गए। आज उसी कड़ी में महिदास ऐतरेय भी अपने विद्वता के बल ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ लिखकर इन्ही वैदिक ऋषियों के सम कच्छ यानी उनकी श्रेणी में खड़े हो गए"।
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